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Sunday 23 September 2018

अपने पे भरोसा है तो एक दाँव लगा ले...

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  ( जीवन की पाठशाला से )

  पशुता के इस भाव से आहत गुलाब पँखुड़ियों में बदल चुका था और गृह से अन्दर बाहर करने वालों के पाँँव तले कुचला जा रहा था। काश ! यह जानवर न आया होता, तो उसका उसके इष्ट के मस्तक पर चढ़ना तय था।पर ,नियति  को मैंने इतना अधिकार नहीं दिया है कि वह मुझे किसी की सीढ़ियों पर गुलाब की पँखुड़ियों की तरह बिखेर सके , ताकि औरों के पाँँव तले मेरा स्वाभिमान कुचला जाए। यदि हम कृत्रिमता से दूर रह कर अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन करते रहेंगे, तो नियति हमसे हमारी पहचान नहीं छीन सकती ...

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ज़िन्दगी एक सफ़र है सुहाना
यहाँ कल क्या हो किसने जाना
हँसते गाते जहाँ से गुज़र
दुनिया की तू परवाह ना कर
मुस्कुराते हुए दिन बिताना...

     सुबह  प्रतिदिन की भांति अपना दैनिक कार्य संपन्न करने निकला था। कान के बाईं तरफ ईयर वैसे ही लगा था। मेरी आदत सी है कि यदि मन मिजाज ठीक रहता है, तो किशोर दा को सुनना पसंद करता हूँ, नहीं तो मेरे सदाबहार गायक तो मुकेश ही हैं। आज अखबार का बंडल एक घंटे विलंब से मिला था। आसमान भी अपनी काली चादर का त्याग चुका था। अच्छी बारिश हुई थी, अतः मौसम  सुहावना था। आगे बढ़ा तो मार्ग में एक धनिक के उपवन पर दृष्टि चली गयी। वहाँ ,खिले सुर्ख गुलाब को लगा मैं अपलक निहारने। तभी माली आया और उसके बेदर्द कठोर हाथ ने एक-एक कर सभी ताजे खिले गुलाब के फूलों को तोड़ लिया। यह देख मेरा विरक्त मन कुछ चित्कार कर उठा और मस्तिष्क  चिन्तन में डूब गया। सोचने लगा कि अब इस मासूम गुलाब का क्या होगा। हम सभी यही कहेंगे कि श्रेष्ठ स्थिति तो यही है न कि वह किसी मंदिर की शोभा बढ़ाये, इंसान भी उसे धारण कर सकता है और रात में वह किसी के शयन कक्ष में रौंदा भी तो जा सकता है वह । एक दिन देखा कि वह सीढ़ियों पर बिखरा पड़ा है। माली थैली में भर उसे धनिक के दरवाजे पर लटका गया था , लेकिन किसी जानवर की नजर उस पर पड़ गयी और अपना मुहँ मार गया उस थैली पर , पशुता के इस भाव से अभागा गुलाब पँखुड़ियों में बदल चुका था और गृह से अन्दर बाहर करने वालों के पाँँव तले कुचला जा रहा था। काश ! यह जानवर न आया होता, तो उसका उसके इष्ट के मस्तक पर चढ़ना तय था। यही सोच तो वह अपने भाग्य पर इतरा रहा था, लेकिन देखें न क्या से क्या हो गया यह बेचारा अपना खुबसूरत गुलाब, कहाँ खो गयी उसकी वह मुस्कान..?
   बंधुओं इसे ही कहते हैं नियति का तमाशा। हम उसके समक्ष कुछ कहने को असमर्थ हैं , सिर्फ इस दर्द भरे नगमे के...

मैं ये भूल जाऊँगा ज़िंदगी
कभी मुस्कुरायी थी प्यार में
मैं ये भूल जाऊँगा मेरा दिल
कभी खिल उठा था बहार में..

