हमारी छोटी- छोटी खुशियाँ ( भाग- 4)
दीपावली की वह शाम
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नियति ने हमारे लिये क्या तय कर रखा है, हम नहीं जानते, कहाँ तो मैं इस चिंता में दुःखी था कि घर पहुँचने पर भोजन क्या करूँगा और यहाँ मेरे लिये उसने भरपूर जलपान की व्यवस्था कर रखी थी। अब मुझे समझ में आता है कि कृष्ण ने अर्जुन से ऐसा क्यों कहा कि फल की इच्छा त्याग अपना कर्म करो।
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वह मेरी पहली दीपावली थी, जो बस के सफर में गुजर गयी । बात वर्ष 1994 की है। उस शाम भी अखबार का बंडल लेकर प्रेस के कार्यालय से निकल सीधे कैंट बस स्टेशन पहुँच गया था। मुझे मीरजापुर अखबार वितरण कर वापस रात बारह बजे तक अपने घर वाराणसी भी लौटना होता था। अतः मन बेहद उदास और कुछ रुआँसा भी हो गया कि इतनी रात क्या बनाऊँगा, ढाबे पर भी तो कुछ नहीं मिलेगा।
सायं साढ़े चार बजे की बस मिली। मीरजापुर पहुँचने में लगभग सवा दो घंटे लगते हैं। इस लम्बे सफर के दौरान अमावस्या का यह अंधकार मेरे हृदय में गहराता जा रहा था और मन की रफ्तार बस से कहीं अधिक तेज थी, तभी मेरी दृष्टि बस की खिड़की से ग्रामीण क्षेत्र की ओर चली गयी। देखा कि कच्ची मिट्टी से बने घरों की दीवारों पर गोबर से लेपन किया गया था । महिलाएँ घरों के चहुँओर दीपक जला रही थीं। बुजुर्ग चौपाल लगाये बैठे दिखें और बच्चों की धमाचौकड़ी देखते ही बन रही थी। गरीबी, बेगारी और बदहाली के बावजूद हर किसी को खुश देख रहा था। मैं सोचने लगा कि इन गरीबों की खुशी का क्या राज है,तो समझ में आया कि ये सभी निश्छल एवं संतोषी प्राणी हैं ,जो आपस में एकदूसरे के प्रति समर्पित हैं। इनमें किसी तरह का मिलावट, बनावट और दिखावट नहीं है। इन्हें पढ़ेलिखे लोगों जैसी कूटनीति नहीं आती है। मैं इन्हें निर्निमेष देखता रहा।
इन्हें देख प्रसन्नता हुई , क्योंकि बचपन से ही वाराणसी- कोलकाता आते-जाते समय ट्रेन की खिड़की से सुबह- सुबह किसानों को खेत जोतते देख खुशी से चहक उठता था।
मैं इन्हीं विषयों पर चिंतन करने लगा और कुछ देर बाद मीरजापुर आ गया । तब मेरे पास यहाँ साइकिल नहीं थी। अखबार वितरण मुझे इस अनजाने शहर में पैदल ही करना होता था। बड़े ही नाजोनेमत से पला था, ऐसी मेहनत मशक्कत कभी की न थी , लेकिन आँखों में स्वाबलंबी होने के जो सपने डोल रहे थें, उसने मेरे पाँवों को ग़ज़ब की गति दे रखी थी।
मेरी वेशभूषा और व्यवहार से ग्राहक इतना तो समझ चुके थें कि मैं किसी अच्छे परिवार से जुड़ा हूँ, ईमानदार और परिश्रमी हूँ। अतः उस शाम कई प्रतिष्ठानों पर लोगों ने बड़े स्नेह से मुझे इतना जलपान करा दिया गया कि रात्रि भोजन की आवश्यकता ही नहीं पड़ी । इनके मुख से-" बेटा खा लो ,संकोच मत कर। " अपनत्व भरे यह शब्द सुन कर खुशी से मेरा गला रुंध- सा गया और इन्हें धन्यवाद भी न दे सका।
