अनजान गुनाहों के लिये मुस्काता हूँ
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कागज के रुपयों के वास्ते नहीं ,
चंद टुकड़े रोटी के लिए मुस्काता हूँ;
आवारा,भूखे पशुओं सा ,
तेरा जूठन पाने के लिए मुस्काता हूँ।
स्नेह पाने के लिए नहीं मैं ,
बेगाना कहलाने के लिए मुस्काता हूँ;
बेशुमार दर्द को सह कर भी ,
निगाहों में तेरी बेरुख़ी के लिए मुस्काता हूँ।
जिस पथ पर पहचान मिली ,
नहीं मंजिल,तिरस्कार के लिए मुस्काता हूँ;
कुछ रातें सड़क पर गुजरीं ,
अब "पथिक" कहलाने के लिये मुस्काता हूँ।
शहनाई बजी न साथी मिला ,
अब तो तन्हाई के लिए मुस्काता हूँ;
तेरी जुदाई का ये महीना है माँ !
आंचल तेरा पाने के लिये मुस्काता हूँ।
भूख ने छीने शब्द मेरे ,
चूर किये स्वप्न तेरे ,
बन न सका तेरा मैं ''राजाबाबू '',
अनजान इन गुनाहों के लिये मुस्काता हूँ।
शब्द नहीं पास तुझे पुकारने को ,
पास अब तेरे आने के लिये मुस्काता हूँ ;
फर्क नहीं जहाँ इंसान और हैवान में ,
उस जहां से जाने के लिये मुस्काता हूँ।
(व्याकुल पथिक)
शहनाई बजी न साथी मिला ,
ReplyDeleteअब तो तन्हाई के लिए मुस्काता हूँ;
तेरी जुदाई का ये महीना है माँ !
आंचल तेरा पाने के लिये मुस्काता हूँ।!!!!!!!
प्रिय शशी भाई -- आज तो माँ की याद ने सब्र के सब बंध तोड़ डाले | मन को विदीर्ण करती इस रचना के लिए क्या कहूं ? मन को गहरी उदासी में धकेल गयी ये मार्मिक पंक्तियाँ | --
स्वर्ग में बैठी माँ के
आज नैना भर आये होंगे -
विधना ने क्यों किया ऐसा?-
अनगिन प्रश्न उठाये होंगे ;
छ्लनी हुआ होगा सीना
व्यथा से राजा बेटा की-
जितने आसूं छलके उसके -
उससे ज्यादा सावन बरसायें होंगे !!!!
निशब्द हूँ ! भगवान आपको आत्म शक्ति प्रदान करे , यही दुआ है |सस्नेह --
जी दी,
ReplyDeleteप्रणाम।
नियति के समक्ष नतमस्तक होना ही होता है, खैर ब्लॉग पर आने से आपका स्नेह मिलना भी क्या कम है।
ReplyDeleteभूख ने छीने शब्द मेरे ,
चूर किये स्वप्न तेरे ,
बन न सका तेरा मैं ''राजाबाबू '',
अनजान इन गुनाहों के लिये मुस्काता हूँ। बेहतरीन रचना
जी धन्यवाद ।
ReplyDeleteएकाकी जीवन के तड़प वही समझ सकते है जो खुद इस पीड़ा से गुजरे होंगे ,माँ के लिए आप की तड़प ने जो शब्दों का रूप लिया वो प्रशंसा से परे है ...... सादर नमन आप को
ReplyDeleteजी प्रणाम,
ReplyDeleteठीक ही कहती हैं, आज भी लगता है कि माँ यहीं मेरे आस-पास ही हैंं..
पता नहीं मैं आपसे बड़ी हूँ या छोटी, पर आज आपको डाँटने का मन कर रहा है....
ReplyDeleteबाहर आइए इस दर्द से, देखिए आसपास आपसे स्नेह करनेवाले भी मिलेंगे। मानती हूँ कि मुश्किल है ये....और मन में घुटने से अच्छा है बाँट लेना हम सबसे.... फिर भी....
