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साहब ! यह जोकर का तमाशा नहीं , नियति का खेल है। हममें से अनेक को मृत्यु पूर्व इसी स्थिति से गुजरना है । जब चेतना विलुप्त हो जाएगी , अपनी ही पीएचडी की डिग्री पहचान न आएँगी और उस अंतिम दस्तक पर दरवाजा खोलने की तमन्ना अधूरी रह जाएगी।
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खिलौना जानकर तुम तो, मेरा दिल तोड़ जाते हो
मुझे इस हाल में किसके सहारे छोड़ जाते हो ...
ठीक से याद नहीं की बचपन में कोलकाता में यह खिलौना फिल्म परिजनों संग किस छविगृह में देखा था, पर सवाल मन में था कि यह पागल क्या होता है और यह इस तरह की हरकतें क्यों करता है ? कोलकाता हो या बनारस हम बच्चों को अनावश्यक घर के बाहर नहीं निकलने दिया जाता था, इसलिये भी मैं सड़कों पर विचरण करने वाले इन विक्षिप्त जनों से कम ही परिचित था। लेकिन, यहाँ मीरजापुर में जब सुबह पौने पांच बजे आशियाने से निकलता हूँ, तो प्रातः दर्शन जिन लोगों का होता है, उनमें चार से पांच ऐसे विक्षिप्त भी होते हैं। एक महिला तो मुझे पखवारे भर से होटल का मुख्य द्वार खोलते ही इन दिनों दिखाई पड़ जाती है , कभी सामने चाय की दुकान के समीप, तो कभी मुकेरी बाजार तिराहे पर । मैं अखबार लगाने के बाद जैसे ही मोबाइल जेब से बाहर निकालता हूँ, क्यों कि ईयरफोन लगा कर अपने मनपसंद गीतों को सुनने की जो आदत सी है , तो वह भी कभी- कभी मुझे ध्यान से देखती है । इधर पिछले दो - तीन दिनों से वह दिखाई नहीं पड़ रही है। पता किया तो मेरे मित्र घनश्याम दास जी ने बताया कि कभी उसका भी घर- संसार था। इसी मुहल्ले में तो दुल्हन बन कर आई थी वह । किसी कारण जहां वह मानसिक रुप से कुछ कमजोर हो गयी, वहीं उसके पतिदेव को अपने पिता की आकस्मिक मृत्यु पर चपरासी की सरकारी नौकरी मिल गई। वो गाना है न कि साला मैं तो साहब बन गया..। सो, चपरासी बाबू ने अपनी जीवन संगिनी का उपचार कराने की जगह उसे पागल घोषित कर घर से बाहर का रास्ता दिखला दिया। अभी युवा ही है यह महिला, किसी न किसी दुकान के चबूतरे पर रात गुजारती है। मुझे इस बात का भय रहता है कि औराई में जो घटना एक अन्य महिला के साथ हुआ थी, उसकी पुनर्रावृत्ति न हो जाए, कहीं भी ऐसी किसी मंदबुद्धि स्त्री के साथ । एक दिन पता चला था कि गर्भवती हो गई थी , वह औरत। फिर वहाँ दिखी भी नहीं। ऐसे पुरुष इस तरह से भेड़िए क्यों हो जाते हैं कि मैले -कुचैले वस्त्र में लिपटी एक विक्षिप्त स्त्री भी उनके लिये हवस मिटाने का खिलौना बन जाती है। जेंटलमैनों आप भी जरा विचार करें कि हम किस दुनिया में जी रहे हैं।
. याद हो आया है मुझे वर्षों पहले का एक दृश्य और भी, जब एक महिला किस तरह से एक घर की खिड़की के बाहर से टकटकी लगाये अपने जिगर के टुकड़ों को देखा करती थी। घर में उसका प्रवेश वर्जित था। विक्षिप्त होना उसका अपराध था। लेकिन , एक माँ का ममत्व उसमें था, इसलिये सामने चबूतरे पर बैठ अपने छोटे बच्चों को टुकुर- टुकुर ताकने के सिवाय , वह अभागी और कर भी क्या सकती थी। गौरवर्ण था उसका, नाक नक्शा भी तो ठीक ही तो था। बस सिर पर बालों का घोसला कुछ अजीब सा था। बिल्कुल श़ांत स्वभाव की थी वह। फिर भी बच्चे कभी उसके पास नहीं आते थें। आखिर वे धनिक व सभ्य परिवार के जो ठहरें। मां है, तो क्या हुआ , थी तो पगली ही न ! कभी यह नहीं देखा मैंने कि उसे इस घर से खाने के लिये कुछ मिला हो। फिर भी वह आती थी ...
