मां तो सबकी मां होती है। हम भारतीय तो अपने राष्ट्र को भी भारत माता कह कर नमन करते हैं। फिर भी हममें से अनेक लोग बातों ही बातों में न जाने क्यों मां-बहन को जोड़ कर अपशब्दों का प्रयोग करते ही आ रहे हैं। मुझे नहीं पता कि इनके प्रति वाणी का यह अनादर किसी तरह से प्रचलन में आया। परंतु थाने पर दरोगा और राह चलते सिपाही जिम्मेदार पद पर होकर भी ऐसा किया करते हैं। पत्रकार हूं, इसीलिये ऐसा आंखों देखी बता रहा हूं। हां, अब सोशल मीडिया का जमाना है। अतः वीडियो कहीं वायरल न हो जाए, इससे खाकी वाले तनिक सावधान ही रहते हैं। फिर भी मेरा मानना है कि सबसे बढ़िया प्रशिक्षण गाली देने की कला की किसी को मिली है, तो वह हमारे इन पहरुओं को ही शायद!
पिछले दिनों की बात बताऊं, हमारे अमूमन शांतिप्रिय शहर में कुछ जरा अलग हट कर हो गया है, क्यों कि खाकीवालों के विरुद्ध एक कद्दावर खादीवाले की जुबां पर वही मां की गाली आ गई। फिर क्या था कोतवाली के अंदर से इसका वीडियो वायरल हो गया। उधर,युवा दरोगा ने सत्तारूढ़ दल के एक पूर्व सांसद के विरुद्ध मुकदमा दर्ज करवा दिया। अब यह मामला यहां राजनैतिक सुर्खियों में है। लेकिन यह अधूरा सच है, वर्दीवाले जो आये दिन इसी तरह के अपशब्दों का प्रयोग करते हैं थाने में इसका वीडियो कौन जारी करेगा। ये वर्दीवाले ईमानदारी से बताएं कि वे ड्यूटी के दौरान प्रतिदिन कितनी बार औरों की मां -बहन का नाम ले अपशब्दों का प्रयोग करते हैं। जो नेता, अधिकारी, रंगबाज यहां विंध्यवासिनी धाम में मां कल्याण करों की पुकार लगाते हुये जाते हैं। उन्हें इतना भी नहीं पता कि जिसे वे अपने दम्भ में अपशब्द कह रहे हैं, वह इन्हीं जगत जननी का स्वरूप हैं। यह कितनी लज्जा का विषय है कि महत्वपूर्ण संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों की जुबां इस तरह से बेकाबू है। क्या इस पर कोई बड़ा कदम हमारे भाग्य विधाताओं को नहीं उठाना चाहिए। उनके पास पावर है, वे चाहे तो संविधान में इसके लिये और कठोर कार्रवाई तय कर सकते हैं। जब कानून के भय से दलित वर्ग के प्रति अपमानजनक शब्दों के प्रयोग काफी कम हो सकता है, तो फिर मां-बहनों की अस्मत को ठेस पहुंचाने वाली यह गाली भी निश्चित ही रोकी जा सकती है। पूर्व माननीय और दरोगा के विवाद को उजागर कर मैं इस ब्लॉग की गरिमा गिराना नहीं चाहता, परंतु "मां " जैसे आत्मीय सम्बोधन को निजी अहम् की तुष्टि का माध्यम न बनाया जाए, इसके लिये हम सभी को मिल कर आवाज उठानी होगी। यह हमारा नैतिक दायित्व भी है ! (शशि)
आदरनीय शशी जी --- आपने अपने लेख में समाज के जिम्मेवार लोगों की तुच्छ मानसिकता की ओर इशार करते हुए एक अहम मुद्दे को उठाया है | नारी बोधक गलियां सभ्य समाज की एक कुत्सित सच्चाई है | एक दरोगा या सिपाही नहीं अपितु हर ख़ास और आम -- बस कुछ संस्कारी लोगों को छोड़कर --- की आदत में शुमार हैं ये गलियां | बहुत सार्थक और अहम मुद्दा उठाने के लिए हार्दिक आभार |
ReplyDeleteशशि जी ब्लॉग बहुत अच्छा लग रहा है पर अनुसरण का बटन अभी भी लग नही पाया ?
ReplyDeleteशशि जी इतने व्यस्तता के बावजूद इतना सुंदर लेखनी सराहनीय है,ढेर सारी शुभकामना ।
ReplyDeleteधन्यवाद , आपने ही सबसे अधिक मेरा उत्साह बढ़ाया है। वैसे , तो यह हमारें मित्रों और शुभचिंतकों ने भी मार्ग दर्शन किया है। मैं बस यूं ही लिखता जा रहा हूं, क्यों अखबारी पत्रकारिता मुझे पतन की ओर बढ़ती दिख रही है। सो , मन की भावनाओं को कहीं तो व्यक्त करना है। बस इतनी सी बात है। रही बात विभिन्न मंचों पर शेयर की तो फुर्सत भी नहीं है और जानकारी का भी अभाव है। अभी इस क्षेत्र में नया हूं।
ReplyDeleteप्रणाम पुनः
अनुसरण वाला बटन भी आज पूछ लेता हूं।
अंशुल जी धन्यवाद
ReplyDeleteमाँ बहन की गालियां तो जैसे कुछ लोगों की आदत में शुमार हैं ।सही कहा आपने कि दलित वर्ग के लिए अपमान जनक शब्द कानून के भय से कम हो रहे हैं तो यहां भी ऐसा कुछ क्यों नहीं... बड़ों से सीखकर बच्चे भी इस तरह बोलते सुने हैं मैने पूछने पर उन्हें इन शब्दों का मतलब भी नहीं पता..बस यूं ही सुना सीखा और कह दिया....बहुत अफसोस होता है कि इस पर रोकटोक भी नहीं...
ReplyDeleteबहुत सार्थक मुद्ददा उठाने के लिए धन्यवाद ।
जी धन्यवाद,परंतु ऐसे अपमान जनक शब्द सबसे पहले बच्चे अपने घरों में अपने ही परिवार के किसी सदस्य से सुनते सीखते है। अभिभावकों को इसपर विचार करना चाहिए।
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