बुधुआ की हिमाक़त
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सोशल डिस्टेंस.. सोशल डिस्टेंस..! भीड़ मत लगाओ ..कोई खाली हाथ नहीं लौटेगा..धैर्य रखो..!!
नगर सेठ घोंटूमल के आते ही उसके सिपहसालारों ने राहत सामग्रियों से भरी गाड़ी के इर्द-गिर्द कोलाहल मचा रहे ग़रीब - ज़रूरतमंद लोगों को घुड़कते हुये क़तारों में व्यवस्थित करना शुरू कर दिया था। वहाँ पहले से ही खड़े फ़ोटोग्राफ़रों के कैमरे क्लिक -क्लिक की आवाज़ के साथ हरक़त में आ जाते हैं। वीडियोग्राफ़ी भी शुरू हो गयी थी।
कोरोना के भय से लॉकडाउन के इस साँसत में भोजन के ये पैकेट इन दीनदुखियों के लिए किसी खजाने से कम नहीं थे । अतः बच्चे- बूढ़े सभी लंच पैकेट थामे घोंटूमल का जयगान करते हुये अपने ठिकाने की ओर बढ़ते जा रहे थे। सेठ की दानवीरता और इन ग़रीबों की दीनता के सजीव चित्रण के लिए छायाकारों ने अपनी ओर से कोई क़सर नहीं छोड़ रखी थी । उन्हें पक्का विश्वास था कि ऐसे चित्रों को देख कंजूस सेठ इस बार उनके तय पारिश्रमिक में किसी प्रकार की कटौती नहीं करेगा, क्योंकि सोशल मीडिया पर इनके माध्यम से उसके कार्यों की सराहना तो होगी ही, अख़बारों में भी सेठ की मानवीयता का गुणगान होना तय है । ऐसे संकटकाल में शहर में प्रतिदिन एक हजार लंच पैकेट वितरित करवाने की ज़िम्मेदारी घोंटूमल ने आलाअफ़सरों संग हुए वार्तालाप में स्वयं पर ले ली थी।
कहा तो यह भी जा रहा है कि देश पर आये संकट में सेठ की इस राष्ट्रभक्ति को देख कलेक्टर साहब बहुत प्रभावित हैं। सो, लॉकडाउन समाप्त होने के पश्चात सेठ के नागरिक अभिनंदन में उनकी भी उपस्थिति रहेगी ।
उधर, भीड़ से कुछ दूर खड़े बुधुआ की चौकन्नी आँखें सेठ की हर गतिविधियों पर टिकी हुई थीं। वह देख रहा था कि रंग बदलने की कला में पीएचडी कर रखा घोंटूमल किस तरह से इंसानियत का हवाला देकर जनसेवक बना हुआ था। वह परोपकार की बातें तो ऐसी कर रहा था कि मानों उससे बड़ा धर्मात्मा इस धरती पर दूसरा कोई नहीं हो । उसके प्रशस्तिगान करने वालों की संख्या में निरंतर वृद्धि होती जा रही थी।
यह सब नौटंकी देख बुधुआ का श्वास घुट रहा था। और अधिक देर तक यहाँ खड़ा होना उसके लिए असहनीय था। इस समाजसेवा के पीछे घोंटूमल की क्या मंशा है , भला उससे छिपी भी कैसे रह सकती थी। कभी वह भी उसका वफ़ादार कारिंदा जो था । ऐसे परोपकारी सेठ की सेवा में होने का उसे बड़ा गुमान था।
