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Monday 19 March 2018

आत्मकथा 18 मार्च


जीवन की पाठशाला
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18/3/18

      चलों एक कार्य तो इस वर्ष मेरे हित में बहुत अच्छा यह हुआ कि विचलित मन की स्थिति को वैराग्य भाव की ओर बढ़ाने के लिये एक बड़े मोह का बंधन टूटता दिखा। चाहे घर-परिवार अपना हो अथवा मित्र- बंधु और शुभचिंतकों का, उनसे जुड़े होने का भी मोह तो होता ही है, जिससे मैं अब पूर्ण मुक्त हो गया हूँँ। जहाँँ अपना आशियाना था, जहाँँ भोजन करता था और जहाँँ परिवार के सदस्य की तरह होने के कारण एक फैमिली मेंबर की तरह ही तो था, वह स्थान अब अपना नहीं रहा। जब कभी किसी कारण भोजन नहीं किया, समय से घर (यही कहेंगे न)  पर नहीं पहुँँचा, तो स्वाभाविक है कि कहाँँ हैं, इतना तो पूछा ही जाता था। परंतु जहाँँ था, उनके पुत्र की शादी होने को हुई और फिर तब मुझे नये शरणस्थली की चिंता होने लगी। इस समस्या को चंद्रांशु भैया ने दूर कर दिया है। मैं उनके होटल में आ गया। गृहस्थी के ढेरों सामान जिसे वर्षों पूर्व कभी यह सोच कर खरीदा था कि  कभी अपना भी एक छोटा-सा आशियाना होगा ही, अब जब वह दिन आया ही नहीं, तो फिर इनका क्या प्रयोजन था। सो, अधिकाशं सामान हटा दिया और जो शेष बचा है, उससे भी मुक्त होना चाहता हूँँ। जितनी आवश्यकता सीमित होगी, मन का भटकाव उतना ही कम होगा । प्रथम आसान सीढ़ी इसके लिये मेरे विचार से भोजन है। तो मैंने  इस पर भी अंकुश लगा ही लिया हूँँ , यानी कि निश्चय कर  लिया कि दिन में दूध - दलिया और रोटी - सब्जी ही लूँँगा, रात्रि में इसकी जगह कोई हल्का आहार ले लूँँगा । सारे स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों को मैंने लगभग त्याग ही दिया । लेकिन, तब जब मैं मीरजापुर आया तो अनेकों सपने जवां थें...
हाँँ, तो अपनी आत्मकथा में कल बात मीरजापुर में शरणस्थली की तलाश की कर रहा था।
   किन्तु आज की तरह तब  यह नहीं गुनगुनाता था कि मुसाफ़िर हूँँ यारों न घर है न ठिकाना, मुझे बस चलते जाना है...
   जबकि उस समय अपरचित शहर और अपरिचित लोग थें। किससे कहता कि  रात्रि गुजारने के लिये स्थान चाहिए। लॉज-धर्मशाला में पहले कभी ठहरा नहीं था। नियति का जरा खेल देखें की जिस युवक के अनेक धन सम्पन्न रिश्तेदार कई प्रांतों में हो। जिसका प्रथम पाठशाला कोलकाता के सबसे महंगे अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों में से एक रहा हो। वह व्यक्ति  मीरजापुर की सड़कों पर पैदल ही " गांडीव- गांडीव " की पुकार लगा रहा था। उसके पास रात्रि में सिर छुपाने के लिये  इस शहर में कोई स्थान नहीं था। यदि बस कभी 12 बजे रात बनारस पहुँँची, तो रात बिन भोजन ही गुजारना पड़ता वहाँँ अपने ही घर पर।
   ऐसे में आशा की किरण बनी यहाँँ मीरजापुर में स्टेशन रोड वाली दादी जी( अब स्वर्गीय)।
 -शशि गुप्ता

क्रमशः



6 comments:

  1. बहुत बढ़िया भैया

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  2. आप तो मेरे मार्ग दर्शक हो

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  3. आप का लेख मेरे लिए प्रेना का स्त्रोतहै

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  4. आदरणीय शशि जी -- आपने तो बुद्ध सरीखा मार्ग अपना लिया !!!!!!!!! सादर नमन -- ऐसे स्वाभिमानी लोग भी संसार में हैं आज जाना |

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  5. मुझे आप पर गर्व है
    मैं भी हर समय आपके साथ खड़ा हूं

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