Followers

Friday 8 February 2019

नज़र हम पर भी कुछ डालो


नज़र हम पर भी कुछ डालो

*********************

अंधेरे में जो बैठे हैं
नज़र उन पर भी कुछ डालो
अरे ओ रोशनी वालों...

     दुनिया का यह विचित्र मेला , थकान भरी अनजान राहें, बोझिल मन और अपनों को ढ़ूंढती निगाहें -

हमारे भी थे कुछ साथी,
हमारे भी थे कुछ सपने
सभी वो राह में छूटे, वो
सब रूठे जो थे अपने..

 जिधर भी देखों नजरों का ही खेल है, इनमें मोहब्बत है या साजिश, इसकी परख भी कहाँ आसान है । जब सपने टूटते हैं, अपने नहीं मिलते हैं ,तो फिर से रोशनी वालों को पुकारता है यह मासूम हृदय , ताकि वह पुनः छला जाए । विवेक यही तो उलाहना देता है न कि यूँ निगाहें उठा-उठा कर क्यों इंतजार कर रहे हो किसी अपने का, अभी और फिसलने का इरादा तो नहीं  ..?

   सम्बंध फिल्म के इस दर्द भरे गीत का अंत भले ही सुखद रहा हो , परंतु वास्तविक जीवन में ऐसा ही हो , इसकी कोई गारंटी नहीं। नजरों पर भावना, विवेक, प्रेम , सम्वेदना, धर्म और कर्म किसी का भी पहरा नहीं रह गया है। विचित्र  बदलाव हो गया है , इंसान की निगाहों में ? 

   उक्ति है न कि कहीं पर निगाहें , कहीं पर निशाना ।

 राजनीति जगत में ऐसा ही हो रहा है। सियासी बिसात पर गजब का दांव चलते हैं, हर इलेक्शन से पूर्व ये राजनेता। गृद्ध दृष्टि की तरह नजरें उनकी वोटबैंक पर रहती है, जिसके लिये जुबां से न जाने कितने झूठे वायदे करना पड़े, साम्प्रदायिकता , जातिवाद और आरक्षण का मीठा जहर घोलना पड़े।
     छात्र जीवन में मंडल और कमंडल की राजनीति और पीएम की कुर्सी पर बैठने वाले एक शख्स को जनसभाओं में  जेब से चुटका निकालते देखा था। नजरें जनता की उसी चुटके पर गड़ी होती थी। इस चुटके ने दिल्ली का तख्तोताज दिला दिया। आरक्षण की आग ने कई राज्यों में जातिवादी राजनीति को शीर्ष पर पहुँचा दिया, पर चुटका कहाँ खो गया ? सिंहासन से जब वे नीचे उतरे और सितारा गर्दिश में  था, तो यहाँ  विंध्य धाम में एक डाकबंगले पर पत्रकार वार्ता में मुझे भी उनसे सवाल-जवाब का अवसर मिला था।
    याद है कितने ही युवक आरक्षण की आग में उनके ही कारण जल मरे थें, लेकिन वे भी कहाँ अमर रहें। मौत की नजर में राजा -रंक सब समान है। सो, वे भी लाइलाज़ बीमारी के शिकार हो गये । तमाम राजनेताओं की जयंती  मानायी जाती है , परंतु उनके चित्र पर कितने लोग माल्यार्पण करते हैं ?
     अब तक जितने भी राजनैतिक जुमले रहें, उन पर "अच्छे दिन आने वाले हैं"  यह नारा भारी रहा।
    वो कहते भी हैं कि अच्छे दिन आ गये हैं। अंतरिम बजट में देखें किसानों, श्रमिकों और मध्यवर्गीय लोगों को हमने खुशहाल कर दिया। इन रहनुमाओं की नजरें कब हम जैसे निम्न मध्यवर्गीय लोगों पर उठेगी। जिनकी मासिक आमदनी  5 से 6 हजार रुपया प्रतिमाह है, क्या उनके सपने नहीं हैं। वे कैसे चला रहे हैं  घर- गृहस्थी। अपने देश के  तमाम बेरोजगार नौजवान कब तक यह पुकार लगाते रहेंगे-

कफ़न से ढांक कर बैठे हैं
हम सपनों की लाशों को
जो किस्मत ने दिखाए
देखते हैं उन तमाशों को
हमें नफ़रत से मत देखो
ज़रा हम पर रहम खा लो...
 