लेकिन उस दिन अख़बारों में अपने सेठ के छपे फ़ोटो को देख उसपर ऐसा वज्रपात हुआ कि उसने दुबारा कभी उसके बंगले की ओर रुख़ नहीं किया। घटना नोटबंदी के बाद की रही। जब दिल्ली के एक आलीशान होटल से घोंटूमल अपने अन्य सात साथियों के साथ पकड़ा गया था। साथ ही कई बक्सों में भरे पाँच सौ के वे नोट मिले थे, जो प्रतिबंधित थे। पकड़ा गया यह रैकेट इन्हीं नोटों को पड़ोसी देश नेपाल में भेज इनके आधे मूल्य पर अदला -बदली करता था। नोटों के ढेर के मध्य घुटनों के बल बैठे मुँह छुपाते अपने सेठ को देख लज्जा से उसका सिर झुक गया था। भारतीय मुद्रा के साथ हेराफेरी यह राष्ट्रद्रोह का मामला था। घोंटूमल और उसके साथियों को महीनों बाद जमानत मिली थी। तभी से वह अपने कालिख पुते चेहरे को पुनः चमकाने का अवसर ढ़ूंढ रहा था।
लेकिन ,आज वहीं देशद्रोही सेठ घोंटूमल हर किसी की दृष्टि में शहर का सबसे बड़ा समाजसेवी बना हुआ है। कोरोना जैसे वैश्विक महामारी में शासन-प्रशासन का सहयोग करने के लिए उसकी राष्ट्रभक्ति की सराहना चहुँओर हो रही है। उसे इस संकटकाल में इस शहर का भामाशाह बताया जा रहा है। जबकि उसने कई बैंकों का करोड़ों रूपया दबा रखा है। उसकी योजना सफल हो रही थी । आगामी इलेक्शन में उसे किसी प्रमुख राजनैतिक दल से टिकट मिलना तय है। यह कोरोना और लॉकडाउन उसके लिए वरदान से कम नहीं है।
हाँ, अब वह राष्ट्रद्रोही नहीं राष्ट्रभक्त कहा जाएगा। इस शहर का माननीय कहलाएगा । यहसब देख बुधुआ को लगता है कि उसके कलेजे में किसी ने भाला भोंक दिया हो। कैसे करे वह इस तथाकथित राष्ट्रभक्त को बेनक़ाब। बिल्कुल निस्सहाय सा वह अब भी वहाँ बेबस खड़ा था।
कैसे समझाए इस भीड़ को कि वह तो सिर्फ़ नाम से बुद्धु है , परंतु उनसब की बुद्धि क्यों मारी गयी है कि देशद्रोही और देशभक्त में फ़र्क तक नहीं समझ पा रहे हैंं।
तभी सेठ की निगाहें उससे टकराती हैं। घोंटूमल वहीं से आवाज़ लगाता है- " अरे ! बुधुआ दूर क्यों खड़ा है। तू भी लेते जा दो पैकेट। "
उसने देखा कि पीछे से भी कोई कह रहा था "-- बड़े भाग्यवान हो भाई , इस भीड़ में भी यह धर्मात्मा सेठ तुम्हें नाम लेकर पुकार रहा है। "
यह देख बुधुआ उसका पोल खोलने की चाह में अपना होश खो बैठता है। परिणाम उसकी आँखों में भय की परछाई डोल रही थी । वह बेतहाशा भागे जा रहा था और भीड़ मारो-मारो इस झुठ्ठे को, कह पीछा किये हुये थी।
एक राष्ट्रभक्त को देशद्रोही कहने की हिमाक़त जो उसने की थी।
-व्याकुल पथिक
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सोशल डिस्टेंस.. सोशल डिस्टेंस..! भीड़ मत लगाओ ..कोई खाली हाथ नहीं लौटेगा..धैर्य रखो..!!
