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Tuesday 17 March 2020

साँसों से रिश्ता

               
                 साँसों से रिश्ता
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   दीनाराम स्वर्गवासी होने को थे ,तो विलाप कर रही पत्नी दयावंती को धैर्य दिलाते हुये कहा था-" अरी भाग्यवान ! क्यों रोती है। ये तेरा लायक सुपुत्र रजनीश है और मेरा पेंशन भी तो तुझे मिलेगा ? "
       अबतक तो उन दोनों ने जीवन के सारे दुःख-सुख साथ गुजारे थे। दीनबंधु ने उसके सम्मान पर कभी कोई आँच न आने दी थी। परंतु अब दयावंती बहू-बेटे के अधीन हो जाएगी। उसकी इस आशंका से दीनाराम भी भला कहाँ अंजान थे। अतः दयावंती के अंतर्मन की भाषा पढ़ उन्होंने अपने दोनों संतान रजनीश एवं ज्योत्सना की ओर उम्मीद भरी निगाहों से आखिरी बार देखा था ,तभी अचानक उनके हृदय की धौंकनी के तेज होते ही शरीर निष्चेष्ट पड़ जाता है ।
     पति की मृत्यु को विधि का विधान समझ विकल हृदय को बाँधने के लिए दयावंती ने स्वयं को ईश भजन में समर्पित दिया था। 
   पुत्रवधू कलावती ने अपनी कला दिखलाते हुये सास-श्वसुर का बड़ा वाला कक्ष बहाने से हथिया लिया, तब भी बिना किसी प्रतिरोध के दयावंती बेटे-बहू की खुशी केलिए आँगन के पीछे वाली कोठरी में चली गयी थी ।
   उसे सदैव स्मरण रहा कि उदारमना स्वर्गीय पतिदेव ने सरकारी दफ़्तर में मामूली लिपिक होकर भी कभी सामाजिक कार्यों से मुँह नहीं मोड़ा था। अपनी दोनों संतानों रजनीश एवं ज्योत्सना के विवाह के पश्चात वे जब रिटायर हुये और उनपर बीमारियों का पहाड़ टूट पड़ा , तब भी बेटे की सीमित आय को ध्यान में रखकर उन्होंने शहर के किसी नामी प्राइवेट हॉस्पिटल में अपना इलाज करवाने की जगह पेंशन का सारा पैसा घर-परिवार पर ही खर्च किया था। 
       परंतु अब घर में अपनी उपेक्षा देख  मनबहलाव केलिए दयावंती पुत्री के ससुराल जाने लगी थी। वह उसके बच्चों केलिए कुछ मिठाइयाँ और खिलौने लेती जाती थी । पति के पेंशन से बस इतना ही खर्च वह ज्योत्सना के परिवार पर अपने मद में करती थी। 
      किंतु पुत्री के घर से वापस लौटते ही कलावती आग हो जाती ।वह ताना देती -"  देखते हैं आखिरी वक़्त में बेटी दामाद इस बुढ़िया के कितने काम  आयेंगे।" अतंतः उसने ज्योत्सना के घर जाना बंद कर दिया। अब वह उसी छोटी-सी कोठरी में मौन निस्सहाय -सी पड़ी रहती। मानों अपनों ने ही उसका अपहरण कर लिया हो। बेटे-बहू के दुर्व्यवहार का संताप उसे दीमक की तरह खाये जा रहा था। छोटी पौत्री चाय और दो वक़्त की रोटी पहुँचा जाती, जिसके बदले में उसकी सारी पेंशन बेटा-बहू दबा लेते थे। पके आम- से जिस वय में उसे प्यार की आवश्यकता थी, वहाँ तिरस्कार और दुत्कार से उसका स्वागत होता था। परिस्थितियों से समझौता कर चुकी दयावंती ने अपने आँसुओं को आँखों में ही छिपा लिया था और पुत्री को भी नहीं बताया कि उसके भैया-भाभी उसे कितनी यातना दे रहे हैं। परंतु मन को ढाढ़स बँधाने का उसका प्रयत्न धीरे-धीरे विफल होने लगा और हृदय से यह आवाज़ उठने लगी थी - " जिसकी किसी को ज़रूरत नहीं उसे मर जाना ही अच्छा है। "
   अंततः उसने मन ही मन कुछ निश्चय कर लिया ...और फिर एक दिन गंगातट पर भारी भीड़ जुटी हुई थी । एक अचेत वृद्धा, जिसका शरीर बुरी तरह से ज़ख्मी था, किन्तु साँसें चल रही थीं , को कुछ लोग घेरे हुये थे। वे उसकी पहचान का प्रयास कर रहे थे, तभी पुलिस भी आ जाती है। नाविकों ने बताया कि बुढ़िया ने पुल पर से गंगा में छलांग लगायी थी , परंतु संयोग से उसे बचा लिया गया। सूचना मिलते ही परिवार के  सदस्य भी दौड़े आते हैं।
   और उधर, अस्पताल में रजनीश अपनी पत्नी को देख शिकायत भरे लहजे में फुसफुसाता है - " अरे मंदबुद्धी ! मुर्गी को ही हलाल कर देगी तो तू सोने का अंडे कैसे पाएगी। माँ की साँसें सुरक्षित रहे,तनिक इसका भी ख़्याल रख , नहीं तो तेरी गृहस्थी की गाड़ी बेपटरी होते देर न लगेगी।   "

