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Saturday 22 December 2018

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
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किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार
किसीका दर्द मिल सके तो ले उधार
किसीके वास्ते हो तेरे दिल में प्यार
जीना इसी का नाम है ...

   सोचता हूँ कि " मुस्कुराहट "और " प्रेम " में कितना प्रगाढ़ सम्बंध है । एक दूसरे के पूरक हैं ये दोनों , बिल्कुल दीया और बाती की तरह, एक के बिना दूसरे का अस्तित्व कहाँ। यदि चोट " दिल " पर लगती है, तो दर्द " मुस्कान " को होता है। अतः दिल दुरुस्त रहे ऐसा कोई " प्यार " चाहिए। अन्यथा मन का दीपक बुझा नहीं कि मुस्कान गायब ,  फिर कृतिमता मिलेगी , बनावट और सजावट मिलेगा । लेकिन मन की पुकार कुछ यूँ होगी-

बाहर तो उजाला है मगर दिल में अँधेरा
समझो ना इसे रात, ये है ग़म का सवेरा
क्या दीप जलायें हम तक़दीर ही काली है
उजड़ा हुआ गुलशन है, रोता हुआ माली है..

   मन का अंधकार " मुस्कान " से मिटता है,यह तय है । वह मंद- मंद मुस्कान ,जिसकी खोज में राजमहल का वैभव छोड़ सिद्धार्थ गौतम बुद्ध बनने के लिये निकले थें। उनमें यह सामर्थ्य था कि औरों को भी इससे अवगत करा सके। लेकिन यदि कोई उद्धव  प्रेम विरह से पीड़ित वृज बालाओं को  ज्ञान का मुस्कान बांटने पहुँच जाएँ, तो क्या होता है..? इन दिनों यही हो रहा है , स्वयं की आवश्यकताओं मे तनिक भी कमी आते ही विकल होने वाले ये ज्ञानी लोग औरों को मुस्कान बांटते हैं। मित्र , यह तुम्हारे बस की बात नहीं है, अपने किसी प्रियजन का तनिक वियोग  होगा नहीं कि तुम भी अपने ज्ञान की गठरी फेंक बना लोगे मुहर्रमी सूरत ।
 यह दुनिया ज्ञान- विज्ञान से नहीं प्रेम से चलती, करुणा से चलती है , औरों का दर्द लेने वालों से चलती है। अपनी कथनी और करनी में अंतर रखने वालों से नहीं।
     ठीक है कि जीवन की राह में हर पथिक को मुस्कान की तलाश होनी चाहिए, मुसाफिरखाना उसकी मंजिल नहीं है,  फिर भी सोचे जरा कि यह ( मुस्कान) बाजार में बिकाऊ थोड़े ही है।यह मोल नहीं ली जा सकती है, मांगी भी नहीं जा सकती है, चुराई भी नहीं जा सकती है और न ही उधार ही ली जा सकती है। यह भी जानता हूँ कि इसे पाने वाला मालामाल हो जाता है। इससे बड़ी कोई सम्पत्ति नहीं है और यह भी कि हमें इतना भी निर्धन नहीं होना चाहिए कि दूसरों को एक मुस्कान रुपी उपहार भी न दे सके।
   तब भी यही कहूँगा कि इसे पाने की आकांक्षा में यदि हम अपनी स्मृति , अपनी वेदना ,अपनी पहचान का परित्याग कर देंगे  , तो फिर कुछ शेष नहीं बचेगा , सिवा इसके की लोग हमें विक्षिप्त कहें। ठहाका लगाते ऐसे पागलों से सड़क पर सुबह रोज ही मुलाकात होती है। इन्होंने अपने हर दर्द को स्मृति से निकाल रखा है, पर वे सामान्य इंसान नहीं कहे जाते है ।
        बचपन की बात करूं तो इस ठंड के मौसम में जब भी घर पर मटर,गोभी, मूली और बथुआ के पराठे बनते थें,मेरे चेहरे पर स्वभाविक मुस्कान आ जाती थी , परंतु आज कोई यदि चार रोटी और थोड़ी सी सब्जी उपलब्ध करवा देता है , तो एक चमक अवश्य उसी चेहरे पर होती है, लेकिन यह बेबसी लिये होती है। एक सवाल लिये होती है-

रेखाओं का खेल है मुक़द्दर
रेखाओं से मात खा रहे हो
बन जायेंगे ज़हर पीते पीते
ये अश्क जो पिए जा रहे हो..

      बात यदि उस  प्रेम की करे जिससे मुस्कान आती है , तो इसके विविध रुप है, माँ, पत्नी, प्रेयसी और संतान ही नहीं अन्य प्राणियों से भी, जिनसे हम स्नेह करते हैं। जिनके वियोग पर दर्द होता है , यह पैमाना हर किसी के लिये एक जैसा नहीं है। सवाल यह है कि इस जुदाई, इस धोखे और इस तन्हाई  को मुस्कान में फिर से कैसे बदला जाए।  जब तक ब्लॉग पर नहीं था, किसी को अपने दर्द का एहसास नहीं होने दिया। आज भी उसी तरह मुस्कुराता हूँ। चंद लोग ही तो मेरे ब्लॉग पर जाते हैं। यह अखबार का पन्ना थोड़े ही है, हर कोई उलट पुलट ले। जब एक चेहरे पर कई चेहरे वैसे भी लगाते हैं लोग , तो मुस्कान वाला चेहरा क्यों खराब.. ।
     इन पवित्र आँसुओं का कोई मोल नहीं है , इस समाज में , इस महफिल में। जब तक कोई अपना न हो, हर किसी से हर कोई यह सवाल नहीं करता -

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
क्या गम है जिसको छुपा रहे हो
आँखों में नमी, हँसी लबों पर
क्या हाल है क्या दिखा रहे हो
क्या गम है जिसको...

