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Wednesday 17 October 2018

जब तक मैंने समझा जीवन क्या है ,जीवन बीत गया...

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रावण का पुतला दहन हम नहीं भूले हैं, लेकिन भ्रष्टाचार, अनाचार और कुविचार से ग्रसित हो हम स्वयं आदर्श पुरुष का मुखौटा लगाये उसी रावण के सामने खड़े हैं , जिसने सीता को अशोक वाटिका में रखा था, अपने महल में नहीं..
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मैं कहाँ रहूँ मैं कहाँ बसूँ ना ये मुझसे ख़ुश ना वो मुझसे ख़ुश
 मैं ज़मीं की पीठ का बोझ हूँ मैं फ़लक़ के दिल का ग़ुबार हूँ
न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम न आ सके मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ ...

     वेदनाएँ कुछ ऐसी भी होती हैं, जो इंसान को अंदर ही अंदर जला कर राख कर देती हैं। ऐसे में यदि एकाकीपन से भी मित्रता हो जाए तो उस मनुष्य का जीवन मोमबत्ती की आंसुओं की तरह ढुलक ढुलक कर एक दिन समाप्त हो जाता है। आनंद के जो अवसर प्रत्यक्ष है ,उसे छोड़ ऐसे मनुष्य कल्पनाओं एवं स्मृतियों में डूबे रहते हैं और बदले में कुछ न मिल पाता है।
     अजीब सी उलझन है मेरी भी , यही बात हर पर्व- त्योहार पर मैं अपने मासूम दिल को समझाता हूँ कि देखों मित्र जब तन्हाई का साथ मिला है,तो वैराग्य की ओर बस बढ़ते जाओं।  यह मेला - पर्व तुम्हारे लिये नहीं है। तुम्हारा मेला तो कब का पीछे छूट चुका है । बचपन की वो बातें याद कर इस भुलभुलैये में ना रहों कि तुम भी अब सामान्य परिवार  की तरह अपनों संग यह आनंद सुख प्राप्त कर सकोगे। देखों तो बाजार में कितनी चहल पहल है। युवा हो या प्रौढ़ अथवा वृद्ध ही क्यों न हो, ये दम्पति किस तरह से मधुर वार्तालाप करते हुये इस उत्सव को महसूस कर रहे हैं। मेले में बच्चों संग इस तरह से सुशोभित हैं, मानों  शंकर- पार्वती का परिवार हो।
   परंतु तुम मेले में जाकर क्या करोगे..? यहाँ तुम्हारे संग कोई न होगा अपना , स्मृतियों के अतिरिक्त तुम्हारा... व्यर्थ न  संताप करों।
    फिर भी वह मानने को भला कब तैयार होता है। दिल के उन जख्मों का भला कौन इलाज है ,जो अपनों ने दिये हैं। धीरे-धीरे कर के दिन, महीने और वर्ष गुजर रहे हैं। वर्ष 1994 में जब इस जनपद में आया था, तो इन आँखों में एक चमक थी और आज एक बंद कमरे में पड़ा अतीत से पीछा छुड़ाने के लिये हर सम्भव प्रयत्न कर रहा हूँ , पर मेरे सिर पर रखी यादों की यह पोटली इतनी भारी हो चुकी है कि न स्वयं इसे उतार पाने में समर्थ हूँ, न ही कोई मनमीत है जो इस बोझ में हिस्सेदार बन जाए...
    इसे साथ लेकर ही मुझे तब तक बस चलते जाना है, जब तक सांसें न थम जाएँ।  फिर भी पथिक यह उम्मीद खुद से लगाये हुये है कि वह संत सा बन जाए..  !  उपहास भी कर सकते हैं आप मुझपर कि कैसा बावला इंसान है यह भी ... !!
   पर मित्र उलझनें भी तो राह दिखलाती हैं। वह हमें बुद्ध, तुलसी और भृतहरि भी बनाती हैं । सो, क्यों न अपनी ही इन उदास अंधेरी रातों में कुछ ऐसा ढूंढने की कोशिश हो, जो औरों के लिये नूर बन जाए और हम कोहिनूर ...
     यदि जिगर पर यह चोट न होती , तो आज इतनी चिन्तन शक्ति कहाँ से पाता मैं । कुछ अपनी, तो कुछ औरों की सोचने का भला वक्त रहता क्या मेरे पास ऐसे खुशियों भरे पर्व पर ..?  गृहस्थी की गाड़ी  कहाँ से कहाँ पहुँच चुकी होती। दशहरा, दीवाली और होली पर नये वस्त्र पहने तो वर्षों क्या दशकों बीत गये  एवं पकवान से भी रिश्ता ऐसे खास त्योहारों पर टूट चुका है।
  कोलकाता का वह बचपन, बनारस का छात्र जीवन और मीरजापुर का जीवन संघर्ष सब कब का पीछे छूट चुका है। इस दुनिया के मेले में भटकता रह मन कभी यूँ ही बहकी- बहकी बातें करता है..