   लेकिन , उसे यह नहीं पता रहता है कि पीछे खड़ा ज्योत्सना का पति  ने यहसब सुन लिया था। स्वस्थ होने के बाद दयावंती को जब घर ले जाने की बारी आयी ,तो बेटे-बहू  दुलार दिखलाते हुये आगे बढ़े ही थे कि ज्योत्सना ने रास्ता रोक लिया। 
    यह देख सशंकित रजनीश ने विरोध करते हुये कहा -" ज्योत्सना, यह कैसी अभद्रता  है तुम्हारी। माँ , हमारी जिम्मेदारी है। वह तुम्हारे घर जाकर रहे । यह मैं कैसे सहन कर लूँ। " 

  तभी पीछे से आवाज आती है - " साले साहब ! आप चिन्ता मत करो । माँ जी का पेंशन आप तक पहुँच जाएगा करेगा और हाँ, उनकी साँसें हमारे घर अधिक सुरक्षित रहेंगी , यह दोनों ही गारंटी हम लेते हैं। "

     सबके समक्ष अपना स्वार्थ उजागर होते देख रजनीश का चेहरा सफेद पड़ जाता है। उसकी आँखें झुक जाती हैं ।  और दयांवती ज्योत्सना की हाथ थामे  शीतल छाँव से भरे नये आशियाने की ओर प्रस्थान करती है। आज भी उसके नेत्रों में अश्रुधार थे, परंतु वे मुस्कुरा रहे थे, क्यों कि उस तपन से वह मुक्त हो गयी थी, जो पति की मृत्यु के पश्चात रजनीश से उसे मिली थी।   पुत्री के घर जाते समय उसकी साँसों से दुआ निकल रही थी, जिसपर सिर्फ़ ज्योत्सना के परिवार का अधिकार था। 

       -  व्याकुल पथिक
  
  चित्रः गूगल से साभार
  
  

31 comments:

  1. ये दिल को छू लेने वाली यथार्थ से भरी लघु कथा है शशि जी ।हमारे समाज की ये विडम्बना है कि हम पुत्रों से ज्यादा अपेक्षा करते हैं और कई बार हमें निराशा हाथ लगती है। वहीं बेटियां ज्यादा संवेदनशील होती हैं और शायद ही स्वार्थी।

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    1. जी आपने बिल्कुल उचित कहा प्रवीण भैया।

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  2. शशि भाई, हर इंसान बुढापे के सहारे के लिए बेटा चाहता हैं। लेलिन कई बाए बेटा और बहू अपने कर्तव्य से मूँहबमोड लेते हैं। वास्तविकता बताती सुंदर कहानी।

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    1. जी ज्योति दी, आसपास जो कुछ देखता हूँ।
      प्रयास कर रहा हूँ कि उसी घटना क्रम को जोड़ कर कुछ लिख सकूँ।
      दयावंती के रूप में वाराणसी एवं मीरजापुर की दो वृद्ध महिलाओं की पीड़ा देखी है, उसी से इस पात्र का सृजन किया हूँ।
      पता नहीं ठीक लिख पा रहा हूँ अथवा नहीं, क्यों कि अभी तो मार्गदर्शन की आवश्यकता है , परंतु गुरु का अभाव महसूस कर रहा हूँ।

