जमाने की ठोकरें खाते हुये मैं एक समतल दर्पण बन गया हूं। ऐसा दर्पण जिससे बहुत पक्षपात की उम्मीद कोई नहीं करता। अपने हित में जुबां से न तो किसी का झूठा गुणगान करता हूं और ना ही निजी खुन्नस में उसकी बुराई करना चाहता हूं। यदि ऐसा करना चाहूं, तब भी नहीं कर सकता। अंदर से कोई आवाज आती रहती है , किसके लिये कर रहे हो यह सब.. तुम्हारा मेला तो कब का पीछे छूट चूका है बंधु..
सचमुच मैं बिल्कुल बंजारे की तरह से हूं , जहां शरण मिला वहीं रात कट जाएगी अपनी। इस छोटे से शहर में बड़े लोग भी मुझे अत्यधिक स्नेह और सम्मान देने लगे हैं। मंत्री , सांसद विधायक , उद्यमी से लेकर आम आदमी भी मुझ निठल्ले को पसंद करने लगा है । सोचा था कि घरवालों को कभी बताऊंगा कि मैं निकम्मा नहीं हूं, मैंने अपनी पहचान बना ली है। पर कदम ठिठक गये, जहां पैसा की पहचान हो , वहां जाना उचित नहीं समझा।
इधर, यह कलम है कि मानती ही नहीं, चल ही जाती है अपने ही शुभचिंतकों के भी विरुद्ध। कितना भी रोकना चाहता हूं, फिर भी जनता का दर्द , मेरी अपनी पीड़ा न जाने क्यूं बन जाती है। समझता हूं कि जो रहनुमा मेरे निजी दुख-दर्द में खड़े रहते हैं, उन्हें इससे तकलीफ होती होगी। फिर भी बड़ी बात यह है कि उन्होंने कभी फोन मेरी खबरों पर नाराजगी नहीं जताई। कितनों ने कान भरा भी है इनका कि क्यों सांप को दूध पिला रहे हैं ! तब भी अमूमन माननीय मेरे ही समर्थन में कह दिया करते हैं कि शशि भाई हैं ! उन्होंने कुछ डिमांड तो नहीं न किया आपसे या हमसे। जो दो मामले मुझपर दर्ज है, उससे तकलीफ जरुर है। पर सोचता हूं कि महात्मा गांधी को भी तो गोली किसी ने मार ही दी न, मैं तो एक मामूली कलमकार हूं..विश्वास कीजिए मैंने कलम से धन की चाह में किसी को ब्लैकमेल नहीं किया। ढाई दशक से यहां पत्रकारिता कर रहा हूं, कोई एक दिल पर हाथ रख कर बता दे कि जो भी खबरें अच्छी या बुरी मैंने लिखी, उसके बदलें अपने लिये कुछ मांगा ? आज भी उसी पुरानी साइकिल से ही चलता हूं। समाजवादी पार्टी के बड़े नेता यदि अन्यथा न लें तो एक बात कहूं ? यह जो समाजवाद है न वह हमारे ही जैसे पहरुओं के कारण ही , अब तक संजीवनी पाते आ रहा है, नहीं तो लग्जरी वाहनों में सफर करने वालों ने उस विचारधारा को कब का खा पचा लिया होता।
हां,चाहता तो मैं भी जेंंटल पत्रकार बन सकता था। अनेक अवसर मिले यहां, पर खुद से ही यह पूछ बैठा था कि किसके लिये ये सब करुं..
मां , बाबा और दादी के जाने से मेरी दुनिया बदल चुकी थी। दूर मुजफ्फरपुर में मौसी जी स्वयं संघर्ष के दौर से गुजर रही थीं। घर पर दादी का वह सूना कमरा जब तक मैं वहां था पीड़ा देता ही रहा। रोजाना ताऊ जी के घर जाना उचित नहीं लगता। सो, पेट की आग बढ़ने लगी तो काम की तलाश में भटकने लगा। याद है मुझे गांडीव प्रेस से जब मीरजापुर की और चला था ,तो देर शाम अखबार बांटते हुये यहां की सड़कों पर सफेद रंग के महंगे कोट पैंट और जूते में मेरी मनोदशा भी कुछ- कुछ सपने फिल्म के अदाकारा जैसी ही थी...
पले थे जो कल रंग में धूल में
हुये दर-ब-दर कारवां कैसे- कैसे
जमाने ने मारे जवां कैसे कैसे...
पर अब इन पच्चीस वर्षों मैं इतना तप गया हूं कि रास्ते का ठोकर बनने की जगह मील का पत्थर बन समाज के लिये कुछ करना चाहता हूं । देखें न मेरा यह " व्याकुल पथिक " वाला ब्लॉग लोग पसंद कर रहे हैं। दिन भर के भाग दौड़ के थकान के बावजूद कुछ समय मैं इसके लिये चुराया करता हूं।
प्रयास अपना यही है कि इसे और खुबसूरत बनाता जाऊं। इस गुलदस्ते का हर पुष्प जन उपयोगी हो। अभी तो दो माह का अबोध शिशु ही है हमारा ब्लॉग , जो आप सभी का दुलार पाने की चाहत रखता है।
(शशि)