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Tuesday 6 November 2018

कच्ची मिट्टी के ये पक्के दिए , भूल न जाना लेना तुम...


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दीपोत्सव पर्व को लेकर बजारों में रौनक है। कल धनतेरस पर करोड़ों का व्यापार हुआ है। बड़े प्रतिष्ठान चाहे जो भी हो,धन सम्पन्न ग्राहकों का प्रथम आकर्षण वहीं केंद्रित रहता है। छोटे -छोटे दुकानदार फिर भी कुछ उदास से ही दिख रहे हैं , इस चकाचौंध भरे त्योहार में। सो, हमारा प्रयास होना चाहिए कि ऐसे खुशी के अवसर पर  उस वृद्ध महिला को ,जो दीपक और अन्य मिट्टी के खिलौने लिये सड़क पर बैठी हुई है और उस मासूम बालक को, जो अपने नाजुक गर्दन में टोकरी लटकाये रुई ले लो की पुकार लगा रहा है , कुछ लड़कियाँ सिर पर टोकरी में कमल के फूल रखें मिलीं, एक प्रयास होना चाहिए हमारा कि इन सभी को निराश न किया जाए। इन्हें खाली हाथ वापस न घर लौटना पड़े, वे भी खुशी खुशी अपना पर्व मनाएँँ., तभी हम भी ऐसे त्योहार मनाने के हकदार हैं..

निकले जो तुम आज घर से
फ़रमाइशों की फ़ेहरिस्त लिये
बटुए में बंद कर के वो नोट हजार
 तुम निकले भरी दुपहरी खरीदने बाज़ार
इस चकाचौंध इस धक्का-मुक्की में
 शायद तुम लेना भूल गए
 ये कच्ची मिट्टी के पक्के दिए
 तुम साथ ले जाना भूल गए...

