जीवन के रंग
*********
चितरंजन काका की बेचैनी बढ़ती ही जा रही है। कभी कमरे में तो कभी बारजे पर ,यही नहीं पड़ोस के दीना साहू की दुकान तक भी निकल पड़ते हैं। पर उम्र का यह कैसा विचित्र पड़ाव है कि उनके मन को कहीं शांति नहीं मिल पा रही है।वे स्थिर हो कर तनिक भी बैठ नहीं पाते हैं। उनके हाथ-पाँव तो पहले से ही काँप रहे थे, अब तो जुबां भी लड़खड़ाने लगी है, इसलिए वे क्या कहना चाहते हैं, इसे समझना किसी पहेली से कम नहीं है। फ़िर किसे इतनी फुर्सत है कि बूढ़े काका के समीप बैठ कर उनके मन को खंगालने की कोशिश करे। और तो और उनके संदर्भ यहाँ तक कहा जा है कि काका को 'मतिभ्रम' की शिकायत है। उन्हें किसी मनोचिकित्सक की सेवा लेनी चाहिए। अपने संदर्भ में शुभचिंतकों द्वारा ऐसी कानाफूसी से आहत काका ने कुछ इसतरह से मौन धारण कर लिया है,मानो संबंधों के दरकते अपने ही महल में उनके हृदय की आवाज़ गुम हो गयी हो। ठहाकों से गुलज़ार रहने वाले उनके बैठक में अब मरघट सा सन्नाटा है।
वैसे, बेटे-बहू दोनों ही उनके भौतिक सुख-सुविधा का ध्यान रखते हैं,किन्तु इससे अधिक इस हवेली में उनके लिए कुछ नहीं है। परिवार के महत्वपूर्ण निर्णयों में उनका हस्तक्षेप नहीं है। वे कागज़ पर ही इस हवेली के मुखिया मात्र हैं । और परिजनों द्वारा अपनी यही उपेक्षा उनके लिए असहनीय है।सो, जीवन के संध्याकाल में एक ऐसा अवलंबन जो उन्हें मानसिक शांति प्रदान करे, उनके खालीपन को समेट ले, इसी के अभाव में वे असामान्य व्यवहार कर रहे हैं।और स्वयं से यह सवाल भी - "क्या अब मेरी किसी को ज़रूरत नहीं रही ?"
अन्यथा काका अपने नाम के अनुरूप प्रौढावस्था तक बेहद खुशमिज़ाज थे। अरे भाई ! नाम ही जो उनका चितरंजन है । और हाँ,एक दौर वह भी था कि जब उनकी दुनिया भी रंगीन थी। उनके अतिथिकक्ष की रौनक देखते ही बनती थी। जहाँ सभ्रांतजनों की उपस्थिति देख , ऐसा लगता था कि मानो किसी छोटे-मोटे ज़मींदार का दरबार हो। इन्हीं की तरह काका अपनी अचल सम्पत्ति की बोली लगाते गये और उनके मेहमानखाने में ठंडा-गर्म होता रहा। बड़े होकर बच्चों ने घर को संभाल लिया,अन्यथा उनका बंगला भी हाथ से निकल जाता और सभी सड़क पर होते। लेकिन काका अकेले पड़ गये हैं , क्योंकि दरबारी तो कब का साथ छोड़ चले थे। घर पर मनबहलाव के लिए उनके पास कोई साधन शेष नहीं है, ईश भक्ति में उन्हें विशेष रूचि नहीं है और जीवन की यह साँझ उनपर भारी पड़ती जा रही है..।
और उधर...
