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Monday 16 July 2018

मन पछितैहै अवसर बीते

जुमले से मिली सत्ता की कुर्सी की सुरक्षा कर्म से ही सम्भव है


       इस बार रविवार की छुट्टी मुझे नहीं मिल पाई, क्यों कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जनसभा का कवरेज जो करना था।  सो, न कपड़े धुल सका और ना ही उनमें प्रेस ही कर पाया हूं। आराम करने की जगह इस उमस भरी गर्मी में शहर से कुछ दूर स्थित सभास्थल पर जाना पड़ा। इससे पहले वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में मोदी इसी मैदान पर जनता से वोट मांगने आये थें और अबकि कुछ देने के लिये उनका आगमन हुआ । वैसे, तो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को सुनने में जो रुचि थी मेरी उसके बाद किसी राजनेता का भाषण मुझे तो रास नहीं आया। फिर भी अखबार का काम है, तो करना ही है। सो, बड़े भाई प्रभात मिश्र, ब्यूरोचीफ राष्ट्रीय सहारा के संग जब सभा स्थल पर पहुंच ही गया तो ,वर्तमान राजनीति में शब्दों के सबसे बड़े जादूगर के संबोधन को कान लगा कर सुनता ही गया। समझने की एक बार पुनः कोशिश की कि नरेंद्र मोदी में वह कौन सा गुण है कि वे देश के तागतवर प्रधानमंत्री कहे जाने लगें। अब देखें न उन्होंने कितनी सुन्दर तुकबंदी कर कहा कि पिछली सरकारों ने सिर्फ बातें-वादे किये, जबकि वे(मोदी) उनकी ही अटकी हुई, लटकी हुई और भटकी हुई परियोजनाओं को खंगाल कर पूरा करा रहे हैं। सो, घड़ियाली आंसू बहाने वालों से उनके इस गुनाह का हिसाब जनता मांगे। अपने भाषण के माध्यम से मोदी ने एक ऐसा शब्द चित्र उपस्थित कर दिया कि मेरे जैसा पत्रकार भी क्षणिक अचम्भित सा हो गया। इसी कारण विपक्ष के पास कोई काट नहीं है , पीएम मोदी की बातों का। माना कि बाण सागर परियोजना पर होमवर्क चार दशक से चल रहा था। लेकिन , फिर भी पूर्व की सरकारों ने साढ़े तीन हजार  करोड़ की लागत पर पहुंच गयी, इस परियोजना को पूरी तो नहीं करवाई न। उनमे इच्छाशक्ति का अभाव जो था। सो, डेढ़ लाख हेक्टेयर किसानों की भूमि को अमृत जल देने का कार्य अब हुआ। वहीं, माना की चुनार पक्का पुल का शिलान्यास 2007 में तब मुख्यमंत्री , उत्तर प्रदेश रहें मुलायम सिंह ने किया।  परंतु उसे वर्ष 2012 से 17 तक सीएम रह कर भी उन्हीं के पुत्र अखिलेश यादव पूरा नहीं करवा सकें और अब 11 वर्षों बाद बीजेपी सरकार ने इसमें रुचि ली और मोदी ने रविवार को इसका भी लोकार्पण कर दिया। लेकिन , समाजवादी पार्टी इसे लेकर अब नौटंकी कर रही है, तो अवसर गंवाने के बाद यह झेप मिटाने से अधिक कुछ भी नहीं है। क्यों कि राजनीति भी एक क्रिकेट मैच की तरह ही है कि आखिरी ओवर में जिसने गेंद को बाउंड्री पार करवा दिया, वही सिकंदर है। बसपा और सपा के पास उनकी सरकार में भरपूर अवसर था कि वह इस लक्ष्मी की नगरी में विकास का दीपक जला जनता संग अपनी भी दीपावली मनाती। सांसद, विधायक और मंत्री तो यहां से भी अखिलेश सरकार में रहें। लेकिन , इच्छाशक्ति इनमें वर्तमान सांसद व केंद्रीय राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल जैसी नहीं थी। सो, सत्ता चली गयी, वे चुनाव हार गये। अब जब कोई पूछेगा कि पावर में रह कर आपने अपने जिले को क्या दिया, तो है कोई जवाब मान्यवर आपके पास ? सांसद अनुप्रिया पटेल ने तो ढ़ाई सौ करोड़ के मेडिकल कालेज का शिलान्यास भी प्रधानमंत्री से करवा लिया है।
     लेकिन, याद यह भी रखे कि जनता जुमलों  की सच्चाई को भी परखती है। स्मरण करें कि 1971 में गरीबी हटाओ- देश बचाओ का नारा लगा कांग्रेस सत्ता में आयी थी और आज इस पार्टी की हालात कैसी है। इसी तरह  से कहां हैं हमारे अच्छे दिन, आम आदमी यह प्रश्न करने लगा है। जिसका प्रत्यक्ष परिणाम यह है कि  पीएम बनने से पूर्व मोदी की जनसभा में जो भीड़ पुतलीघर में जुटी थी,उसकी आधी भी अबकि चंदईपुर जनसभा में नहीं दिखी। इससे काफी अधिक भीड़ तो 2017 के विधानसभा चुनाव में इसी मैदान पर मोदी के आगमन पर दिखी थी। ऐसा इसलिये कि यहां जिस बुझी चिमनी में धुआं करने का वादा 2014  में मोदी कर गये थें। प्रधानमंत्री बनने पर उसे निभा कहां सके हैं अब तक । सो, देखें 2019 में जनता क्या कहती है , क्यों कि  जुमले सत्ता की कुर्सी पर बैठा तो देता है। लेकिन, उस पर काबिज रहने के लिये अपनी बातों पर खरा उतरने की चुनौती भी रहती है।