नगर सेठ घोंटूमल के आते ही उसके सिपहसालारों ने राहत सामग्रियों से भरी गाड़ी के इर्द-गिर्द कोलाहल मचा रहे ग़रीब - ज़रूरतमंद लोगों को घुड़कते हुये क़तारों में व्यवस्थित करना शुरू कर दिया था। वहाँ पहले से ही खड़े फ़ोटोग्राफ़रों के कैमरे क्लिक -क्लिक की आवाज़ के साथ हरक़त में आ जाते हैं। वीडियोग्राफ़ी भी शुरू हो गयी थी।
कोरोना के भय से लॉकडाउन के इस साँसत में भोजन के ये पैकेट इन दीनदुखियों के लिए किसी खजाने से कम नहीं थे । अतः बच्चे- बूढ़े सभी लंच पैकेट थामे घोंटूमल का जयगान करते हुये अपने ठिकाने की ओर बढ़ते जा रहे थे। सेठ की दानवीरता और इन ग़रीबों की दीनता के सजीव चित्रण के लिए छायाकारों ने अपनी ओर से कोई क़सर नहीं छोड़ रखी थी । उन्हें पक्का विश्वास था कि ऐसे चित्रों को देख कंजूस सेठ इस बार उनके तय पारिश्रमिक में किसी प्रकार की कटौती नहीं करेगा, क्योंकि सोशल मीडिया पर इनके माध्यम से उसके कार्यों की सराहना तो होगी ही, अख़बारों में भी सेठ की मानवीयता का गुणगान होना तय है । ऐसे संकटकाल में शहर में प्रतिदिन एक हजार लंच पैकेट वितरित करवाने की ज़िम्मेदारी घोंटूमल ने आलाअफ़सरों संग हुए वार्तालाप में स्वयं पर ले ली थी।
कहा तो यह भी जा रहा है कि देश पर आये संकट में सेठ की इस राष्ट्रभक्ति को देख कलेक्टर साहब बहुत प्रभावित हैं। सो, लॉकडाउन समाप्त होने के पश्चात सेठ के नागरिक अभिनंदन में उनकी भी उपस्थिति रहेगी ।
उधर, भीड़ से कुछ दूर खड़े बुधुआ की चौकन्नी आँखें सेठ की हर गतिविधियों पर टिकी हुई थीं। वह देख रहा था कि रंग बदलने की कला में पीएचडी कर रखा घोंटूमल किस तरह से इंसानियत का हवाला देकर जनसेवक बना हुआ था। वह परोपकार की बातें तो ऐसी कर रहा था कि मानों उससे बड़ा धर्मात्मा इस धरती पर दूसरा कोई नहीं हो । उसके प्रशस्तिगान करने वालों की संख्या में निरंतर वृद्धि होती जा रही थी।
यह सब नौटंकी देख बुधुआ का श्वास घुट रहा था। और अधिक देर तक यहाँ खड़ा होना उसके लिए असहनीय था। इस समाजसेवा के पीछे घोंटूमल की क्या मंशा है , भला उससे छिपी भी कैसे रह सकती थी। कभी वह भी उसका वफ़ादार कारिंदा जो था । ऐसे परोपकारी सेठ की सेवा में होने का उसे बड़ा गुमान था।
लेकिन उस दिन अख़बारों में अपने सेठ के छपे फ़ोटो को देख उसपर ऐसा वज्रपात हुआ कि उसने दुबारा कभी उसके बंगले की ओर रुख़ नहीं किया। घटना नोटबंदी के बाद की रही। जब दिल्ली के एक आलीशान होटल से घोंटूमल अपने अन्य सात साथियों के साथ पकड़ा गया था। साथ ही कई बक्सों में भरे पाँच सौ के वे नोट मिले थे, जो प्रतिबंधित थे। पकड़ा गया यह रैकेट इन्हीं नोटों को पड़ोसी देश नेपाल में भेज इनके आधे मूल्य पर अदला -बदली करता था। नोटों के ढेर के मध्य घुटनों के बल बैठे मुँह छुपाते अपने सेठ को देख लज्जा से उसका सिर झुक गया था। भारतीय मुद्रा के साथ हेराफेरी यह राष्ट्रद्रोह का मामला था। घोंटूमल और उसके साथियों को महीनों बाद जमानत मिली थी। तभी से वह अपने कालिख पुते चेहरे को पुनः चमकाने का अवसर ढ़ूंढ रहा था।