  अच्छे दिन की यह अन्तहीन प्रतीक्षा कब तक करता रहेगा, यह वर्ग। जो शिक्षित है, संस्कारिक है, दायित्व बोध भी है , उसमें। फिर भी इस वर्ग की कुंठा पर , उनकी पीड़ा पर और उनकी मूलभूत आवश्यकताओं पर निगाहें किसी भी रहनुमा की नहीं उठती। बजट में इन बदनसीब युवाओं के लिये ऐसा कोई सम्मानजनक काम कब होगा , जो इन्हें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए ?
     एक और प्रश्न जो जनता को स्वयं से पूछना चाहिए कि उनके नजरिए से  किसी राजनैतिक दल विशेष को वोट दिया जाए अथवा एक योग्य प्रत्याशी का चयन किया जाए । लोकतंत्र में यही सबसे बड़ी कमजोरी है जनता की , वह दल , धर्म और जाति की राजनीति को प्रमुखता देती रही है। जो व्यक्ति उसके दुख- दर्द में वर्षों से साथ रहा, निस्वार्थ भाव से सामाजिक कार्य करता रहा, फिर भी मतदान के दिन उसकी ओर नजर उठा कर न देखना , वहीं ऐसा प्रत्याशी जिसे जनता जानती भी न हो,जहाँ से वह चुनाव लड़ रहा है वह उसका कर्मक्षेत्र भी न हो साथ ही कोई सामाजिक सारोकार न हो, इस जुगाड़ तंत्र में किसी प्रमुख राजनैतिक दल से टिकट लेकर आ गया हो, मतदाता इस बात को जानते हुये भी दलगत राजनीति से ऊपर नहीं उठते , ऐसे भ्रष्ट प्रत्याशी को वे अपनी नजरों से गिराते नहीं ,तो परिणाम जगजाहिर है। किसी के ईमान को , काम को, सेवा को  यदि हम अपनी निगाहों में महत्व नहीं देंगे , तो फिर बड़े बैनर की ललक में भ्रष्ट, अपराधी और सर्वथा अयोग्य व्यक्ति को जनप्रतिनिधि चुनते रहेंगे। जनता को यदि रौशनी चाहिए ,तो  उनपर नजर डालनी होगी, जिन्हें उसने अंधेरे में बैठा रखा है। फिर वह यह नहीं कहेगी -

उत्तर ,दक्षिण, पूरब
पश्चिम
जिधर भी देखो मय
अंधकार...

  एक नया शब्द इन दिनों प्रचलित है गोदी मीडिया। चौथे स्तंभ से पिछले 26 वर्षों से जुड़ा हूँ। इस नगर के प्रमुख सामाजिक -राजनैतिक कार्यकर्ताओं से ही नहीं आम जनता से भी अपना दुआ- सलाम है। परंतु जनपद स्तरीय पत्रकारिता में  आठ- दस हजार रुपया वेतन भी प्रतिमाह कुछ ही पत्रकार पाते हैं,जो प्रमुख समाचार पत्रों से जुड़े हैं। ग्रामीण क्षेत्र की पत्रकारिता में वह भी नहीं है।  मेरे जैसे पत्रकार जो मझोले अखबारों से जुड़े हैं , अपने वेतन से वे अपने कमरे का किराया ही दे पाएँगे ,यदि बीवी- ,बच्च़े साथ हो। फिर हम ईमानदारी का बस्ता कब तक ढ़ोते रहेंगे। हमारी परिस्थितियों पर क्या कभी किसी की नजर गयी ? ढ़ाई दशक इस शहर में गुजार दिया हूँ। किसी ने आज तक नहीं पूछा कि शशि भाई पैसे की व्यवस्था कहाँ से करते हो। वहीं जिन्होंने अर्थयुग की महत्ता समझ अपना नजरिया बदला ,वे गोदी मीडिया बन  हर सुख- सुविधा का लुफ्त उठा रहे हैं। मेरे पास भी यह अवसर था। जनता बताएँ कि हम दिन - रात उसकी सेवा में थें, सच लिखने पर धमकियाँ भी मिली और षड़यंत्र के तहत गोदी मीडिया वालों ने हमें मुकदमे आदि में फंसवा भी दिया। कितनों को तो उसके संस्थान से भी वे निकलवा देते हैं। तो जिस जनता के लिये हमने संघर्ष किया , क्या उसने कभी एक- एक रुपया आपस में चंदा करके  हम जैसों का सहयोग किया।  जनता की यह मामूली आर्थिक मदद  हमारी सबसे बड़ी नैतिक विजय होती तब , इस गोदी मीडिया और उसको बढ़ावा देने वालों के विरुद्ध।

