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Friday 18 May 2018

दादी को याद कर अपराध बोध से भर आता है मन

 

       दादी नानी से किस्से कहानी अब कहां बच्चे सुन पाते होगें। स्कूल का होमवर्क ही इतना है कि बचपन कब निकल  जाता है, यह सभ्य समाज के लाडलों को क्या पता !  दादी के करीब होते हुये भी, वे उनके दुलार से वंचित रह जाते हैं।  हां, फिल्मों में जरुर उन्होंने
    " दादी अम्मा- दादी अम्मा मान जाओ "
               यह गाना सुना होगा, सवाल यह है कि अपनी दादी की चंपी कितनों ने की होगी। हां, इस मामले में मैं बहुत खुशनसीब था। बचपन में दादी की खटिया पर ढेरों कहानियां जो सुनी है। दादी ने हम बच्चों को खूब सैर कराया है, पापा- मम्मी से चोरी-चोरी।
   स्मृतियों के झरोखे में जब कभी झांकता हूं, तो घर पर अपने संकट काल में दादी को ही सबसे करीब पाता हूं।वहीं, दुर्भाग्य मेरा देखें कि उनकी मृत्यु पर मैं ही उनके समीप नहीं रहा। बाद में मेरे मित्र ने बताया था कि दादी इस उम्मीद से उसके पास आती रहती थी कि मेरा कोई पैगाम आया हो। बार्डर फिल्म की यह मार्मिक गाना घर कब आओगें  ..जब कभी भी संजीदगी से सुनता हूं, तो लगता है कि कहीं दादी तो नहीं पुकार रही है ! इसीलिए जब भी उनका स्मरण करता हूं , दिल बैठने लगता है। जानता हूं मृत्यु के समय नजरें उनकी मुझे ही ढ़ूढ़ती होगीं ! उनकों कंधा न देने का मुझे अफसरों नहीं है, पीड़ा इस बात की है कि जिन्होंने नानी मां की मृत्यु के बाद वर्षों मेरी सेवा की थी, उन्हीं के कारण तो मैं इंटरमीडिएट की परीक्षा दे सका था। कभी कम्पनी गार्डन के शीतला मंदिर के अंदर चबुतरे पर बैठ कर, तो कभी उसके रैनबसेरा में जब भी मैं गणित के प्रश्नों को सुलझाने में जुटा रहता था, दादी पीछे बैठ मेरे सिर पर तेल या नीबूं मला करती थीं।
     घरवालों ने उनके अस्वस्थ होने की सूचना तक नहीं दी थी मुझे ! हां , उनकी मृत्यु के कुछ दिनों बाद जरुर एक पत्र आया था घर से, पर जब दादी ही चली गयी तो फिर घर किसके लिये जाता। माता- पिता, भाई - बहन ये सारे रिश्ते दादी के सामने ही टूट चुके थें। मुझे निठल्ला बता , दो जून की रोटी भी तो बाद में वहां छीन ली गयी थी। घर में एक छोटा सा कमरा , इस व्यंग्य बाण के साथ दिया गया था मुझे कि दादा का मकान है, इसीलिये हिस्सा में आधा कमरा तेरा और शेष आधा तेरी दादी का ...मैंने तभी ठान लिया था कि न तो इस मकान से और न ही यहां रहने वालों से नाता रखना है। फिर भी दादी मुझे दूर किसी नाते रिश्तेदार के यहां नहीं जाने देना चाहती थी...जब मैं पुनः घर छोड़ कर मुजफ्फरपुर गया और वहां से होते हुये कालिंपोंग फिर वापस वाराणसी लौटा, तो दादी के छोटे से कमरे को खाली देख तड़प उठा था। बहुत कुछ लिखने की स्थिति में नहीं हूं, अपराध बोध से दब सा जो जाता हूं। बस इतना ही पता चला कि दादी बीमार पड़ गयी, उन्हें अत्यधिक दस्त होने लगा । उनका किसी ने भी प्रयाप्त देखभाल नहीं किया। सो, बड़ी ही खामोशी के साथ कभी भी किसी के सामने नहीं झुकने वाली आत्म स्वाभिमान से भरी मेरी प्यारी दादी खुदा के घर चली गयी.. । कालिंपोंग से लौटने के बाद मैं भारी मन से उनके बिल्कुल छोटे से कमरे को निहारते हुये, अपने खुले कमरे में चला गया था। भोजन मिलने का तो कोई सवाल ही नहीं था। दो - तीन दिन तो सिर्फ पानी और बिस्किट से ही गुजारा था। हालांकि यह भूख मेरे लिये कोई नयी समस्या नहीं थी। फिर करीबी रिश्ते में ताऊ जी के घर गया... वे उस समय हरिश्चंद्र महाविद्यालय में कानून की शीक्षा दिया करते थें। सभी सम्मान में उन्हें वकील साहब बोलते हैं। मैं भी दादी की तरह ही स्वाभिमानी था, सो यह कहने का सवाल ही नहीं था कि ताई जी भूख लगी है। परंतु उनकी नजरों से मेरी भूख भला छिपने वाली थी। अतः कुछ दिनों तक उन्होंने अपने इकलौते पुत्र (अब स्वर्गीय) को पढ़ाने के बहाने ही मुझे घर पर बुलाया, जब तक मुझे काम नहीं मिल गया था। वहां, एक वक्त का भोजन और जलपान से मेरी क्षुधा शांत हो जाती थी और रात दो- तीन गिलास पानी पी कर काट ही लेता था। यही ट्रेनिंग तो आज भी मुझे काम दे रही है कि रात्रि भोजन की आवश्यकता अब महसूस जो नहीं होती है।
    हां चौथी बार जब घर छोड़ा, तो मीरजापुर से वाराणसी शहर में स्थित अपने मकान में हिस्सा मांगने दुबारा लौट कर नहीं गया, इन ढ़ाई दशक में। कुछ  शुभचिंतकों ने कहा भी था कि महंगी अचल सम्पत्ति है, क्यों छोड़ रहे हो अपने दादा का मकान । मुझे हंसी आती है, इन बातों पर कि कैसी सम्पत्ति और कैसा घर ! जहां थाली में दो रोटी रख कर भी नहीं मिला हो ।  याद वह भी दिन है कि दादी अपने भोजन में से आधा निकाल कर चोरी चोरी मुझे खिलाया करती थी। वृद्धा पेंशन का सारा पैसा मुझे ही दे दिया करती थी । यहां तक कि सारे संकोच त्याग कर कोई भी उन्हें खाने की कोई सामग्री देता, उसे आंचल में छिपा कर धीरे से मेरे कमरे में ले आया करती थीं।  और क्या कहूं दादी को, जब उनके लिये कुछ किया ही नहीं !

शशि 19/5/18

1 comment:

  1. आदरणीय शशि जी -- मेरा बचपन भी दादी के सानिध्य में गुजरा है | मैं इस सबह की सार जानती हूँ | ये बात अलग है मेरी दादी को ऐसा कोई संघर्ष देखना नही पड़ा | आपके पास माँ के बाद दादी का होना एक स्नेहमयी छाया जैसा रहा होगा , सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है | पर नियति अपनी गति में घुमती है इसे कोई बदल नहीं सकता | दुःख में पगे वैरागी मन की व्यथा कथा बहुत प्रेरक है | सादर -------

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