मंदिर के समीप चबूतरे पर बैठीं वृद्ध महिलाएँ "हरि-चर्चा" में मग्न थीं। इन सभी के मुख पर प्रसन्नता थी। इनमें निर्धन-धनी का कोई भेद नहीं था। फ़र्क सिर्फ़ इतना था कि किसी की कलाई में सोने का कड़ा था,तो किसी ने साधारण काँच की एक-दो चूड़ियाँ पहन रखी थीं। किसी की मेवा-मिष्ठान से भरी प्रसाद की टोकरी वज़नी होती तो किसी की इलाइची दाना वाली टोकरी हल्की। यहाँ वे नित्य अपना दुःख-सुख बाँटने जुटती हैं। मंदिरों में धूप-दीपादि के पश्चात इसी चबूतरे पर सुबह-शाम बैठ कर भजन गाया करती हैं।
किन्तु इनमें से कुछ की बहुओं को संदेह है कि कीर्तन-भजन के नाम पर ,उनकी सासु माँ मुहल्ले की अन्य वृद्ध महिलाओं से अपने बहू-बेटे की शिकायत करती हैं । इसीलिए इनके इस धार्मिक ,सामाजिक और पारिवारिक संवाद को उन्होंने "गृह फोड़-चर्चा" का नाम दे रखा है। ख़ैर ,नाम में क्या रखा है। प्रश्न यह है कि आपकी सोच कैसी है। जब जीवन के संध्याकाल में अपने ही घर में वृद्ध सदस्यों की जाने-अनजाने में उपेक्षा होने लगे, तो इस अवसाद से मुक्त होने के लिए किसी न किसी आश्रय की आवश्यकता होती ही है। और इससे अच्छा और क्या है कि इन वृद्ध महिलाओं ने समय गुजारने के लिए इस चबूतरे का चयन किया है। क्योंकि घर के टेलीविज़न पर बहुओं का कब्जा है,उन्हें अपने पसंद की धारावाहिक जो देखनी होती है और फ़िर स्कूल-कोचिंग से छूटते ही बच्चे कार्टून लगा वहाँ अपना आसान जमा लेते हैं।
दादी माँ की परियों वाली कहानी अब कौन सुनता है।! यदि बच्चे कभी अपनी दादी के साथ कहीं जाना चाहते भी हैं तो उनकी मम्मी की आवाज़ सुनाई पड़ जाती है-" गोलू , इधर आओ.. स्कूल का होमवर्क पूरा करना है कि नहीं ? "
और ऊपर कमरे में जाते ही गोलू की तो क्लास ही लग जाती है। बेचारा कुछ यूँ सहम जाता है कि दादी माँ की परछाई से भी दूर भागने लगता है। अपने ही संतान के बच्चे के सानिध्य से वंचित होना यशोदा के लिए भी सहज नहीं था। किन्तु
आधुनिकता की अंधीदौड़ में सारे संबंध तेजी से परिवर्तित होते जा रहे हैं।पति की मृत्यु के पश्चात यशोदा ने कभी सोचा भी नहीं था कि अपने ही घर में वह परायी जैसी हो जाएगी। बहू के पश्चात अब उसका बेटा कुंदन भी उसकी उपेक्षा करने लगा था। बेटे को अफ़सर बनाने के लिए उसने क्या-क्या नहीं किया था। किन्तु आज उसका पुत्र ' कुंदन ' और वह स्वयं ' पाषाण' बन गयी है।
वह अपने ही सभ्य परिवार में बैकवर्ड समझी जाती है।
इसी घुटन से बाहर निकलने के लिए वह छटपटा रही थी कि एक दिन पड़ोस में रहने वाली गायत्री ने उसे रास्ता सुझा दिया। अब यशोदा उसके साथ मंदिर के समीप के उसी चबूतरे पर नियमित पहुँच जाती है। वह धर्मनिष्ठ महिला है। और भजन -हरि बिन तेरो कौन सहाई ... भी अच्छा गा लेती है, इसलिए यहाँ उसे ख़ूब सम्मान मिल रहा है। उसे ऐसा अवलंबन मिल गया है, जिससे बिछुड़ने का भय नहीं है।वह प्रभु -भक्ति में लीन रहने लगी है । उसे नयी पहचान मिल गयी है । वह मुहल्लेवासियों की 'यशोदा माई' बन गयी है । सभी लौकिक आकर्षक, लिप्सा, मोह और अनुराग से ऊपर उठ चुकी है।
यह वृद्धावस्था मनुष्य के धैर्य की परीक्षा लेती है। घर में न सही तो बाहर ही किसी ऐसे आश्रय की तलाश करें, जहाँ कुछ देर के लिए सुकून मिल सके। कोई साथी मिल सके, जिसके संग वार्तालाप कर, मन का बोझ हल्का कर सके।
