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Monday 27 August 2018

अपने पे हँस के जग को हँसाना, ग़म जब सताये सीटी बजाना

     
परिश्रम यदि हमने निष्ठा के साथ किया है, तो वह कभी व्यर्थ नहीं जाता। भले ही कम्पनी की नजरों में हम बेगाने हो, तब भी समाज हमारे श्रम का मूल्यांकन करेगा। किसी को धन , तो किसी को यश मिलेगा ।

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      मिसाइल मैन डा0 एपीजे अब्दुल कलाम का एक सदुपदेश पिछले दिनों सोशल मीडिया पर पढ़ा था। जैसा की मेरी आदत है कि मैं हर नसीहत को अपनी कसौटी पर कसता, तौलता और परखता  हूं , तब उस चिन्तन को आगे बढ़ाता हूं।  यहां मुझे अपनी गलतियों का एहसास  हुआ है , लेकिन देर हो गयी है मुझसे । लिहाजा, कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी ! फिर भी पथिक को सम्हलना, चलना एवं मंजिल तक पहुंचना ही है । सो,

ग़म जब सताये, सीटी बजाना
पर मसखरे से दिल न लगाना
कहता है जोकर सारा ज़माना
आधी हक़ीकत आधा फ़साना
चश्मा उतारो फिर  देखो यारों
दुनिया नयी है चेहरा पुराना

    इस मन को बहलाने का यह मेरा अपना अंदाज है, आप सभी का कुछ न कुछ होगा , पर मेरा एक ही तो है, इस जहां में  मित यह जोकर। कुछ साथी कहते हैं कि तुम कुछ अच्छा लिख सकते हो, कोशिश तो करो ?  लेकिन मैं ऐसा नहीं  सोचता। यह सांप- सीढ़ी का खेल मुझे नहीं खेलना। जिन गीतों के सहारे मैंने कितनी ही तन्हाई भरी रातें गुजारी हैं। लेखन कार्य के दबाव में मैं उस वफादार दोस्त को क्यों छोड़ दूं। परखे हुये हमदर्द की उपेक्षा कर किसी नये व्यक्ति/ वस्तु की चाहत कभी नहीं करनी चाहिए हमें। यह कटु अनुभव है मेरा। अतः ब्लॉग पर जो कच्चा - पक्का ( अपनी बात ) लिखता भी हूं , तो यह सोच कर नहीं कि वह किसी को पसंद आया, नहीं आया, कमेंट बाक्स में प्रतिक्रिया आई की नहीं आई । बस मन की भावनाओं को व्यक्त कर देता हूं। रेणु दी का यह सुझाव मुझे अच्छा लगा कि सप्ताह में दो- तीन पोस्ट बहुत है, मेरे स्वास्थ्य एवं कार्य के लिहाज से । ब्लॉग की दुनिया में उन्हीं की प्रेरणा से मैं चंद कदम चल पाया हूं एवं यहां स्नेह भी आप सभी का मिला है, नहीं तो यह सफर अधूरा रह जाता।अखबार के लिये रोजाना पांच-सात घंटा समाचार संकलन एवं लेखन के लिए चाहिए। सच कहूँ तो भागदौड़ भरी दुनिया का यह मेला कितना अजीब है मुझ अकेले इंसान के लिये यहां तो, -

धक्के पे धक्का, रेले पे रेला
है भीड़ इतनी पर दिल अकेला
अपने पे हँस कर जग को हँसाया
बनके तमाशा मेले में आया

