जाने वालों ज़रा, मुड़ के देखो मुझे
एक इन्सान हूँ मैं तुम्हारी तरह
जिसने सबको रचा, अपने ही रूप से
उसकी पहचान हूँ मैं तुम्हारी तरह ...
कभी आपने अपनी गलियों में या फिर सड़कों पर बिखरे कूड़ों के ढ़ेर में से कबाड़ बटोरती महिलाओं को देखा है , नहीं देखा , तो दरबे से बाहर निकलिए। समाज के निचले पायदान पर खड़े लोगों की तस्वीर जरा करीब से देखिये न मित्रों ! कल्पनाओं में इन पर रचनाएं न लिखें । पहले इनसे जुड़े जो कबाड़ी को बेचने योग्य कुछ वस्तुओं को अपनी बड़ी सी झोली में घंटों इधर- उधर घुम टहल कर समेटती रहती हैं। उनके बच्चे भी कुछ ऐसा ही करते हैं। यह हमारी शाइनिंग इंडिया की एक अलग तस्वीर है।इनकी भी अपनी दुनिया है। ये कोई भिक्षुक नहीं हैं और न ही मैं इनकी गरीबी को यहां फोकस करना चाहता हूँ। मैं तो इनके स्वाभिमान का कायल हूँ । मौसम चाहे जो भी हो,जिस तरह से मैं अपनी ड्यूटी का पक्का हूँ , उसी तरह से ये भी पौ फटने से काफी पूर्व ही अपने कार्य में तल्लीन मुझे दिखती हैं। बस हमारे उनमें अंतर इतना ही रहता है कि मुझे गलियों में अवारा कुत्ते तंग नहीं करते और उन्हें वे अंधकार में संदिग्ध समझ दौड़ा लेते हैं, उनकी झोली को देख कर । ये कुत्ते भी कितने पाजी होते हैं आज कल के, चोर इनके सामने से ही तर माल गटक कर चला जाता है, फिर भी वे तनिक ना गुर्राते हैं। याचकों की टोली देख कर भी वे मौनव्रत तोड़ते नहीं, लेकिन जैसे ही कूड़ा बिनने वाले किसी बच्चे को अकेले देख लेते हैं, बस फिर क्या मोर्चाबंदी कर लेते हैं, वैसे ही जैसे ईमान के पक्के किसी व्यक्ति की घेराबंदी इस जुगाड़ तंत्र में होती है। इसके बावजूद ये बहादुर बच्चे अपनी बोरी को इस तरह से चहुंओर घुमा कर उन्हें पास नहीं आने देते , मानो वह उनका सुदर्शन चक्र हो। मैं भी कभी-कभी ठिठक कर कुत्तों और इन बच्चों का संघर्ष देखता हूं। हालांकि मेरे आने पर अकसर ही कुत्ते भाग खड़े होते हैं। भोर में हम दोनों का अपना मौज है, इन खाली पड़ी अंधकार भरी सड़कों पे। सो, थोड़ा मुस्कुरा उठता हूं, जब कानों में लगा ईयरफोन कुछ यूं सुनाता है-
ये ना सोचो इसमें अपनी
हार है कि जीत है
उसे अपना लो जो भी
जीवन की रीत है
ये जीवन है
इस जीवन का
यही है, यही है, यही है रंग रूप
थोड़े ग़म हैं, थोड़ी खुशियाँ
यही है, यही है, यही है छाँव धूप...