यह अपने परिवार से इतर समाज से मिली खुशियाँ थीं मेरे लिये, कितने ही डिब्बे मिठाइयाँ मुझे ससम्मान मिली थीं। उनका मधुर व्यवहार देख खुशी से मेरी आँखें डबडबा गई। मुझे प्रथम बार यह अनुभूति हुई की घर-परिवार के अतिरिक्त सामाजिक खुशियाँ भी होती हैं और मेरे सामाजिक संबंध विकसित हुये।
नियति ने हमारे लिये क्या तय कर रखा है, हम नहीं जानते, कहाँ तो मैं इस चिंता में दुखी था कि घर पहुँचने पर भोजन क्या करूँगा और यहाँ मेरे लिये उसने भरपूर जलपान की व्यवस्था कर रखी थी।अब मुझे समझ में आता है कि कृष्ण ने अर्जुन से ऐसा क्यों कहा कि फल की इच्छा त्याग अपना कर्म करो।
अखबार वितरण के पश्चात प्रतिदिन की दिनचर्या के अनुरूप बस पकड़ देर रात मैं वापस बनारस आ गया। रात भीग चुकी थी और बाजारों में इक्के-दुक्के आदमी ही दिखाई दे रहे थें, परंतु पटाखों की आवाज रह-रह कर आ रही थी। अपने कमरे पर वह पहली दीपावली मैंने दादी की अनुपस्थिति में बिल्कुल अकेले गुजारी, तब मुझे उनके स्नेह की अनुभूति हुई, परंतु दुनिया से जाने वाले वापस कभी लौट के कहाँ आते हैं। जानता था कि जो मुझपर ममता का सागर लुटाती थी, वह नहीं रही। घर पर पापा-मम्मी और भाई-बहन से भी मेरा किसी तरह का संवाद नहीं रहा । हँसते-मुस्कुराते जीवन में जब अपना ही आशियाना पराया हो जाए ,तो जिनसे स्नेह मिला, उनके साथ गुजारे दिनों की स्मृति संबल प्रदान करती है।
घर पर किसी को मेरा अखबार वितरण करना पसंद नहीं था। लेकिन,मैंने उनके और स्वयं के ( मास्टर साहब का पुत्र कहलाने का ) सम्मान का ध्यान रखा और वाराणसी छोड़ इस छोटे से मीरजापुर शहर में चला आया।
दरअसल, दूसरी बार जब कालिम्पोंग से वापस घर वाराणसी लौटा था ,तो मेरी प्राथमिकता अपने लिये सम्मानपूर्वक दो जून की रोटी की व्यवस्था करनी ही थी। उच्चशिक्षा अधूरी रह गयी थी और किसी भी प्रतिष्ठान पर कार्य करने में मुझे तनिक भी रुचि नहीं थी।
कुछ भी करने की अपेक्षा मैं वह करना चाहता था, जो मुझे खुशी दे । यहाँ प्रेस में अखबार वितरण के साथ ही मुझे मीरजापुर का जिला प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया गया था । अब मैं पत्रकार हो गया था। उस दौर में हमारे सांध्यकालीन दैनिक समाचारपत्र को राजनेता, वरिष्ठ प्रशासनिक एवं पुलिस अधिकारी इस मीरजापुर में भी जानते थें। सबसे पहले दिनभर की खबर यहाँ मैं ही देता था। सो, प्रतिदिन थका देने वाली पाँच घंटे की यात्रा और ढ़ाई घंटे पैदल अखबार वितरण के बावजूद कलम की हनक और प्रतिष्ठा देख मुझे लगा कि मैंने सही कार्य का चयन किया है। इस तरह मैं पत्रकारिता के प्रति एकाग्रचित्त हो पूर्ण समर्पित हो गया। संस्थान के बड़े- छोटे सभी लोगों का स्नेह और सहयोग मिला। अतः समाचार लिखने की कला में कुछ निपुण हो गया।
मैं अपने कार्य के प्रति वचनबद्ध रहा और उर्जावान भी। लेकिन, लक्ष्य प्राप्ति के लिये उत्तम स्वास्थ्य की भी आवश्यकता होती है। वर्ष 1998 में मैं गंभीर रुप से बीमार पड़ गया। चिकित्सकों ने गलत उपचार किया और पुनः स्वस्थ्य नहीं हो पाया।