भले ही जीवनपर्यन्त हमने कर्म की उपासना की हो,फ़िर भी सच्चाई और ईमानदारी के अवलंबन से कहीं अधिक ममत्व भाव की आवश्यकता इस अवस्था में होती है। आश्रय कहीं भी मिले, पर ऐसा मिले कि मुख पर वहीं मुस्कान पुनः थिरकने लगे, ताकि वह जीवन की शून्यता और दर्द से उभर सके।
इकलौते पुत्र की मृत्यु के पश्चात डगमगाते पाँवों को छड़ी के सहारे मस्जिद की राह दिखलाते जुम्मन चाचा, जीवन के संध्याकाल में अर्धांगिनी से वियोग के पश्चात शहर के बगीचे में हम-उम्र लोगों संग प्रातःभ्रमण और आध्यात्मिक चर्चा करते पांडेय जी एवं अपनों से मिले तिरस्कार से उत्पन एकांत को ध्यान में परिवर्तित के लिए मंयक भी कुछ इसीप्रकार से प्रयत्न कर रहा है। उपासना स्थल, आध्यात्मिक चर्चा और ध्यान ये तीनों ही इनका अवलंबन है।
व्याकुल पथिक
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चितरंजन काका की बेचैनी बढ़ती ही जा रही है। कभी कमरे में तो कभी बारजे पर ,यही नहीं पड़ोस के दीना साहू की दुकान तक भी निकल पड़ते हैं। पर उम्र का यह कैसा विचित्र पड़ाव है कि उनके मन को कहीं शांति नहीं मिल पा रही है।वे स्थिर हो कर तनिक भी बैठ नहीं पाते हैं। उनके हाथ-पाँव तो पहले से ही काँप रहे थे, अब तो जुबां भी लड़खड़ाने लगी है, इसलिए वे क्या कहना चाहते हैं, इसे समझना किसी पहेली से कम नहीं है। फ़िर किसे इतनी फुर्सत है कि बूढ़े काका के समीप बैठ कर उनके मन को खंगालने की कोशिश करे। और तो और उनके संदर्भ यहाँ तक कहा जा है कि काका को 'मतिभ्रम' की शिकायत है। उन्हें किसी मनोचिकित्सक की सेवा लेनी चाहिए। अपने संदर्भ में शुभचिंतकों द्वारा ऐसी कानाफूसी से आहत काका ने कुछ इसतरह से मौन धारण कर लिया है,मानो संबंधों के दरकते अपने ही महल में उनके हृदय की आवाज़ गुम हो गयी हो। ठहाकों से गुलज़ार रहने वाले उनके बैठक में अब मरघट सा सन्नाटा है।
वैसे, बेटे-बहू दोनों ही उनके भौतिक सुख-सुविधा का ध्यान रखते हैं,किन्तु इससे अधिक इस हवेली में उनके लिए कुछ नहीं है। परिवार के महत्वपूर्ण निर्णयों में उनका हस्तक्षेप नहीं है। वे कागज़ पर ही इस हवेली के मुखिया मात्र हैं । और परिजनों द्वारा अपनी यही उपेक्षा उनके लिए असहनीय है।सो, जीवन के संध्याकाल में एक ऐसा अवलंबन जो उन्हें मानसिक शांति प्रदान करे, उनके खालीपन को समेट ले, इसी के अभाव में वे असामान्य व्यवहार कर रहे हैं।और स्वयं से यह सवाल भी - "क्या अब मेरी किसी को ज़रूरत नहीं रही ?"
अन्यथा काका अपने नाम के अनुरूप प्रौढावस्था तक बेहद खुशमिज़ाज थे। अरे भाई ! नाम ही जो उनका चितरंजन है । और हाँ,एक दौर वह भी था कि जब उनकी दुनिया भी रंगीन थी। उनके अतिथिकक्ष की रौनक देखते ही बनती थी। जहाँ सभ्रांतजनों की उपस्थिति देख , ऐसा लगता था कि मानो किसी छोटे-मोटे ज़मींदार का दरबार हो। इन्हीं की तरह काका अपनी अचल सम्पत्ति की बोली लगाते गये और उनके मेहमानखाने में ठंडा-गर्म होता रहा। बड़े होकर बच्चों ने घर को संभाल लिया,अन्यथा उनका बंगला भी हाथ से निकल जाता और सभी सड़क पर होते। लेकिन काका अकेले पड़ गये हैं , क्योंकि दरबारी तो कब का साथ छोड़ चले थे। घर पर मनबहलाव के लिए उनके पास कोई साधन शेष नहीं है, ईश भक्ति में उन्हें विशेष रूचि नहीं है और जीवन की यह साँझ उनपर भारी पड़ती जा रही है..।
और उधर...