     पर हाँ , यह गुलाब जब तक कांटों से भरी अपनी डाली से जुड़ा था, पल दो पल का उसका अपना अस्तित्व निश्चित था यहाँ। कांंटा क्या है , यह मानव जीवन की चुनौतियाँ ही तो हैं ? जब तक गुलाब ने उसे स्वीकार किया। उस पर भंवरे मंडराते रहें, तितलियाँ आती रहीं और  हम उसके सौंदर्य के अभिलाषी रहें। परंतु जैसे ही भौतिकता (माली) का स्पर्श उससे हुआ, उसमें कृत्रिमता आ गयी। फिर चाहे वह सुंदर पुष्पहार बने, पुष्पगुच्छ बने या किसी मंदिर की शोभा ही क्यों न बने , सौंदर्य गुलाब का नहीं उसे धारण करने वाले का बढ़ता है।
                ठीक उसी तरह जब तक हम अपने परिवार से ,अपनी जमीन से ,अपने जमीर से और अपने संघर्ष से जुड़े हैं, तब तक हमारा भी अस्तित्व है भले ही उसमें कांटे( चुनौती) अनेक हो। नहीं तो पता नहीं नियति ( माली)  क्या करे हमारा ..?
   मुझे ही देख लें न , घर से क्या निकला , कभी किसी के गले का हार बना, तो कभी उसी के पाँँव रौंद दिया गया। फिर तो कुछ ऐसा लगा था कि...

तुम्हें अपना कहने की चाह में
कभी हो सके न किसी के हम
यही दर्द मेरे जिगर में है
मुझे मार डालेगा बस ये ग़म
मैं वो गुल हूँ जो न खिला कभी
मुझे क्यों न शाख़ से तोड़ दो
मुझे तुम से कुछ भी   ...

अपने गिरने - सम्हलने का यह सिलसिला यूँ ही जारी है और उम्र के इस पड़ाव पर एक फकीर सा इधर- उधर विचरण कर रहा हूँ।  कुछ यूँ  गुनगुना कर अपने मन को तसल्ली दे रहा हूँ ..

आने वाला पल जाने वाला है
हो सके तो इस में
ज़िंदगी बिता दो
पल जो ये जाने वाला है...

    वैसे, सकरात्मक पक्ष मेरा यह है कि बचपन से ही एक विश्वास रहा है मुझे कि नियति जहाँ भी ले जा फेंके, वहाँ इस गुलाब सा पल दो पल के लिये ही सही, पर एक पहचान होगी मेरी। चाहे छात्र रहा या फिर पत्रकार । मंदिर मेरे सपनों का टूटा अवश्य , पर इस दर्द ने नयी पहचान दी , नये मित्र दिये और नये संबंध दिये । नियति  को मैंने इतना अधिकार नहीं दिया है कि वह मुझे किसी की सीढ़ियों पर गुलाब की पँखुड़ियों की तरह बिखेर सके , ताकि औरों के पाँँव तले मेरा स्वाभिमान कुचला जाए। यदि हम कृत्रिमता से दूर रह कर अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन करते रहेंगे, तो नियति हमसे हमारी पहचान नहीं छीन सकती ...
       यह मेरी चुनौती है उसे । अब देखे न साहित्यिक ज्ञान में नर्सरी का छात्र जैसा ही हूँ, फिर भी ब्लॉग पर  कुछ पहचान बनाया हूँ न..?  क्यों है ऐसा , यह हमारा अपने निःस्वार्थ
कर्म के प्रति समर्पण है। मैं हर किसी से कहता हूँ , चाय वाले से, पान वाले से लेकर भद्रजनों से भी कि रंगमंच पर अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन करें। नियति यह अधिकार हमसे नहीं छीन सकती। एक नगमा मुझे हमेशा प्रेरित करता है-

तदबीर से बिगड़ी हुई, तकदीर बना ले
अपने पे भरोसा है तो एक दाँव लगा ले...

     ब्लॉग पर अधिकांशतः मैं अपनी ही बात कहता हूँ। नियति के इसी आईने में स्वयंको समझने -सुधारने का प्रयास करता हूँ। मेरी उलझी हुयी इस राह में स्नेही जनों के मिलने का क्रम जारी है। परंतु सच कहूँ, यह जीवन नहीं है मित्रों। हाँ , एक पत्रकार हूँ, ढ़ाई दशक गुजरा है अपने इसी दुनिया में, इसीलिये एक सामाजिक पहचान है , मान भी लिया हूँ  कि यही मेरा घर- संसार  है। लेकिन, शाम ढ़लने के बाद खाली आशियाने में रात गुजारने का दर्द हर इंसान नहीं सहन कर सकता है। भले ही संतों की तरह रुप, रंग, सुंगध और स्वाद से दूरी बना ले वह। यह मासूम सा दिल उसका फिर भी बच्चों की तरह मचलता है किसी ममतामयी आंचल की चाहत में, दर्द नगमे बन जाते है...