9 comments:

  1. बेवकूफ जनता भावुकता में आकर कभी जाति-धर्म के आधार पर ,कभी तत्कालीन परिस्थितियों से उकताकर तो कभी जुमलों के प्रभाव में आकर ऐसे प्रतिनिधि चुन लेती है जो सिवाय सरदर्द के और कुछ साबित नहीं होते। मेरा मानना है कि हम ही इस लोकतांत्रिक व्यस्था के सबसे कमजोर कड़ी हऐ जिसे आसानी से अपने स्वार्थ पूर्ति का साधन बनाया जाता है।
    बातों के पहियों पर विकास का रथ खींचने वाले भला कैसे समझेंगे एक आम इंसान का दर्द।
    शशि जी बहुत ही अच्छा विचारोत्तेजक लेख लिखा आपने।

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  2. श्वेता जी ठीक कहा कि आपने कि कसूर राजनेताओं का नहीं , हम आम आदमी का है, जो अपने वोट का प्रयोग सही प्रत्याशी चयन के लिये नहीं करते। यदि एक सच्चे और अच्छे राजनेता,अधिकारी, पत्रकार, समाज सेवक, लेखक और चिन्तक की सही वक्त पर हम पहचान नहीं करेंगे, तो नुकसान उसका नहीं अपना ही करेंगे। देखें न मैं अब पत्रकारिता में बिल्कुल रुचि नहीं लेता। बस अपना पेज भर जाए,काम समाप्त। नहीं तो पहले जब राजनीति और क्राइम पर खबर लिखता था, तो वह खबर बोलती थी। परंतु जब समझ लिया कि यह बेईमानी का पेशा है। यहां दिन भर परिश्रम कर भी रोटी, कपड़ा और मकान नहीं मिलेगा। यदि किसी ने साजिश कर आपको फंसा दिया, तो संस्थान और जनता का सहयोग नहीं मिलेगा। तो खामोश हो गया।
    मेरा क्या है, मैं तो अपना मन ब्लॉग पर भी हल्का कर लूंगा। बस फर्क इतना ही पड़ेगा कि वहां हजार लोग मुझे पढ़ते थें या सौ लोग ही पढ़ेंगे। परंतु इस बात का तकलीफ तो नहीं होगा न कि समाज और संस्थान ने मेरे साथ इंसाफ नहीं किया।