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  3. दिल छू लेने वाली मार्मिक कहानी. 👌 👌 👌 बेहतरीन लेखन

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    1. जी आभार गुरुजी, उत्साहवर्धन के लिए नमन।

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  5. शशि भाई, मार्मिक कथा जो समाज के स्वार्थी चेहरे से नकाब हटाकर असलियत से रूबरू करवाती है। संतान बुढापे की लाठी कही जाती है, पर यदि स्थिति इसे विपरीत हो तो जीवन का संध्या काल दूभर हो जाता है। पर कहानी का सुखद अंत बहुत अच्छा लगा।अपने बेटे ने ना सही कथित बेगाने बेटे ने अपनी सहानुभूति का मरहम लगा कर वृद्ध मा को निहाल कर दिया । सार्थक कथा के लिए हार्दिक शुभकामनायें। कलम का साये सफर कभी ना थमे । सस्नेह।

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    1. आपका स्नेहाशीष इसी तरह बना रहे रेणु दी।
      यह तो आप भी जानती है कि मैंने कभी कोई साहित्यिक पुस्तक पढ़ी नहीं है।
      परंतु आसपास जो कुछ देखता रहा, उसमें से कुछ तो समाचार का विषय रहा और शेष यह आपके समक्ष है।
      हाँ ,कृपय इतना अवश्य करें आप की ऐसे सृजन में क्या सुधार मैं और कर सकता हूँ, यह मार्गदर्शन करती रहें।

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  6. होते ही होंगे शायद ऐसे पुत्र और पुत्रवधू, तभी तो किसी लेखक की लेखनी ऐसी पीड़ा उड़ेल पाती है। अच्छा लिखा है शशि जी आपने!

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    1. आपकी प्रतिक्रिया से काफी आत्मबल मिला।
      मेरा कोई भी पात्र बिल्कुल काल्पनिक नहीं है। हाँ, यहाँ भी दो पात्रों का मिश्रण है।

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  7. यौवन जब अपने चरम पर होता है, तो किसी चीज़ की चिंता नहीं होती है। लेकिन, जीवन तो घटनाओं से भरा हुआ है। प्रारंभ और अंत, दोनों में प्रायः साम्यता नहीं होती है। आकस्मिक, असामयिक, अप्रत्याशित घटनाएँ जीवन की दिशा को बदल देती हैं। जो सोचा जाता है, उसके विपरीत हो जाता है। आशा निराशा में परिवर्तित हो जाती है। परिणाम स्वरूप कुछ वक़्त बाद असहाय, दीन-हीन जीवन अपने आपको एकांत में क़ैद कर लेता है। दुनियाँ की रौनक और महफ़िल उसे बेकार लगने लगती है। जीने की इच्छा का अभाव हो जाता है। एक पल भर के लिए किसी पर निर्भरता मृत्यु से कहीं ज़्यादा भारी लगती है। ख़ुद से सवाल होते हैं कि कहाँ गलती हो गई थी? संस्कारों में, विचारों में, व्यवहारों में.. अाख़िर, कहाँ गलती हो गई? ख़ैर, अब इन सब बातों का कोई अर्थ नहीं रहा। एक तरफ़ स्वार्थ है, तो दूसरी तरफ़ परमार्थ, अब दोनों के बीच नहीं रहना है, यही हृदय कहता है। अब कोई समाधान नहीं है, अब यहाँ कोई समर्थक नहीं है, अब यहाँ कोई सहारा नहीं है। अंतहीन विचारों का सिलसिला प्रारंभ होता है और फिर विचारहीनता पर समाप्त हो जाता है। दिमाग़ काम नहीं करता। मानसिक असंतुलन उत्पन्न हो जाता है। तन कर खड़ा रहने वाला मनुष्य ख़ुद के ही सामने झुक जाता है।

