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Friday 11 January 2019

ओ माँझी, ले चल सबको पार..


ओ माँझी, ले चल सबको पार...
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माँझी की तरह पथिक को भी यह समझना होगा कि नाव तो सबकी है , पर उस पर बैठे लोग अपने नहीं हैं। सबकी अपनी अलग राहें हैं। नदी के इस पार से उस पार तक बस इतना ही सबका साथ है
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सबको किनारे पहुँचाएगा
माँझी तो किनारा तभी पाएगा
गहरी नदी का ओर ना छोर
 लहरों से ज्यादा मनवा में शोर...

   नैया फिल्म के इस गीत को आत्मसात कर रहा था। नाविक   और पथिक में यही तो अंतर है । नाविक  सबको उनके गंतव्य तक पहुँचाता है, तब उसे विश्राम मिलता है । वहीं पथिक पहले स्वयं किसी लक्ष्य तक पहुँचने के लिये प्रयत्न करता है, यदि उसे मुकाम मिला तो वह भी सबके लिए पथ प्रदर्शक बन सकता है।  इसके लिये उसे भावनाओं के शोर को रोकना होगा। माँझी की तरह उसे भी यह समझना होगा कि नाव तो सबकी है , पर उस पर बैठे लोग अपने नहीं हैं। सबकी अपनी अलग राहें हैं। नदी के इस पार से उस पार तक बस इतना ही सबका साथ है।
   जिसने जगत के इस रहस्य को समझ लिया , सब (यात्री) उसके हैं, फिर भी उसका कोई नहीं है। वह  समदर्शी हो जाता है ,कुछ इसी नाविक की तरह-

अपना तो नित यही काम है
आने जाने वालो को सलाम है
गोरी ये दुआए करना जरूर
माँझी से नैया हो नहीं दूर..

     सबको पार उतराते हुये वह अपनी जीवन नैया भी पार लगा लेगा। एक सच्चे साधक- संत की तरह ।
      बीते रविवार की बात है यहाँ मीरजापुर में बिखरे हुये हमारे स्वजातीय समाज के लोग एक मंच पर आ गये । सबकों एक साथ कदमताल करते देखने की मेरी भी वर्षों से इच्छा थी, हालांकि सामाजिक कार्यक्रमों में मेरा कोई विशेष योगदान तो नहीं रहता ,फिर भी मेरी मौजूदगी , सबको साथ लेकर चलने की सोच और केंद्रीय राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल द्वारा सांसद निधि से समाज की जमीन पर 32 लाख रुपये से "उत्सव भवन" बनवाने की घोषणा से मुझे यहाँ सम्मान मिला। अब जो नयी कमेटी बनी वह सबके लिये है। दशकों से समाज के लोग दो खेमे में बंटे थें। लेकिन यह दीवार अंततः गिर गयी । सबको साथ लेकर चलने का निर्णय लिया गया। इस खुशी के अवसर पर समाज  के वरिष्ठजनों का स्नेह मुझे भी प्राप्त हुआ, साथ ही नवनियुक्त पदाधिकारियों ने एक पुष्पहार मेरे गले में डाला दिया। इतने लोगों के मध्य यदि सम्मान मिले , तो व्याकुल पथिक होकर भी चेहरे पर एक स्वभाविक मुस्कान आ जाती है , क्यों कि आपसी एकजुटता का स्वप्न साकार हुआ। ऐसे में कुछ और अधिक करने की चाह में मन गुनगुनाता है-

ओ नदिया चले चले रे धारा
 चन्दा चले चले रे तारा
 तुझको चलना होगा,तुझको चलना होगा
ओ तू ना चलेगा तो चल देंगी राहें
 मंज़िल को तरसेंगी तेरी निगाहें
तुझको चलना होगा,  तुझको चलना होगा..