मेरे भाई !  इस दुनिया में इन सभी गम से एक साथ मुस्कुरा कर संघर्ष करना पड़ता है। अन्यथा हमारा मुहर्रमी चेहरा भला किसे पसंद आएगा। लोग मनहूस पत्रकार जो कहेंगे। फिर भी जब हम एकाकी हैं ,  स्मृतियां अठखेलियाँ करेंगी ही। मैं अपनी बात कहूं, कोई तीन दशकों से भटकती आत्मा ही तो हूं, वहां से यहां तक घुमता फिर रहा हूं। मैं सब कुछ देख रहा हूं। भले ही मुझे बहुत कम लोग देखे-समझ पाते हो । हां, इस दौरान कभी- कभी थोड़ी खुशियाँ आ भी गयी थीं इस जीवन में,जो दर्द एवं तन्हाई दे गयीं , ऐसे में  इन्हीं गीतों के गुलदस्ते ने अनेकों बार मेरे हृदय के जख्म को भरा है। अत्यधिक काम के बोझ तले मैंने जीवन की सबसे बड़ी गलती की है । जो मुझे स्नेह करते थें , उनके लिये मेरे पास समय जो नहीं था। सदैव अपनी कक्षा  में अव्वल रहा , परिश्रमी रहा, कभी घबड़ाया नहीं , उसी शख्स को निठल्ला कहलाने के भय, काम के प्रति मोह , अति उत्साह और भूख ने कितना निष्ठुर बना दिया था । अपनो के यहां शहनाई बजी या अर्थी सजी, ऐसे हर्ष एवं विषाद के अवसर पर उसमें शामिल होने के लिये  क्यों तनिक भी वक्त नहीं रहा मेरे पास ? फिर क्यों न तब मैंने अपने ललाट पर गुलाम होने का ठप्पा ही लगवाया था या छोड़ा क्यों नहीं यह काम । आत्मग्लानि तो नहीं महसूस करता न अपने देश के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के इस सदुपदेश को पढ़ कर । पिछले कुछ दिनों से मेरा ही मन मुझे ही धिक्कार रहा है। मैं उसे किस तरह से समझाऊँ कि ढ़ाई दशक के मेरे इतने कठोर संघर्ष पर यूं उपहास तो न करों। काम की आपाधापी में कभी इस विषय पर मैं गंभीर हुआ ही नहीं।
          आप भी यदि नौकरी पेशे में हैं तो ठहर कर  डा0 कलाम के इस संदेश पर गौर करें, उन्होंने कितनी साफगोई से  लिखा है कि आप अपने कार्य से प्यार करें, कम्पनी से नहीं, क्यों कि आपको नहीं मालूम कि कम्पनी कब आपको प्यार करना छोड़ देगी। आगे यह भी लिखा है कि समय से कार्यालय छोड़े, क्यों कि कार्य एक कभी समाप्त न होने वाली प्रक्रिया है। उन्होंने कहा है कि जब कभी आप जीवन में निराश होंगे तो आपका बॉस नहीं , बल्कि आपका परिवार और मित्रगण आपकी सहायता के लिये आगे आएंगे।कहा है कि जीवन निरर्थक न बनाएं, समाजिकता, मनोरंजन, आराम एवं  अभ्यास के लिये भी समय हो। उन्होंने कहा है कि जीवन को यंत्र / मशीन  बनाने के लिये कठिन अध्ययन एवं कड़ा संघर्ष नहीं किया है हमने। मिसाइल मैन ने जो चेतावनी दी है , अपने जीवन संघर्ष की कसौटी पर मैंने उसे अक्षरशः सही पाया। इसीलिये जीवन में पथ प्रदर्शक का होना आवश्यक है।  मैंने उस रंग मंच का चयन किया था। जहां सप्ताह में एक भी दिन अपने लिये नहीं मिलता था। यह तो अब दो- ढ़ाई वर्षों से रविवार का अवकाश मिल रहा है। नहीं तो सुबह से दोपहर तक समाचार संकलन और लेखन, फिर बंडल लेने जिले से बाहर पहले वाराणसी फिर औराई जाना , चौराहे पर डेढ़-दो घंटे खड़ा रहना , देर शाम सवारी वाहन की तलाश , पुनः मीरजापुर आ कर रात्रि  में अखबार का वितरण करना एवं करवाना । पूरे 6 बजे सुबह से रात्रि 10 बजे की ड्यूटी रही मेरी। आप ऐसे समझ लें कि जिस दिन सायं मेरे मौसा जी की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हुई। मुजफ्फरपुर से बहन का फोन आने के बावजूद बस से अखबार का बंडल उतारने के लिये औराई चौराहे पर इस तरह से  डटा खड़ा था, मानों सीमा पर मोर्चा सम्हाले खड़ा हूं। इसके पहले उसकी शादी में भी नहीं गया था मुजफ्फरपुर। यह तो एक बानगी है, मैंने जीवन में अपनी खुशियों के सारे अवसर अखबार के कार्य में गंवा दिये। फिर भी यह दर्द बना रहेगा मुझे कि जब मेरे ऊपर संकट आया तो कितनी मदद मिली संस्थान से ? हालांकि कलाम साहब के इस चिन्तन में मैं एक छोटा संशोधन करना चाहूँगा कि परिश्रम यदि हमने निष्ठा के साथ किया हो, वह कभी व्यर्थ नहीं जाता। भले ही कम्पनी की नजरों में हम बेगाने हो, तब भी समाज हमारे श्रम का मूल्यांकन करेगा। आज इस शहर में कितने ही आम और खास लोग , जिन्होंने सड़कों पर मेरे श्रम को देखा है, वे मुझे स्नेह देते है, सम्मान देते हैं और पहचान भी देते हैं। मेरा एक पैगाम  सदैव उनके लिये रहा है-