    इस दुनियाँ में हर किसी को प्यार और सम्मान चाहिए और यह वही दे सकता है, जिसके हृदय में प्रेम और करुणा हो। माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र, पुत्रवधू, पुत्री और दामाद, पड़ोसी, मित्र इनमें नहीं होगा, तो कहाँ होगा प्रेम और करुणा? वह कौन-सा वातावरण है, जो प्रेम और करुणा को उत्पन्न करता है? दायित्वों के निर्वहन में स्वयं को निछावर कर देना परिवार के सदस्यों का कर्त्तव्य है। परंपराओं से ही देश और समाज का निर्माण होता है। उत्सर्ग से व्यक्ति की पहचान होती है। कोई कुछ कह न सके, इस तरह का आचरण होना चाहिए। यहाँ पर आप इस कहानी में पुत्र और पुत्री के आचरण में भिन्नता है। यही भिन्नता पाठकों के हृदय को दुःख से भर देती है। माता-पिता की सेवा को कभी भार नहीं समझना चाहिए। यह दुनियाँ सेवा से चलती है। मर्मस्पर्शी कहानी शशि भाई।🌹

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    1. जी अनिल भैया आपकी प्रतिक्रिया सदैव मार्गदर्शन के साथ ही सृजन के मूल में छिपे भाव की व्याख्या भी बखूबी करती है।
      सत्य यही है कि भविष्य के गर्भ में क्या छुपा है इसे हम में से कोई नहीं जानता । हम सभी अपना कर्म करते हुए भविष्य के लिए एक सुंदर स्वप्न संजोया करते हैं।
      हम कर्मपथ पर भी रहते हैं फिर भी जब कभी परिणाम विपरीत होता है और तिरस्कार, दुत्कार एवं उपेक्षा से हमारा हृदय ग्लानि से भर जाता है। हम अपना आत्म सम्मान खो बैठते हैं और स्नेह के दो बूंद के जगह हमें कदम- कदम पर ठोकर खानी पड़ती है, तो मन से आवाज़ उठती है कि अब यह जीवन व्यर्थ है ऐसे में जब हम एकाकी हो जाते हैं, तो फिर अवलंबन के अभाव में मृत्यु का चयन करने को विवश हो जाते हैं ।हाँ, कोई -कोई ऐसा होता है जो सब कुछ त्याग कर ईश भजन में तल्लीन हो जाता है, परंतु यह मार्ग आसान नहीं होता है।
      शुभ रात्रि।

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  8. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 19.3.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3645 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।

    धन्यवाद

    दिलबागसिंह विर्क

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  9. आपका बहुत आभार मंच पर स्थान देने केलिए, नमस्कार।

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  10. वाह!शशि भाई ,बहुत ही मर्मस्पर्शी । यह हमारे समाज की कडवी सच्चाई है । ऐसी उपेक्षित जिंदगी जीना वाकई बहुत ही मुश्किल होता होगा ..पर ऐसा होता है ।

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    1. जी शुभा दी,
      उचित कहा , ऐसा होता है ।
      जीवन की सबसे बड़ी चुनौती यह वृद्धावस्था ही तो है। आपकी प्रतिक्रिया से सृजन सार्थक हुआ, प्रणाम।

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  11. मां की छांव में बैठा कर निशब्द कर दिया। -ज्योत्सना मिश्रा

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  12. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार(२२-०३-२०२०) को शब्द-सृजन-१३"साँस"( चर्चाअंक -३६४८) पर भी होगी
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
    महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    **
    अनीता सैनी

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  13. मार्मिक यथार्थ समाज का ।
    हृदय स्पर्शी रचना शशि भाई।
    आप की लेखन शैली सीधे
    मन को झझोरती है।
    मरृम स्पर्शी घटना क्रम।

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    1. आपका स्नेहाशीष मिलते रहे कुसुम दी।
      प्रणाम।

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  14. Chhipe huye hi sahi , kintu samaj me vyapt abhishap per kendrit aap kee dono pravishtiyan hriday ko peeda pahunchane-waali hain,bhai sb . 🙏🏻
    एक वरिष्ठ अधिकारी की प्रतिक्रिया।

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  15. र‍िश्तों का सत्य संभाले ये रचना अद्भुत है व्याकुल पथ‍िक जी

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  16. समाज का कड़वा सच उजागर करती बहुत ही हृदयस्पर्शी कहानी....।लाजवाब लेखन शैली।

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  17. आपका आभार भाई साहब।

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  18. एक कड़वी मगर यथार्थ सच्चाई को उजागर करती मार्मिक रचना ,फिर भी आज भी समाज बेटों की आस ही लगाए रहता हैं ,सादर नमस्कार शशि जी

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    1. प्रतिक्रिया के लिए आपका अत्यंत आभार कामिनी जी।

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