चली-चली रे पतंग मेरी चली रे ...
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चली-चली रे पतंग मेरी चली रे
चली बादलों के पार हो के डोर पे सवार
सारी दुनिया ये देख-देख जली रे...
मकर संक्रांति पर्व है आज । मैं कब से नीले आसमान में रंगबिरंगी बड़ी -छोटी पतंगों को इठलाते देख रहा था। उस अनंत की ऊँचाई नापने की एक मासूम सी कोशिश में जब वे मचलती ,उछलती और फड़फड़ाती हैं , तो पतंगबाज मुस्कुराते हैं।यही नहीं इन्हें आपस में लड़ाते भी है और जब कोई पतंग कट जाती है , असहाय सा नीचे की ओर गिरने लगती है । उसी दौरान विजेता के ' वह काटा- वह काटा ' के अट्टहास से आकाश गूंज उठता है।
.दो पतंगों के पेंच की लड़ाई में एक दूसरे की डोर काटने का यह जो जुनून पतंगबाजों की होती है। जिसके लिये वह अपने सारे अनुभवों का उपयोग करता है। वह यह व्यवस्था करता है कि डोर( मांजा) मजबूत रहे और पतंग भी अच्छी रहे। तब जाकर उसका मनोरंजन पूर्ण होता है।
कटी हुई पतंग जो नीले अंबर से अगले पल धरती की ओर गिरने लगती है , सोचे जरा उसका अस्तित्व क्या होता है । उसे तो लूटने के लिये लोग दौड़ते हैं। उस पर भी यदि किसी एक का अधिकारी नहीं हुआ , तो सब मिल कर उसे लूटते हैं और वह फट जाती है, मिट जाती है, किसी को याद नहीं रहता कि कुछ क्षण पूर्व यह खूबसूरत पतंग इस आसमान की ऊँचाई छू रही थी। पतंगबाजों का मनोरंजन कर रही थी। जमीन पर पड़ी इस फटी हुई कटी पतंग को पांव तले मत कुचलो मित्र , इससे कुछ सबक लो।
कैसी विचित्र विडंबना है कि ये पतंग आपस में कभी नहीं लड़ती - झगड़ती हैं , पर यह डोर इनकी दुर्गति का कारण बनती है। जब तक डोर नहीं बंधी रहती है , पतंग बेखौफ पतंग विक्रेता के यहाँ पड़ी रहती है , पर जैसी ही "धागा" के बंधन में आयी , वह पतंगबाज के अधीन हो गयी जो फिर अपना मनोरंजन उससे करेगा। निर्माता ने धन की चाह में उसे बेच दिया। पतंगबाज ने अपने मनोरंजन के लिये उसे कटी पतंग बना दिया और लुटेरों ने उसका छीना झपटी कर उसका अस्तित्व मिटा दिया।
इसी को आधार बना मैं अपने चिन्तन को शीर्ष पर ले जाने का प्रयत्न जब भी करता हूँ ,तो जीव(पतंग) , माया(डोर) और ब्रह्म (मनुष्य) , मेरा दृष्टिकोण कुछ ऐसा हो जाता है । फिर मुझे लगता है कि इस पतंग की तरह हम भी तो किसी के मनोरंजन की सामग्री तो नहीं है। इस तरह के चिन्तन से मन आहत होता है , वह प्रश्न करता है -
दुनियाँ बनाने वाले, क्या तेरे मन में समायी
काहे को दुनियाँ बनायी, तूने काहे को दुनियाँ बनायी
काहे बनाये तू ने माटी के पुतले
धरती ये प्यारी प्यारी, मुखड़े ये उजले…
इस सवाल का सही जवाब किसी के पास नहीं है कि आखिर यह दुनिया किसके मनोरंजन के लिये बनायी गयी है। हम सब तो बस पतंग हैं,माया-मोह रूपी यह डोर जीतनी मजबूत होगी, हम उतना अधिक आसमान में फड़फड़ाते हैं, फिर भी जमीन पर गिरना ही नियति है हमारी।
अतः यह तो तय है कि हम कर्ता नहीं है, नियति के अधीन हैं, बात यदि कर्मफल की करूँ, तो यहाँ भी मेरा चिन्तन इस चिन्ता में बदल जाता है कि कर्मफल से नहीं जुगाड़ तंत्र(छल प्रपंच) से यह दुनिया चल रही है। अन्यथा स्नेह का ,श्रम का, कर्त्तव्य निष्ठा का प्रतिफल हमें उस अनुपात में न सही तो भी कम से कम संतोष जनक निश्चित मिलता। पत्रकारिता में हूँ, यदि थोड़ा सा अपने पथ से हट जाता तो आज मेरे पास भी वह तमाम भौतिक सुविधाएँ निश्चित होतीं। बंगले, मोटर और रूतबे से ही अब तो हम लोगों को भी सम्मान मिलता है । जिनके पास धन है ,जुगाड़ है , वे सब लोकतंत्र के प्रहरी "माननीय" बन जा रहे हैं। अपराधियों को भी दागी जनप्रतिनिधि कोई कहाँ कहता है , बल्कि उनके दरबार में कहीं अधिक रौनक रहती है।
खैर ,विषय मेरा यहाँ पतंग , डोर और पतंगबाज है यहाँ , तो क्या हमें भी किसी ने अपने आनंद के लिये पतंग का रुप दे रखा है। सच तो यह है कि हम इंसान आपस में कभी नहीं झगड़ते है। हम जिस डोर रूपी भावनाओं से बंधे हैं, वे भड़कती हैं,भभकती हैं और फिर बुझ जाती हैं ,हमें कटी पतंग बना कर।
अन्यथा तो हमारा मन सदैव विश्राम की स्थिति में रहता है , जगतगुरु शंकराचार्य की तरह यह उद्घोष करते हुये-
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ...