हिन्दू न मुस्लिम, पूरब ना पश्चिम
मज़हब है अपना, हँसना हँसाना
कहता है जोकर सारा ज़माना …

 इसलिये न मुझे फासिस्ट पसंद हैं , न सेकुलर ठेकेदार। ये राजनीति के शब्द हैं, आम आदमी के नहीं। सत्ता पाने के लिये  कोई कट्टरपंथी तो कोई उदारवादी मुखौटा पहन लेता है। जिस दिन आप भी इसे समझ लेंगे, दूरियां मिट जाएंगी इस समाज में।  मैंने समझा है, इन पच्चीस सालों में इसीलिये किसी भी धर्म एवं जाति के प्रति कोई दुराग्रह नहीं है मेरे हृदय में ।  एक रचनाकार, एक पत्रकार, एक सच्चा  जनसेवक बनने लिये यह प्रथम सीढ़ी है हमारी कि हम सबके हैं और सभी हमारे हैं । आम चुनाव सामने हैं, जिसमें सदैव हम प्रबुद्धजनों की अहम भूमिका रहती है साथ ही जुगाड़ तंत्र के विरुद्ध शंखनाद का अवसर भी।

Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (अपने पे हँस कर जग को हँसाना , ग़म जब सताये सीटी बजाना ) आज के विशिष्ट लेखों में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन
धन्यवाद
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3 comments:

  1. प्रिय शशि भाई -- आपकी अंतर्वेदना हर पोस्ट में छिपाते- छिपाते भी छलक ही जाती है | आपने मेरे सुझाव पर गौर किया ये मेरा सौभाग्य | अगर आप स्वस्थ भी हों तो भी कम लिखना और बेहतर लिखना ही अच्छा है क्योकि पाठकों को भी समय चाहिए | उन्हें भी मंथन करने दीजिये |अगर नयी पोस्ट जल्दी डालें तो पुरानी उपेक्षित हो पड़ी रह जाती है | मैंने आपकी शुरुआत की कितनी पोस्ट देखीहैं , जो बेमिसाल हैं पर उन पर पाठकों की उपस्थिति ख़ास नहीं थी | अब आपके हर लेख को लोग हाथों हाथ ले रहे हैं | और आपने अपनी व्यस्तता के बारे जो लिखा वह एक इमानदारी से किया गया आत्म मंथन है | आपने सचमुच अपने आप को काम में इतना डुबो दिया ,कि काम की वजह से निजी जीवन का आनन्द खो दिया |उनके सुख दुःख में , शामिल ना होकर उनसे ज्यादा खुद को आहत किया | हर समस्या का समाधान है | आपको अपने स्थान पर किसी जिम्मेवार व्यक्ति का विल्कप जरुर रखना चाहिए जो आपकी थोड़ी बहुत अनुपस्थिति में आपके काम को संभाल सके | और आप सचमुच एक सच्चे पत्रकार भी है , रचनाकार भी साथ ही उससे कहीं बढ़कर एक सच्चे इन्सान हैं | अपने आपको पारदर्शिता से परखने की हिम्मत हर किसी में नहीं होती | गाने के बहाने से बेहतरीन चिंतन किया है आपने | सस्नेह

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  2. आपकी ये पोस्ट अपने गूगल प्लस पर शेयर कर रही हूँ |


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  3. जी रेणु दी ,ऐसा स्नेह और उपयोगी सुझवा आपसे ही तो मिल सकता है न ? प्रणाम

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yes