  बंधुओं, ऐसा न करें। हम सभी क्यों न आपस में मिलजुल त्योहार मनाएँँ। अपने घर के साथ-साथ औरों के घरों को भी रौशन करने के लिये एक कोशिश तो हो न..।
 अन्यथा , कभी फिर आप ही कहेंगे कि दीपावली पर्व दिनोंं दिन उदास क्यों होती जा रही है। अमावस की यह रात और स्याह क्यों होती जा रही है..? बड़ी -बड़ी अट्टालिकाओं को जगमगाते ये कृत्रित प्रकाश इंसान के मन को रौशन क्यों नहींं कर रहा है..?
 बाजार में सब कुछ तो है, फिर भी इंसानियत क्यों नहीं है। हमें अपनी खुशियों का ध्यान तो ऐसे प्रमुख पर्वों पर खूब होता है, परंतु हमारे जैसे और भी इंसान हैं, जिनके पास पर्व मनाने के लिये बहुत सीमित सन-साधन है, हम कुछ खुशियाँ उन्हें तो दे ही  सकते हैं। मसलन, पर्वों पर अपनी मौजमस्ती और अपनी फिजूलखर्ची  में कुछ कटौती कर के, कम से कम एक डिब्बा मिठाई ही सही अपने बच्चे के हाथों दीपावली के उपहार के तौर पर किसी ऐसे निर्धन परिवार को दिया जा सकता है, जो उचित पात्र है। आप अपने लाडले को इंसानियत का यह पाठ भी पढ़ा सकते हैं कि देखों पटाखे में  सारे पैसे बर्बाद करने से बेहतर रहा न कि तुमने अपने एक भाई या बहन की मदद कर दी। पटाखे क्या है, दस मिनट में फूट कर ठंडे पड़  जाएंगे, यदि हम और आप " वसुधैव कुटुंबकम " पर बल देते हैं , तो याद रखें कि ऐसे छोटे- छोटे परोपकार से हमारे-आपके बच्चे नैतिक रुप से इतने जिम्मेदार हो जाएँँगे कि वृद्धावस्था आपकी इन्हें आशीर्वाद देने में ही गुजर जाएगी। पर्व त्योहार पर यदि किस असमर्थ पड़ोसी के घर हम एक भी दीपक जलाने का सामर्थ्य रखते हैं, तो वह हमारे भवन पर जगमगा रहे सैकड़ों बल्ब से लाख गुना बेहतर है, फिर भी विडंबना देखेंं न कि पर्व पर जहाँ पहले बच्चे पड़ोसियों के यहाँ आते -जाते थें। सभी मिल कर पटाखे फोड़ते थें और अब के जेंटलमैन अपने कानवेंट में पढ़ने वाले बच्चों को उनका स्टेटस बता या तो घर के अंदर रखते हैं अथवा समकक्ष लोगों तक ही इनका आना जाना होता है। जिसका सीधा प्रभाव युवा पीढ़ी पर पड़ रहा, जिसके हृदय में वह करुणा एवं संवेदना नहीं है, जो उसे मानव बना सके।
  अब देखें न कि इस भीड़ भरी सड़क पर बुलेट दौड़ा रहे एक युवक ने एक वृद्ध को धक्का मार दिया और कह क्या रहा है , जानते हैं..? वह कह रहा था कि ये बुड्ढे ठीक से चल नहीं सकते तो बीच सड़क पर क्यों आ जाते हो, मरने की क्यों इतनी जल्दी पड़ी है तुझे ?
आप समझ लें युवा वर्ग का यह मिजाज , उक्ति है न कि उल्टा चोर कोतवाल को डांटे..।  ऐसा इसलिए हो रहा है कि हम दिखावटी धार्मिक कार्य तो खूब कर रहे हैं , धर्म स्थलों पर  उमड़ती भीड़ गवाह है। परंतु जो मानवीय कर्म है, उससे हम स्वयं को और अपने संतानों को दूर किये जा रहे हैं।
  राजनीतिज्ञों और समाजसेवीजनों की बात करूँँ, तो जनता को शुभकामनाएँँ देने के लिये  उनके बड़े- बड़े  होर्डिंग -बैनर सड़कों पर लगे दिख रहे हैं। क्या यही होर्डिंग उनके सेवाकार्यों  की पहचान है ?  इन पर जो इनका हाथ जोड़ा हुआ जो फोटो चस्पा है, इसे देख जनता इन्हें महान समझने लगेगी ? ऐसा नहीं है मित्रों यहाँ मेरी इन्हीं आँखों के सामने कितने ही पावरफुल माननीय जब आम चुनाव में बोल्ड हुये, तो वापसी फिर कभी नहीं हुई उनकी, गुमनाम हो गये वो। हाँ , यह सबक वर्तमान में जो जनप्रतिनिधि हैं, उन्हें याद न रहे, तो यह इस अर्थयुग का प्रभाव है। अन्यथा , ये रहनुमा गुपचुप तरीके से ऐसे पर्वों पर  कुछ घरों को रौशन जरुर करते , लेकिन आलम यह है कि छोटा-सा भी सेवाकार्य यदि वे करते हैं, तो मीडिया कर्मियों की भीड़ पहले से जुटा ली जाती है। अखबारों में इनके सेवाकार्य का मूल्य फिक्स होता है। प्रत्यक्ष न सही, अप्रत्यक्ष तो निश्चित होता है।  फिर कैसे मने इस दबे कुचले निर्धन वर्ग की दीपावली ..?
    फिर तो ऐसे बदनसीब को जिन्होंने जीवनभर संघर्ष किया, फिर भी अपनी हैसियत इतनी भी न बना सके कि वे पर्व- त्योहारों पर उत्सव मना सकें, उन्हें तो अपनी टूटी हुई उम्मीदों को संग लिये  इन टूटे दीपकों से ही काम चलाना होगा...

इसी खंडहर में कहीं कुछ दिए हैं टूटे हुए

इन्हीं से काम चलाओ बड़ी उदास है रात...