एक ख़्वाब सा देखा था हमने
जब आँख खुली वो टूट गया
 ये प्यार अगर सपना बनकर
तड़पाये कभी तो मत रोना
 हम छोड़ चले हैं महफ़िल को
याद आये कभी तो मत रोना...

  मन के इस अंधकार को मिटाने के लिये अपनी चिन्तन शक्ति को दीपक बनाने की कोशिश में बार-बार उसकी अग्नि से चित्त की शांति को झुलसाने की आदत सी पड़ गयी है मेरी । फिर भी एक लाभ यह तो है ही कि आवारागर्दी से जो बचा रहता हूँ , दिखावे से बचा रहता हूँ और झूठ से भी.. भद्रजन कहलाने के लिये किसी मुखौटे की मुझे जरुरत नहीं.. यह समाज जानता है कि मुझे उससे अब और कुछ नहीं चाहिए.. जो दर्द मिला है , वह मेरी लेखनी में समा गया है.. वहीं मेरी पहचान है, वही मेरा ज्ञान है, भगवान है..?
  उसी से तो यह विचार मंथन जारी है कि हम सिर्फ अपने लिये क्यों जीते हैं ..? सुबह से रात तक बस अपना ही अपना लगाये रहते हैं..
  देखें न  इन बड़े बड़े दुर्गा पंडालों में कितनी तेज आवाज में देवी जी के गीत बज रहे हैं। मेरे पड़ोस में भद्रजनों के डांडिया रास  के लिये अत्यधिक तेज आवाज में देर रात तक डीजे भी बज रहा है। आयोजकों ने तनिक भी नहीं सोचा है कि अस्वस्थ वृद्ध जनों को इससे परेशानी होगी। मेरे दोस्त यह जो अपनी मनमानी कर रहे हो न , एक दिन तुम्हें भी कोई अपना नहींं  समझेगा.. इसमें तनिक भी संदेह न समझना..