जिस कारण शीर्ष पर पहुँचने की जो दृढ़ इच्छाशक्ति मुझमें थी, खराब स्वास्थ्य के कारण वह जाती रही, फिर भी मीरजापुर छोड़ने का मेरे पास कोई विकल्प नहीं रहा। इसके पूर्व मुझे बड़े अखबारों में काम करने का अवसर मिला, जिसे मैंने ठुकरा दिया था।
इसी शारीरिक, मानसिक और आर्थिक कष्ट में मैंने यह समझा कि हर व्यक्ति के पास उर्जा तो होती है, लेकिन परिणाम तभी मिलता है, जब उचित समय पर उसका उपयोग किया जाए।
बहरहाल, जीवन एक पाठशाला है, यहाँ सीखते रहना है। मैं यहाँ यह कहना चाहूँगा कि सामने मौजूद अवसर को हमें कभी नहीं खोना चाहिए, फिर भी अपने कार्य को लेकर उतना भी निराश नहीं था।
पिछले दिनों मानव जीवन के संदर्भ में " अग्नि की उड़ान " में एक कविता की ये पंक्तियाँ मैं पढ़ रहा था-
हर दिन जियो , जियाले
जैसा जीवन अपना पाओ।
जब मूसल हो , मारो
जब ओखल हो,चोंट खाओ।
अतः इन विपरीत परिस्थितियों में एक मझोले अखबार के माध्यम से जो सम्मान पाया , वह भी मेरी कम उपलब्धि नहीं है।
रही बात दीपावली जैसे पर्वों की , तो जब घर- परिवार नहीं है, फिर ऐसे त्योहार का मेरे लिये क्या मायने । हाँ , इन ढ़ाई-तीन दशकों में कभी- कभी ऐसा लगा कि कुछ नेक व्यक्ति अपने परिवार के सदस्यों जैसा ही मेरा ध्यान रखते हैं और भविष्य में भी वे ऐसा करते रहेंगे । यही मेरी भूल अथवा हृदय की दुर्बलता रही। उनके प्रति अपनत्व के भाव ने मुझे अतिशय पीड़ा पहुँचायी है ।
स्नेह जब कभी तिरस्कार बन कर वेदन और ग्लानि में परिवर्तित हो जाता है, तब विवेक को पुनः जागृत करना सहज नहीं होता है । हर कोई ध्रुव ,भृतहरि, कालीदास और तुलसीदास जैसा नहीं हो सकता, जो अपने विचलित हृदय को नयी दिशा दे सके ।
बाद में मुझे यह महसूस हुआ - " प्रेम और सम्मान" का भाव सिर्फ उन्हीं के प्रति रखिए, जो हमारे "मन" की भावनाओं को समझते हैं, वो कहते है न कि जलो वहाँ , जहाँ जरूरत हो। उजाले में "चिराग" का मायने नहीं होता।
वैसे इस सोच में भी एक विचित्र-सी उलझन है। हमें तो छात्र जीवन में गुरुजन सदैव ही सबसे प्रेम और सबका सम्मान करने को कहते थें, परंतु यहाँ भी तो यह तर्क अकाट्य ही है कि जहाँ पहले से ही उजाला हो , वहाँ हमारे चिराग की क्या औकात ? मेरी अनुभूति भी इसका समर्थन करती है, यदि हम अपनी भावनाओं को ऐसे व्यक्ति को समर्पित करेंगे जिसके पास पहले से ही सारी खुशियाँ है, तो वह तनिक मनोरंजन कर लेगा, परंतु ऐसे संबंध के स्थिर रहने का कोई अनुबंध नहीं होता। अतः खुशियों की खोज करते समय मेरे जैसे बंजारों को अत्यधिक सावधान रहना चाहिए, क्यों कि हम जैसों के भाग्य में चाहत का वरदान नहीं है।
हम जब भी विचारों के धरातल को छोड़ भावना के आकाश में उड़ेंगे । कटी पतंग बन वापस धरती पर गिरना तय है। फिर तो फटी पतंग की भांति सभी के पांव तले कुचले जाएंगे ।
भला जल की तरह हिलोरें भरती भावनाओं में हम कब तक तैरेंगे । यदि विवेक रुपी चट्टान का आश्रय नहीं मिला ,तो डूबना तय है।