    यह एकजुटता ही  किसी भी समाज के विकास की प्रथम सीढ़ी है कि पहले व्यष्टि से निकल समष्टि की ओर बढ़ो। एकाकी जीवन से सम्पूर्णता की ओर बढ़ों।
        " एकोहं बहुस्यामि "  सृष्टि का यही सूत्र है। सबको समाहित करना ही तो कृष्ण का विराट रूप है ,क्यों कि बचपन से ही कृष्ण ने सबके अधिकार की बात की, चाहे वह गोवर्धन पूजन हो अथवा यमुना नदी में कालिया नाग का मान मर्दन हो। भीष्म, द्रोण , कर्ण ने इस विराट रूप को पहचाना अवश्य , परंतु अनुसरण सिर्फ विदुर और अर्जुन ने किया। प्रकृति द्वारा निर्मित हमारा शरीर हो या हम मनुष्यों द्वारा निर्मित कम्प्यूटर एक ही तत्व से किसी का अस्तित्व नहीं है। सृष्टि की रचना पर दृष्टि डाले तो यह पृथ्वी , आकाश  प्रकाश, वायु, जल , अग्नि सभी के लिये है। यहाँ मैं नहीं ,तुम नहीं , वो नहीं , ये नहीं यह सब बिल्कुल भी नहीं है। दुख- सुख , बचपन, यौवन और वृद्धावस्था , जीवन - मृत्यु यह भी सभी के लिये है।  सर्वे भवंतु सुखिनः ,सबको सन्मति दे भगवान , सबका मालिक एक से लेकर वसुधैव कुटुम्बकम  , इन सभी वाक्यों में सब और सबके हित , सबके अधिकार , सबके कल्याण , सबके विकास की कामना समाहित है।  सबको साथ लेकर चलने का उद्घोष है।

      राजतंत्र को इसीलिए नष्ट होना पड़ा, क्यों कि उसमें
 "सब" के स्थान "स्वयं" को प्रमुखता दिया गया। लोकतंत्र में एक नहीं सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है।  अपने यहाँ तो  एक राजनैतिक दल का यह जुमला भी बीते चुनाव में खूब सुर्खियों में रहा कि सबका साथ , सबका विकास।  लेकिन यदि हम अपनी बातों पर खरे नहीं उतरेंगे , किन्हीं कारणों से अपने विकास को महत्व देंगे , तो सबका साथ छुटने लगता है। गत माह कुछ राज्यों में सम्पन्न विधान सभा चुनाव परिणाम एक बार फिर से हमें यह संदेश दे गया। देश, समाज और परिवार का जो भी मुखिया है, वह अपने पद पर तभी तक है, जब तक सबको साथ रखता है, सबके लिये सोचता है।

   मैं ब्लॉग पर राजनीति को अधिक महत्व नहीं देना चाहता, इसके लिये अपना अखबार काफी है। अतः " सबका कौन " इस प्रश्न का उत्तर मैं महादेव और बुद्ध से होते हुये गांधी में तलाशता हूँ। जब भी मन भटकता है, तो मेरी कोशिश होती है कि इनके जीवन दर्शन से अपने अंधकारमय जीवनपथ के लिये प्रकाशपुंज की तलाश करूं।
         शिव ने जगत के कल्याण के विष ग्रहण किया, तो महादेव हो गये । सिद्धार्थ ने अपनी करुणा को दिशा दी , घर-परिवार के मोह का त्याग किया  ,जन कल्याण के लिये , तो बुद्ध हो गये। गांधी ने सत्यग्रह के माध्यम से सबको अहिंसा रूपी अमोघ अस्त्र दिया , तो वे महात्मा हो गये।
     कुछ बात अपने ढ़ाई दशक के पत्रकारिता जीवन की करूं, जब खुलकर राजनीति और अपराध पर खबरें लिखता था। तब भी संबंधित लोग इसलिये बुरा नहीं मानते थें , क्यों कि सभी जानते थें कि मैं सबके लिये निष्पक्ष भाव से लिखता   हूँ। इसके लिये किसी सुविधा शुल्क की चाहत मुझे नहीं है। अब प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े लोगों को वह सम्मान इस लिये नहीं मिलता है , क्यों कि वे सबके नहीं किसी खास के प्रति समर्पित होते जा रहे हैं।
    फिर भी मनुष्य की क्षुधा कुछ ऐसी भी होती है जिसे "सब" नहीं तृप्त कर सकते हैं। इसके लिये कोई अपना होना चाहिए।
 अन्यथा  वर्ष के प्रथम दिन पथिक का हृदय विचलित हो यूँ न पुकारा होता-