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  3. जी शशि जी आपके पास विचारोत्तेजक लेखनी की ताकत तो है ही साथ ही सशक्त अभिव्यक्ति को जन-जन तक पहुँचाने का माध्यम अखबार भी है। माना भ्रष्टाचार है,संघर्ष है,कीचड़ उछालने की परंपरा भी है परंतु कहीं तो थोड़ी उम्मीद की किरण होगी न जिसकी डोर पकड़ कर आप जन-जागरण जारी रख सके...एक ईमानदार पत्रकार ही
    समाज के कोढ़ की दवा करने में सक्षम है। कृपया आपके द्वारा लिखित अखबार के पेज को बस खानापूर्ति भर तक सीमित न रखिए। अखबार के खबर का असर क्या होता है हम जैसे एक साधारण पाठक से पूछिये।
    मानते है ब्लॉग एक विस्तृत साहित्यिक मंच है जहाँ आपकी लेखनी के सच्चे प्रशंसक मिल रहे है और आगे भी प्रोत्साहित करने वालों की संख्या में बढ़ोतरी ही होगी। मेरी शुभकामनाएं सदा आपके साथ है।
    जहाँ ब्लॉग लेखन आत्मानुराग उत्पन्न करता वहीं पत्रकारिता आत्मसंतुष्टि कि आपने कुछ जनोपयोगी कार्य किया।
    पता नहीं आप सहमत होगे या नहीं पर फिर भी...।
    कृपया ज्यादा कुछ लिख गये हो तो क्षमा कर दीजिएगा

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  4. शशि भइया आप के लेख का कोई तोड़ नही क्या प्यारा लिखते है

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  5. जी श्वेता जी 25 वर्ष पूर्व जब अखबार के दफ्तर में गया था, तब यही सोच कर की एक ईमानदार पत्रकार बन कर समाज की सेवा करुंगा। बस रोटी कपड़ा और रहने के लिये किराये का एक छोटा कमरा मिल जाए। परंतु आज जनपद स्तर मैं अकेला पत्रकार रह गया जो साइकिल से चलता है और एक मुसाफिरखाने में पड़ा है। क्यों संस्थान जो साढ़े चार हजार रुपया महीना वेतन देती थी, वह भी नहीं मिल रहा और मैं जुगाड़ से पैसा नहीं कमा सकता। और जनपद स्तर पर अन्य जो पत्रकार हैं उन्हें भी 6-7 हजार ही मिलता है। सुखी पत्रकार कौन हैं,पता है आपकों, जो ठेकेदार हैं, कोटेदार हैं,रेस्टोरेन्ट और होटल संचालक हैं, व्यापारी और अधिकारी के बीच के माध्यम है। यही हैं जनपद की पत्रकारिता और संस्थान के लिये हम विज्ञापन अथार्त धन कमाने के मशीन हैं। यदि दुश्मनी निकलने के लिये किसी ने मुकदमे में फंसा दिया। तो कचहरी के पैसे के लिये कितना परेशान होना पड़ता है, यह मैं कई वर्षों से झेल रहा हूं। हां स्वतंत्र पत्रकारिता में अब भी थोड़ा सम्मान शेष है।खैर यह मेरी पीड़ा है, समाज को इससे क्या मतलब पत्रकारिता जगत में इतना शोषण हैं। इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। हां,थोड़ा सा अपने को बदल लूं ,तो निश्चित ही कुछ विभागों से पैसा मिल जाए। और मैं भी सम्पन्न पत्रकार बन सकता हूं।

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    1. मेरी अज्ञानता के लिए मुझे क्षमा कर दीजिए।
      आपके व्यक्तिगत जीवन की कठिनाइयों को महसूस कर सकते है आपकी कलम के द्वारा।
      समझ सकते है कि अपने उसूलों से समझौता करना या अपने ज़मीर से बगावत करना कितना मुश्किल होगा....आपका आक्रोश स्वाभाविक है।

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  6. धन्यबाद जाहिद भाई

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  7. जी श्वेता जी, आप ऐसा न कहें,क्यों कि आप ,रेणु दी और मीना दी ने ब्लॉग पर मेरा काफी उत्साहवर्धन किया है। सच तो यह है कि जिस भी क्षेत्र में ईमानदार लोग हैं, वे परेशान हैं, क्यों समाज उनका मूल्य नहीं समझ पाता हैंं। जिस कारण यह समाज अंततः अपना ही नुकसान कर बैठता है।
    आज आप सभी के मार्गदर्शन में मैं ब्लॉग पर कुछ लिख पा रहा हूं, अतः सदैव अभारी रहूंगा आप सभी वरिष्ठ ब्लॉग लेखिकाओं का।

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