मैंने अनुभव किया कि हम जैसों की खुशी सामाजिक कार्यों में निहित है अथवा परमात्मा के चरणों में अपने स्नेह को समर्पित करने में ।
किसी सामाजिक मंच पर मुझे ,जो मान- सम्मान मिलता है, वही हमारी खुशियाँ हैं।
मेरा यहाँ अपना कोई नहीं है, फिर भी मौसी जी की पुत्री, जिसे बचपन में मैंने अपने गोद में खिलाया है, वह रक्षाबंधन और भाईदूज पर मुझे याद करती हैं। निःस्वार्थ भाव से राखी और चना- रोली भेजती है। यही मेरी पारिवारिक खुशियाँ हैं।
कुछ अच्छा लिखूँ , जिसमें मेरी अनुभूति हो, जीवन की सच्चाई हो, हमारे संस्कार और संस्कृति को उससे बल मिले साथ ही परमात्मा के प्रति समर्पणभाव हो , इस परम-आनंद को मैं प्राप्त करना चाहता हूँ।
इसके लिये प्रथम तो हमें हर भ्रम से दूर होना होगा। " अग्नि की उड़ान" में ही यह पढ़ रहा था कि एक बार अपने मिशन को लेकर साक्षात्कार के लिये डा० ए.पी.जे अब्दुल कलाम को मुम्बई जाना पड़ा। कुछ पढ़ने अथवा अनुभवी व्यक्ति से वार्ता का उनके पास समय नहीं था, तभी उनके कानों में लक्ष्मण शास्त्री द्वारा सुनाए श्रीमद्भागवत का यह अंश गूँजा -
तुम सब भ्रम की संतान
इच्छा और घृणा के छलावों से छलीं।
देखों, उन कुछ सत्पुरुषों को
पाप से परे छलावों से छूटे
दृढ़ अपनी प्रतिज्ञा पर
अडिग मेरी आस्था में...
अथार्त हम भ्रम मुक्त और शांतिचित्त हो अपने लक्ष्य के प्रति एकाग्र हो सकते हैं।
दीपावली पर्व पर एक बात कहना चाहता हूँ कि वह कृत्रिम रौशनी ही क्या जो मिट्टी के दीपक में मुस्कान नहीं भर सके।
(क्रमशः)
-व्याकुल पथिक
जीवन की पाठशाला
दीपावली की वह शाम
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नियति ने हमारे लिये क्या तय कर रखा है, हम नहीं जानते, कहाँ तो मैं इस चिंता में दुःखी था कि घर पहुँचने पर भोजन क्या करूँगा और यहाँ मेरे लिये उसने भरपूर जलपान की व्यवस्था कर रखी थी। अब मुझे समझ में आता है कि कृष्ण ने अर्जुन से ऐसा क्यों कहा कि फल की इच्छा त्याग अपना कर्म करो।
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वह मेरी पहली दीपावली थी, जो बस के सफर में गुजर गयी । बात वर्ष 1994 की है। उस शाम भी अखबार का बंडल लेकर प्रेस के कार्यालय से निकल सीधे कैंट बस स्टेशन पहुँच गया था। मुझे मीरजापुर अखबार वितरण कर वापस रात बारह बजे तक अपने घर वाराणसी भी लौटना होता था। अतः मन बेहद उदास और कुछ रुआँसा भी हो गया कि इतनी रात क्या बनाऊँगा, ढाबे पर भी तो कुछ नहीं मिलेगा।