   अच्छे दिन आएँँगे की उम्मीदों में वर्षों गुजर गये हैंं अब तो , फिर से कोई नया जुमला लेकर इन रहनुमाओं को आना होगा। तलाशिये अभी से इसे की अब कि आम चुनाव में आप क्या मलहरा गाएँँगे। महंगाई , बेरोजगारी , बेगारी और बदहाली से सिसक रही जनता को क्या क्या नया सियासी सब्जबाग फिर से आप दिखलाएँँगे। पुलतीघर की बुझी चिमनी में धुआँँ करने का वादा तो कर गये,पर जनाब!  इस वादाखिलाफ़ी पर आप जनता की आँँखों की पुतली फिर से कैसे बन पाएँँगे। बेचारे आम आदमी की जेब खाली है। यही कोई पांच हजार पगार है उसका , इसी में उसकी होली और दीपावली है। न कहीं से बोनस मिलना है, न ही सत्ताधारियों की कृपा प्रसादी है , फिर क्या कहूं मित्रों, बस यही न कि

खंडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही
अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नहीं रही
हमको पता नहीं था हमें अब पता चला
इस मुल्क में हमारी हुकूमत नहीं रही...

   सुबह साढ़े चार बजे अखबार के बंडल की प्रतीक्षा में चौराहे पर खड़े- खड़े कुछ ऐसे ही विचार मंथन में डूबा था कि यौवन की दहलीज़ पर पहुँच चुकी, तीन सांवले रंग की तीन किशोरियों की खिलखिलाहट से मेरी तंद्रा भंग हुई। देखा कि प्लास्टिक की बड़ी - बड़ी बोरी लिये कबाड़ बीनने वाली
ये लड़कियाँ बेझिझक यह गीत गुनगुना रही थीं..

गोरे रंग पे ना इतना गुमान कर
गोरा रंग दो दिन में ढल जायेगा
मैं शमा हूँ तू है परवाना
मुझसे पहले तू जल जायेगा..

   बड़ी बात कह गयीं ये बच्चियाँ, पर वीणा की तार की आवाज सुन हर कोई बुद्ध तो नहीं बन जाता है..?
   वैसे, उनकी बोरियों का वजन कुछ भारी था, इसलिये वे खुश थीं। मैं समझ गया कि लोगों ने अपने घर और प्रतिष्ठान की सफाई की है, इसलिये इन कबाड़ बटोरने वालों की दीवाली ठीक ही गुजरेगी।
शशि/मो० नं०9415251928 और 7007144343
gandivmzp@ gmail.com


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (मुझसे पहले तू जल जाएगा... )आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन


10 comments:

  1. आशीर्वाद और प्यार भाई जी शशि पथिकों को
    पथ दिखाओ मन में खुशी लाओ।

    -आदरणीय पं० गुलाब चंद्र तिवारी जी, अवकाश प्राप्त प्रवक्ता

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  2. शशि भाई,आज एक दुकानदार एक छोटे से बच्चे को शक्कर का एक खिलौना ले कर भागने पर घंटाघर के मैदान में मिट्टी मे पटक पटक कर मार रहा था. बच्चे का पेशाब निकल गया. उस तक पहुंचते और रोकते उसने काफी निर्ममता कर दी थी.मैने उससे कहा कि 50पैसे के चीनी के खिलौने के लिये4साल के बच्चे को तुमने निर्दयता से मारा.लेकिन अरबों रुपये चुराने वाले नेताओं को तुम लोग इसी घंटाघर के मैदान में माला पहना कर जयकारा लगाते हो..हद तो ये है कि उसी मैदान में गणेश लक्ष्मी जी की मूर्ति खरीद रहे लोग चोर है तो पिटेगा का तर्क दे रहे थे.जब बात त सरकारी लूटरों तक पहुंची तो धर्म की आड़ ले नेताजी को धर्म रक्षक बना सब माफ करने के लिए तैयार थे.ऐसा आत्माहीन,संवेदना हीन.धार्मिक उन्मादी समाज बना है. इससे क्या उम्मीद करना कि कभी ये अपने सुख सुविधा के आगे सोचेगा. ?शेष मैने दुकानदार को शक्कर के खिलौने के पैसे दे वह खिलौना उस रोते बच्चे को दिया पर शरीर से ज्यादा आत्मा पर लगी चोट से तड़पता वह बच्चा उस भीड़ के सामने खिलौना फेक रोता चला गया. उसके हर आंसू का हिसाब समय इस समाज से लेगा.

