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Saturday 15 December 2018

कहीं नहीं कोई सूरज धुआँ धुआँ है फ़ज़ा


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यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिरा के अगर तुम सँभल सको तो चलो...

  इन दो पंक्तियों में समाहित है सारी दुनियादारी । गैरों की बात छोड़े आपनों को भी गिराने से लोग पीछे न रहते हैं । वे छल करते हैं , द्वंद करते , स्नेह करते हैं ,  औरों को गिरा कर खुद संभलने के लिये..।   लेकिन , समर्पण भी कहाँ कोई शीघ्र करता है। संघर्ष ही इस प्रकृति का सत्य है। पृथ्वी की उत्पत्ति के साथ ही संघर्ष ने अपने पांव रख दिये थें इस धरा पर..।

    शिशिर और बंसत के संघर्ष को ही देखें न..।  ऋतुराज से पराजित होने से पूर्व शिशिर अपना पूरा पराक्रम दिखलता है। मेघ वर्षा तक करता है। कितनी ही बार भगवान भास्कर को बादलों के पीछे ले जाता है। परंतु पराजित होना उसकी नियति है। उसका कर्मपथ सूना रह जाता है। शरद और हेमंत की तरह वह विजेता नहीं बन पाता।  उसके संघर्ष की दास्तां को मदनोत्सव अपने पांवों तले कुचल जाता है। लोग यह भुला बैठते हैं कि इसी शिशिर ने ही उन्हें उर्जा दी है, वही अन्नदाता है  हमारा , जिसके कर्म से ही हम यह बसंतोत्सव मना रहे हैं। इंसान की भी कुछ ऐसी ही फ़ितरत है , कब बदल जाए उसकी नियत यह नियति को भी कहाँ पता। सारे उदार कर्म, भावनाओं और स्नेह पर पल भर में प्रश्न चिन्ह लग जाता है। पथिक कर्मपथ पर रह कर भी शिशिर की तरह शिथिल हो जाता है ,अतीत बन कर रह जाता है , उसकी शीतलता को कष्टकारी बता सभी उसका तिरस्कार करते हैं , इस दुनिया के मेले में और वे बिना उसके त्याग और दर्द को समझे बसंतोत्सव मनाते हैं ।
   बंधु यह मदनोत्सव हर किसी के किस्मत में नहीं हो ,  परंतु सिहरन भरी शिशिर की ये रातें निश्चित हैं, करवटें बदलने को , इन तन्हाइयों में और जब भी तिरस्कृत हृदय धौकनी  बन स्वयं से प्रजवल्लित अग्नि को ही गति दे , उसी में धधकने लगे , जल कर खाक होते तन- मन की गरमाहट में  जीवन का रहस्य खुलने लगता है, पर्दा उठने लगता है ।
 ऐसे में  प्रिय की तलाश में " घुंघट "के पट खुलते हैं या फिर "  घुंघरु " के महफिल में पहुँच मुसाफिर परायों में अपनों की खोज करता है। मयखाना उसे खाला का घर नजर आता है ,  हृदय की वेदना शब्द बन जाती है  -

 हमसे मत पूछो कैसे, मंदिर टूटा सपनों का -
 लोगों की बात नहीं है, ये किस्सा है अपनों का
 कोई दुश्मन ठेस लगाये, तो मीत जिया बहलाये
 मन मीत जो घाव लगाये, उसे कौन मिटाये न ..

   कैसी है यह दुनिया और कैसे हैं ये माटी के पुतले, बस फरेब ही अथवा और भी कुछ है इस जहां में..?

      क्या मिलता है किसी के ख्बाबों के घरौंदे को उजाड़ कर , उसके कोमल हृदय पर प्रहार कर , ऐसी तन्हाई देकर जहाँ से मुसाफिर के लिये मंजिल नहीं  होती , उसकी दुनिया मुसाफिरखाने से मयखाने की ओर बढ़ने लगती है ..