सायं साढ़े चार बजे की बस मिली। मीरजापुर पहुँचने में लगभग सवा दो घंटे लगते हैं। इस लम्बे सफर के दौरान अमावस्या का यह अंधकार मेरे हृदय में गहराता जा रहा था और मन की रफ्तार बस से कहीं अधिक तेज थी, तभी मेरी दृष्टि बस की खिड़की से ग्रामीण क्षेत्र की ओर चली गयी। देखा कि कच्ची मिट्टी से बने घरों की दीवारों पर गोबर से लेपन किया गया था । महिलाएँ घरों के चहुँओर दीपक जला रही थीं। बुजुर्ग चौपाल लगाये बैठे दिखें और बच्चों की धमाचौकड़ी देखते ही बन रही थी। गरीबी, बेगारी और बदहाली के बावजूद हर किसी को खुश देख रहा था। मैं सोचने लगा कि इन गरीबों की खुशी का क्या राज है,तो समझ में आया कि ये सभी निश्छल एवं संतोषी प्राणी हैं ,जो आपस में एकदूसरे के प्रति समर्पित हैं। इनमें किसी तरह का मिलावट, बनावट और दिखावट नहीं है। इन्हें पढ़ेलिखे लोगों जैसी कूटनीति नहीं आती है। मैं इन्हें निर्निमेष देखता रहा।
इन्हें देख प्रसन्नता हुई , क्योंकि बचपन से ही वाराणसी- कोलकाता आते-जाते समय ट्रेन की खिड़की से सुबह- सुबह किसानों को खेत जोतते देख खुशी से चहक उठता था।
मैं इन्हीं विषयों पर चिंतन करने लगा और कुछ देर बाद मीरजापुर आ गया । तब मेरे पास यहाँ साइकिल नहीं थी। अखबार वितरण मुझे इस अनजाने शहर में पैदल ही करना होता था। बड़े ही नाजोनेमत से पला था, ऐसी मेहनत मशक्कत कभी की न थी , लेकिन आँखों में स्वाबलंबी होने के जो सपने डोल रहे थें, उसने मेरे पाँवों को ग़ज़ब की गति दे रखी थी।
मेरी वेशभूषा और व्यवहार से ग्राहक इतना तो समझ चुके थें कि मैं किसी अच्छे परिवार से जुड़ा हूँ, ईमानदार और परिश्रमी हूँ। अतः उस शाम कई प्रतिष्ठानों पर लोगों ने बड़े स्नेह से मुझे इतना जलपान करा दिया गया कि रात्रि भोजन की आवश्यकता ही नहीं पड़ी । इनके मुख से-" बेटा खा लो ,संकोच मत कर। " अपनत्व भरे यह शब्द सुन कर खुशी से मेरा गला रुंध- सा गया और इन्हें धन्यवाद भी न दे सका।
यह अपने परिवार से इतर समाज से मिली खुशियाँ थीं मेरे लिये, कितने ही डिब्बे मिठाइयाँ मुझे ससम्मान मिली थीं। उनका मधुर व्यवहार देख खुशी से मेरी आँखें डबडबा गई। मुझे प्रथम बार यह अनुभूति हुई की घर-परिवार के अतिरिक्त सामाजिक खुशियाँ भी होती हैं और मेरे सामाजिक संबंध विकसित हुये।
नियति ने हमारे लिये क्या तय कर रखा है, हम नहीं जानते, कहाँ तो मैं इस चिंता में दुखी था कि घर पहुँचने पर भोजन क्या करूँगा और यहाँ मेरे लिये उसने भरपूर जलपान की व्यवस्था कर रखी थी।अब मुझे समझ में आता है कि कृष्ण ने अर्जुन से ऐसा क्यों कहा कि फल की इच्छा त्याग अपना कर्म करो।
अखबार वितरण के पश्चात प्रतिदिन की दिनचर्या के अनुरूप बस पकड़ देर रात मैं वापस बनारस आ गया। रात भीग चुकी थी और बाजारों में इक्के-दुक्के आदमी ही दिखाई दे रहे थें, परंतु पटाखों की आवाज रह-रह कर आ रही थी। अपने कमरे पर वह पहली दीपावली मैंने दादी की अनुपस्थिति में बिल्कुल अकेले गुजारी, तब मुझे उनके स्नेह की अनुभूति हुई, परंतु दुनिया से जाने वाले वापस कभी लौट के कहाँ आते हैं। जानता था कि जो मुझपर ममता का सागर लुटाती थी, वह नहीं रही। घर पर पापा-मम्मी और भाई-बहन से भी मेरा किसी तरह का संवाद नहीं रहा । हँसते-मुस्कुराते जीवन में जब अपना ही आशियाना पराया हो जाए ,तो जिनसे स्नेह मिला, उनके साथ गुजारे दिनों की स्मृति संबल प्रदान करती है।