लेकिन ,आज वहीं देशद्रोही सेठ घोंटूमल हर किसी की दृष्टि में शहर का सबसे बड़ा समाजसेवी बना हुआ है। कोरोना जैसे वैश्विक महामारी में शासन-प्रशासन का सहयोग करने के लिए उसकी राष्ट्रभक्ति की सराहना चहुँओर हो रही है। उसे इस संकटकाल में इस शहर का भामाशाह बताया जा रहा है। जबकि उसने कई बैंकों का करोड़ों रूपया दबा रखा है। उसकी योजना सफल हो रही थी । आगामी इलेक्शन में उसे किसी प्रमुख राजनैतिक दल से टिकट मिलना तय है। यह कोरोना और लॉकडाउन उसके लिए वरदान से कम नहीं है।
हाँ, अब वह राष्ट्रद्रोही नहीं राष्ट्रभक्त कहा जाएगा। इस शहर का माननीय कहलाएगा । यहसब देख बुधुआ को लगता है कि उसके कलेजे में किसी ने भाला भोंक दिया हो। कैसे करे वह इस तथाकथित राष्ट्रभक्त को बेनक़ाब। बिल्कुल निस्सहाय सा वह अब भी वहाँ बेबस खड़ा था।
कैसे समझाए इस भीड़ को कि वह तो सिर्फ़ नाम से बुद्धु है , परंतु उनसब की बुद्धि क्यों मारी गयी है कि देशद्रोही और देशभक्त में फ़र्क तक नहीं समझ पा रहे हैंं।
तभी सेठ की निगाहें उससे टकराती हैं। घोंटूमल वहीं से आवाज़ लगाता है- " अरे ! बुधुआ दूर क्यों खड़ा है। तू भी लेते जा दो पैकेट। "
उसने देखा कि पीछे से भी कोई कह रहा था "-- बड़े भाग्यवान हो भाई , इस भीड़ में भी यह धर्मात्मा सेठ तुम्हें नाम लेकर पुकार रहा है। "
यह देख बुधुआ उसका पोल खोलने की चाह में अपना होश खो बैठता है। परिणाम उसकी आँखों में भय की परछाई डोल रही थी । वह बेतहाशा भागे जा रहा था और भीड़ मारो-मारो इस झुठ्ठे को, कह पीछा किये हुये थी।
एक राष्ट्रभक्त को देशद्रोही कहने की हिमाक़त जो उसने की थी।
-व्याकुल पथिक
सराहनीय प्रयास शशि जी तथाकथित राष्ट्रभक्तों को आईना दिखाने के लिए। आज के इस संक्रमण काल में कई ऐसे सेठ घोंटूमल सक्रिय हैं जो दान पुण्य के कार्य कर के स्वयं अपना महिमागान कर और करवा रहे हैं। इनमें से कइयों ने तो अपने कर्मचारियों को या तो निकाल दिया हे या बिना वेतन के लॉक डाउन अवधि के लिये छुट्टी पर भेज दिया है और समाज में ऐसा दिखा रहे हैं कि इनसे बड़ा कोई परोपकारी नहीं है। इन्होंने अपने इर्द-गिर्द ऐसा मायाजाल रच दिया है कि क्या शासन और क्या प्रशासन सब इनके पूर्व के कारनामों को भूला बैठे हैं। रही बात बुधुआ जैसे पात्र की तो वो तो बस एक लाचार तमाशबीन ही बना रह सकता है अन्यथा उसका हश्र क्या होगा अपनी आवाज इनके खिलाफ उठा कर वो भलिभाँति जानता है।
ReplyDeleteजी प्रवीण भैया।
Deleteबड़े लोगों की बड़ी माया।
आखिर कौवे कब तक हँस बने रहेंगे।
यही नहीं समझ में आता है।
बहुत सुन्दर और सार्थक।
ReplyDeleteजी आभार गुरुजी।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार(०५-०४-२०२०) को शब्द-सृजन-१४ "देश प्रेम"( चर्चा अंक-३६६२) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