जी मीना दी ,
ReplyDeleteप्रणाम।
बस मन का भाव था एक, नहीं तो आप सभी का स्नेह बराबर मिलता है।
25/ 26 दिसंबर की रात मेरे लिये सबसे पीड़ादायी है। कोलकाता में जब क्रिसमस का उत्सव घर के बाहर मन रहा था , मां अंतिम सांस ले रही थी।
स्नेह में बड़े छोटे का प्रश्न कहाँ .. बोलें
माफ करना शशिभैया, ये बातें भूलती नहीं हैं पर जीना तो पड़ता है ना !!! जब मैं बीस वर्ष की थी तब लोकल ट्रेन से गिरकर अठारह वर्षीय भाई का प्राणांत हो गया। शोक में पागल मम्मी पापा को बड़ी मुश्किल से सँभाला... बहुत कुछ खोया जीवन में किंतु बहुत अच्छे, बहुत मददगार लोग भी मिले। ईश्वर पर अगाध विश्वास है, उसी के आलंबन से जीवन आसान हो जाता है।
Deleteमन को शांत रखिए, तभी दिवंगत माँ की आत्मा को तसल्ली होगी। सस्नेह एवं सादर....
उफ़ कितना दर्द.भर दिया आपने....।
ReplyDeleteहम कुछ भी लिख पाने में.असमर्थ है पर.एक बात ही कहेंगे....चाहे जितना भी दर्द हो मुस्कुराने की कोई वज़ह तो मिल ही जाती है।
बेहतरीन भावों से सजी सुंदर रचना
ReplyDeleteजी श्वेता जी बिल्कुल सही कहती हैं आप।
ReplyDeleteप्रणाम।
जी अभिलाषा जी
प्रणाम, बस चंद शब्द मां को समर्पित है।
जी मीना दी
ReplyDeleteऐसा कुछ भी नहीं है,मैं बिल्कुल उद्विग्न नहीं हूँँ।
पांच घंटे का समय समाचार टाईप करने में गुजारता हूँ और सुबह ढ़ाई घंटा साइकिल से नगर भ्रमण भी। बस चंद शब्दों में माँ से अलग होने के बाद उस बच्चे के जीवन से परिचित करवाने की एक मासूम कोशिश की है,जो स्नेह के लिये पग पग पर छला गया।
खैर , खुशी है कि उसने इस दुनिया को करीब से समझ लिया है।
ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २१ दिसंबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
जी श्वेता जी धन्यवाद
ReplyDeleteनिशब्द..
ReplyDeleteनमन आपके भाव और लेखनी को..
जी धन्यवाद,
ReplyDeleteजो आपने मेरे इन चंद शब्दों को सम्मान दिया।
दर्द.भर दिया आपने निशब्द..
ReplyDeleteजी शुक्रिया संजय जी
ReplyDeleteकिसी एक वेदना के उठते ही सभी वेदनाऐं सांकल तोड़ कर मुखरित हो जाती है। मां का असमय जाना और उनसे मिला स्नेह का एक एक वाक्य पुरे जीवन पर एक अदृश्य वितान है जो दिखता नही महसूस होता है एक एक रोम से।
ReplyDeleteशशि भाई बहुत मृम स्पर्शी लेखन ।
सदा प्रसन्न रहें मां के राजा बाबू बन कर ।
शुभाशीष।
जी प्रणाम , कुसुम दी
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteभावनाओ को बिल्कुल लयबद्ध कर दिया।👌👌👌
बहुत मार्मिक रचना , व्यथित करने वाली .... स्मृतियाँ हमें तोड़तीं है पर जोड़े भी रखतीं हैं , उन अपनों से जो समय की धारा में हमसे दूर हूँ गए हैं |
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक, भावप्रवण, लयबद्ध प्रस्तुति....
ReplyDeleteभावपूर्ण औऱ प्रभावी अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबधाई
जी इस स्नेह और उत्साहवर्धन के लिये आप सभी का धन्यवाद
ReplyDeleteसब कुछ तेरी ही रोशनी में नहीं चमकता, जुगनू या हीरा भी मुझे मत समझना, ब्याकुल पथिक हूँ हां मैं हूँ, लेकिन अपनी जरूरत के लिए भी नहीं तरसता। तेरे तड़पाने का अंदाज से पा लिया हूँ सब कुछ, शशि में दाग है जरूर पर अपना न समझना
ReplyDeleteहरिकिशन अग्रहरि पत्रकार अहरौरा से