वैसे, आगे इमामबाड़े पर एक जनाब ऐसे भी मिलते हैं। जो टोपी लगाये और कुर्ता -पैजामा पहने रहते हैं। अधेड़ावस्था है उनकी,उछल कूद कर नृत्य करते दिखते हैं। परिवार के सदस्य लगता है ,उनका काफी ख्याल रखते हैं। ये पूर्णतः विक्षिप्त नहीं हैं , परंतु वहाँ मौजूद कुछ लोग एक विदूषक की तरह इनका उपयोग अपने मनोरंजन के लिये करते हैं। छी ! कितना घटिया सोच है, हम इंसानों की भी । जो मानसिक रुप से कमजोर व्यक्ति को यूँ उकसा कर नचवा रहे हैं ।
काश ! ये परिहास करने वाले ऐसे व्यक्तियों से कह पाते कि
मैं तो हूँ एक पागल, पागल क्या दिल बहलाएगा
जिसे अपनी खबर ना हो किसी को क्या समझाएगा...
साहब ! यह जोकर का तमाशा नहीं , यह नियति का खेल है। हममें से अनेक को मृत्यु पूर्व इसी स्थिति से गुजरना पड़ेगा। जब चेतना विलुप्त हो जाएगी , अपनी ही पीएचडी की डिग्री पहचान न पाएंगे और उस अंतिम दस्तक पर दरवाजा खोलने की तमन्ना अधूरी रह जाएगी। अतः हम इतना तो कर ही सकते हैं कि कोई इनका उपहास न उड़ाए। यदि शरारती लड़के कहींं इन्हें घेर कर परेशान कर रहे हैं, तो उन्हें नैतिक ज्ञान दें।
अब अपनी कहूँ तो एक पागल मुझे कलिम्पोंग में मिल गया था। छोटे नाना जी की बड़ी सी मिठाई की दुकान , वहाँ थी। सो, घर छोड़ा तो वहीं शरणार्थी बन गया था। स्नेह सभी करते थें, लेकिन मेरी निगरानी से दुकान में चोरी और मनमानी दोनों ही बंद हो गयी थी। सो, कुछ नेपाली युवकों ने एक विक्षिप्त व्यक्ति को ढ़ाल बना, मुझे निशाना बनाया। मैं जब कैश काउंटर पर बैठा था उसने एक शीशे का गिलास खींच मारा। मेरे होंठ के ऊपर का हिस्सा बिल्कुल अलग ही हो गाया था। कई टांके लगे थें तब ,फिर डाक्टर साहब ने आश्वासन दिया कि मूंछें थोड़ी बड़ी रख लेना भाई।
सवाल यह है कि विक्षिप्त जनोंं के लिये हमारी सरकार, हमारा समाज क्या कर रहा है। नियति ने तो इनसे इनकी पहचान छीन ली है। लेकिन, हैं तो वे एक इंसान ही न ? क्या वे इसी तरह से सड़कों पर विचरण करते रहें। रात्रि में इन्हें ठीक से नींद भी कहाँ आती है। भोर होने से पहले ही वे सड़कों पर तमाशा बने दिख जाएँगें। सड़कों पर किसी अज्ञात वाहन के पहिये के नीचे आ अपनी इस घिनौनी जिंदगी से मुक्ति पा लेंगे। अकसर ऐसा ही होता जब कोई अज्ञात व्यक्ति सड़कों पर मरा पड़ा मिलता है और हम पत्रकार पुलिस से कुछ विवरण मांगते हैं, तो रटा रटाया जवाब मिलता है कि भाई वह विक्षिप्त था, शव को पोस्टमार्टम के लिये भेज दिया गया है। ऐसे अभागों का अंतिम संस्कार भी कम ही हो पाता है, इन्हें तो दबे पांव गंगा मैया के हवाले किया जाता है।
फिर जरा यह भी विडंबना देखें न कि छुट्टा पशुओं के लिये हमारी सरकार अब पशुशाला बनवाने की बात करती है, पर इन विक्षिप्त इंसानों के लिये खुला आसमान है। कहीं भी पटरियों पर रात गुजार लेते हैं, अच्छा है इन्हें इसकी समझ नहीं है। अन्यथा अपनी उस काली रात को मैं भूल नहीं पाया हूँ। आशियाने के होकर भी न होने की वेदना , समझ सकते हैं न आप ! पर इस बावले मन को क्या कहूँ , गैर और अपनों का फर्क फिर भी समझ ना पाया वो। खैर ...