मंदिर के समीप चबूतरे पर बैठीं वृद्ध महिलाएँ "हरि-चर्चा" में मग्न थीं। इन सभी के मुख पर प्रसन्नता थी। इनमें निर्धन-धनी का कोई भेद नहीं था। फ़र्क सिर्फ़ इतना था कि किसी की कलाई में सोने का कड़ा था,तो किसी ने साधारण काँच की एक-दो चूड़ियाँ पहन रखी थीं। किसी की मेवा-मिष्ठान से भरी प्रसाद की टोकरी वज़नी होती तो किसी की इलाइची दाना वाली टोकरी हल्की। यहाँ वे नित्य अपना दुःख-सुख बाँटने जुटती हैं। मंदिरों में धूप-दीपादि के पश्चात इसी चबूतरे पर सुबह-शाम बैठ कर भजन गाया करती हैं।
किन्तु इनमें से कुछ की बहुओं को संदेह है कि कीर्तन-भजन के नाम पर ,उनकी सासु माँ मुहल्ले की अन्य वृद्ध महिलाओं से अपने बहू-बेटे की शिकायत करती हैं । इसीलिए इनके इस धार्मिक ,सामाजिक और पारिवारिक संवाद को उन्होंने "गृह फोड़-चर्चा" का नाम दे रखा है। ख़ैर ,नाम में क्या रखा है। प्रश्न यह है कि आपकी सोच कैसी है। जब जीवन के संध्याकाल में अपने ही घर में वृद्ध सदस्यों की जाने-अनजाने में उपेक्षा होने लगे, तो इस अवसाद से मुक्त होने के लिए किसी न किसी आश्रय की आवश्यकता होती ही है। और इससे अच्छा और क्या है कि इन वृद्ध महिलाओं ने समय गुजारने के लिए इस चबूतरे का चयन किया है। क्योंकि घर के टेलीविज़न पर बहुओं का कब्जा है,उन्हें अपने पसंद की धारावाहिक जो देखनी होती है और फ़िर स्कूल-कोचिंग से छूटते ही बच्चे कार्टून लगा वहाँ अपना आसान जमा लेते हैं।
दादी माँ की परियों वाली कहानी अब कौन सुनता है।! यदि बच्चे कभी अपनी दादी के साथ कहीं जाना चाहते भी हैं तो उनकी मम्मी की आवाज़ सुनाई पड़ जाती है-" गोलू , इधर आओ.. स्कूल का होमवर्क पूरा करना है कि नहीं ? "
और ऊपर कमरे में जाते ही गोलू की तो क्लास ही लग जाती है। बेचारा कुछ यूँ सहम जाता है कि दादी माँ की परछाई से भी दूर भागने लगता है। अपने ही संतान के बच्चे के सानिध्य से वंचित होना यशोदा के लिए भी सहज नहीं था। किन्तु
आधुनिकता की अंधीदौड़ में सारे संबंध तेजी से परिवर्तित होते जा रहे हैं।पति की मृत्यु के पश्चात यशोदा ने कभी सोचा भी नहीं था कि अपने ही घर में वह परायी जैसी हो जाएगी। बहू के पश्चात अब उसका बेटा कुंदन भी उसकी उपेक्षा करने लगा था। बेटे को अफ़सर बनाने के लिए उसने क्या-क्या नहीं किया था। किन्तु आज उसका पुत्र ' कुंदन ' और वह स्वयं ' पाषाण' बन गयी है।
वह अपने ही सभ्य परिवार में बैकवर्ड समझी जाती है।
इसी घुटन से बाहर निकलने के लिए वह छटपटा रही थी कि एक दिन पड़ोस में रहने वाली गायत्री ने उसे रास्ता सुझा दिया। अब यशोदा उसके साथ मंदिर के समीप के उसी चबूतरे पर नियमित पहुँच जाती है। वह धर्मनिष्ठ महिला है। और भजन -हरि बिन तेरो कौन सहाई ... भी अच्छा गा लेती है, इसलिए यहाँ उसे ख़ूब सम्मान मिल रहा है। उसे ऐसा अवलंबन मिल गया है, जिससे बिछुड़ने का भय नहीं है।वह प्रभु -भक्ति में लीन रहने लगी है । उसे नयी पहचान मिल गयी है । वह मुहल्लेवासियों की 'यशोदा माई' बन गयी है । सभी लौकिक आकर्षक, लिप्सा, मोह और अनुराग से ऊपर उठ चुकी है।