हाँ, प्रातः भ्रमण करने वालों की दखलअंदाजी होती रहती है। सच कहूं, तो सड़कों पर कबाड़ बिनने वालों के प्रति मेरा अपना नजरिया है। मुझे इन्हें देख गर्व महसूस होता है कि हम दोनों ने ही किसी के समक्ष हाथ नहीं फैलाया है। बस फर्क इतना हैं कि मैं जब अखबार बांट रहा होता हूं, तो ये फटे- चिथड़े अखबार सड़कों पर से बिन-बटोर रहे होते हैं। कितने निश्छल हैं ये बच्चे , इस बनावटी- दिखावटी दुनिया से बिल्कुल अलग। क्या आपने कभी इनके चेहरे पर उदासी देखी है। इन्हें बीमार पड़ता भी मैंने नहीं देखा है । अपने देश में इन दिनों स्वच्छता अभियान को लेकर क्या-क्या नहीं हो रहा है। बड़े राजनेता और अधिकारी तक झाड़ू थामे फोटो शूट करवा रहे हैं। मानों फैशन शो के माडल हो एवं रैम्प पर अपना जलवा बिखेर रहे हों। फिर भी वे जब तब अस्वस्थ हो ही जाते हैं। लेकिन, गंदगी के ढ़ेरों में पलने- बढ़ने वाले इन बच्चों को देखिये तो जरा , प्रकृति ने किस तरह से इनकी रोग प्रतिरोधक शक्ति मजबूत कर रखी है। यदि स्वाभिमान की बात करूं तो हम ढ़ूढ़ते रह जाएंगे फिर भी इनमें से किसी बच्चे को किसी गैर के समक्ष हाथ फैलाते कभी नहीं देखेंगे। ये तो स्वयं ही अपने अभिभावकों को सहारा देते हैं। ये निठल्ले नहीं हैं ,उन पढ़े लिखे बेरोजगार युवकों की तरह जो अपने खून पसीने की कमाई खाने की जगह जरायम की दुनिया में पांव रख देते हैं। ये लोग उन सफेदपोशों की तरह भी नहीं है, जो गरीबी हटाओ या फिर अच्छे दिन लाने का बस वादा ही करते रहते हैं, ना ही समाज सेवा के नाम पर जनता का पैसा डकारने वाले जनसेवक हैं वे। ये ना ही सफेद खादी के पोशाक में लकदक हैं । वे तो मैले-कुचैले वस्त्र पहने मिलते हैं , अपने नगर की गलियों में, फिर भी वह दागदार नहीं है । ऐसी ही महिलाएं और उनके बच्चों की टोली को मैं अकसर ही अपने मुसाफिरखाने के सामने सड़क उस पार हंसी ठिठोली करते देखता हूं। सभी सामने की दुकान से चाय संग बिस्कुट खाते दिखते हैं, क्यों कि सुबह के सात बजते- बजते इनकी झोली में जो कुछ आया ,वहीं इस दिन की उनकी कमाई है। दिन में वे इसे किसी कबाड़ी को बेच देंगे। वैसे, इन दिनों इनके हाथ कुछ तंग हैं, कारण यह है कि प्लास्टिक की थैलियों सहित बहुत सी अन्य सामग्री पर सरकार ने प्रतिबंध जो लगा दिया है। बस दुख मुझे इस बात का है कि ये बच्चे पढ़े लिखे नहीं हैं । ये बेईमानों को भी साहब कह कर बुलाएंगे। वैसे तो कोई बड़ी डिग्री मेरे पास भी नहीं है। लेकिन, मैंने अपने परिश्रम से इसकी कमी पूरी की है। सो, आज अनेक लोग मेरे लिये सम्मान सूचक सम्बोधित का प्रयोग करते हैं । वे मुझसे चाहते हैं कि समाज की सही तस्वीर हम प्रस्तुत करें। अतः ऐसे लोगोंं के और कुछ न कर सकते हो यदि हम , तो इतना तो दुआ कर ही सकते हैं इनके लिये कि
मंज़िल न दे चराग न दे हौसला तो दे,
तिनके का ही सही तू मगर आसरा तो दे...
हम एक पत्रकार हैंं , इसीलिये हमारा लेखन कार्य चुनौतियों से भरा होता है। हमें कल्पनाओं की उड़ान भरने की अन्य रचनाकारों की तरह अनुमति नहीं है। हमें तो धरातल पर पांव टिका कर अपनी बातों को पूरे प्रमाण एवं तार्किक ढ़ंग से पाठकों के समक्ष रखना होता है। सत्य को सामने लाने की हमारी नैतिक जिम्मेदारी है। ऐसे में हम अच्छे रचनाकार किस तरह से बन सकते हैं। पत्रकारिता में हमें तो भूत और वर्तमान को ध्यान में रख कर ही भविष्य पर अपने विचार रखने की शिक्षा दी गयी है। हां, अब पेड न्यूज का जमाना है। सो, हमारी लेखनी भी जब तब फिसलती रहती है। कभी संस्थान के लिये, तो कभी अपने लिये , हमलोग अनाड़ी को खिलाड़ी बना कर अखबारों के कालम रंगा करते हैं। लेकिन, यह ब्लॉग एक दर्पण है मेरे लिये, अतः मेरी जो सम्वेदनाएँ हैं, भावनाएं हैं वे जज़्बाती न हो, इस पर सदैव ही मैं अंकुश लगाते रहने का प्रयास करता हूं। अपने अंधकारमय जीवन में प्रकाश के लिये एक दीपक की तलाश में हूं, जो कभी मेरे बिल्कुल करीब होता है , तो कभी दूर जाता दिखता है। मानो लुकाछिपी खेल रहा हो मुझसे ,कुछ इस तरह से यह भी ...