घर पर किसी को मेरा अखबार वितरण करना पसंद नहीं था। लेकिन,मैंने उनके और स्वयं के ( मास्टर साहब का पुत्र कहलाने का ) सम्मान का ध्यान रखा और वाराणसी छोड़ इस छोटे से मीरजापुर शहर में चला आया।
दरअसल, दूसरी बार जब कालिम्पोंग से वापस घर वाराणसी लौटा था ,तो मेरी प्राथमिकता अपने लिये सम्मानपूर्वक दो जून की रोटी की व्यवस्था करनी ही थी। उच्चशिक्षा अधूरी रह गयी थी और किसी भी प्रतिष्ठान पर कार्य करने में मुझे तनिक भी रुचि नहीं थी।
कुछ भी करने की अपेक्षा मैं वह करना चाहता था, जो मुझे खुशी दे । यहाँ प्रेस में अखबार वितरण के साथ ही मुझे मीरजापुर का जिला प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया गया था । अब मैं पत्रकार हो गया था। उस दौर में हमारे सांध्यकालीन दैनिक समाचारपत्र को राजनेता, वरिष्ठ प्रशासनिक एवं पुलिस अधिकारी इस मीरजापुर में भी जानते थें। सबसे पहले दिनभर की खबर यहाँ मैं ही देता था। सो, प्रतिदिन थका देने वाली पाँच घंटे की यात्रा और ढ़ाई घंटे पैदल अखबार वितरण के बावजूद कलम की हनक और प्रतिष्ठा देख मुझे लगा कि मैंने सही कार्य का चयन किया है। इस तरह मैं पत्रकारिता के प्रति एकाग्रचित्त हो पूर्ण समर्पित हो गया। संस्थान के बड़े- छोटे सभी लोगों का स्नेह और सहयोग मिला। अतः समाचार लिखने की कला में कुछ निपुण हो गया।
मैं अपने कार्य के प्रति वचनबद्ध रहा और उर्जावान भी। लेकिन, लक्ष्य प्राप्ति के लिये उत्तम स्वास्थ्य की भी आवश्यकता होती है। वर्ष 1998 में मैं गंभीर रुप से बीमार पड़ गया। चिकित्सकों ने गलत उपचार किया और पुनः स्वस्थ्य नहीं हो पाया।
जिस कारण शीर्ष पर पहुँचने की जो दृढ़ इच्छाशक्ति मुझमें थी, खराब स्वास्थ्य के कारण वह जाती रही, फिर भी मीरजापुर छोड़ने का मेरे पास कोई विकल्प नहीं रहा। इसके पूर्व मुझे बड़े अखबारों में काम करने का अवसर मिला, जिसे मैंने ठुकरा दिया था।
इसी शारीरिक, मानसिक और आर्थिक कष्ट में मैंने यह समझा कि हर व्यक्ति के पास उर्जा तो होती है, लेकिन परिणाम तभी मिलता है, जब उचित समय पर उसका उपयोग किया जाए।
बहरहाल, जीवन एक पाठशाला है, यहाँ सीखते रहना है। मैं यहाँ यह कहना चाहूँगा कि सामने मौजूद अवसर को हमें कभी नहीं खोना चाहिए, फिर भी अपने कार्य को लेकर उतना भी निराश नहीं था।
पिछले दिनों मानव जीवन के संदर्भ में " अग्नि की उड़ान " में एक कविता की ये पंक्तियाँ मैं पढ़ रहा था-
हर दिन जियो , जियाले
जैसा जीवन अपना पाओ।
जब मूसल हो , मारो
जब ओखल हो,चोंट खाओ।
अतः इन विपरीत परिस्थितियों में एक मझोले अखबार के माध्यम से जो सम्मान पाया , वह भी मेरी कम उपलब्धि नहीं है।
रही बात दीपावली जैसे पर्वों की , तो जब घर- परिवार नहीं है, फिर ऐसे त्योहार का मेरे लिये क्या मायने । हाँ , इन ढ़ाई-तीन दशकों में कभी- कभी ऐसा लगा कि कुछ नेक व्यक्ति अपने परिवार के सदस्यों जैसा ही मेरा ध्यान रखते हैं और भविष्य में भी वे ऐसा करते रहेंगे । यही मेरी भूल अथवा हृदय की दुर्बलता रही। उनके प्रति अपनत्व के भाव ने मुझे अतिशय पीड़ा पहुँचायी है ।