मेरा खींचती है आँचल मन मीत तेरी हर पुकार
मेरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार, हूँ इस पार
ओ मेरे माझी, अबकी बार, ले चल पार, ले चल पार...

 यह तर्क भी उचित है कि जीवन के लिये कोई तो अवलंबन चाहिए । इसी समाधान के लिये संत का सृजन मानव समाज में हुआ है ,क्यों कि एक सच्चे संत को किसी भी प्रकार की भूख पीड़ा नहीं देती है। उसका तो अपना कुछ होता ही नहीं, क्यों कि वह अपने स्नेह को सबमें  समभाव से बांट देता है। वह सबका हो जाता है और समाज उसका। अन्यथा तो-
 
छल-छल बहती जीवन-धारा
मांझी नैया ढूंढे किनारा
किसी ना किसी की खोज में है ये जग सारा...

    

18 comments:

  1. आपकी लेखनी जीवन को राह दिखाती सक्षम दीपक है। शुभकामनाएं व बधाई ।
    सबको किनारे पहुँचाएगा
    माँझी तो किनारा तभी पाएगा
    गहरी नदी का ओर ना छोर
    लहरों से ज्यादा मनवा में शोर...

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  2. जी धन्यवाद भाई साहब

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  3. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
    १४ जनवरी २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  4. जी हृदय से आभार श्वेता जी एक बार पुनः

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  5. प्रिय शशि भाई -- माझी और नदिया के अद्भुत दर्शन के साथ आपका ये लेख नकारात्मकता से सार्थकता का उद्घोष है | मांझी के करुणा भरे गीत सिने जगत और लोकजीवन की अनमोल थाती हैं |आपने जिन मुख्य गीतों आधार बनाया है वे मेरे मन के बहुत करीब हैं | -एक किनारे से दुसरे किनारे तक पथिकों को पहुंचाते ये नाविक अपने मन की व्यथा और अपने काम के प्रति प्रतिबद्धता को अपने मार्मिक गीतों के माध्यम से कह पाने में सक्षम होते हैं |अपने भीतर की उथल पुथल को उससे बेहतर कौन जान सकता है --

    सबको किनारे पहुँचाएगा

    माँझी तो किनारा तभी पाएगा

    गहरी नदी का ओर ना छोर


    लहरों से ज्यादा मनवा में शोर...

    इस नाविक जीवन का क्या भरोसा -- कब कोई राम केवट की नाव से दूसरे तट उतरने की चाह लिए उसको जन्मों से पार उतारने का अनुग्रह उतराई स्वरूप दे जाए | और आपके लेख की ये प्न्क्रियाँ मुझे बहुत अद्भुत लगी --मांझी की तरह पथिक को भी ये समझना होगा किनाव सबकी है पर उस पर बैठे लोग अपने नहीं हैं | सबकी अपनी अलग राहें हैं | नदी के इस पार से उस पार तक बस इतना ही सबका साथ है ------------

    सच कहा आपने साथ सब चलते हैं पर अपना कोई नहीं अर्थात ना कोई साथ आया ना जाएगा |बस मिथ्या मोह माया का प्रपंच है | कोई अधिकार नहीं किसी का किसी पर -- साथ रहे तो अपने अन्यथा आप मरे -- जग प्रलय !!!!!