ये पल पल उजाले, ये पल पल अंधेरे -
बहुत ठंडे ठंडे, हैं राहों के साये
यहाँ से वहाँ तक, हैं चाहों के साये -
ये दिल और उनकी, निगाहों के साये -
मुझे घेर लेते, हैं बाहों के साये...
यह लेख मेरा उन जेंटलमैनों (भद्र पुरुष)के लिये है , जो ऐसे स्वाभिमानी बच्चों को देख न जाने क्यों नाक भौं सिकोड़ने लगते हैं। मैं जानता हूं आप उनमें से नहीं हैं। एक सच्चे रचनाकार का सम्वेदनशील हृदय सदैव जो भावनाओं से भरा होता है।
भैया आप तो गरीबो का दर्द बहुत अच्छे से समझते है और उन की मदद भी करते है आप को सच्चे दिल से सलाम
ReplyDeleteशुक्रिया जाहिद भाई
ReplyDeleteकिसी भी नगर की सफाई व्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं ये लोग। आपकी लेखनी को नमन है मेरा। गंगा इंस्टिट्यूशनल एंड कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोजेक्ट के अंतर्गत 1997-98 मैं इनके लिए कार्यक्रम शुरू हुआ था, लेकिन वह व्यवस्था के समर्थन के बिना कहीं खो गया। बेहद मर्मस्पर्शी लिखा है शशि भाई आपने।
ReplyDeleteकिसी भी नगर की सफाई व्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं ये लोग। आपकी लेखनी को नमन है मेरा। गंगा इंस्टिट्यूशनल एंड कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोजेक्ट के अंतर्गत 1997-98 मैं इनके लिए कार्यक्रम शुरू हुआ था, लेकिन वह व्यवस्था के समर्थन के बिना कहीं खो गया। बेहद मर्मस्पर्शी लिखा है शशि भाई आपने।
ReplyDeleteअनिल यादव
जी धन्यवाद
ReplyDeleteश्री शशि जी उर्फ व्याकुल पथिक जी
ReplyDelete---
नाम के आगे 'जी' हमारी संस्कृति में सम्मान एवं आदर देने के कारण परम्परागत रूप से विद्यमान है । हम जो देते या यूं कहें जो निवेश करते हैं, वहीं हमें मिलता है । 'व्याकुल पथिक' के आगे 'जी' यूं नहीं लगाया बल्कि अत्यंत उपेक्षित तबके की ओर दृष्टि के कारण 'जी' लगाने के लिए बाध्य हो गया । इन कूड़ा बीनने वाली महिलाओं के चित्रण को पढ़ते पढ़ते मन-मस्तिष्क त्रेता युग में चला गया । सबरी भी कूड़ा बिनती थी । मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के दर्शन की चाह उसके अंतर्मन तक समाई थी । उसे मालूम था कि पवित्रता एवं स्वच्छता में ही भगवान बसते हैं । बाहरी स्वच्छता के बल पर वह मन की स्वच्छता का संदेश दे रही थी । सो एक दिन श्रीराम आ ही गए । श्रीराम को मार्ग में अनेक ऋषियों-मुनियों ने अपने आश्रम में आने का निवेदन किया लेकिन वे गए एक व्याकुल महिला सबरी के पास । इस दृष्टि से श्रीराम भी व्याकुल पथिक थे । उन्होंने अपनी जंगलयात्रा में जगह-जगह व्याप्त कूड़ों को नष्ट किया । जिस राह गए, वह राह दुर्गम से सुगम होता गया । पहुँच गए एक दूसरी व्याकुल नारी अहिल्या के यहां ।
आपकी नजर इस ओर कहीं न कहीं सात्विक शक्तियों की प्रबलता के चलते गयी, लिहाजा आपको बधाई एवं शुभकामनाएं
-सलिल पांडेय, मिर्जापुर ।
जी शशि जी,
ReplyDeleteआपका यह संवेदनशील भावानात्मक आलेख पढ़कर हम उन बच्चों को और नज़दीक से महसूस कर पाये इसके लिए सादर आभार।
पर ऐसा नहीं कि कोई रचनाकार अगर अगर अपनी लेखनी से इनके चरित्र उकेर रहा हो वो सबकुछ बतकही हो या कल्पनाशीलता पर आधारित हो, हो सकता है वे लोग उन बच्चों के अवलोकन में इतना ही विश्लेषण कर पाये होंं।
