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Friday 27 April 2018

आनंद की खोज

व्याकुल पथिक

    बचपन में गुरुजनों को कहते सुना था कि हमारा जीवन जितना ही सरल होगा, उतना ही सहज होगा। जिससे हमें अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ने में आसानी होगी। इसकी अनुभूति भी मुझे यहां पत्रकारिता के दौरान ही हुई है। अब मैं जब रात साढ़े 10- 11 बजे अखबार बांट कर मुसाफिरखाने पर लौटता हूं ,तो रात्रि भोजन में रोटी की व्यवस्था नहीं रहती, तो भी कोई गम नहीं। पाउडर वाला गाय का दूध को गरम पानी में घोलता हूं और  दो -तीन मुट्ठी कॉर्न फ्लेक्स साथ में चीनी डाला बस हो गया मेरा भोजन तैयार। इसी दौरान मोबाइल पर ही पुराने फिल्म अथवा गाना देखने सुनने का भी लुफ्त उठा ही लेता हूं। देर क्यों हुई, समय से आया करो, यह सब बंदिशें लगाने वाला अपना पराया कोई नहीं रहा अब। समाज में रह कर भी उसके बंधन से मुक्त हूं। इस अवस्था में और क्या चाहिए इस मुसाफिर को... हां ,कभी कभी अतीत  में जब डूबने लगता हूं, तब व्याकुलता निश्चित ही बढ़ने लगती है। लेकिन, अगले दिन  सुबह सवा पांच बजे जब मोबाइल फोन के अलार्म के शोर के साथ ही सब कुछ फिर से सामान्य हो जाता है। रात्रि पांच घंटे की निंद्रा में थके शरीर को कुछ तो उर्जा मिल जाती है और फिर से अपने काम में व्यस्त हो जाता हूं। राही इन होटल में जब कभी कमरा नंबर 33 में रात्रि गुजारने का अवसर मिलता है। जानते हैं सुबह होने पर मैं किससे सबक लेता हूं , खुशहाल जीवन का...तो मित्रों वे हैं होटल के सामने सड़क किनारे बैठीं रद्दी सामग्री बटोरने वाली औरतें और लड़कियां ... आश्चर्य न करें आप सचमुच इन हंसती खिलखिलाती युवतियों को देख मुझे काफी उर्जा मिलती है। जिसकी अनुभूति  किसी उपदेशक के सानिध्य में बैठ कर भी शायद ही कर पाता। दरअसल, ये जो महिलाएं और लड़कियां हैं न , भोर में नगर की सड़कों पर निकल पड़ती हैं। जो हमारे आपके द्वारा फेंके गये निरर्थक सामानों को अपनी झोली में भरती हैं और सुबह के सात बजते बजते यहां आ जुटती हैं, ये सब। फिर किस तरह से वे सामूहिक रुप से चाय-बिस्किट  खाते हुये कितने प्रफुल्लित मन से आपस में वार्तालाप करती रहती हैं,कभी आपने गौर फरमाया है ... इन्हें कभी आपस में यह कहते नहीं सून पाइएगा कि आज बोहनी खराब हो गई या फिर उनके बोरे का वजन हल्का रह गया। किसी भी तरह की चिन्ता का भाव इनके चेहरे पर मैंने तो नहीं देखा ! एक दिन की बात बताता हूं । लालडिग्गी स्थिति संदीप गुप्ता जी की दुकान पर बैठा था। संदीप भैया व्यापारी होकर भी सच्चे समाजसेवी हैं। जो बहुतों की मदद करते रहते हैं , परंतु श्रेय लेने के लिये किसी आयोजन में मंच पर आगे नहीं आते । उस दिन दुकान पर साइकिल से एक युवा ग्रामीण दम्पति आया। जिसने एक लकड़ी का दरवाजा खरीदा। पति पत्नी दोनों ने उस दरवाजे को साइकिल की सीट पर रखा। पति ने हैंडिल सम्हाली और पत्नी ने पीछे से दरवाजे को सहारा दिया । हम दोनों ही समझ गये कि वे काफी गरीब हैं, इसके बावजूद उसी साइकिल के दो पहिये कि तरह वह युवा जोड़ी खुशी खुशी हर संघर्ष का मुकाबला मिल कर करने के लिये कमर कसे हुये था। सो, यह देख गंभीर स्वभाव के संदीप भैया ने भी उस युगल ग्राहक के संघर्ष को सलाम  किया और मुझसे कहा कि ऐसा दुर्लभ दृश्य आपने शायद ही देखा हो। ट्राली करने का पैसा नहीं, तो क्या हुआ, पति को पत्नी का साथ जो है...ऐसी सुखद अनुभूति , ऐसा आनंद मठ और महल में बैठने से नहीं प्राप्त होगा मित्रों ! अभी तो संत कबीर को कहना पड़ा है -मोको कहां ढूंढे रे बंदे , मैं तो तेरे पास में...
शशि
28/4/14
क्रमशः

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