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ए ग़लीचा ! वहम ये रहने दो..
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(संदर्भः ग़लीचे को उद्बोधन)
कर के बदरंग तुम अपनों को
ग़ैरों को क्यों रंग दिया करते हो ?
जन्मे कामगारों की बस्ती में
अब महलों में इठलाया करते हो !
उलझी थी दुनिया कच्चे धागे में
बन काती अश़्क बहाया करते थें ।
जिन हाथों ने संवारा था तुझको
उनसे क्यों फ़ासले बढ़ाया करते हो ?
मैंने देखा उन उजड़ी झोपड़ियों में
चूमते थें माथ तेरा वे क़िस्मत कह के
इन अमीरों के ऐशगाहों में
पांव तले कैसे मुस्कुराया करते हो ?
रंग बदलना इंसानों की फ़ितरत है
तुम क्यों पहचान बदलते हो ?
ग़ैरों पे रहम अपनों पे सितम
यह जुल्म किया क्यों करते हो ?
उनमें और तुझमें हो कुछ तो फ़र्क
ए ग़लीचे ! वहम ये रहने दो ?
ज़िंदगी में कभी वो दौर भी थें
स्वपनों का ग़लीचा बुना करते थें ।
जब से बदली हैं निगाहें उनकी
यादों का ग़लीचा हम सिलते हैं ।
जिन ताने-बाने में खुशियाँ थीं मेरी
पैबंदों से उसे अब ढका करते हैं।
वे तो शहर छोड़ चले गये कबके
हम उनकी राह तका करते हैं !!
- व्याकुल पथिक
(काती - ग़लीचा बनाने में प्रयुक्त होने वाल धागा, जो भेड़ के ऊन से बनता है )
बेहतरीन भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteबेहतरीन भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteजी प्रणाम,बहुत बहुत आभार।
ReplyDeleteज़िंदगी में कभी वो दौर भी थें
ReplyDeleteस्वपनों का ग़लीचा बुना करते थें ।
जब से बदली हैं निगाहें उनकी
यादों का ग़लीचा हम सिलते हैं ।....बहुत सुन्दर शशि भाई, जिंदगी के ग़लीचे पर अपनों के साथ यादें अपनी बन मुस्कुराती है
सादर
बेहतरीन रचना आदरणीय
ReplyDeleteप्रिय शशि भाई -- गलीचे को अत्यंत मार्मिक उद्बोधन के रूप में रची गयी ये रचना बहुत ही भावपूर्ण है | एक गरोब कारीगर के हाथों बुने गए गलीचे की ये ही नियति है कि वह एक झोपडी में बुना जाये और महलो की शोभा बढाये | अगर वह महलों में नहीं बिछेगा तो कारीगर के हुनर को पहचान कैसे मिलेगी क्योकि कारीगर चाहे भी तो धनी लोगों को अपनी इस अनमोल कृति को सौंपे बिना ना तो उसकी उदार पूर्ति संभव है ना उसकी कला को सम्मान की कोई और राह बचती है |कारीगर गलीचे के रूप में अपने सपनों को विस्तार देता है |कच्चे धागे से रंग बिरंगे गलीचे बुनने के उपक्रम में एक कारीगर की भूमिका अतुलनीय है |पर बदलते दौर में उसी की उपेक्षा बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होती है | उसका पलायन एक कला का पलायन है | अपने साथ अनुत्तरित प्रश्न छोड़ जाती है रचना |
ReplyDeleteजिन ताने-बाने में खुशियाँ थीं मेरी
पैबंदों से उसे अब ढका करते हैं।
वे तो शहर छोड़ चले गये कबके
हम उनकी राह तका करते हैं !!
सस्नेह
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26 -05-2019) को "मोदी की सरकार"(चर्चा अंक- 3347) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
....
अनीता सैनी
दी ग़लीचे का स्नेहिल स्पर्श चंद लोगों को ही मिलता है। जो उसे बनाते हैं, संजाते हैं , वे उसका सुख बस इतना पाते हैं कि उन्हें दो वक्त की रोटी मिल जाती है।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 27 मई 2019 को साझा की गई है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार ,यशोदा दी।
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteजी प्रणाम।
ReplyDeleteजिन ताने-बाने में खुशियाँ थीं मेरी
ReplyDeleteपैबंदों से उसे अब ढका करते हैं।
बहुत खूब.. सादर नमस्कार
जी प्रणाम
ReplyDeleteगलीचे के ताने बाने में उलझते मन के थके थके एहसास।
ReplyDeleteअप्रतिम रचना। भावों का सुंदर ताना बाना।
जी प्रणाम
ReplyDeleteDear Sashi Ji
ReplyDeleteHeartily thanks for your speechless great poetry on Carpet which touches my soul.