स्नेह जब कभी तिरस्कार बन कर वेदन और ग्लानि में परिवर्तित हो जाता है, तब विवेक को पुनः जागृत करना सहज नहीं होता है । हर कोई ध्रुव ,भृतहरि, कालीदास और तुलसीदास जैसा नहीं हो सकता, जो अपने विचलित हृदय को नयी दिशा दे सके ।
बाद में मुझे यह महसूस हुआ - " प्रेम और सम्मान" का भाव सिर्फ उन्हीं के प्रति रखिए, जो हमारे "मन" की भावनाओं को समझते हैं, वो कहते है न कि जलो वहाँ , जहाँ जरूरत हो। उजाले में "चिराग" का मायने नहीं होता।
वैसे इस सोच में भी एक विचित्र-सी उलझन है। हमें तो छात्र जीवन में गुरुजन सदैव ही सबसे प्रेम और सबका सम्मान करने को कहते थें, परंतु यहाँ भी तो यह तर्क अकाट्य ही है कि जहाँ पहले से ही उजाला हो , वहाँ हमारे चिराग की क्या औकात ? मेरी अनुभूति भी इसका समर्थन करती है, यदि हम अपनी भावनाओं को ऐसे व्यक्ति को समर्पित करेंगे जिसके पास पहले से ही सारी खुशियाँ है, तो वह तनिक मनोरंजन कर लेगा, परंतु ऐसे संबंध के स्थिर रहने का कोई अनुबंध नहीं होता। अतः खुशियों की खोज करते समय मेरे जैसे बंजारों को अत्यधिक सावधान रहना चाहिए, क्यों कि हम जैसों के भाग्य में चाहत का वरदान नहीं है।
हम जब भी विचारों के धरातल को छोड़ भावना के आकाश में उड़ेंगे । कटी पतंग बन वापस धरती पर गिरना तय है। फिर तो फटी पतंग की भांति सभी के पांव तले कुचले जाएंगे ।
भला जल की तरह हिलोरें भरती भावनाओं में हम कब तक तैरेंगे । यदि विवेक रुपी चट्टान का आश्रय नहीं मिला ,तो डूबना तय है।
मैंने अनुभव किया कि हम जैसों की खुशी सामाजिक कार्यों में निहित है अथवा परमात्मा के चरणों में अपने स्नेह को समर्पित करने में ।
किसी सामाजिक मंच पर मुझे ,जो मान- सम्मान मिलता है, वही हमारी खुशियाँ हैं।
मेरा यहाँ अपना कोई नहीं है, फिर भी मौसी जी की पुत्री, जिसे बचपन में मैंने अपने गोद में खिलाया है, वह रक्षाबंधन और भाईदूज पर मुझे याद करती हैं। निःस्वार्थ भाव से राखी और चना- रोली भेजती है। यही मेरी पारिवारिक खुशियाँ हैं।
कुछ अच्छा लिखूँ , जिसमें मेरी अनुभूति हो, जीवन की सच्चाई हो, हमारे संस्कार और संस्कृति को उससे बल मिले साथ ही परमात्मा के प्रति समर्पणभाव हो , इस परम-आनंद को मैं प्राप्त करना चाहता हूँ।
इसके लिये प्रथम तो हमें हर भ्रम से दूर होना होगा। " अग्नि की उड़ान" में ही यह पढ़ रहा था कि एक बार अपने मिशन को लेकर साक्षात्कार के लिये डा० ए.पी.जे अब्दुल कलाम को मुम्बई जाना पड़ा। कुछ पढ़ने अथवा अनुभवी व्यक्ति से वार्ता का उनके पास समय नहीं था, तभी उनके कानों में लक्ष्मण शास्त्री द्वारा सुनाए श्रीमद्भागवत का यह अंश गूँजा -
तुम सब भ्रम की संतान
इच्छा और घृणा के छलावों से छलीं।
देखों, उन कुछ सत्पुरुषों को
पाप से परे छलावों से छूटे
दृढ़ अपनी प्रतिज्ञा पर
अडिग मेरी आस्था में...