 जाने क्या हो जाता, जाने हम क्या कर जाते
 पीते हैं तो ज़िन्दा हैं, न पीते तो मर जाते
दुनिया जो प्यासा रखे, तो मदिरा प्यास बुझाये
 मदिरा जो प्यास लगाये, उसे कौन बुझाये ...

  तब इस मदिरा मे जो  कड़ुवाहट है , वह मधुर लगता है, शीतल लगता है, एक मदहोशी सी छाने लगती है , मानो बसंत द्वार पर दस्तक दे रहा हो।
    कुछ देर के लिये ही सही यह मदिरा भी अमृत बन जाती है। जब मैं प्रथम बार कालिम्पोंग में रहा , बगल के आवास में एक कश्मीरी पंडित जिन्हें मैं अकंल कहता था, रहते थें। हम दोनों हर शाम अपने - अपने बारजे पर होते थें । उनकी शाम  रंगीन होती थी और मेरी ठंडी।  देश- दुनिया की बातों का खजाना होता था, उस वक्त उनके पास।
  वहाँ , तब छोटे नाना जी के मिष्ठान के प्रसिद्ध प्रतिष्ठान जो उनके पितामह के नाम से है , कार्यरत एक नेपाली हर रात चावल से निर्मित मदिरा पी कर आता था । मधुर कंठ पायी थी, मेरी फरमाइश पर शुरु हो जाता था..

पत्थर के सनम, तुझे हमने, मुहब्बत का ख़ुदा जाना
 बड़ी भूल हुई, अरे हमने, ये क्या समझा ये क्या जाना
चेहरा तेरा दिल में लिये, चलते चले अंगारों पे
तू हो कहीं, सजदे किये हमने तेरे रुख़सारों पे
हम सा न हो, कोई दीवाना, पत्थर के ...

 एक दर्द उसके दिल में भी थी , अकसर कहता था वह क्या ठंडे पड़े हो साहब आप भी , पहाड़ी इलाका है, थोड़ी- थोड़ी पिया करो न..।  अभी पिछले ही दिनों यहाँ एक पार्टी थी,  जेंटलमैन और सोसायटी वाले जुटे थें। शाम ढलते ही नजारा बदल गया , महंगी सी महंगी बोतलें खुलने लगी थीं।  कुछ लेडी डाक्टरों ने तो कमाल कर दिया खुल्लम खुल्ला ही गटकने लगी वें ।  वो गीत है न-

   रात भर जाम से जाम टकराएगा
    जब नशा छाएगा तब मज़ा ...

इन्हें याद तब कहाँ रहता कि पिछले ही दिनों तो किसी सामाजिक मंच पर उपदेशों का पिटारा लिये खड़ी थीं।

   ढ़ाई दशक पूर्व जब पत्रकारिता में आया था, हमारे सिनियर ने  यही सवाल किया था कि बेटे यदि महफ़िल में " हरिश्चंद्र " बनोगे तो " लल्लू "कहलाओगे..। कोई मुकाम नहीं हासिल कर पाओगे इस बोतल के बिना। मिलावट और दिखावट की यह दुनिया है, इसकी उंगली थाम कर चलो। शिशिर भी बसंत सी रहेगी तुम्हारी। मैंने उनकी नसीहत को समझने में देर कर दी बहुत..
   अब समझ में आ रहा है कि यह क्यों कहा किसी ने-
 " पीते हैं तो ज़िन्दा हैं, न पीते तो मर जाते "।