संत , दार्शनिक , वैज्ञानिक , आस्तिक और नास्तिक जिनमें भी थोड़ी चिन्तन शक्ति है , वह इसी खोज में है कि मृत्यु के बाद क्या ..? सृष्टि के निर्माण का रहस्य क्या है ?? पहले बताया जाता था कि चंद्रमा पर जो काला धब्बा है, वहाँ एक बुढ़िया सूत कात रही है। धर्मशास्त्रों में तो इस पर कई कथाएँ हैं , लेकिन विज्ञान ने बताया कि ये ऊँचे पहाड़ और गहरी खाईं के निशान हैं। पर इस ब्रह्मांड का एक छोर भी विज्ञान अभी तक नहीं पकड़ पाया है,तो इसके निर्माण और निर्माता की कैसे जाने।
अपनी बात करूं तो चिन्ता से यदि चिन्तन की ओर बढ़ता हूँ, तो वह मानसिक संतुष्टि जो उस छोटे से आश्रम जीवन में मुझे प्राप्त हुयी थी , वह मुझे पुकार रही है, विवेक की पहरेदारी मेरे आहत हृदय पर इन दिनों बढ़ती जा रही है। वह मानो बार बार उलाहना दे रहा है कि इस वर्ष के प्रथम दिन जब तुम बिल्कुल एकाकीपन की अनुभूति कर रहे थे, तुम्हारी भावनाएँ तुम्हारे हृदय को आहत कर रही थीं , तब कोई था तेरा, कोई स्नेहीजन , कोई प्रियजन ..? वह मुझसे निरंतर झगड़ रहा है कि आश्रम छोड़ कर तुम्हें क्या मिला ? कोई ऐसा डोर अब भी मोह का शेष है ..? वैसे, उसका यह कड़वा सच मेरे हृदय की वेदना पर मरहम की जगह जख्म पर नमक के छिड़काव जैसा है। मैं शर्मिंदा हूँ ,बस एक आत्मसंतुष्टि लिये कि चलो इसी बहाने दुनिया तो देख ली । अपना- पराया, दुख- सुख, प्रेम और छल , षड़यंत्र और धोखा , धनलक्ष्मी का खेल, किसी के प्रति भी अत्यधिक कर्तव्यपरायणता का दंड जैसी अनुभूतियाँ मुझे वही संदेश एक बार फिर से दे रही हैं जिसे ग्रहण कर सिद्धार्थ ने ज्ञान प्राप्त की और गौतम बुद्ध बन गये। बड़ा सरल सा संदेश रहा उन नृत्यांगनाओं का, वीणा के तार के संतुलन की ही तो बात उन्होंने कही थी।
मनुहार, प्रेम , स्नेह युक्त भोजन और वह क्षुधा जिनका उपभोग गृहस्थ प्राणी करते हैं ,उसकी आकांक्षा और कल्पना हम जैसों को नहीं करनी चाहिए, अन्यथा जिन्हें तुम अपना मित्र समझते हो, वही तुम्हारा उपहास करेंगे। यह तुम्हें ही तय करना है कि इनसे किस तरह से मुक्त हो , किस आश्रम के पथ की ओर कदम रखते हो । कटी पतंग कहलाने से पूर्व आसमान की ऊँचाई पर पहुँचना ही जीवन की सार्थकता है।
कोलकाता में था,तो सिर्फ आज के ही दिन मुझे किसी के देखरेख में पांचवीं मंजिल के ऊपर छत पर जाने की अनुमति थी, पतंग लेकर । बनारस में था तो हम तीनों भाई-बहन गैस वाले गुब्बारे उड़ाते थें। पतंग उड़ाना नहीं सीख पाया, परंतु कटी पतंगों को सहेज - संवार कर रखता था। ऐसी अनेक पतंग मेरे कमरे में टंगी रहती थीं। एक विशेष मोह था ,इनके प्रति मुझे। कभी - कभी तो अभिभावक नाराज भी हो जाते थें कि मैं क्यों कमरे को कूड़ाघर बना रखा हूँ। पिता जी अध्यापक थें, अतः पतंग से उन्हें नाराजगी थी। छिपा कर मैं इन कटी पतंगों का रखा करता था। समझ में नहीं आता कि मैं किस राह पर चल पड़ा कि आसमान की ऊँचाई छूने से पूर्व ही कटी पंतग बन आ गिरा और मुझे किसी का सहारा( स्नेह) न मिल पाया ?
