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Tuesday 31 July 2018

अंधेरे में जो बैठे हैं, नज़र उन पर भी कुछ डालो

अरे ओ रौशनी वालोंं
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जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
ये पुरपेच गलियाँ, ये बदनाम बाज़ार
ये ग़ुमनाम राही, ये सिक्कों की झन्कार
ये इस्मत के सौदे, ये सौदों पे तकरार जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं

  दशकों  पूर्व एक फिल्म में एक रचनाकार का संघर्ष और वह हालात क्या आज नहीं है या फिर बिकती हुई खोखली रंग - रलियां आज नहीं है । बेरुह कमरों में खांसी की ठन- ठन , क्या आपकों सुनाई नहीं पड़ती।  कैसे सुनेंगे आपके तो अच्छे दिन जो आ गये हैं !  आप उड़न खटोले से दुनिया की खूबसूरती को निहार रहे हैं और हम साइकिल से बदरंग मुहल्लों को खंगाला रहे हैं। कभी देखा आप ने इस मुहल्ले की उस बूढ़ी माता को जो छोटी सी टोकरी में कुछ पापड़ के टूकड़े लिये किसी चबूतरे पर बैठ राह से गुजरने वाले हर शख्स की ओर टकटकी लगाये  है। कभी ढलते दिन को देखती है, तो कभी बचे पापड़ों को गिनती है । दिन भर थाल सजाये रहती है, फिर भी बिक्री के चंद सिक्के ही उसके हाथ लगते हैं। शाम ढलते ही डबडबाई उसकी आंखों में झांक कर अपने अच्छे दिन को आपने कभी देख  है। बूढ़े रामू काका को रोक कभी आपने पूछा कि चाचा इस 60-62 की अवस्था में रिक्शा कैसे चला लेते हो । सिर झुकाये वर्षों से  बीड़ी बनाती आ रही उस नूरबानो के करीब क्या आप कभी गये। जिसके पीले पड़े चेहरे से नूर चला गया। रुठी लक्ष्मी ने उसके यवन को डस लिया है। अत्याचार के शिकार व प्रतिशोध के लिये नक्सलियों के टट्टू बन गये  दलित- शोषित वर्ग के उन गुमराह नादानों की पथराई आंखों में क्या कभी आपने झांक कर देखा है, जेल में बंद महिला नक्सलियों से कभी आपकी मुलाकात हुई है या फिर उस फूलन देवी से आपकी मुलाकात हुई थी। नारी संग सामंती तत्वों के अत्याचार की जीवंत मिसाल रही। एक नहीं कितनों ने ही उसके अस्मत से खेला था। प्रतिशोध ने जिसे दस्यु सुंदरी बना दिया और जेल से आजाद होने के बाद दो बार हमारे मीरजापुर की सांसद भी रही। एक अनपढ़ महिला हो कर भी वे कलेक्ट्रेट - अस्पताल  एक किये रहती थीं कि जरुरतमंद गरीबों का भला हो जाए।
  पर आप उड़न खटोला वाले , आप चार पहिये वाले भला कैसे समझ पाओगे इनका दर्द। तंग गलियों में आपका रास्ता जो  होगा बंद ।  हां, आप किसी दलित के घर भोजन करने जैसा स्वांग  करना बढ़िया जानते हो। याद आया एक पार्टी के युवराज पिछली सरकार में यहां आये थें। वोटबैंक का सवाल था, क्यों कि वर्ग विशेष का युवक पुलिस के भय से गंगा में डूब मरा था।  युवराज ने उसकी विधवा को अपना मोबाइल नंबर दिया था। जो एक बार भी कभी नहीं लगा था। राजनीति क्या इतनी भी गिर गयी है। कुछ तो बोलो न साहब कि यहां लाखों की भीड़ में जिस बुझी चिमनी में धुआं करने की बात कह आप लोकतंत्र के शिखर पर पहुंच गये हो । अब तो अगला चुनाव भी आने को है, क्या इतना छोटा सा वादा भी अपना नहीं निभाओगे ।  हमारे अच्छे दिन के ख्वाब धुआं- धुआं हुये जा रहे हैं और आप आज भी वहीं छप्पन इंच सीना फुलाये हुये हो। फिर कैसा भाई- बहन का नाता जोड़े जा रहे हो , जब अपने जिले के पीतल और कालीन व्यवसाय से जुड़े श्रमिकों की आंखें नीर बहा रही हो। कभी तो मंच से नीचे आ गये होते आप । ऐसी भी दूरी क्या कि जनसभाओं में आप ही अपना भाषण देते रहो और जनता से इतना भी न पूछो कि बताओं भाई क्या परेशानी है तुम्हें । पहले तो ऐसा नहीं था, नेता सभाओं में जनता के मन की बात जान लिया करते थें, पर अब अपनी मन की बात कहते हैं वे। ग्रामीण जनता छटपटाती रही है कि किसी जन चौपाल में अपने नेता से सीधी बात हो जाए, लेकिन वे बगल से निकल जाया करते हैं।
अभी पिछले ही दिनों हमारे एक शिक्षक मित्र कह रहे थें कि देखें  न कितना विकास हो रहा है, अच्छे दिन तो आ गये हैं। वे जिस प्राइवेट स्कूल में पढ़ाते हैं। वह सत्ता पक्ष के मातृ संगठन का ही अंग है। सो, मैंने पूछ ही लिया कि गुरुवर इन चार वर्षों में आपका वेतन कितना बढ़ा है , झेप गये बेचारे।