    यह  कोई जाम नहीं है, यह हमारी सम्वेदना है , तन्हाई है, उपहास है, बेगाने होने का दर्द है, जिसे हम पीते हैं, इसके साथ।
   इस ठंड भरी रातों में इस ठंड भरी राहों में शिशिर और बसंत के फासले को कुछ इस नजरिये से समझने की कोशिश कर रहा हूँ ।
   हम कर्म पथ पर होकर भी शिशिर की तरह कर्मफल से वंचित रहें, वे बंसत बन हमारी फसल काट रहे हैं।
  हमें वे सीखा रहे हैं कि कुछ नवीनता लाओ, कुछ विविधता लाओ, कुछ उल्लास लाओ ,तुम भी अपने जीवन में..
   उनकी नजरों में शिशिर की कोमलता का कोई मोल नहीं है।
    फिर भी स्मरण रखें अन्नदाता तो इस जगत के हम तीनों बंधु ( शिशिर, हेमंत और शरद) ही हैं। हमारी ही उर्जा , हमारी ही कमाई पर जीवन है ।  बसंत तो क्षणिक है, लूटपाट कर चला जाएँगा।
 अतः शिशिर हर वर्ष पुनः अस्तित्व में आता है , इन धरती पुत्र कृषकों के लिये, अपने उपहास को भूला कर , यह पैगाम देने के लिये-

कहीं नहीं कोई सूरज धुआँ धुआँ है फ़ज़ा
ख़ुद अपने आप से बाहर निकल सको तो चलो..

शशि
मो० 9415251928  /  7007144343

5 comments:

  1. बहुत ही अच्छा और नए ढंग का ।
    (वरिष्ठ पत्रकार सलिल पांडेय जी)

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  2. आपके सीनियर ने जो नसीहत दी थी, उसे मान लेने पर आप भौतिक सुखों को तो प्राप्त कर लेते परंतु आज आपकी लेखनी से ये जो मोती निकल रहे हैं, वे ना निकलते। मैं नसीहत नहीं दे रही शशि भैया, आपके ब्लॉग की रचनाओं को पढ़ पढ़कर जान गई हूँ कि आपको नसीहतों से चिढ़ है। संत मीराबाई का यह भजन जगत की विसंगति को कितने बढ़िया तरीके से व्यक्त करता है देखिए-
    करम की गति न्यारी न्यारी, संतो।

    बड़े बड़े नयन दिए मिरगन को,
    बन बन फिरत उधारी॥

    उज्वल वरन दीन्ही बगलन को,
    कोयल लार दीन्ही कारी॥

    औरन दीपन जल निर्मल किन्ही,
    समुंदर कर दीन्ही खारी॥

    मूर्ख को तुम राज दीयत हो,
    पंडित फिरत भिखारी॥
    मेरी मम्मी से जब मैं अपनी परेशानियों की चर्चा करती हूँ तो उनका एक ही वाक्य में उत्तर होता है - "सहना तो पड़ेगा ना बेटा, चाहे रोकर चाहे हँसकर ! करमाँ रो संगाती राणाजी, कोई भी नहीं !!!"
    आप शिशिर की तरह ही रहिए, कठोर यथार्थ से सबको परिचित कराते रहिए। बहुत अच्छा लिखते हैं आप!!!

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  3. जी मीना दी
    आपका यह स्नेह है, नसीहत नहीं।
    मैं स्वयं आपकी रचनाओं और उनके जो भाव हैं न उससे प्रभावित हूँ।
    कथनी- करनी का जो भेद करता है। स्वयं तरमाल गटकता है और दूसरों को आधी रोटी खाने को कहता है,मैं ऐसे उपदेशकों से घृणा करता हूँँ।
    जी प्रणाम।

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  4. प्रिय शशिभाई -- बहुत ही बेहतरीन लेख में शिशिर और बसंत के माध्यम से जीवन की अवस्थाओं का अवलोकन बहुत सराहनीय है |शिशिर का महत्व ना समझने वाले लोग ये नहीं जानते शिशिर पतझड़ का अभिशाप सर लेता है तब रितुराज बसंत खिलता है | इस प्रतीकात्मक लेख की जितनी सराहना करूं कम है | मीना बहन ने इतना अच्छा लिखा कि मैं लिखने में खुद को असमर्थ पा रही हूँ |अपना ख्याल रखें | सस्नेह --

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  5. जी दी बिल्कुल सही कहा आपने, शिशिर को समझना उनके लिये जरा कठिन है, जो सिर्फ बसंत की लालसा रखते हैं।

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yes