यह वृद्धावस्था मनुष्य के धैर्य की परीक्षा लेती है। घर में न सही तो बाहर ही किसी ऐसे आश्रय की तलाश करें, जहाँ कुछ देर के लिए सुकून मिल सके। कोई साथी मिल सके, जिसके संग वार्तालाप कर, मन का बोझ हल्का कर सके।
भले ही जीवनपर्यन्त हमने कर्म की उपासना की हो,फ़िर भी सच्चाई और ईमानदारी के अवलंबन से कहीं अधिक ममत्व भाव की आवश्यकता इस अवस्था में होती है। आश्रय कहीं भी मिले, पर ऐसा मिले कि मुख पर वहीं मुस्कान पुनः थिरकने लगे, ताकि वह जीवन की शून्यता और दर्द से उभर सके।
इकलौते पुत्र की मृत्यु के पश्चात डगमगाते पाँवों को छड़ी के सहारे मस्जिद की राह दिखलाते जुम्मन चाचा, जीवन के संध्याकाल में अर्धांगिनी से वियोग के पश्चात शहर के बगीचे में हम-उम्र लोगों संग प्रातःभ्रमण और आध्यात्मिक चर्चा करते पांडेय जी एवं अपनों से मिले तिरस्कार से उत्पन एकांत को ध्यान में परिवर्तित के लिए मंयक भी कुछ इसीप्रकार से प्रयत्न कर रहा है। उपासना स्थल, आध्यात्मिक चर्चा और ध्यान ये तीनों ही इनका अवलंबन है।
व्याकुल पथिक
शशि जी वृद्धावस्था का सुख उन्हें ही प्राप्त होता है जिनकी अपनी एक मित्र मंडली होती है,आज्ञा का पालन करने के लिए परिवारजन सदैव तत्पर रहते हों, आदर- सम्मान में कोई कमी न आयी हो,आदि अन्यथा वृद्धावस्था किसी अभिशाप से कम नहीं है।
ReplyDelete"यह वृद्धावस्था मनुष्य के धैर्य की परीक्षा लेती है। घर में न सही तो बाहर ही किसी ऐसे आश्रय की तलाश करें, जहाँ कुछ देर के लिए सुकून मिल सके। कोई साथी मिल सके, जिसके संग वार्तालाप कर, मन का बोझ हल्का कर सके।"
आपके द्वारा लिखित उक्त पँक्तियों में ही वृद्धावस्था का सार निहित है।
जी प्रवीण जी अधिकांश परिवारों की यही स्थिति है। शिक्षित परिवारों में तो और भी बुरा हाल है।
Deleteजी आभार।
ReplyDeleteसमय पंख लगा कर उड़ जाता है और छोड़ जाता है खट्टी-मीठी यादें। सारी बातें बस जब तक तरुणाई है, तभी तक अच्छी लगती हैं। उपलब्धियाँ क्या है और वर्तमान में अवलंबन क्या है, यही देखने को रह जाता है। सभी को सब कुछ मिल जाए, यह संभव कहाँ। भाग्य और कर्म अपना रोल अदा करता रहता है। जो प्रारंभ से ही व्यवहारिक रहा है, वही परिवार, पैसा और संपत्ति का मूल्य जानता है। इन सब के बावजूद कहीं न कहीं कुछ न कुछ कमी रह जाती है, जो बेचैनी का कारण बनती है। इन बेचैनियों को दूर करने का एकमात्र साधन धर्म और अध्यात्म में रूचि लेना रहता है। जिसमें ज्ञान हो और जीवन का मर्म भी। बाकी तो ईश्वर के ऊपर छोड़ना पड़ता है। कुछ तो लोग कहेंगे, कुछ तो लोग सुनेंगे, जीवन ऐसे ही चलता रहता है। शशि भाई, आपने जीवन के अंतिम प्रहर का बहुत ही सुंदर वर्णन किया है। आँखें भर आती हैं। आपके लेखन में मुंशी प्रेमचंद की झलक दिखाई देती है।
ReplyDeleteजी अनिल भैया,
Deleteमैं तो बस इन पात्रों में स्वयं को खोज रहा हूँ। दिन प्रतिदिन बिगड़ते स्वास्थ्य, एकाकीपन और अपनों के तिरस्कार के मध्य जीवन की वह साँझ मुझे भी गुजारनी है, अतः स्वयं को इसके लिए तैयार कर रहा हूँ।🙏