आपका आभार अनीता बहन।
Deleteईमानदार लोगों को इस बात की चिंता नहीं होती है कि उन्हें प्रशंसा मिले या न मिले। वे अपना काम ख़ामोशी से करते रहते हैं। पर, बेईमान को हमेशा चिंता होती है कि उसे ईमानदार माना जाए। बेवफ़ा को हमेशा चिंता होती है कि उसे वफ़ादार माना जाए। यह चाहत उनमें सबसे अधिक होती है, जो येन-केन-प्रकारेण धन कमाना चाहते हैं। धन जब पर्याप्त हो जाता है, हृदय जब तृप्त हो जाता है, घर-मकान जब बन जाते हैं, तो फिर ऐसे व्यक्तियों का मन कहीं और लगने लगता है। राजनीति और समाज, दो ऐसे प्रमुख क्षेत्र हैं, जहाँ पर ख़ुद को चमकाया जा सकता है। आपदा जब आए, तो कुछ पैसे खर्च कर दिए जाते हैं। उभरते हुए किसी नेता के आगे पीछे अपनी लग्जरी गाड़ी लगा दी जाती है। इससे राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में जान-पहचान मज़बूत होती रहती है। ख़ुद का भी उभार हो जाता है। छोटे-मोटे चुनाव हों, तो किसी को समर्थन दे दिया जाता है या फिर किसी जुगाड़ से ख़ुद ही टिकट हासिल कर कर लिया जाता है। एक बार बात बन गई, तो ज़िंदगी बन गई। कुछ दलों के नेता तो कहते हैं कि उन्होंने दागी लोगों को इसलिए टिकट दे दिया, ताकि उसके अंदर परिवर्तन आ जाए। इससे उसके सारे अपराधों पर पर्दा पड़ जाता है। जाति और धर्म के नाम पर समर्थन की शतरंजी चालें चलने लगती हैं। पैसे में बड़ी ताक़त होती है। भीड़ जुटाई जा सकती है। भावनाएँ अपना काम कर जाती हैं। संभावनाओं के आकाश में उसका परचम फहराने लगता है।
ReplyDeleteइधर अब क्या करेंगे? विद्रोही तो विद्रोही होता है। बुधुआ जैसे विद्रोही को तो व्यवस्था परिवर्तन की धुन लगी रहती है। हर जगह वह ईमानदार को खोजता रहता है। वह चाहता है कि उससे महत्त्व दिया जाए, उसकी बात सुनी जाए। अब इसकी बात सुनता कौन है? व्यवस्था उसे दुत्कार देती है। घर वाले भी उसे बेकार का आदमी समझने लगते हैं। धीरे-धीरे उसे पागलों की श्रेणी में खड़े कर जाता है। कई बार उसे समझाया जाता है कि जब बड़े-बड़े व्यवस्था को नहीं बदल सके, तो तुम्हारी औकात क्या है! लेकिन, यह बात उसे समझ में नहीं आती। उसे यह हमेशा लगता है कि ईमानदारी में बड़ी ताक़त होती है। इससे देश और समाज की व्यवस्था को को बदला जा सकता है। आदर्शवाद को लया जा सकता है। बेईमानों को कठघरे में खड़ा किया जा सकता है। लेकिन, उस बेचारे को यह नहीं मालूम कि उसका यह चिंतन बालू पर महल बनाने के समान है। यही वज़ह है कि घोंटूमल के चेले उसे देशद्रोही कहे जाने पर ऐसे व्यक्ति को दौड़ा लेते हैं। जब ऐसे व्यक्ति को दौड़ाया जाता है, तो कोई रोकने वाला भी नहीं होता है। उसे शहर के बाहर तक दौड़ाया जा सकता है। दौड़ा कर उसकी जान भी ली जा सकती है। अगर उसकी जान चली जाए, तो उसके परिवार को कुछ मुआवजा दिया जा सकता है। इस प्रकार वह अपनी ज़िंदगी को बहुत सार्थक कर सकता है। सबको मालूम है कि यह दुनियाँ ऐसे ही चलती है और चलती रहेगी। बहुत बढ़िया लिखा है शशि भाई। बहुत बधाई।💖