एक हसरत थी कि आँचल का मुझे प्यार मिले
मैने मंज़िल को तलाशा मुझे बाज़ार मिले
ज़िन्दगी और बता  तेरा इरादा क्या है
मुझको पैदा किया संसार में दो लाशों ने
और बरबाद किया क़ौम के अय्याशों ने
तेरे दामन में बता मौत से ज़्यादा क्या है..

      मन को ज्ञान के झुनझुने से इतनी आसानी से फुसलाया नहीं जा सकता है , कभी - कभी तो इस कोशिश में पूरी उम्र ही निकल जाती है । अतः परिवार में रह कर गुलाब सा खिलें , पूर्णता को प्राप्त करें, यदि नियति ने वियोग दिया भी तो  कामनाओं को पीछे छोड़ दें। फिर भय नहीं रहेगा कुचले जाने का , ठुकराये जाने का । अपने को समाज को अर्पित कर दें। अभी तक तो यही अटका हुआ है मेरा चिन्तन। देखूँ कहाँ तक इस पर कायम रह पाता हूँ।



Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (अपने पे भरोसा है तो एक दाँव लगा ले.. ) आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 




   

16 comments:

  1. निशब्द हो जाती हूं आदरणीय जब भी आपका आलेख पढ़ती बेहद
    हृदयस्पर्शी लेख लिखा आपने यदि हम कृत्रिमता से दूर रह कर अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन करते रहेंगे, तो नियति हमसे हमारी पहचान नहीं छीन सकती ...

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  2. जी शशि जी,आपकी भावपूर्ण लेखनी और हृदय से निकले उद्गार सदैव मन स्पर्श कर जाती है।
    पुष्प के माध्यम से व्यक्त किया गया जीवन दर्शन बहुत सार्थक संदेश देने में सफल हैं।
    सही कहा मन को ज्ञान के झुनझुने से आखिर कैसे बहलाया जा सकता है, मन का मोह हर ज्ञान से ऊपर जो है।
    बीच-बीच में लिखी गयी गाने की पंक्तियाँ बहुत अच्छी हैं।

    आपकी रचना को मेरी क़लम से कुछ पंक्तियाँ समर्पित है।

    पुष्प के उद्गार-

    कोमल पुष्प हूँ,तो क्या?
    देख नयन मुग्ध है,तो क्या?
    खुशबू विशुद्ध है,तो क्या?
    टूटकर बिखरने के पूर्व,
    सूखकर गिरने के पूर्व,
    क्षणभंगुर जीवन यह मेरा,
    किसी के काम तो आया
    मिटना ही मेरी नियति है
    किसी पाँव तले कुचलकर
    किसी गुलदान में सजकर
    किसी ईश के चरण छूकर
    किसी जनाजे संग धू-धूकर
    कर्म की सार्थकता को पाया
    चंद पंखुड़ियों का बलिदान कर
    व्यर्थ जीवन से मु्क्ति पाया।

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    1. संशोधन-

      चंद पंखुड़ियों का बलिदान कर
      व्यर्थ जीवन यह मु्क्त कर आया।

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    2. वाह श्वेता ! बहुत ही सुंदर पुष्प दर्शन !!!!

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    3. सादर आभार दी।
      स्नेहाशीष बनाये रखें।

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  3. जी आपका हृदय से आभार, हमेश की तरह अपनी प्रतिक्रिया से मनोबल ऊँचा रहता है।

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  4. चंद पंखुड़ियों का बलिदान कर
    व्यर्थ जीवन यह मु्क्त कर आया।

    जी श्वेता जी बहुत ही भावपूर्ण रचना है आपकी, सचमुच व्यर्थ जीवन से मुक्ति का यह बलिदान उत्तम पथ है।
    आप सदैव मार्गदर्शक की भूमिका में दिखती हैं, आपकों और क्या कहूँ...?

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  5. '' यदि हम कृत्रिमता से दूर रह कर अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन करते रहेंगे, तो नियति हमसे हमारी पहचान नहीं छीन सकती ...''