शशि भैया , अवलंबन को तरसते बुजुर्गों की ये करुण कथाएँ पढ़कर मन उद्वेलित हो करुणा में डूब गया | आखिर जीवन में कहाँ कमी रह जाती जो इंसान बुढापे में इस दशा को प्राप्त होता है | इसका कारण ये भी है कि जब कोई युवावस्था में होता है उसे अपने आसपास बुढापे की दुर्दशा झेल रहे इंसानों से प्राय सहानुभूति नहीं होती | बुढापे का मर्म बुढापे में ही जाकर पता चलता है | मैं खुद अपने सास ससुर के साथ रहती हूँ | मुझे ये अनुभूति होती है कल मेरे लिए भी ये समय तैयार बैठा है | आज यदि मैं आज उनका तिरस्कार करूं तो मुझे कल अपने बच्चों को कोसने का अधिकार नहीं होगा | बहुत मार्मिक लेख लिखा है आपने और सार्थक समाधान भी | हार्दिक शुभकामनाएं|
ReplyDeleteरेणु दी, काकी माँ वाला जो लेख मैंने लिखा था, उसका अंत भी दुःखद होता दिख रहा है, लगता है मुझे इस कथा का अब भाग-2 लिखना पड़ेगा। यह कहानी किसकी है, यह तो आप जानती ही हैं।
Deleteइस स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिये आपका आभार।
दीदी आप, अनिल भैया, प्रवीण जी और गुरुजी सदैव मेरे ब्लॉग पर निःस्वार्थ भाव से आ आते हैं,यह मेरा सौभाग्य है।
प्रणाम।
मार्मिक प्रस्तुति।
ReplyDeleteआभार गुरुजी।
Deleteशशि भाई,बुढापे की परेशानियों और उन परेशानियों का बहुत ही सुंदर समाधान बताया हैं आपने।
ReplyDeleteआभार ज्योति दीदी।
Deleteआपकी प्रतिक्रिया , अच्छी लगती है।
सत्य
ReplyDeleteयथार्थपरक विचारणीय चिंतन।
ReplyDeleteयह वृद्धावस्था का अकाट्य सत्य है, सब कुछ जिसका बनाया होता है वही एकांकी दुनिया का सरताज होता है।
ReplyDeleteयह वास्तविक जीवन की पटकथा है।
बहुत ही मार्मिक लेख शशि भैया।
जी आभार आशीष भाई।
Deleteशशि भाई बृद्धावस्था उम्र का वह पड़ाव है जब मनुष्य अपनी आयु के अधिकांश हिस्से को हारे हुए जुआरी की तरह हार कर आत्म मंथन करता है , सच्चे वफादार मित्र बड़े नसीब से मिलते है जो उम्र के आखिरी पड़ाव तक साथ देते है वरना " गजेड़ी यार किसके दम लगाए खिसके " वाला मुहावरा चरितार्थ होता है , घर के सदस्य लोग संस्कारी हो तो बुढ़ापा सही से बित जाता है अन्यथा ऐसे अभिज्यात घर भी मिल जायेंगे जहाँ के हवेलियों में बूढ़ो के लिए जगह नही मिलती ।
ReplyDelete-अखिलेश मिश्र पत्रकार
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आपने अपने दिल की गहराई से कलम चलाई है सत्य है हमलोग भी जल्द उसी लाइन में होंगे।बुढ़ापा मित्रो के सहारे व भगवान के भजन के सहारे निरोग कट जाए हम धन्य हो जाये।आपकी कलम ऐसे ही जीवन के गुणदोष दर्शाती रहे।
-देवेंद्र पांडेय पत्रकार
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Bhai sb,
dukhi wa chintit karnewala ,kintu badalate paariwarik sambandon par bahut hi paini antar- drishti.🙏🏻🌹
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बिल्कुल सही भैया🙏🙏🌹🌹
-संतोष मिश्र पत्रकार
जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है, जिससे हर उस व्यक्ति को गुजरना है जो उम्र के उस पड़ाव से गुजरे गा, आपकी हर बात दिल को छू जाती है, पढ़ते समय ये महसूस होता है कि चलचित्र आंखों के सामने हो रहा है 👌👌🙏
ReplyDeleteराजीव शुक्ला
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अवलंबन अति उत्तम लेख है । धन्यवाद भाई साहब ।
-राधेश्याम विमल पत्रकार