बिल्कुल उचित कहा अनिल भैया आपने। आज तो मैं भी तथाकथित समाजसेवियों से तांग हो गया था। कितना पोस्ट करूँ । सुबह से दो लोगों को पूर्णा पॉजिटिव निकलने पर उसी में लगा रहा और अब यह फ़रमाइश । अंततः लिखना पड़ा मुझे--
Delete*सभी से विनम्र अनुरोध है कि समाजसेवा का फोटो और वीडियो डालने को न कहें। मेरा मोबाइल का सत्यानाश हो गया है और अभी जेब में इतना पैसा नहीं है कि कुछ कर सकूं ।अखबार का पैसा वैसे ही बकाया है। होली में विज्ञापन का पैसा भी नहीं मिला है। इस लॉकडाउन में ठन -ठन गोपाल हूँ।संस्थान से भी अभी कुछ नहीं मिला है।*🙏
विस्तार के साथ आपकी समीक्षा मेरे मामूली से सृजन का भी ऊँचाई प्रदान कर देती है, आपका अत्यंत आभार। 🙏
बहुत मार्मिक कथाचित्र शशि भैया | सेठ घोंटूमल सीखे लोग समाज में यत्र तत्र विद्यमान हैं पर बुधुआ जैसी हिमाकत करने वाले लोग ना के बराबर , जो सरेआम दुस्साहस कर ऐसे लोगों का छद्म जनसेवक होने का मुखौटा नोच लें | सोशल मीडिया ने तो इन लोगों को बेहतरीन मंच प्रदान कर दिया है अपनी झूठी राजनीती चमकाने का | और इनके चाटुकार हितैषियों की तो बात ही करें तो बेहतर | बहुत बढिया और सधा लिखा है आपने| सस्नेह हार्दिक शुभकामनाएं आपके लिए |
ReplyDeleteजी दी आभार, उत्साहवर्धन के लिए।
Deleteशशि भाई, बहुत अच्छा लिखा है, आपने ,यदि समझने वालो को समझ मे आ जाय,
ReplyDeleteआभार दुर्गा भैया🙏
Deleteप्रथम बार आपका ब्लॉग पर आगमन हुआ है।
बड़ेभाई को प्रणाम,
ReplyDeleteआपकी लेखनी निश्चित ही वाहवाही लूटने वालों की पोल खोल रहा है।समाज में अवसर का लाभ उठाकर ये लोग अपनी राजनीति की घोल चख रहे हैं लेकिन आपकी यह लेकिन उनको करारा जवाब है जो अपनी उपज समझ बैठे हैं।आपकी लेखनी को सलाम
आप जैसे कर्मठ पत्रकार की प्रतिक्रिया मेरा उत्साहवर्धन करेगी राजू भैया।
Deleteशशि भाई आपकी लेख बहुत ही सराहनीय है,इस समय पर करप्ट लोग ही अपने को अच्छे समाजसेवी होने का दिखावा कर रहे है
ReplyDeleteजी बिल्कुल दीपक जी।
Deleteआप स्वयं इसे देख रहे होंगे।
रंग-विरंगे मुखौटों की भरमार है इस भरे बाजार में, अक्सर महान समझे जाने और उनके प्रति अथाह आदर रखने के बाद अकस्मात कभी उनका सही चित्रण अथवा घृणित रूप जब सामने आता है तो मन बहुत व्यथित हो उठता है और उनके प्रति जो घृणा उत्पन्न होती है वह कभी मिटती नहीं, इन्हें केवल मूर्खता की ही श्रेणी में स्थान मिलता है चाहे कितने भी जतन कर लें,मूर्खता भी दो श्रेणियों मेंआती है-एक पठित मूर्ख,दूसरा साधारण मूर्ख -अहंकारी एवं कुत्सित विचार रखने वाला ढोंगी प्राकट्य जीवन जीने वाला व्यक्ति पाप का ही भागी है और वुधुवा जैसा सरल और निर्भीक जीवन जीने वाला सदैव आदर का पात्र ही रहेगा चाहे कितना भी साधारण हो,अपने आस-पास ऐसे बहुत सारे हैं केवल पहचानने और मुखर होने की आवश्यकता है,प्रिय शशि जी को ढेर सारा स्नेह-रमेश मालवीय,अध्यक्ष भा.वि.प. "भागीरथी"