सिवाय संवेदना प्रकट करने के और उनके जीवन में खुशियों के रंग भरे इसकी दुआएँ करने कोई कुछ नहीं करता यही सच्चाई है।
कृपया मेरी बातों को स्वस्थय वैचारिकी बहस का हिस्सा समझे।
जी श्वेता जी आपका कहना उचित है, कल्पनाओं से भी दूसरों के करीब पहुंच सकते हैं। परंतु दुर्भाग्य से यहां भी बनावट है।
ReplyDeleteजी,हम सहमत है आपसे कृत्रिमता तो है।
Deleteआपके लेख जीवन के इतने क़रीब है कि जितनी बार पढ़ो एक सीख मिलती है।
आपकी क़लम के लिए आपके संघर्षों के लिए आप बधाई के पात्र हैंं।
कृपया लिखते रहें।
इस उत्साहवर्धन के लिये हृदय से आभार आपका
ReplyDeleteकाश कि नाक भौं सिकोड़ने वाले पढ़ पाते, समझ पाते है बात
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रेरक प्रस्तुति
प्रिय शशि भाई - जीवन के अत्यंत स्वाभिमानी , कर्मठ और उत्साही लेकिन भौतिकवाद के समक्ष अभागे वर्ग का जो आपने मर्मान्तक शब्द चित्रण किया है उसे पढ़कर मन बहुत भावुक हो गया | पीढ़ियों से कबाड़ का झोला लटकाए ये लोग किसी मसीहा की प्रतीक्षा में जीवन पथ पर अग्रसर हैं पर ना कोई भाग्यविधाता आया ना कोई अवतार पुरुष इनका उद्दार कर पाया पर सचमुच कितना संतोषी है ये वर्ग -- ना किसी से शिकायत ना शत्रुता का भाव | और स्वच्छता में कितना अहम रोल अदाकरते हैं पर कोई इनके योगदान को रेखांकित नहीं करता | मजबूत इच्छा शक्ति और जीवटता के धनी इन जीवन योद्धाओं को लाखों सलाम !!!!!! इन पर आपका ये करुणा और सम्पूर्ण संवेदना समेटकर लिखा गया आलेख सवेद्नाओं और मानवीयता का बहुत ही महत्वपूर्ण द्सतावेज है | आपको भी नमन इनके प्रति इतना अपनापन और संवेदन शीलता रखने के लिए | बाकि तो नसीब है यही कह सकती हूँ | किसी शायर ने बहुत ही अच्छा लिखा है --
ReplyDeleteअपनी अपनी किस्मत है जिसको जो सौगात मिले
हमको खाली सीप मिले हैं उनको मोती साथ मिले !!!!!
सस्नेह जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें |
जी दी हमेशा की आपका स्नेह ब्लॉग पर मिलता ही रहता है,जन्माष्टमी की आपको भी शुभकामनाएं
ReplyDeleteइस लेख के एक एक शब्द,एक एक वाक्य,गहरी सोच,लिखने का मौलिक अंदाज मुझे यह सोचने पर बाध्य कर देते हैं शशिभाई कि क्या लिखने का ये अंदाज एक साधारण से पत्रकार का है ? इतनी प्रभावशाली कलम का धनी जब अपने आपको एक साधारण पत्रकार, एक मामूली अखबारवाला कहता है, तो मन कचोट उठता है।
ReplyDelete"ये कुत्ते भी कितने पाजी होते हैं आज कल के, चोर इनके सामने से ही तर माल गटक कर चला जाता है, फिर भी वे तनिक ना गुर्राते हैं। याचकों की टोली देख कर भी वे मौनव्रत तोड़ते नहीं, लेकिन जैसे ही कूड़ा बिनने वाले किसी बच्चे को अकेले देख लेते हैं, बस फिर क्या मोर्चाबंदी कर लेते हैं, वैसे ही जैसे ईमान के पक्के किसी व्यक्ति की घेराबंदी इस जुगाड़ तंत्र में होती है।"
ये पंक्तियाँ और ऐसी ही अनेक पंक्तियाँ आपकी प्रतिभा का सबूत हैं, आपके संवेदनशील मन और सूक्ष्म निरीक्षण का सबूत हैं।