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  3. बहुत ही चिन्तन परक विषय है प्रिय शशि भाई | सच कहा आपने| बाजार में सभी कुछ तो है पर इंसानियत क्यों नही ? सच ही तो है बढ़ते माल कल्चर ने छोटे दुकानदारों को कितना और पीछे धकेल दिया है ? आज वो रौनक उनके चेहरों से गायब है | आज ही मेरी बिटिया दादी के साथ बाजार गयी तो उसने मेरी सासु माँ के कहने के बावजूद एक बड़ी दूकान से मिटटी के दिए नही खरीदे-और एक कोने में बैठे वृद्ध कुम्हार से दिए खरीदने की जिद की जिसे मेरी सासु माँ ने मान लिया | मेरे पूछने पर उसने बताया कि उनसे कोई खरीद नही रहा था वो उदास बैठे थे जब हमने उनसे दीये ख़रीदे तो वो उत्साहित हो मुस्कुराने लगे | बच्ची के मन में करुणा और सहयोग का ये जज्बा देख मुझे अपार संतोष हुआ | हमें ये जरुर स्मरण रखना चाहिए जितना छोटा सा दिया उतनी मेहनत ज्यादा | मिटटी से दिया बनाने , सुखाने , और फिर उसे आवे में पका बाजार तक लाने में एक बड़ी प्रक्रिया का प्रावधान होता है | हम यदि उसके निर्माता की मेहनत का छोटा सा मोल चुका दें तो ये उसकी कला को सम्मान तो है ही उसके घर पर्व की खुशियों को लाने में छोटा सा सहयोग भी जरुर दे सकते हैं | इस अत्यंत संवेदनशील विषय को प्रभावी ढंग से रखने के लिए आप बधाई के पात्र हैं | जरुर आपके साथी ब्लॉगर आपकी बात को समझेंगे|सस्नेह दीपोत्सव की बधायी |

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  4. जी रेणु दी
    आखिर बिटिया जो आपकी है, तो संस्कार भी उसका आप जैसा ही होगा न..
    उसने बहुत अच्छा कार्य किया। आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं

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  5. सलीम भाई ,
    आप जैसे राजनेता यदि इसी तरह से सम्वेदनशील रहते हैं, मानवीय मूल्यों पर वैसा ही चिन्तन और आचरण भी करते हैं, तो इस स्वार्थपरता संसार में उम्मीदों की एक दीपक निश्चित ही टिमटिमाता रहेगा।

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  6. शशि भाई ,आपके पिछले लेख पर भी कहा था. "पूरा प्रयास करूँगा. इंसान बनने का."

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  7. चिंतनपरक और प्रेरणादायक लेख
    माटी के दीप में जो बात है वह किसी और में कहां?वह जीवन का
    उम्मीदों का, खुशियों का परिचायक है।

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  8. जी बहुत- बहुत आभार दी।

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  9. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (29-10-2019) को     "भइया-दोयज पर्व"  (चर्चा अंक- 3503)   पर भी होगी। 
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    -- दीपावली के पंच पर्वों की शृंखला में गोवर्धनपूजा की
    हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाई।  
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  10. जी प्रणाम बहुत- बहुत आभार आपका

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