Followers

Showing posts with label रुदन से मोक्ष की ओर ! (गद्य). Show all posts
Showing posts with label रुदन से मोक्ष की ओर ! (गद्य). Show all posts

Saturday, 18 May 2019

रुदन से मोक्ष की ओर !

रुदन से मोक्ष की ओर !
******************************
    किसी स्नेहीजन के कड़वे संवाद अथवा व्यवहार से हृदय  जिस दिन रुदन करता है एवं अंतरात्मा की धिक्कार से जब अत्यधिक ग्लानि की अनुभूति होती है , तब स्वतः ही वैराग्य का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
******************************

    आज मैं अपने उस आदर्श पात्र को आप सभी के सम्मुख रख रहा हूँ । जिनके विषय में दांवे के साथ यह कहा जा सकता है कि वे गृहस्थ हो कर भी विरक्त हैं। उनका शयनकक्ष ही उनका मंदिर और साधना स्थल है। करोड़ों की अचल सम्पत्ति है। उम्र के उस पड़ाव पर , जहाँ लोग वरिष्ठ नागरिक कहे जाते हैं , वे पुरुषार्थी हैं एवं परिवार की समस्त आवश्यकताओं का निर्वहन करते हैं, फिर भी एक साधारण गृहस्थ की तरह उनकी दिनचर्या है। वे ऐसे साधक , साधू  एवं गृहस्थ हैं ,जिनकी कठिन दिनचर्या को देख हर कोई, उनके समक्ष नतमस्तक है।
    जीवन संगिनी के द्वारा किन्हीं परिस्थिति में मृत्यु का वरण किये जाने के पश्चात , बच्चों का लालन-पालन , उनकी शिक्षा और फिर विवाह सभी कार्य उन्होंने कुशल अभिभावक की भांति सम्पन्न किया। लोक व्यवहार में उनकी तुलना समाज के श्रेष्ठ जनों में होती है। सुबह नित्य गंगा स्नान कर वे अपने परिवार के जीवकोपार्जन के लिये घर से कर्मस्थान पर जाते हैं। लक्ष्मी की कृपा है , परंतु दो वक्त के साधारण भोजन के अतिरिक्त , उन्हें कभी भी किसी ने अमीरों जैसे  खानपान , मनोरंजन एवं वेशभूषा पर धन का उपयोग/ दुरुपयोग करते नहीं देखा है।
    पत्नी की मृत्यु के बाद उन्होंने अपने बच्चों का ध्यान रख, दूसरा विवाह नहीं किया था। विमाता को लेकर एक संदेह जो मन में रहती है।  मनोरंजन की सामग्रियों से दूर हैं ,  साथ ही उनमें परस्त्री गमन , मदिरापान , ध्रूमपान  सहित एक भी  अवगुण नहीं है।
   उन्हें  हँसी-ठहाका लगाते कभी किसी ने नहीं देखा है। न ही वे एकांत में रुदन करते और न तो अपना दर्द किसी को बताते हैं। मन की वेदना ही नहीं,  शारीरिक पीड़ा को भी, वे हृदय में दबाये रहते हैं। जीवकोपार्जन के लिये जो व्यवसाय विरासत में मिला है। उसे अपने परिश्रम से संभाले हुये हैं। जाड़ा, गर्मी और बरसात मौसम कोई भी हो, अपने ड्यूटी के बिल्कुल पक्के हैं। शेष समय उनका पूजन, होम , मंत्र जाप एवं अध्यन में गुजरता है।  उनके सानिध्य में रह कर पथिक को यह अनुभूति हुई कि घर में भी आश्रम का सृजन सम्भव है। जिस माध्यम से स्नेह की राह में भटकते, अटकते एवं तड़पते मानव हृदय को उस स्वर्णिम पथ की ओर अग्रसर किया जा सकता है, जहाँ शांति है, वैराग्य है और मोक्ष भी है।
     वैसे उनका भी मानना है कि पति- पत्नी से ही गृहस्थ जीवन के सारे सुख हैं। उन्होंने एक दिन भोजन की थाली देख बताया था कि अब इसके स्वाद के बारे में वे कभी नहीं सोचते हैं। इस थाली का स्वाद तो पत्नी की मृत्यु के साथ चला गया। सो,खाने में आज क्या बनेगा अथवा बना है ? इतनी सम्पन्नता के बावजूद, यह पूछते उन्हें कभी नहीं देखा गया ।
    मन, भावना एवं मोह पर उनकी नियंत्रण क्षमता  देख,  पथिक यहीं से अपने मुक्ति पथ की खोज पुनः शुरू  की थी, परंतु उसकी एक  दुर्बलता यह है कि पथ में यदि कहीं  स्नेह एवं अपनत्व मिल जाता है, तो वह ठहर जाता है। उसे ऐसा लगता है कि निश्छल हृदय से किसी ने मैत्री के लिये हाथ बढ़ाया है।
   जबकि उस नादान को यह पता होना ही चाहिए कि जो अपने नहीं हैं ,वे सदैव ही ऐसा आचरण उसके साथ नहीं करेंगे ? वह किसी की जिम्मेदारी नहीं है, किसी का प्रेम अथवा प्रियतम भी नहीं है। ऐसे में जब उसकी उपेक्षा होती है , उसे पुनः आघात लगता है  ।
     किसी स्नेहीजन के कड़वे संवाद अथवा व्यवहार से हृदय  जिस दिन रुदन करता है एवं अंतरात्मा की धिक्कार से जब अत्यधिक ग्लानि की अनुभूति होती है , तब स्वतः ही वैराग्य का मार्ग प्रशस्त हो जाता है । माया-मोह रुपी घूँघट का पट खुलते ही इस स्नेह रुपी भूलभुलैया से बाहर निकल कर पथिक पिया मिलन अथार्त मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर हो जाता है। फिर कभी किसी लौकिक स्नेह एवं अपनत्व की आवश्यकता उसे नहीं होती। न ही उसे याचकों की तरह इसके(स्नेह) लिये गिड़गिड़ाना- छटपटाना पड़ता है। उसकी सारी लालसा इस वैराग्य में विलीन हो जाती है।
 अपनों के लिये भटक रहा उसा चित्त शांत हो जाता है । मीरा की तरह उसका मन आनंदित हो उठता है -

मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो ना कोई
जाके सर मोर-मुकुट, मेरो पति सोई...

      हाँ , इसके लिये दृढ संकल्पित होना आवश्यक है। मेरा मानना है कि ऐसी कोई भी घटना जिससे आपका स्नेह आहत हुआ हो , लक्ष्य  प्राप्ति के लिये सहायक होती है ।      अतः जिस किसी ने भी कड़वी वाणी का प्रयोग कर हमारे निर्मल एवं स्नेहयुक्त हृदय पर आघात किया है , उन्हें धन्यवाद दिया जाए। उनके ये कठोर शब्द और आचरण हमारे ऊपर एक ऋण है , मोह युक्त स्थिति से मोह मुक्त होने तक।
   तभी यह ज्ञात होगा कि यह स्नेह एवं अपनत्व इस संसार रुपी माया नगर में एक स्वप्न है। जो असत्य था।  सच तो यह है कि आदमी अकेला आया है और वैसे ही चला जाएगा। यह मानव जीवन उसका तृप्त तभी होगा , जब वह विरक्त भाव का स्वामी हो ।
       सावधानी इतनी रखनी है कि इस भाव को पुनः हृदय से जाने न दें। कहीं ऐसा न हो की किसी की थोड़ी सी सहानुभूति हमारे मन को पुनः पिघला दे उसमें स्नेह का संचार कर दे और फिर जब कभी उपेक्षा का वही दंश सहना पड़े , तो यह विवेक है न,वह धिक्कारने लगता है । बार-बार उलाहना देता है कि तुमने वर्षों के परिश्रम से पांव जमा कर एक-एक सीढ़ी चढ़ी थीं । लेकिन, देखो तो सही अपनत्व की तुम्हारी इस क्षुधा ने फिर से तुम्हें उसी स्थान पर ला पटका है।
      कैसे संभल कर एक बार पुनः खड़ा होंगे पथिक , है कोई विकल्प ? जाओ जाकर ढ़ूंढो उन्हें , जिन्होंने तुम्हें सच्ची एवं पक्की मित्रता का आश्वासन दिया था। वे तो चल दिये अपनी दुनिया में  और जाते -जाते तुम्हारी वेदना पर स्नेह का तनिक मरहम भी नहीं लगा गये।
      ऐसी ही स्थिति को कहते है कि न माया मिली , न राम मिले । जब मुक्ति पथ के लिये साधक को शून्य से अपनी यात्रा  बार-बार शुरु करनी पड़ेगी , तो वह सीढ़ी- सांप के खेल में अटक- भटक जाएगा। उसे हर कोई झटक देता है । उसका जीवन उपहास बन कर रह जाएगा। साधना अधूरी रह जाएगी। वह बुद्ध कभी नहीं बन पाता है। बताएँ कैसे शुद्ध  होगा उसका जीवन  ?
       बुद्ध पूर्णिमा पर इसी चिंतन में डूबा पथिक आज अत्यधिक व्याकुल है। उसका विकल हृदय उससे यह प्रश्न किये ही जा रहा है कि रे मूर्ख  !  तू ही बता स्नेह के बदले  मिला क्या कुछ तुझे  ?  किस लिये अपनेपन की चाहत रखता है । इस संसार में तो झूठा व्यापार है। जो अपनी इच्छानुसार तुझसे जुड़ते हैं , यदि उनके आचरण में बदलाव आ जाता है ,तो तुम क्यों अश्रु बहा रहा है। सारे संबंध ही चार दिनों के है -

 मात-पिता सूत नारी भाई
 अंत सहायक नाही
 दो दिन का जग में मेला
 सब चला चली का खेला ..।
     
     - व्याकुल पथिक