न किसी का साथ है, न किसी का संग
मेरी ज़िंदगी है क्या, इक कटी पतंग है ...
बस इस प्रश्न का उत्तर चाहता हूँ,अपनी किस्मत से।
गहन चिन्तन से लबरेज सराहनीय और खूबसूरत लेख आपकी चिन्तनशील प्रवृत्ति को दर्शाता है । पंतग के माध्यम से बहुत कुछ कह दिया आपने ...,कई बार पंतग का अस्तित्व छीनाझपटी मेंं नष्ट हो जाता है तो कई बार आप जैसे सहेजने वाले भी मिल जाते हैं । दुनिया अच्छाई के बल पर ही टिकी है । लिखते रहिए बहुत अच्छा लिखते हैं आप । मकर संक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteजी प्रणाम दी
ReplyDeleteबस कुछ यूँ लिख लेता हूँ। शब्द तो मेरे पास नहीं है, फिर भी अपनी बात रखने की एक कोशिश जरूर करता हूँँ।
प्रिय शशी भाई -- कुछ प्रश्न और निर्णय नियति के होते हैं उनसे उत्तर पाना संभव नही | पतंग के बहाने से बहुत ही मर्मस्पर्शी चिंतन के साथ एक जीवन दर्शन को उद्घाटित करता लेख आपकी अंतर्वेदना का परिचायक है |पर हम सब सचमुच नियति के अधीन सृष्टि में गोचर कर रहे हैं | कल आपकी पोस्ट पर लिखा था आज फिर लिखती हूँ -- जरूरी नहीं सबको पतंग उडानी आती हो -- पर किसी के जीवन की पतंग को कोई डोर ही ना मिले ये बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है |मार्मिक लेख के लिए शुभकामनायें | सस्नेह --
ReplyDeleteजी रेणु दी प्रणाम ,सृष्टि में यह नियति शब्द भी कैसा विचित्र है न ?
ReplyDeleteजी भैया -- नियति शायद वही है जो ईश्वर द्वारा नियत और निर्धारित है | जो ईश्वर ने दिया उसे कोई छीन नहीं सकता - पर जो उसने नहीं दिया वो कोई और नही दे सकता | जिनके पास सब कुछ है वे भी प्राय नियति से प्रश्न करते हैं कि उन्हें वह क्यों नही मिला जिसकी उन्हें इच्छा थी | संभवतः यही मानव स्वभाव है हर स्थिति में एक अतृप्ति से एक पछतावा उसके भीतर व्याप्त रहता है |
ReplyDeleteजी दी
ReplyDeleteप्रणाम।
कुछ कमी और कुछ खूबी हर इंसान में होती है। प्रगतिशीलता ही जिंदगी है।
ReplyDeleteशशी भाई लेख अन्तर आत्मा दारा लिख देते सभी श्रोताओ को शब्द की पहचान
ReplyDeleteधन्यवाद आप दोनों को
ReplyDeleteभाई पथिक जी,
ReplyDeleteपतंग और डोर के माध्यम से आपने बहुत ही गहन विषय को महीन तरीके से क्रमबद्ध किया है, जो अत्यंत ही प्रभावशाली है। आपकी वैचारिक मौलिकता व सारगर्भिता को नमन।
मकर संक्रांति की अग्रिम शुभकामनाओं सहित, बधाई ।
जी भाई साहब ,
Deleteआपकी टिप्पणी से मेरी लेखनी सफल हुई
14 जनवरी 2019 को लिखे आपके उदगार ,बहुत उम्दा ,दार्शनिक है।बहुत गूढ़ रहस्यों को बहुत सरल पतंग , डोर और मनुष्य के माध्यम से समझने के लिए आपको साधुबाद।Great 👌👌
ReplyDelete🙏
टिप्पणीकर्ता- श्री आशीष बुधिया जी, पूर्व अध्यक्ष शहर कांग्रेस कमेटी , मीरजापुर