  और इन पंडालों में आकर्षक विद्युत उपकरणों की सजावट को देख कर एक और विचार मेरे मन में आता रहा  है हर वर्ष कि काश ! यह चकाचौंध भरी रोशनी जो सीमित क्षेत्र में है, उसका विस्तार हो जाता तो कितना अच्छा होता...?  जिस खुशी में हर किसी के लिए कोई जगह होता, तो कितना अच्छा होता । हम बंजारे तो कुछ ऐसा ही चाहेंगे न कि इस रंगीन दुनिया में हमारे लिये भी कोई जगह होता , तो कितना अच्छा होता। अपना यह मीरजापुर छोटा शहर है , तब भी एक - एक दुर्गा पंडाल पर कई लाख रुपये खर्च हो जाते हैं। महानगरों की बात पूछे ही मत। मैं यहाँ बंगाल की नहीं हिन्दी भाषी क्षेत्रों की बात कर  रहा हूँ। तीन - चार दिन के मेले में करोड़ों रुपये  दुर्गा पूजा पर खर्च हो जाते हैं..
  क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि इन्हीं पैसों से ये आयोजक गरीब बच्चों के चहरे पर थोड़ी सी मुस्कान लाते...?  अनाथालयों में जाकर कुछ नये कपड़े और मिठाइयाँ बांट आते.. किसी के परिवार में कोई गंभीर रोग से पीड़ित है, तो उसका उपचार करवा देतें.. नहीं तो दो- चार निर्धन कन्याओं के हाथ ही पीली करवा देते...किसी निर्धन नौजवान की प्रतिभा को कुंठित होने से रोक भी सकते थें न..
    मैं भी न यह कैसा मूर्खतापूर्ण सवाल कर उठा हूँ। ऐसा भी भला सम्भव है क्या कि जगत जननी का पूजन सामान्य तरीके से कर उसी धन का उपयोग जनकल्याण में किया जाए..?
   सैकड़ों वर्ष पुरानी हमारी रामलीला विलाप कर रही है। कितनी तैयारी होती थी रामलीला को लेकर । पात्रों का चयन , उन्हें सम्वाद रटाना, सभी पात्रों के लिये वस्त्र आदि की व्यवस्था, किस तरह से भीड़ लगती थी राम लीला स्थल पर । दादी का हाथ थामें हम भाई -बहन भी देखने जाया करते थें। तरह - तरह के मुखौटे खरीद लाते थें । तीर- धनुष, तलवार और गदा लिये ललकार लगाते थें। जो अपनी संस्कृति थी , वह धूल में मिल रही । हाँ , रावण का पुतला दहन हम नहीं भूले हैं। लेकिन, भ्रष्टाचार, अनाचार और कुविचार से ग्रसित आदर्श पुरुष  का मुखौटा लगाये हम स्वयं  उसी रावण के सामने खड़े हैं। जिसने सीता को अशोक वाटिका में रखा था, अपने महल में नहीं, यह भी सत्य है कि रावण कभी अकेले सीता से मुलाकात तक को नहीं गया था। जब हममें रामत्व है ही नहीं, तो किस अधिकार से महापंडित उस रावण का पुतला हम जलाते हैं..?  असली रावण तो हमारे अंदर ही है , घर - घर रावण है, फिर काहे का पुतला जला रहे हो..??
   पहले राम तो बना जाए .. अयोध्या के राज महल से निकलने के बाद राम ने दलित, शोषित, पीड़ित वर्ग के लिये कितने ही कार्य किये । उन जनकल्याण के कार्यों ने उन्हें वह सामर्थ्य दिया कि त्रिलोक विजेता  रावण का वध कर सकें । आज हम जनहित के एक भी कार्य किये बिना ही दशहरा मना रहे हैं। जरा विचार करें आप भी इसपर..?

  खैर, अपना तो यह जीवन सफर यूँ  ही बीत गया। हर चाहत मुझे और तन्हा कर गयी...

खुशियों के हर फूल से मैंने
ग़म का हार पिरोया
प्यार तमन्ना थी जीवन की
प्यार को पा के खोया
अपनों से खुद तोड़के नाता
अपनेपन को रोया
जब तक मैंने समझा अपना क्या है
सपना टूट गया
जब तक मैंने समझा जीवन क्या है
जीवन बीत गया...

13 comments:

