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Saturday 31 March 2018

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक 31/3/18

 मैं यह नहीं साबित करना चाहता कि  ईमानदारी से पत्रकारिता करके मैंने कोई बढ़ा गुनाह किया है। मैं सिर्फ नये व युवा पत्रकारों को यह बताने का प्रयास कर रहा हूं कि यह राह कितना कठिन है। चकाचौंध भरी इस दुनिया में आप भी ऐसा ही कर कहीं अवसाद की ओर न बढ़ जाएं। क्यों इस रंगमंच पर आकर मैं जब सभी अपनों से दूर होता चला गया, तो उस एकाकीपन से उबरने के लिये मुझे कठिन संकल्प लेंने ही पड़ रहे हैं। संतोष इस बात का है कि मैं इसमें सफल हो रहा हूं। क्योंकि मैं अपने पेशे के प्रति अपनी ईमानदारी को यूं तो अवसादग्रस्त होकर जाने नहीं दूंगा। ताकि कल को लोग यह कहें देखों जरा इस पागल को भाई ,बड़ा ईमानदार पत्रकार बन रहा था ! अतः संकल्प शक्ति से मैं वैराग्य के मार्ग पर बढ़ कर अपनी पीड़ा से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर रहा हूं। भले ही रंगमंच का पात्र वही रहूं, परन्तु यह न कहना पड़े कि जीना यहां मरना यहां , इसके सिवा जाना कहा...। सो,  हर आसक्ति से परे होने का संकल्प लिया है। इसी कारण मैंने  प्रेम भवन में अपना नया आशियाना बनाया। तो एक बार फिर से मोह ग्रस्त होने का जब कुछ एहसास और मन में भारी पन भी हुआ, तो मैं राही लाज चला आया। चंद्रांशु भैया ने इसकी मुझे आजादी दे रखी है कि मैं यहां वहां कहीं भी रह सकता हूं। हां, यहां राही लाज में कोई भी सामग्री ऐसी मेरी नहीं है कि उससे आसक्ति बढ़े । सो, बिलकुल ही मुसाफिर सा हूं और आनंदित भी। अब किसी अपने ठिकाने के प्रति मोह मुझे कैसे जकड़ेगा ?

 रही बात आत्मकथा लेखन कि तो मैंने इसके रविवार का दिन चयन किया है अथवा फुर्सत में कभी भी । शेष अन्य दिन समय मिलना मुश्किल है। आज रात्रि तो वाराणसी से साढ़े सात बजे पेपर ही लगा है। बस साढ़े नौ बजे से पहले नहीं आएंगी। फिर अखबार बांटने में भी दो घंटे तो लग ही जाते हैं। अब साढ़े 11 बजे रात मुसाफिरखाने पर वापस  लौट कर आऊंगा, तो लिखूंगा क्या।(शशि)

क्रमशः

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