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Thursday 12 July 2018

जीने की तुमसे वजह मिल गई है



    "तुम आ गए हो नूर आ गया है
     नहीं तो चराग़ों से लौ जा रही थी
     जीने कि तुमसे वजह मिल गई है
     बड़ी बेवजह ज़िंदगी जा रही थी "

        कितना भावपूर्ण गीत है न यह ? उतनी ही खुबसूरती के साथ इसे लता जी ने किशोर दा के साथ गाया है। परस्पर प्रेम समर्पण है यहां। सो, बार - बार सुनने पर भी मन नहीं भरता है मेरा।  लेकिन, मेरे जिंदगी के सफर में यह काफी पीछे छूट गया है। यहां तो कहाँ से चले कहाँ के लिये मेरी ये खबर लेने वाला भी कोई नहीं है। बोझिल मन से कमरे पर आता और भरे मन से निद्रा रानी को पुकार लगाता। ताकि उन वेदनाओं से सुबह तक के लिये मुक्त हो सकूं। फिर भी कभी- कभी वे रात में भी आकर जगा जाया करती थीं। इस उदास मन को दिलासा देने जाता भी तो किसके पहलू में। ऐसे में नूर बन कर यह ब्लॉग मेरे सामने आ गया है। यह मेरे लिये कोई व्यापार नहीं है। जो हानि लाभ को लेकर सशंकित रहूं। यह मेरे लिये पाठक मंच भी नहीं है कि यह हिसाब रखूं कि पेज व्यूज कितना है। अब तो जिन्दगी और सांस हैं हम दोनों। मेरे उदास मन को जीने की वजह मिल गयी है।  सच कहूं तो ढ़ाई दशक के मेरे व्यस्त पत्रकारिता जीवन में अब जाकर बहार आई है। सो, शाम होते -होते मैं अपने सारे कार्यक्रम छोड़ आशियाने पर लौट आता हूं। कुछ सुनता हूं ,कुछ लिखता हूं और कुछ मुस्कुराता भी हूं। साथी पत्रकारों को लगता है कि मैं बावला हो गया हूं। वे कहते हैं कि कहां तो अखबार में तम्हारी खबरों को हजारों लोग पढ़ते है और कहां इस ब्लॉग पर सौ लोग, फिर भी तुम खुश हो ! तो मित्र एक अंतर है अखबार और ब्लॉग में। वहां मैं पाठकों के रुचि के अनुसार सामग्री परोसता हूं और यहां अपने मन को प्रस्तुत करता हूं, अपनी सुखद स्मृतियों में खो जाता हूं। इसी नये रंगमंच पर मेरा चिन्तन मुझे मुक्ति पथ की ओर ले जा रहा है। जीवन में इन ढ़ाई दशकों में जो सबसे बड़ी भूल मैंने की , वह यह की है कि एक मेढ़क की तरह कुएं को ही सागर समझ बैठा और अब जब यह कुआं सूखने को है, तो इस सत्य का बोध होने पर भी ऊंची छलांग लगा बाहर आने का सामर्थ्य मुझमें नहीं है। माना कि बचपन में घर का त्याग मेरी नियति थी। लेकिन जब युवा था ,तो बड़े अखबरों की नौकरी क्यूं ठुकराई ! यह मोहपाश ही प्रगति के मार्ग में सबसे बड़ा अवरोध है। एक और भ्रम मेरा टूटा कि दूसरे की वस्तु को सहेजने में हम भले ही अपना बहूमूल्य जीवन दांव पर क्यों न लगा दें। फिर भी परिस्थितियां बदलते ही, उस वस्तु का असली स्वामी यह सवाल निश्चित करेगा कि तुम हमारे हो कौन? चाहे हमने उस वस्तु की पहचान बढ़ाने के लिये  अपना सारा यौवन गंवा दिया हो , सारे रिश्ते बिखर गये हो और धन भी न कमा सका , तो भी। मैं धन्यवाद देना चाहता हूं, अपने उन कुछ पत्रकार मित्रों को जिन्होंने षड़यंत्र के तहत समाचार लेखन को लेकर मुझ पर मुकदमा दर्ज करवाया।जिसके बाद संस्थान से किसी तरह का आर्थिक सहयोग कोर्ट,कचहरी और वकील करने के लिये तो मिलना दूर , बल्कि सहानुभूति के दो शब्द भी मिले वहां तो। आज भी मैं अकेले ही इन मामलों को झेल रहा हूं और अपने- पराये के फर्क को समझ कुछ मुस्कुरा भी रहा हूं । अखबार और ब्लॉग में मेरे लिये यही तो अंतर है। वह गैर है, यह अपना है। हां , एक बात और यह कहनी है कि मैं उन्हें भी शुक्रिया कहना चाहता हूं,जो चंद दिनों के लिये सावन का फुहार बन मेरे विरान जीवन में माधुर्य का एहसास करवाने आये और चले गये। क्यों कि जब मोह का पर्दा गिरता है, तभी सच की राह पर चलना आता है। मेरा प्रयास है कि अपने अतीत से कुछ सबक लूं। गलतियों पर चिन्तन करूँ और संक्षिप्त में उसका वर्णन यूं ही करता रहूं। ताकि मैं भी जागता रहूं और आपको भी जगाता रहूं । भले ही एकांत में यूं  गुनगुना कर आखें नम कर लूं-