     कोई तो बताएं कि मैं कैसे सकरात्मकता को गले लगाऊं , जब इन ढ़ाई दशकों में चहुंओर झूठ का ही व्यापार देखता आ रहा हूं। चलों अच्छा ही हुआ कि मेरी दुनिया आप से अलग है। अहंकार पर तुम्हारा हक है ,तो सम्वेदनाओं पर हमारा अधिकार है। तुम्हें लोग नमस्कार करते हैं, लेकिन हमें वे आशीष देते हैं। तुम अतृप्त गागर हो, हम प्रेम के सागर हैं। धन तुम्हारा आहार है, संघर्ष हमारा श्रृंगार है।  और भी कुछ कहूं क्या, तो सुनो तुम्हारी तिजोरी से हमारी दुनिया बड़ी है। संघर्ष पहचान दिलाता है। आज जहां पर मैं खड़ा हूं, वह कोई दलदल जमीन तो नहीं है। यह तो मेरी तपोस्थली है। पीड़ा बेरोजगार की है जरुर, फिर भी कलम का सिपाही कहा जाता हूं । तुम अमीरों की क्या पहचान शेष रहेगी तब जब न कफन में जेब होगा , न कब्र में अलमारी ही। कहां ले जाओं के इतना दौलत , जब...
   ये दुनिया नहीं जागीर किसी की
   राजा हो या रंक यहाँ तो सब हैं चौकीदार
   कुछ तो आ कर चले गये कुछ जाने को तैयार
   ये दुनिया नहीं जागीर किसी की
   ख़बरदार ख़बरदार ...

14 comments:

  1. आज के हालात और मन के दर्द को लिखा है ...
    पर कौन इसे समझना चाहता है आज ... बस एक दौड़ है सा दौड़ रहे हैं कोई रुक कर सोचना नहीं चाहता ... ये किसी की जागीर नहीं दुनिया ....