न्याय, नियम, नैतिकता के पथ पर चलने वाले अकेले पड़ जाते हैं। धीरे-धीरे लोग उनको छोड़ देते। इन्हें प्रशंसा तो मिलती है, लेकिन साथ देने वाले क़दम नहीं मिलते। संवेदना चिंताओं को जन्म देती है। हम सभी इन चिंताओं को कभी पतंग के माध्यम से प्रकट करते हैं तो कभी किसी और चीज़ के माध्यम से। मित्र, विकल्प भी तो नहीं मिलता। बस जीवंतता से जीने की आदत डालनी पड़ती है। ईमानदार लोगों की कोई महफ़िल नहीं होती। लिखते रहिए और आगे बढ़ते रहिए। आपके पाठक आपके साथ हमेशा रहेंगे।
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा आपने अनिल भैया, मकर संक्रांति पर्व की अग्रिम शुभकामनाएँँ स्वीकार करें, प्रणाम।
Deleteआपको भी मकर संक्रांति की शुभकामनाएँ।💖
ReplyDeleteवाह!!पतंग के माध्यम से जीवन -दर्शन समझा दिया आपने तो । कोई पतंग कट कर काँटों भरी झाडियों में फँस जाती है ,कोई उन्मुक्त गगन में दूर-दूर तक जाती है और कोई गिर कर ऐसे हाथों में आती है जो उसे सहेज लेता है ।
ReplyDeleteजी आभार आपका , प्रणाम।
Deleteआसक्ति के समापन पर विरक्ति आती है, विरक्ति से भक्ति का उदय होता है। ईश्वर की कृपा से ही विरक्ति मिलती है।
ReplyDelete-ज्योत्सना मिश्र, महिला पुलिस अधिकारी
"सॅभलना तो हम भी जानते थे इस जमाने में,
ReplyDeleteठोकर तो उस पत्थर से लगी,
जिसे हम अपना मानते थे"
प्रिय शशि जी, व्याकुल पथिक पढ़कर मन में अनेक उमड़-घुमड़ बादल की अनुभूति, जिन्दगी की सच्चाई की कड़ुवाहट और बहुत कुछ! पतंगों की बात आई तो ' आसमान में ऊॅची उड़ती रंग-विरंगीं पतंगें,देखकर हैरान हो गयीं,
अब मुहल्ले की छतें भी हिन्दू-मुसलमान हो गयीं।'
आप की हर बात बहुत प्रिय लगती है और मन प्रफुल्लित होता है,ढेर सारी शुभकामनायें
टिप्पणीकर्ता- श्री रमेश मालवीय जी
आपकी कलम इसी तरह चलती चले और चिरायु हों, अपने ठाकुर जी से यही प्रार्थना करता हूॅ
Deleteदोहा(कतर) से अभिभावक तुल्य श्री रमेश मालवीय जी का आशीर्वाद पुनः मुझे प्राप्त हुआ।
हृदय से आभार यशोदा दी , पिछले वर्ष का मेरा यह लेख उपेक्षित-सा था । आपने अपने प्रतिष्ठित ब्लॉग पर इसे स्थान देकर, जिसतरह से मेरा उत्साहवर्धन किया है, उसे मैं शब्दों में नहीं कह सकता हूँ।
ReplyDeleteप्रणाम।
वाह बेहतरीन सृजन।
ReplyDeleteआभार, प्रणाम।
Deleteशशी भाई,हर सवाल का जबाब नहीं होता। पतंग के माध्यम से बहुत ही सुंदर सवाल उठाए हैं आपने। मकर संक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएं।
ReplyDeleteजी प्रणाम, आपको भी मकर संक्रांति की शुभकामनाएँँ
Deleteबहुत अच्छी सामयिक प्रस्तुति
ReplyDeleteमकर संक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएँँ
जी प्रणाम, आभार।
Deleteसही कहा ये बंधन ही उतार-चढाव का कारण बनते हैं
ReplyDeleteडोरी का बंधन न था तो पतंग शान्त निष्क्रिय थी डोरी से बंधते ही आसमान छूने लगी और पुनः जमीन पर आना तो नियति है....मानव जीवन भी अनेक रिश्तो और माया मोह के बंधन में बंधा है उतार-चढ़ाव से गुजरता रहता है हरदम...
बहुत ही सुन्दर सार्थक सृजन....
जी आभार आपका प्रणाम।
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