   ज़िंदगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मकाम
   वो फिर नहीं आते, वो फिर नहीं आते
   फूल खिलते हैं, लोग मिलते है
   मगर पतझड़ में जो फूल मुरझा जाते हैं
   वो बहारों के आने से खिलते नहीं
   कुछ लोग जो सफ़र में बिछड़ जाते हैं
   वो हज़ारों के आने से मिलते नहीं
   उम्र भर चाहे कोई पुकारा करे उनका नाम
   वो फिर नहीं आते, वो फिर नहीं आते...

  फिर भी औरों के लिये मुस्कुराते रहें।
  (शशि)

9 comments:

  1. सच्ची बहुत प्यारा गीत है ये शशिभाई....

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  2. सच में बहुत ही प्यारा गीत है शशि जी....आपके जीवन में लौटती सकारात्मकता हम पाठकों तक पहुँच रही है।
    आपने सही कहा जीवन के हरपल से सबक लेकर हम बहुत कुछ सीख सकते है।
    आज का इस आत्मकथ्य से मुस्कुराहट की खुशबू आ रही है। लिखते रहिये और खुशी महसूस कीजिए।
    सादर आभार।

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  3. जी आप दोनों ही वरिष्ठ ब्लॉग लेखिका हैं। आप मेरे ब्लॉग पर पुनः आयीं, तो मन प्रफुल्लित हो उठा। प्रयास यही कर रहा हूं कि ब्लॉग लेखन में कुछ तो सार्थकता रहे। जिसका प्रभाव मुझ पर पड़े और पढ़ने वालों को भी अच्छा लगे। लेकिन, जो यहे सच रहे, बनावटीपन, यह पर्दा मुझे कभी पसंद नहीं रहा।

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    1. जी शशि जी हम वरिष्ठ लेखिका कैसे हो सकते है? लेखन का अनुभव तो आपको है।
      हम तो अभी सीख रहे है लिखना।
      बनावट या कृत्रिमता का प्रभाव क्षणिक होता है सही है।

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  4. दूसरे की वस्तु को सहेजने में हम भले ही अपना बहूमूल्य जीवन दांव पर क्यों न लगा दें। फिर भी परिस्थितियां बदलते ही, उस वस्तु का असली स्वामी यह सवाल निश्चित करेगा कि तुम हमारे हो कौन?
    आपकी ये पंक्तियाँ मन को छू गई हैं...शायद इसलिए कि कहीं ना कहीं ये मेरे जीवन पर भी लागू होती हैं।
    मेरी आदत है शशिभाई कि जब कोई पोस्ट अच्छी लगती है तो मैं उसे बार बार पढ़ती हूँ। और हाँ,मुझे भी ब्लॉग बनाए दो वर्ष इसी जून में पूरे हुए हैं। ये तो ब्लॉग जगत के लोगों का स्नेह और सहयोग है कि इतने लोग मुझे पढ़ रहे हैं।

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  5. जी मीना दी आपका ब्लॉग निश्चित ही मन को शांति प्रदान करता है। आपकी कविताओं में छिपे दर्द को समझने का प्रयास कुछ कुछ मैं भी करता हूं। दो वर्ष आपको ब्लॉग बनाये हो गया,तह निश्चित ही हम सभी को उत्साहित करेगा कि हम भी आगे बढ़ते रहें।

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  6. ये सच है कि पत्रकारिता जगत में बहुत तनाव व् धोखे हैं, साहित्य जगत भी इससे अछूता नहीं है ..लोग दूसरे को गिरा कर आगे बढ़ने में यकीन करते हैं |आश्चर्य होता है कि संवेदनशील ही लोग यहाँ आते हैं फिर बदल क्यों जाते हैं ? खैर अब आप जीवन को सकारात्मक दृष्टिकोण से देख रहे हैं ये ख़ुशी की बात है .... ऐसे ही लिखते रहिये , शुभकामनाएं

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  7. जी जिन्हें हम जेंटलमैन मैन कहते हैं। ये ही लोग जब समाज के लिये खलनायक बन जाते हैं, तो उसका परिणाम भयावह होता है। आम आदमी जितना सरल होता है, ये प्रबुद्ध जन उतने ही कठोर होते है। इनकी वाणी में जो मिठास होती है,वह इनके विषाक्त मन के भाव को प्रकट होने नहीं देती है। सो,इनका छल निश्छल लोगों पर भारी पड़ता है। ऐसे स्वहित की साधना में लगे लोग पत्रकार, साहित्यकार, राजनेता, सामजसेवी किसी का भी मुखौटा लगा लेते हैं। सरलता से इनकी पहचान कठिन है।

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  8. श्वेता जी आप का कहना भी उचित ही है कि हम सभी कुछ न कुछ सदैव ही सीखते रहते हैं

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yes