Yrs
Umesh Shukla
जी आभार।
Deleteप्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद।
शशि भाई आपने अपनी कविता में बुनकरों के दर्द को बयां किया है आज जो कारीगरी हाथ गलीचे के साथ अपने परिवार के सपने बुनते थे वह हाथ अब सब्जियों का ठेला लगाने पर मजबूर हो गए है , सरकार की नीतियां काफी हद तक इसकी जिम्मेदार है ।
ReplyDelete-अखिलेश मिश्र 'बागी'
शशि भैया, आपकी ये उत्कृष्ट रचना एक बार फिर पढ़कर अच्छा लगा। 🙏🙏
ReplyDeleteजी दी।
Deleteबहुत सुंदर भावपूर्ण रचना शशि जी।वास्तव में उपरवाले ने जिनके हाथों में सृजन की शक्ति दी है, उन्हीं का भाग्य उनसे रूठा हुआ है।यह कैसी नियति है कि खेतों में अनाज,फल,सब्जियाँ उगाने वाला किसान अपने बच्चों को उन्हें नहीं खिला पाता, अपनी गायों का दूध उन्हें नहीं पिला पाता।ऐसे ही हर कामगार द्वारा निर्मित वस्तुएँ उसके काम नहीं आतीं बल्कि ऊँची अटारियों में शोभा बढ़ाती हैं।शासन सत्ता को इस वर्ग के प्रति जो संवेदनशीलता दिखलानी चाहिए वह कोरे वादों में ही खो जाती है।
ReplyDelete- प्रदीप मिश्र,प्रबन्धक-रेनबो पब्लिक स्कूल,विन्ध्याचल।
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बेहतरीन भावपुर्ण प्रस्तुति । अतिसुन्दर रचना।
--चंद्रांशु गोयल अध्यक्ष होटल एसोसिएशन मिर्जापुर
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ReplyDeleteअत्यंत सुन्दर काव्यात्मक रचना! बुनकरों की नियति का ऐसा विवरण चंद पंक्तियों में दिल को छू लेने वाला है। आपको आपकी इस बेहतरीन रचना के लिए शशि जी हृदय से साधुवाद
ReplyDeleteजी अत्यंत आभार प्रवीण जी।
Deleteवाह भैया वाह नायाब ताना बाना बुना है अपने 🙏
ReplyDeleteआशीष सोनी, पत्रकार
बुनकरों (श्रमिक)की नियति ही शायद ईस्वर ने यही बनाई है।समाज मे इनकी गिनती शून्य से शुरु होकर शून्य पे आकर खत्म हो जाती है।आज इसी बात का आभास यही प्रतीत होता है।
ReplyDeleteरचना आपकी बहुत सूंदर है।
आभार मनीष जी।
Deleteबुनकरों की मेहनत के ताने-बाने से कालीन तैयार होता है। थोड़ा-सी मज़दूरी पाकर बुनकर बुनकर बनकर ही रह जाता है और कालीन समृद्ध लोगों की हवेलियों में पहुँच जाता है। कालीन के व्यवसायी, यदि सफल हुए तो वे अपार धन-संपत्ति के मालिक हो जाते हैं। उद्यमी और कामगार में यही अंतर होता है। कालीन से होने वाली आय में बुनकरों की अनुपातिक भागीदारी के बारे में जाने कितने भाषण दिए गए, न जाने कितनी भूमिकाएँ बांधी गईं, लेकिन बुनकरों के जीवन और उनके रहन-सहन में कोई अंतर नहीं आया। बुनकर जब काम करता है, तभी उसको मज़दूरी मिलती है। मंदी और बीमारी के दिनों में उसके हाथ में फूटी कौड़ी भी नहीं आती। बुनकरों के सामने ऑक्यूपेशनल हेल्थ हजार्ड की समस्या आती है। साधारण आय में एक परिवार को चलाना संभव नहीं हो पाता है। यही कारण है कि अब बुनकरों की संख्या में कमी आ रही है। बुनकर कई दूसरे धंधे में जा रहे हैं और अपनी आय में वृद्धि कर अपने परिवार का बेहतर भरण-पोषण कर रहे हैं।
ReplyDeleteशशि भाई, आपकी रचना की हर पंक्ति पाठकों के हृदय में करुणा को जगाती है। बहुत ही सुंदर लिखा है आपने।
इन चंद पँक्तियों को अपने विचारों के माध्यम से विस्तार देने के लिए आपका आभार अनिल भैया।
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