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  2. जी भाई साहब सब दौलत के पीछे दौड़ रहे हैं। जुगाड़ के लिये दौड़ते-दौड़ते अपनी पहचान भी खो रहे हैं।

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  3. ये दुनिया नहीं जागीर किसी की... पर लोग इसे अपनी जागीर समझने की भूल करते हैं | युधिष्ठर हैरान होंगे , मेरे उत्तर देने के बाद भी यक्ष प्रश्न बचा रह गया ... जीवन के सत्य को उजागर करता सुंदर लेख

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  4. धन्यवाद, आप सभी का मार्गदर्शन मिलता रहता है, यह मेरा सौभाग्य है।

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  5. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २ अगस्त २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  6. धन्यवाद श्वेता जी ,आप सभी वरिष्ठ सदस्य के समूह में मुझ जैसे कनिष्ठ आगे क्या कहूं, लेखक और रचनाकार तो अभी हूं नहीं, हां पत्रकार जरुर हूं, खैर किसी रिश्ते से सम्मलित होना, गर्व का विषय है मेरे लिये।

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  7. जी नमस्ते,
    ३ अगस्त की जगह २ अगस्त का आमंत्रण छप गया। टंकन त्रुटि के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ।
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ३अगस्त २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  8. काश!इंसान इस बात से बचे को सोचे ----''बरसों का सामन कर लिया पल की खबर नहीं'' !!!!!! बहुत ही धारदार और संवेदनशील लेख प्रिय भाई|

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  9. शाम ढलते ही डबडबाई उसकी आंखों में झांक कर अपने अच्छे दिन को आपने कभी देख है। बूढ़े रामू काका को रोक कभी आपने पूछा कि चाचा इस 60-62 की अवस्था में रिक्शा कैसे चला लेते हो । ...
    कोई तो बताएं कि मैं कैसे सकरात्मकता को गले लगाऊं , जब इन ढ़ाई दशकों में चहुंओर झूठ का ही व्यापार देखता आ रहा हूं। चलों अच्छा ही हुआ कि मेरी दुनिया आप से अलग है। अहंकार पर तुम्हारा हक है ,तो सम्वेदनाओं पर हमारा अधिकार है। तुम्हें लोग नमस्कार करते हैं, लेकिन हमें वे आशीष देते हैं।...
    भूरि-भूरि प्रशंसा के योग्य लाज़वाब कृति... वाह

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  10. सारा दर्द उकेर कर रख दिया आपने...
    हम आपकी मदद लेना चाहते हैं...
    मुमकिन हो तो ई-डाक का पता दीजिएगा
    सादर...

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  11. सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर आम आदमी के दर्द को महसूस कर उसे आलेख में उकेरा है आपने, मुंशी प्रेमचंद जी की रचनाएँ याद दिला दी और सत्य का बिलखता चेहरा सामने कर दिखाया।
    यथार्थ और मर्मस्पर्शी लेख, शाहिर लुधियानवी की यथार्थ पंक्तियों से शुरूआत आलेख का श्रृंगार है।
    अप्रतिम।

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  12. इस ब्लॉग के आप जैसे प्रमुख रचनाकारों को पाकर काफी हर्षित हूं। और प्रसन्नता से बढ़ कर कोई धन नहीं है। खुश इस लिये भी हो कि ढ़ाई दशक तक एक छोटे से शहर को अपना कर्मक्षेत्र बनाने वाला यह अदना सा शख्स बाहरी दुनिया में भी कुछ ठिठक के ही सही कदम रखने का साहस तो जुटा पाया है। हम सभी अपने विचारों से रचनाओं से आम आदमी के जीवन में रंग भरें,उम्र के इस पड़ाव पर बस मेरी यही व्याकुलता है। धन- सम्पत्ति, घर , उत्तम प्रकार के भोजन, मान- अपमान , बनावटपन इन सभी को मैंने इस ढ़ाई दशक के कठिन संघर्ष में पीछे छोड़ चुका हूं। जो अभी भी नहीं छोड़ पाया , उसके लिये प्रयास निरंतर कर रहा हूं।
    अब भला और मुझे क्या चाहिए। हां , सभी का स्नेह चाहता हूं एवं स्वयं भी ऐसा बनना चाहता हूं कि मृत्यु पर मुझे आप सभी भला मानुष कहें।

    आप सभी को सादर प्रणाम

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yes