पागलखानों का हाल तो हम सभी जानते ही हैं। वहाँ भी जुगाड़ तंत्र होना चाहिए। और एक बात बताऊँ मानसिक रुप से कमजोर ऐसे इंसानों की श्रम शक्ति का कुछ लोग बड़ी चतुराई से अपने हित में उपयोग भी करते हैं। जैसे की एक गांव है कुछ दूर पर ही, जिसके बारे में शोहरत यह है कि यहाँ मानसिक रोगी स्वस्थ हो जाते हैं। सो, दर्जन भर से अधिक मंदबुद्धि वाले लोग यहाँ मुफ्त में चाकरी करते मिलेंगे आपको। जिनसे यहाँ के ग्रामीण एवं किसान मनचाहा काम लेते हैं, वह भी सिर्फ दो जून की रोटी देकर।
और बात यदि पागलपन की ही करें, तो हम भी क्या कम हैं,कोई दौलत, कोई सोहरत, तो कोई मुहब्बत की चाहत में विक्षिप्त ही तो है। ऐसे में इन निरीह प्राणियों में भी मुझे एक पैगाम नजर आता है -
जमाने के ग़म भूल वह ठहाका लगाता है
न जाने किस खोज में आँखें झपकाता है
बेशक वह चीखता और चिल्लाता है , फिर भी
दरिया-ए- अश्क़ में डूबे देखा क्या किसी ने उसे
दौलतमंदों के कदमों में दुम तो ना हिलाता है
वह पागल है, तो इंसान किसे कहते है यारो...
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ReplyDeleteजी मीना दी
ReplyDeleteबहुत कुछ लिखने की इच्छा थी,जितने भी विक्षिप्तों को मैंं जानता हूँँ यहाँ। आखिर इनका भी कोई आशियाना हो। आपने भी उस अभागी पर विस्तार से लिखा। हमारी बातें अखबारों में भी छप ही जाएगी। फिर भी तंद्रा न भंग होगी हमारे समाज के कर्णधारों की
यदि हम भी कभी इनके जैसे हो जाएँ तो यही हमारी भी नियति हो सकती है। वास्तव में समाज के सामान्य आदमी तो हमारी तरह अपने परिवार और नौकरी में मगन हैं और वे,जिनके हाथ में सत्ता,शक्ति और संपत्ति है,वे इनकी तरफ ध्यान क्यों दें ? ये वोट बैंक में भी तो नहीं आते। आप जैसे जागरूक पत्रकारों के बार बार ध्यान दिलाने पर शायद किसी का ध्यान जाए इनकी ओर। विक्षिप्त पुरुषों से तो किसी की तनिक सहानुभूति भी मैंने नहीं देखी। लोग यही कहते हैं कि ड्रग एडिक्ट या चरसी नशेड़ी होगा,यही हाल होता है इनका। ऐसे में इनके उद्धार की आशा किससे लगाई जाए?
Deleteआपके संवेदनशील मन की एक और झलक....
ReplyDeleteसड़क पर भटकते कुत्तों,गायों जैसे पशुओं को तो फिर भी लोग कुछ खिला पिला देते हैं पर ये विक्षिप्त लोग तो जानवर से भी गई गुजरी ज़िंदगी जीते हैं। याद आती है वह पागल लड़की जो रास्तों पर भटकती बाइकसवारों को पत्थर मारती थी। किसी को भी तमाचा जड़ देती थी। वह मुझे दूर से भी दिख जाए तो मैं किसी गली में छुप जाती थी। कॉलेज जाने के पाँच वर्षों में वह लगातार दिखती रही। मध्यमवर्गीय परिवार की बेटी थी। स्त्री और वह भी पागल !!! जिसे अपने तन मन की सुध भी नहीं। मासिक धर्म का झंझट और किसी की वहशियत का शिकार होने पर उसके गर्भवती होने का डर !!!उसके घर के पास रहने वाली एक सहेली की माताजी का उसके घर में आना जाना था। पता चला कि घरवालों ने उसका यूट्रस ही निकलवा दिया इन झंझटों से बचने के लिए...ऐसे ही पिछले साल पता चला कि रेलवे ब्रिज के नीचे एक पगली भिखारिन ने एक स्वस्थ सुंदर बच्चे को जन्म दिया है,एक दयालु इंसान ने उस बच्चे को तो अपना लिया पर वह पगली अभी तक भटकती है वहीं। ये विक्षिप्त स्त्रियाँ जिनकी पशुता का शिकार बनती हैं, वास्तव में विक्षिप्त तो वे लोग हैं।
जी दी, ठीक कहती हैं, अन्य लोगों को तो हम अस्पताल भेज सकते हैं, लेकिन यहाँ हम पत्रकार भी विवश हैं, किंकर्तव्यविमूढ़ से हैं।
ReplyDeleteजी शशि जी,