  1. प्रिय शशि भाई -- अपनी वेदना के साथ सामाजिक रूप में खंडित हो रहे जीवन मूल्यों के प्रति आपका चिंतन सटीक है | सच में रावण के भी कुछ नैतिक मूल्य थे पर आज के वहशियों के वो भी नही | इनसे पूछना बनता हैकि किस अधिकार से ये लोग रावण का पुतला जलाने का अधिकार रखते हैं | अब तो ये प्रंच बंद करो | मारना है तो भीतर व्याप्त रावण को मारिये | यूँ उत्सव स्थिर जीवन में अद्भुत चेतना का संचार करते हैं पर इनकी जीर्णता अब स्पष्ट दिखने लगी है | आपने सही लिखा रामलीला विलाप कर रही है | उसका स्वर्णिम युग अब बीत चला |मुझे भी अपने गाँव की रामलीला जो हमारे पूरे जिले में एक मिसाल थी याद आती है | रामलीला के मंचीय कलाकार सारे गाँव में पूजनीय से हो जाते थे और वे रामलीला मंचन के दौरान शाकाहार वो भी एक समय आहार . धरा शयन और धूम्रपान निषेध आदि नियमों का कडाई से पालन करते थे | गाँव के अलावा दुसरे गाँव से आकर लोग रामलीला का आनन्द तो लेते ही थे आसपास के कलाकारों को भी अपनी प्रतिभा के जौहर दिखाने का भरपूर मौक़ा मिलता था | सबसे बड़ी बात याद आती है दर्शकों की बैठने की व्यवस्था | गाँव की बेटियों और सभी महिला वर्ग के लिए बहुत ही सुरक्षित स्थान दिया जाता था जहाँ बैठकर वे भी रामलीला का आनन्द ले पाती थी | अब तो सुना है रामलीला क्लब बंद सा हो गया है |

    उपसंहार काव्य आपके मन की वेदना को कहता हुआ मन को भीतर तक झझकोर जाता है | इस वेदना की सांत्वना के लिए कोई शब्द नहीं ढूंढ पाती मैं | बस दुआ करती हूँ आप को माँ जगदम्बा जीने के लिए शक्ति प्रदान करती रहे सस्नेह --

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    1. बिल्कुल सही कहा दीदी आपने, नमन

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  2. जी रेणु दी आभार आपका, यह स्नेह सदैव बना रहे...

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  3. आदरणीय शशि सर, मानवता के विराट इतिहास से लेकर वर्तमान की छलवादी परंपरा तक की, आपकी इस अनूठी रचना ने मानवीय महत्वाकांक्षा के हर पहलू का बख़ूबी निरीक्षण किया है। स्तब्ध हूँ इस रचना को पढ़कर। समाज के मार्गदर्शन के लिए आपके लेखनी की इस श्रेष्ठता के प्रति श्रद्धा भाव🙏
    सैकड़ों वर्ष पुरानी हमारी रामलीला विलाप कर रही है। ... अक्षरशः सत्य कहा सर आपने। एक छोटा सआ उदाहरण लें,
    माता-पिता या किसी भी अन्य वरिष्ठ जन द्वारा समझाई बात की अवमानना से उनका अंतर्मन व्यथित होता। निस्संदेह रामलीला भी वतर्मान में फलित कुकर्मों (अवांछित कर्म) से आहत हो, विलाप कर रही है। सोचनीय परिस्थिति...🤔
    सही रीतियों को आचरण में ढालने के लिए आगाह करता उत्तम लेख। सादर🙏🙏🙏

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  4. निश्छल भाई यह उपनाम आपका मुझे बेहद पसंद है। बस हम मनुष्यों का हृदय इसी के अनुरूप हो जाए.. सही राह भी तब हमें मिलेगी और मंजिल भी.. प्रयास अपना भी यही है कि आपकी तरह ही निश्छल हो जाऊं काश !
    वैसे शशि कहलाने का कर्तव्य भी हमें पूर्ण करना है अभी तो..
    धन्यवाद ब्लॉग पर आने के लिये।

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  5. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १९ अक्टूबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  6. इस पथिक की बातों को अपने ब्लॉग पर स्थान देन के लिये हृदय से आपका बहुत बहुत आभार श्वेता जी

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  7. सटीक चिंतन

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  8. सही कहा आपने त्योहारों को मनाने के परम्परा गत भाईचारे की जगह दिखावे और आडम्बर अथाक बढ गये हैं, और मूल उद्येश्य समाप्त हो गये, तथा कथित गणमान्य लोग विराट रूप में आयोजन करते हैं और करोड़ों रुपये स्वाहा होते हैं और जरुरत मंद अभाव ग्रस्त जीवन जीता है।
    एकाकी मन की व्यथा यथार्थ दर्शन कर मनन तक का सटीक चिंतन देता आलेख।

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  9. जी हृदय से आभार आपका ब्लाग पर आकर प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिये, प्रणाम।

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yes