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Saturday 7 April 2018

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक 8/ 4/18

आत्मकथा

     कर्मपथ पर आगे बढ़ने के लिये किया गया संघर्ष कभी व्यर्थ नहीं जाता। इसका एहसास अब मुझे होने लगा है। अचनाक यह परिवर्तन क्यों कि एक व्याकुल पथिक को गणतव्य तक पहुंचने का मार्ग दिखने लगा...
    मित्रों ,  जब से मैं अपने पत्रकारिता जीवन के संघर्ष काल के संस्मरणों को , व्यथा कथा को लिखने लगा। व्याकुलता बढ़ने लगी । अपनों के वियोग और एकाकीपन का एहसास होने लगा। वैराग्य की तलाश में मन भटकने लगा। कोई ऐसा साधक तो हूं नहीं कि पद्मासन या सिद्धासन में आंखें बंद कर बैठ जाऊं और मस्तिष्क को संज्ञा शून्य कर दूं। अभी इस वैराग्य भाव के अभ्यास में वर्षों लगेंगे। तो फिर पत्रकारिता जीवन के संघर्ष भरे इस पच्चीसवें वर्ष में आखिर कौन सा अमृत कलश मुझे मिल गया कि अशांत मन को कुछ तसल्ली हुई है। धन का लोभ तो मुझे है नहीं । सो, कुछ मित्रों की तरह कोई मदिरालय की लाटरी भी नहीं निकली है ,मेरे नाम । मैं तो पूरा खाटी पत्रकार ठहरा । फिर मदिरा की दुकान खोल कर नये लड़कों को यह पत्रकार धर्म बताना तौबा-तौबा। हां, यदि ऐसा कोई धंधा घर गृहस्थी की गाड़ी खींचने के लिये कर भी लेता, तो उसी दिन से पत्रकारिता छोड़ देता। ताकि युवा पीढ़ी की पत्रकारिता दिशाविहीन तो न होने पाये। अरे भाई !  पत्रकारिता के क्षेत्र में अमृत रुपी मदिरा कलश जब पा ही गये हो, तो धन की समस्या अब रही नहीं, मिशन तुम्हारा समाज के प्रति कोई है नहीं, फिर क्यों पत्रकारिता को बदनाम कर रहे हो। जो लोग हमारे पेशे को पवित्र समझते हैं, उसे अपावन करने की अब ऐसी क्या जरूरत।  हर उन लोगों से मेरा विनम्र अनुरोध है कि यदि पत्रकारिता में आकर अपना मनचाहा अमृत कलश पा गये हों , तो कृपया प्रस्थान करें, इस रंगमंच से । अब देखें न जब से राजनीति में बाहुबलियों, धनबलियों , माफियाओं का साम्राज्य स्थापित हो गया है, हमारे जिले के जुझारू कामरेड सलीम भाई जैसे तेजतर्रार पुराने नेताओं को  माननीय कहलाने जैसे अमृत फल की प्राप्ति हो ही नहीं  सकी । वे छोटे बैनर तले अपने सिद्धांतों की लड़ाई लड़ जरुर रहे हैं। परंतु जब कोई पावर हाथ में होगा , तब न विचारों को कार्य में परिणित करने का अवसर मिलेगा। तभी उनकी परख होगी कि कितना अच्छा दिन ला पाते हैं , वे भी। पर यहां तो अनाड़ी को खिलाड़ी बनाया जा रहा है। यही स्थिति पत्रकारिता की भी है। राजनीति का ककहरा नहीं जानने वाले धन सम्पन्न दागदार लोगों की इंट्री होते ही, उनसे विज्ञापन और धन प्राप्ति के लोभ में हम उनका बस्ता ढोने लगते हैं। सो, यह कहां तब याद कि सलीम भाई भी मैदान में खड़े हैं। विचार करें कि आज की पत्रकारिता कहां जा रही है ? आंखें शर्म से नीचे क्यों नहीं झुकती हमारी , जब हम हत्या अपहरण, रंगदारी वसूली जैसे मामलों में शामिल सफेदपोश माफियाओं के यहां दरबारी बने खड़े रहते हैं। आज कल एक नया शब्द पत्रकार प्रयोग करने लगे हैं , वह यह कि संस्थान को व्यवसाय चाहिए, इसलिए " चमेली का तेल " लेकर निकला हूं...
   खैर , आज के लेखन का मेरा मूल विषय यह रहा कि ढ़ाई दशक के पत्रकारिता जीवन के संघर्ष में मुझे कौन सा अमृत कलश मिल गया ! तो वह है, यह " व्याकुल पथिक ब्लाग "।  इस ब्लाग पर मैं अपना हर अनुभव, पीड़ा और संघर्ष आसानी से व्यक्त कर पा रहा हूं। कुछ मित्रों ने कहा कि यह सब लिख कर समय क्यों व्यर्थ कर रहे हो। इस अर्थ युग में किसे फुर्सत है कि तुम्हारी व्यथा कथा में वह रुचि ले। परंतु मेरा नजरिया  उन प्रसिद्ध कथावाचक संत की तरह है, जिन्होंने टाउनहाल, वाराणसी के एक रामकथा में कहा था कि मान लो कि दिन रात मैं राम नाम का माला फेर रहा हूं। और यदि ईश्वर का अस्तित्व नहीं हो, तो क्या मेरा यह मंत्रजाप व्यर्थ हो गया ? जानते हैं कथावाचक संत जी का अगला वाक्य क्या था । उन्होंने कहा था कि ऐसी परिस्थिति में भी मंत्र जाप  का फल व्यर्थ नहीं है। मंत्र जाप से तुम्हारा मन एकाग्र होगा। मस्तिष्क में अनावश्यक विचार नहीं आएगा । तब मैं इंटर की कक्षा में था। बाद में जब कुछ माह एक आश्रम में रहा, तो वहां " सतनाम " जपते रहने को कहा गया। आज भी जब व्याकुलता बढ़ती है, तो मैं तेजी से इस नाम का जाप करता हूं। जबकि कुछ वर्षों से मैं नास्तिक जैसा हूं।
    तो भाई  यह जो मैं लिख रहा हूं न , वह भी इसी मंत्र जाप की तरह ही है, क्या फर्क पड़ता है यह औरों के लिये उपयोगी नहीं हो। अब किसी पुस्तक पर आप ढेरों राम - राम लिखते जा रहे हैं, तो उसे ही कौन पढ़ता है। परंतु उससे आपके मन को शांति मिलती है कि नहीं ? इसी तरह से इस ब्लाग पर यह लेखन मेरे लिये अच्छा टाइम पास होगा, जब मैं पत्रकारिता छोड़ दूंगा। (शशि)

क्रमशः

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