    प्रिय शशि भाई -- आपकी ये पंक्तियाँ कितनी प्रेरक हैं शब्दों में कह पाना बहुत ही कठिन या कहूं असम्भव हैं | आपके इसी जीवन दर्शन ने बहुत कम समय में ही ब्लॉग जगत के हर आमोखास पाठक के भीतर व्याप्त हो आपको सबसे अनायास जोड़ दिया है पुष्प के माध्यम से आपने स्वाभिमान की सता को बखूबी स्वीकारा है और उस आचरण को सार्थकता से जिया भी है | पर यही है नियति जिसे इंसान कभी खुद के हिसाब से नहीं बदल पाया है | '' तेरे मन कुछ और है विधना के कुछ और '' यही जीवन है भले इंसान का हो या पुष्प का | सुंदर, प्रेरक सराहनीय लेख के लिए आप बधाई के पात्र हैं | सस्नेह --

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  6. बहुत कम समय में ही आपके ब्लॉग की बढती लोकप्रियता देख बहुत ख़ुशी होती है | बहुत संख्या में पाठक और ब्लॉग जगत की प्रमुख हस्तियाँ आपके ब्लॉग से जुड़ गयी है | तेजी से बढती पृष्ठ दृश्य संख्या बहुत उत्साहजनक है |

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  7. जी रेणु दी यह तो आपका स्नेह है।
    फिर भी एक प्रश्न मैं सदैव स्वयं से ही करते रहता हूँ कि मैंने ऐसा क्या लिखा,जिन साहित्यिक शब्दों का प्रयोग रचना में होना चाहिए, वह मैं कर ही नहीं पाता,श्वेता जी जैसी विदूषी रचनाकार को भी मेरे लेख पंसद आये। मैं कुछ समझ ही नहीं पाता न दी

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    1. जी शशि जी,
      हम मात्र एक पाठक हैं..आप ही की तरह अन्य अन्य रचनाकारों की तरह,आपके दिए इतने मान से अभिभूत हैंं।
      साहित्यिक या असाहित्यक तो नहीं पता है पर आपकी सहज,सरल,स्वाभाविक अभिव्यक्ति बहुत पसंद आती है।
      रचना वही सार्थक है जिसे पढ़कर आम पाठक स्वयं को उन शब्दों और भावों से जोड़ सके।
      इस तरह तो आपकी क़लम और आपके विचार हम जैसे साधारण पाठक को प्रभावित करने में सक्षम है।
      कृपया लिखते रहें।
      बहुत सारी शुभकामनाएँ मेरी।

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  9. शी भाई -- भगवान् राम को शबरी का ही स्नेह क्यों भाया ? और भगवान् कृष्ण ने विदुर के घर साग क्यों खाया और दुर्योधन के मेवा क्यों ठुकराए ? ये सब इस लिए की ईश्वर को भी छल कपट दिखावा नहीं भाया | उसने भी सरलता और निर्मलता की महिमा की गरिमा बढाई और हृदय से अपने सरल भक्तों के भावों को स्वीकार उन पर अनुग्रह किया | इसी प्रकार आप के सरलता भरे उदगार हैं जो आपके मन से पाठक के मन तक सहजता से पंहुच जाते हैं | और साहित्य क्या है और क्या साहित्यिक ? ये मुझे भी नहीं पता | मैंने भी वही लिखा जो मेरे मन आया | सही अर्थों में यही लेखन कला है | आप कलम के धनी है और आपके लेखन में कोई साहित्यिक कमी नजर नहीं आती |एक पत्रकार के रूप में लंबा लेखन काल रहा आपका | इतना मत सोचा करिये | खुद पर विश्वास रखिये | बहुत अच्छा और सच्चा लिख रहे हैं आप |बहन श्वेता भी लेखन के मर्म को खूब समझती हैं और नए रचनाकारों का मनोबल बढ़ाना बखूबी जानती हैं | आप खुश रहिये और सहज भाव से लिखते रहिये | शुभरात्री |

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  10. श्वेता जी आप मात्र एक पाठक नहीं हैं, समीक्षक की भूमिका में भी हैं न..
    वैसे पत्रकार होने के लिहाज से मैं भी समीक्षा करता रहता हूँ। पत्रकारिता के क्षेत्र में अवश्य मेरी लेखनी सशक्त है,परंतु आप जैसी वरिष्ठ रचनाकारों का यहाँ बस स्नेह और मार्गदर्शन ही चाहूँगा।

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  11. Shashi Gupta जी बधाई हो!,
    आपका लेख - (अपने पे भरोसा है तो एक दाँव लगा ले.. ) आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है |
    अपने पे भरोसा है तो एक दाँव लगा ले..
    धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन

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