मैं आपकी हर पोस्ट पढ़ रही हूँ। इधर कुछ स्वास्थ्य संबंधी एवं कुछ कार्यस्थल संबंधी कार्यों से मेरा मन अत्यंत खिन्न है। नैराश्य ने घेर सा लिया है। अनेक बार बहुत अच्छी रचनाओं को पढ़कर भी उन पर लिखने का मन नहीं बन रहा। आप लिखते रहिए शशिभाई, मन में हिम्मत और आशा का संचार करता है आपका लेखन। अपना खयाल रखें। ईश्वर आपको अच्छा स्वास्थ्य दे।
जी मीना दी, पहले तो आपके स्वास्थ्य के लिये प्रार्थना करता हूँ। मैं बिल्कुल सत्य कह रहा हूँ कि हाईस्कूल 1985 में किया, फिर घर छोड़ना पड़ा। वापस आया तो 1988 में इंटर किया, पर परीक्षा देते ही घर छोड़ कर कलिंपोंग चला गया। तब से इस वर्ष कुछ महीने पूर्व तक किसी भी साहित्यिक पुस्तक को हाथ नहीं लगाया है। अब जाकर आप सभी वरिष्ठ जनों का ब्लॉग, वह भी बमुश्किल ही पढ़ पाता हूं। अखबार का पेज भरने में थक जाता हूँ। और आँखों में दर्द होने लगता है। जब यहाँ मैं ढ़ाई दशक पहले आया, तो कितनों ने कहा कि पत्रकार हो सभी परिचित हैंं, कम से कम स्नातक की डिग्री तो ले सकते हो न। लेकिन, मैंने कहा कि जब गणित में सौ में से 98 अंक पाकर भी रोटी की तलाश में भटकते हुये मीरजापुर आ गया,तो अब डिग्री से क्या मतलब, मैं तो अपनी पहचान कुछ अलग तरीके का बनाऊंगा। सो, बस समाचार और विचार दोनों का संगम अपने कालम में करने लगा , आज भी करता हूँ। मैं जो कुछ अपनी आँखों से देखता हूँ, अन्य बहुत से पत्रकार अपने वातानुकूलित कार्यालय से नहीं देख पाते। बस यही मेरी एक छोटी सी उपलब्धि है। साहित्यिक शब्द नहीं आते हैं, फिर भी आम बोलचाल की भाषा तो है न और फिर आत्मबल ऊँचा रखने के लिये संत कबीर और महान उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की शिक्षा का स्मरण करता हूँ। इस ब्लॉग पर रेणु दी के सहयोग और स्नेह से आया हूँ, यह भी सोचता हूँ। सड़कों पर बंजारों की तरह उधर भ्रमण करता हूँ। इसलिए सभी पर नजर पड़ जाती है।
ReplyDeleteआपका स्नेह मिला,इससे हर्षित हूँ।
मैं जो कुछ अपनी आँखों से देखता हूँ, अन्य बहुत से पत्रकार अपने वातानुकूलित कार्यालय से नहीं देख पाते।
Delete..... यह छोटी नहीं, बहुत बड़ी उपलब्धि है। दूसरी बात, आम बोलचाल की भाषा ही एक व्यापक पाठकवर्ग तक हमें पहुँचाती है। यह बात और है कि मेरी रचनाओं में भी साहित्यिक शब्दावली का प्रयोग आ ही जाता है जाने अनजाने.....पर मेरी खुद की पसंद तो बस ऐसा ही लेखन है जैसा आप लिखते हैं। जस का तस,सहज और सरल !!!
जी दी
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है. https://rakeshkirachanay.blogspot.com/2018/09/85.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
ReplyDelete(आपकी उपस्थिति पहले ही दर्ज हो चुकी है, विलंब से सूचना देने के लिए खेद है .)
धन्यवाद राकेश भाई साहब
ReplyDeleteएक सारगर्भित एवं विचारणीय लेख जो हमारे दिल को छू लेता है और सोचने को विवश करता है. समाज का उपेक्षित तबका इस सूक्ष्म दृष्टि के लिये निस्संदेह आपका शुक्रगुज़ार होगा क्योंकि उनकी पीड़ा को आपने समाज की पीड़ा बनकर शिद्दत के साथ पेश किया जिस पर नीति-निर्माताओं की नज़र भी पड़ती है.
ReplyDeleteशुक्रिया भाई साहब
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