अथार्त हम भ्रम मुक्त और शांतिचित्त हो अपने लक्ष्य के प्रति एकाग्र हो सकते हैं।
दीपावली पर्व पर एक बात कहना चाहता हूँ कि वह कृत्रिम रौशनी ही क्या जो मिट्टी के दीपक में मुस्कान नहीं भर सके।
(क्रमशः)
-व्याकुल पथिक
जीवन की पाठशाला
अनुभवों का निचोड़ और अंतर्निहित वेदना का भावपूर्ण चित्रण ,सच कहा आपने, किताबों में लिखे और पढ़ें गए विचार को जीवन में कितना भी
ReplyDeleteढालने की कोशिश की जाए ,अनुभव आखिर में सबको अर्थहीन कर देता
हे।यही सच है। बहुत मर्मस्पर्शी,आपकी लेखनी को नमन
जी प्रणाम दी, इस सार्थक प्रतिक्रिया के लिये।
ReplyDeletethanks Shashi ji,God bless
ReplyDeleteYou,usko har roj vahi eid
hai deevali hai,jisne har hal me jine ki kasam kha li
hai,jindgi ko jee kar fenk
do,koi chinta koi fikr nahin,
God is there to take care।
Bhai Shashi ,aadyopant parh gaya aap ka aalekh
Anubhav hame sammriddh karte hain,
Shahi bhai aur Sangharsh
Ki aag me tap kar sona
aur adhik chamak bikherta
hai ,koyla rakh ho jata hai,
Aapke aagman ke samay
Se nirantar aapko dekha hai,vigyamptiyan prakashit
karte karte kab aap ek saksham patrkar fir ek
lekhak ho gaye pata hi
nahin chala,nishchay hi
Aapne khud par jabardast
Mehnat ki hai,health ke
sath anyay bhi kiya hai
Aandhiyon me bhi diva ka
Deep jalna jindgi hai,
Pattharon ko tod jharne
Ka nikalna jindgi hai,
Bedhadak banarsi ji ki
baat hai।
God bless you Shashi।
- अधिदर्शक चतुर्वेदी जी
#बहुतखूब लिखा व्याकुल पथिक जी, पत्रकारिता में अब ऐसे लोग कहां बचे हैं जो दिल निकाल कर रख दें अपनीबात में .. आपने इतने मार्मिक ढंग से लिखा कि दिल को छू गया
ReplyDeleteजी बहुत-बहुत आभार, जो स्नेह मिल रहा है, पत्रकारिता से वही मेरी कमाई है।
ReplyDeleteप्रिय शशि भाई , बेहतरीन लेख और भावपूर्ण लेखन शैली आपकी पहचान है | जीवन यात्रा के पहले पड़ाव में जीवन अनेक आशंकाओं से भरा होता है | आपने कितने प्रहार सहे नियति के पर , कर्तव्य - पथ से विमुख नहीं हुए, ना ही ईमानदारी का दामन छोड़ा | यही एक अच्छे व्यक्ति की पहचान है | घर छोड़ा पर अपनी कुलीनता को आपने पत्रकारिता के पंक में बेदाग़ रखा ये आपकी जीवन की अनमोल पूंजी है \ लिखते रहिये | जीवन की इस पाठशाला के सबक से हर कोई कुछ ना कुछ जरुर सीख कर जाएगा | दीपावली पर आपके लिए हार्दिक शुभकामनायें | आप स्वस्थ हो अपने कर्मपथ पर अग्रसर रहें यही दुआ है |
ReplyDeleteआभार दी आप सदैव मेरी लेखनी को बल देती हैं और मुझे प्रोत्साहित करती रहती हैं।
ReplyDeleteमैं भी यह कामना करता हूँ कि आप सपरिवार आनंदित रहे और दीपावली का पर्व मनाएँ..
वह गीत है ना.. औलाद वालों फूलो फलो , तो दिल से मैं भी यही दुआ करता हूं दी आपसभी के लिये।
आप भी स्वस्थ सकुशल रहें।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (२८ -१०-२०१९ ) को " सृष्टि में अँधकार का अस्तित्त्व क्यों है?" ( चर्चा अंक - ३५०२) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (२८ -१०-२०१९ ) को " सृष्टि में अँधकार का अस्तित्त्व क्यों है?" ( चर्चा अंक - ३५०२) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
बहुत- बहुत आभार अनिता बहन , दीपावली पर्व पर मुझे यह खुशी देने के लिये,
ReplyDeleteआपको दीपोत्सव पर्व की शुभकामनाएँ, कठोर परिश्रम कर लक्ष्य को प्राप्त करें, प्रणाम।