   इसके लिये भी " दिल से दिल तक " का कोई रिश्ता होना चाहिए,  ऐसी मुस्कान के पीछे छिपे दर्द को समझने के लिये । अन्यथा तो यह दुनिया नौटंकी है , सर्कस है । यहाँ मनोरंजन पसंद है लोग , आपका दर्द नहीं चाहिए उन्हें । अतः माँ की मौत की खबर पर भी रंगमंच के उस महान कलाकार "जोकर" की तरह ठहाका लगाइए ,कुछ ऐसा हास्य-विनोद कीजिये जिससे दर्शक दीर्घा  में बैठे लोग ताली बजाएँ और उनका पैसा वसूल हो ।  इस रंगमंच पर आपके दर्द को ही नहीं, आपकी मौत को भी आपके अभिनय का अंग समझ वे खुश हो शोर मचाए , कुछ ऐसा कर चलो  मित्र । ये दुनियावाले  हमसे-आपसे यही चाहते हैं न...।
      यह सत्य जानते हुये कि इंसान की सम्वेदनाओं , भावनाओं और आकांक्षाओं से  दुनिया नहीं चलती। यह झूठी मुस्कुराहटों,झूठे वायदों एवं झूठे रिश्तों  का घरौंदा है। ऊपर से देखने में सुंदर , पर अंदर से खोखला है। ऐसे में यह नादानी  फिर क्यों करते हैं हम-

जिन ज़ख्मों को वक़्त भर चला है
तुम क्यों उन्हें छेड़े जा रहे हो..

19 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर रचना

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  2. जी प्रणाम और हृदय से आभार भी

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    1. आखिर कितना दर्द है सीने में कि कलम रूकती नहीं? वेवफा भी बोल उठी होगी कि बस कर शशि अब बस कर मेरी भी कुछ मजबूरी थी जो मैं यहाँ हूँ।
      अहसास के आईने को अंधा कर दो वर्ना मर जाओगे। मगर ब्याकुल पथिक हूँ जिसे बस तेरा ही इंतजार है।

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  3. सच ही कहा है आपने शशिभैया,
    जिन जख्मों को वक्त भर चला है
    तुम क्यों उन्हें छेड़े जा रहे हो....

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  4. जी मीना दी,
    सही कहा आपने..

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  5. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक २४ दिसंबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  6. जी धन्यवाद श्वेता जी , हमेशा की तरह मेरे विचारों को अपने ब्लॉग पर शामिल करने के लिये।

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  7. बेहतरीन रचना👌
    हमेंशा की तरह बहुत ही शानदार रचना, हर शब्द अपना किरदार बखूबी अदा कर रहे है ..
    तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
    क्या गम है जिसको छुपा रहे हो
    आँखों में नमी, हँसी लबों पर
    क्या हाल है क्या दिखा रहे हो....👌👌

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  8. जी धन्यवाद।
    हमेशा की तरह उत्साह बढ़ाने के लिये।
    मुझे खुशी मिलती है इससे।

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  9. बहुत ही बेहतरीन रचना

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  10. जी प्रणाम , आपकी प्रतिक्रिया सैदव ब्लॉग पर मिलती रहती है।

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  11. प्रिय शशि भाई,हर बार की तरह अपना ही मौलिक चिंतन लिए लेख शानदार है। मेरी ढ़ेरों शुभकामनाएं ।मेरे दूसरे अकॉउट से टिप्पनी नहीं हो पा रही। सस्नेह---रेणु

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  12. जी दी आपका स्नेह पा कर सदैव की तरह हर्ष हुआ । बस आपके मार्गदर्शन में अपनी कुछ अनुभूतियों को लिख भर पाता हूँँ।

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  13. हर मुस्कान का एक अलहदा रंग होता है, आपके आलेख सदा हर मुद्दे पर गहरा चिंतन होता है शशि भाई कभी मुस्कान के पीछे गहरा दर्द होता है कभी मजबूरी और कभी सहज और सामान्य ।
    और कई बार हम अपनी मुर्खता पर मुस्कुराते हैं तो कभी खुद फिसल के संभलते हुवे मुस्कुराते है
    मौलिक विचारों वाला अप्रतिम आलेख ।

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  14. जी कुसुम दी आपका स्नेह मुझे सदैव इसी तरह से ब्लॉग पर मिलता रहा।
    आपने बिल्कुल सही कहा हर मुस्कान का अपना रंग होता है,जीवन के पाठशाला में हमें इनकी अनुभूति होनी ही चाहिए।
    प्रणाम

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  15. मुस्कान के पीछे के दर्द को बाखूबी शब्द और नगमों के माध्यम से जुबां दी है आपने ...
    फिर भी एक चेहरे की मुस्कान दूसरे के चहरे पे मुस्कान चढ़ा ही जाती है चाहे क्षणिक ही क्यों न हो ... जीवन चक्र को बाखूबी इस मुस्काम में उढेला है आपने ... जबरदस्त ...

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  16. जी भाई साहब ठीक कहा आपने,शुक्रिया।

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