    ये अधिकार ही तो वैमनस्य और फसाद की जड़ है | पर इससे दूर

    जब किसी की दृष्टि अपने लिए ना होकर सबके लिए समभाव रखती है तभी बुद्ध , कृष्ण और गाँधी सरीखा व्यक्तित्व अस्तित्व में आता है |

    बहुत सुंदर लेख है | आपने सामाजिकता की और कदम बढ़ाया है और सम्मान पाया है ये आपके लिए भी अच्छा है और समाज भी आप जैसे चितकों की बाट जोहता है | भावपूर्ण सृजन के लिए सस्नेह शुभकामनायें |

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  6. जी दी प्रणाम, इस स्नेह भरे.मार्गदर्शन के लिये । आपको मकर संक्रांति पर्व की शुभकामनाएं।

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  7. प्रिय भैया आपको भी मकर संक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाएं एवं बधाई हो। दो तीन दिन से हिंदी टूल दिक्कत दे रहा है।

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  8. अरे दी हिंदी बोल कर भी टाइप हो जाती है। बस थोड़ा संशोधन करना होता है.

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  9. लेकिन मुझे इस सुविधा का प्रयोग करना नहीं अता | किसी दिन सीखती हूँ आपसे |

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  10. तील हम है,
    और गुड़ हो आप,
    मिठाई हम है,
    और मिठास हो आप,
    इस साल के पहले त्योंहार से
    हो रही आज शुरुआत…
    आपको हमारी ओर से परिवार सहित
    मकर संक्रांति की शुभकामनाये !!

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  11. जी धन्यवाद ,आपको भी शुभकामनाएं

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  12. बहुत सुंदर... विचरणीये लेख ,सादर नमन

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  13. कोई भी विषय आपकी कलम से छूकर विशेष हो जाता है शशि भाई । बहुत सांगोपांग लेख आध्यात्म और वास्तविक जीवन दोनों की सुधि देता।
    अप्रतिम ।

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  14. जी कुसुम दी प्रणाम
    मैं तो बस अपनी अनुभूति को कुछ शब्द देने का प्रयास करता हूँँ। ढाई दशक की पत्रकारिता में सब कुछ खोता गया, परंतु दुनियादारी देखता गया।

    कामिनी जी,
    आपका हृदय से आभार।
    सदैव की तरह उत्साहवर्धन के लिये।

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  15. सुंदर और सार्थक लेख है जीवन के बारे में. आपके लिये कबीर भी याद आते हैं जो कहते हैं"जिन ढूँढे तीन पाइयाँ गहरे पानी पैठ"आप जीवन के जल में गहरे उतरे और सच को ढूंढ़ लेने के निकट हैं यही आपको हम सबसे आगे ले जाता है.
    मोदनवाल समाज के कार्यक्रम की भी बधाई. पर अभी खटास खत्म होती नहीं जान पड़ती. कुछ लोगों की राजनीतिक महत्वकांक्षाएं जाग रही हैं समाज में उनके पास अधिक धन भी आ गया है इसलिये वह पुराने लोगों को सम्मान नहीं देना चाहते. उनके बालकों के द्वारा की जा रही गलत बातों पर वह खेद भी नहीं प्रकट करते.. नये मुखिया को भी इन सबके बारे में सोचना चाहिए.

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  16. धन्यवाद कामरेड सलीम भाई
    खटास तो प्रायः समाप्त है। सिर्फ एक वरिष्ठ सदस्य के परिवार को छोड़ कर। हाँ,वह भी साथ हो तो कितना अच्छा हो।

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  17. बहुत ही सुन्दर और सार्थक लेख....
    माँझी की तरह पथिक को भी यह समझना होगा कि नाव तो सबकी है , पर उस पर बैठे लोग अपने नहीं हैं। सबकी अपनी अलग राहें हैं। नदी के इस पार से उस पार तक बस इतना ही सबका साथ है....

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  18. जी प्रणाम
    हृदय से आभार मेरा मनोबल बढ़ाने के लिये।

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yes