ReplyDeleteबहुत बढ़िया।
ReplyDeleteआभार भाई साहब।
Deleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteआज समाज में बहुत से ऐसे लोग हैं जो प्रसिद्धि पाने के लिए दानपुन्य का सहारा ले रहे है। और जिससे इन्हें पोल खुलने का डर होता है उसी को अपने पैसे के बलबूते पर उल्टा फंसाकर ये वाहवाही बटोरते हैं
ReplyDeleteबहुत ही हृदयस्पर्शी मार्मिक लाजवाब कहानी लिखी है आपने
बहुत बहुत बधाई आपको।
जी सुधा दी,
Deleteइस उत्साहवर्धन के लिएआपका हृदय से आभार।
व्यंग्य है और कोई निशाने पर भी है। बुधुआ वह है जो सत्य कहता है जिसे भीड़ तंत्र का शिकार होना पड़ता है। सेठ बाल्मीकि है जिसका इतिहास कम ही जानते हैं। चलो, अच्छा है भीड़ तंत्र की कोई वैचारिकी नहीं होती है वर्ना आज राष्ट्र भक्त की परिभाषा अलग होती। इसमें बुधुआ का दोष नहीं और न बदलते परिवेश में सेठ का है। दोष तो मीडिया का है जिसकी चकाचौंध में भीड़तंत्र पैदा होता है। मीडिया का सेठ साधना, विज्ञापन यज्ञ और सत्य आहूति के कारण ही ऐसे व्यंग्य पैदा होते हैं जिसमें बुधुआ जैसा किरदार होता है।
ReplyDeleteहरिकिशन अग्रहरि
प्रवक्ता
अरूण केशरी महिला महाविद्यालय मधुपुर सोनभद्र
स्थाई निवास - अहरौरा, मीरजापुर ।
इसी नाम के साथ ब्लॉग पर पोस्ट कीजिएगा।।
बहुत बढ़िया भैया,क्या खूब लिखा।आज कल ऐसे लोगो को अपनी देश भक्ति दिखाने का सुनहरा अवसर प्राप्त हो रहा है। और यही प्रयास है कि वो एक तीर सो दो निशाना साधने में लगे है। पोस्ट काफी अच्छा है।,🙏
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा ऐसे भी लोग है , जो ऐसे संकटकाल को भी अपने लिए विशेष उपहार समझते हैं।
Deleteप्रतिक्रिया के लिए आभार मनीष जी।
बिल्कुल सही कहा ऐसे भी लोग है , जो ऐसे संकटकाल को भी अपने लिए विशेष उपहार समझते हैं।
Deleteप्रतिक्रिया के लिए आभार मनीष जी।
बहुत सुंदर और सार्थक प्रस्तुति 👌👌
ReplyDeleteआपका अत्यंत आभार , प्रणाम।
Delete[09/04, 08:50] मिश्रा एम आर: आप की यह कहानी सुनकर मुझे अपने पुराने कर्मक्षेत्र के एक महान संत की बात याद आ गयी जो सन्यास लेने के बाद कभी गाड़ी ,वाहन का इस्तेमाल नही करते थे एक मुलाकात में मेरे द्वारा इस बारे में प्रश्न पूछने पर उन्होंने कहा कि वह वाहन की सवारी कर धरती माता के स्पर्श से वंचित नही होना चाहते , जबकि आज सबसे बड़ा सन्त वह जो सबसे बड़ी कीमती गाड़ियों से चले , आज के समय मे भी घोटूमल ही सफल है जो जनता का गला घोंट कर एकत्र किये गए धन को फ़ोटो खिंचा, डंका पिट कर अपने आपको सबसे बड़े दान वीर बनते है जबकि असली दान करने बाले किसी के सामने ही नही आते, नमन है उन महापुरुषों को ।
ReplyDelete[09/04, 09:13] gandivmzp@gmail.com: अखिलेश मिश्र" बागी " मीरजापुर