ReplyDeleteबेहद मर्मस्पर्शी आपका लिखा यह लेख जितना यथार्थवादी है उतना ही मन को उद्वेलित कर रहा है।
वो इंसान जानवर से भी बदतर होते हैंं जो ऐसे निरीह प्राणियों के साथ अमानवीय कृत्य करते हैं। अक्षम्य है उनकउनका अपराध। समाज को उनके देख-रेख की विशेष व्यवस्था करनी ही चाहिए।
कुछ पंक्तियाँ समर्पित है आपके इस लेख को-
दुनिया की फ़िक्र और
न दुनियादारी की
यारों का ज़िक्र और
न यारी की,
रब ने अज़ब नेमत से
नवाज़ा है उसे,
न दिल, न दर्द,
धूल न ग़र्द,
न शफ्फाक न ज़र्द,
यही तो वो मासूम
क़िरदार है दोस्तों,
जो शैतान नहीं होता।
सादर आभार शशि जी ऐसे मुद्दों पर ध्यान आकृष्ट करवाने के लिए।
प्रिय श्वेता लेख पर बाद में लिखूंगी पर बहुत ही भावुक होकर आपकी काव्यात्मक पंक्तियों की सराहना करती हूं ।बहुत ही सजीवता से लिख दिया इन मन वैरागी और संसार से निर्लेप लोगों के लिए।शायद नियति ही इस प्रश्न का सही उत्तर दे सकती है कि ईश्वर ने उन्हें ऐसा क्यों बनाया । मेरा प्यार ।
Deleteओह्ह्ह..दी...आप तो सदा मुझे उत्साहित करती हैं।
Deleteशशि जी का लेख ही इतना अच्छा है,मन को ऐसे छू गया कि स्वाभाविक उद्गार जो भी आया मन में लिख गये हम।
आपके स्नेह का आशीष सदा यूँ ही बना रहे...😊😊
जी श्वेता जी आपकी इन पक्तियों में पूरा लेख ही समाहित है।
ReplyDeleteअति सुंदर सर जी
ReplyDeleteप्रिय शशि भाई -- आज आपके अति संवेदनशील आलेख ने मन को झझकोर सा दिया | प्रिय मीना बहन और श्वेता बहन ने तो लेख तो सम्पूर्णता ही प्रदान कर दी | विक्षिप्तों की परिभाषा तो श्वेता बहन ने वो लिखी किमन पढ़कर तरल हो गया |
ReplyDelete''यही वो मासूम किरदार है दोस्तों जो शैतान नहीं होता | सचमुच !!!!!!!! इन मासूमियत से लबरेज कथित ;; विक्षिप्तों से हमारा समाज और उनका परिवार क्या बर्ताव करता है ये तो देख ही लिया आपने | और मीना बहन ने सही लिखा -- एक महिला वो भी पागल !!!!!!!! खतरे कई तो क्या कई सौ गुना बढ़ जाते हैं | आज विक्षिप्तता जो व्यवहार और परिवार जनित है उसका तो हर संभव इलाज मौजूद है | बड़े बड़े सरकारी अस्पतालों में विशेष मानसिक रोग सेल बनाये गये हैं जिनमे हेल्पलाइन से लेकर इलाज तक हर सुविधा मौजूद है बस जरूरत है एक कदम उठाने की | अपनी इंसानियत को बरकरार रखते हुए परिवार यदि इलाज करवाए तो कम से कम ये अभागे अपने जरूरी कामों के लिए तो किसी के मोहताज नहीं होंगे नाकोई पराया उनका अनैतिक लाभ उठा सकेगा |
मानसिक रोग इस सदी की सबसे भयावह बिमारियों में से एक बनता जा रहा है | बढती उम्र में तो मतिभ्रम की समस्या पहले से ही रही है पर अब तो बच्चों से लेकर युवा तक हर को इसकी चपेट में आने को तैयार है | आपके लेख से निश्चित रूप से पढने वालों की संवेदना शक्ति जागृत तो होगी ही वे किसी विक्षिप्त को देख उसके बारे में अपना नजरिया जरुर बदलेंगे | मेरी शुभकामनायें आपके संवेदनशील लेखन को और नमन इस करूणा को | सस्नेह |
जी रेणु दी आप सभी का यह स्नेह है ,मेरा पोस्ट आपको अच्छा लगता है, नहीं तो मैं जब आप सभी की बेहद हृदयस्पर्शी
ReplyDeleteरचनाओं को पढ़ता हूं,तो स्वयं से ही पूछ बैठता हूं कि कहाँ यह बेचार ऊंट और कहां वह विशाल पर्वत, क्या ऊंचाई नापेगा ? अभी कल ही श्वेता जी की एक कहानी पढ़ रहा था, कितनी शिक्षाप्रद भूमिका है उसके पात्र "मानव जी" की।
बस आपका स्नेह यूं ही मिलता रहे दी, सच कहूं तो मेरे मन में लेखक बनने की बिल्कुल भी इच्छा नहीं है, मैं बस सम्वेदनाएँ बांटना चाहता हूं और स्वयं भी सम्वेदनशील बनना चाहता हूं।