    अब यदि कोई वरिष्ठ सरकारी अधिकारी जिसकी मोटी तनख्वाह हो, वह यह कहे कि वह बड़ा ईमानदार है  तो भला इसमें उसका कितना बड़प्पन है ? वह ईमानदार रहे , इसीलिए तो उसे ढ़ेर सारी भौतिक सुख सुविधाएँ पहले से ही मुहैया करवाई गई है। यदि फिर भी वह अन्य अवैध स्त्रोतों से धन अर्जित करता है, राजनेताओं के दबाव में अनुचित कार्य करता है अथवा इसके लिये उन्हें प्रोत्साहित करता है , तो यह उसकी आवश्यक नहीं धनलोलुपता है। ऐसा मेरे एक मित्र ईमानदार पुलिस अधिकारी का नजरिया है । वे दफ्तर में चाय भी अपने पैसे का पीते और मुझ जैसे चुनिंदा लोगों को पिलाते थें। उनका दृष्टिकोण साफ था ,वे अपने सरकारी वेतन को ही कुबेर का खजाना बताते थें। ऐसे अधिकारी जब कभी जुगाड़ तंत्र के षड़यंत्र के शिकार होते हैं। उसके चक्रव्यूह में.फंसने के बावजूद समर्पण नहीं करतें । संकट काल में उनका सुरक्षा कवच बन जनता को आगे आना चाहिए , न कि यह कह खामोश हो जाना चाहिए कि बेचारे बहुत ईमानदार थें, उनके साथ बुरा हुआ । जनता जिस दिन अपनी नजरों से कर्मपथ पर चलने वाले व्यक्ति के ईमान का जनाजा देखना बंद कर देगी,उसी क्षण से सामाजिक एवं राजनैतिक परिस्थितियाँ  बदल जाएँगी।
     वैसे तो, नज़रों का तमाशा भी मन की तरह ही बड़ा विचित्र होता है। मुझे तो लगता है कि तन, मन और मस्तिष्क तीनों के पास अपनी - अपनी दृष्टि होती है। वो कहते हैं न मन की आँखों से देखों , विवेक की दृष्टि से देखों, भावनाओं में मत बहते रहो , स्नेह से देखो नफरत से मत देखो। स्पर्श के पश्चात दृष्टि से ही शिशु अपनों को पहचानता है। मृत्यु के पश्चात सबसे पहले मृत व्यक्ति के नेत्रों की पलकों को ही बंद किया जाता है। अतः जब तक जिंदगी है, अपनी नजरों को साफ रखें।

13 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (10-02-2019) को "तम्बाकू दो त्याग" (चर्चा अंक-3243) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
  2. धन्यवाद शास्त्री सर।

    ReplyDelete
  3. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
    ११ फरवरी २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

    ReplyDelete
  4. बहुत सारगर्भित लेख नाजुक विषय पर तुलनात्मक नजर ।
    उपयोगी सोच और सुझाव।
    शशि भाई हर बार की तरह लाजवाब ।
    कुसुम कोठारी ।

    ReplyDelete
  5. जी प्रणाम कुसुम दी

    ReplyDelete
  6. सारगर्भित रचना..

    ReplyDelete
  7. जनता जिस दिन अपनी नजरों से कर्मपथ पर चलने वाले व्यक्ति के ईमान का जनाजा देखना बंद कर देगी,उसी क्षण से सामाजिक एवं राजनैतिक परिस्थितियाँ बदल जाएँगी।
    बहुत सही और सच्ची बात कही आपने ,सादर नमस्कार

    ReplyDelete
  8. जिधर भी देखों नजरों का ही खेल है, इनमें मोहब्बत है या साजिश, इसकी परख भी कहाँ आसान है । जब सपने टूटते हैं, अपने नहीं मिलते हैं ,तो फिर से रोशनी वालों को पुकारता है यह मासूम हृदय , ...बहुत ही सुन्दर आदरणीय
    सादर

    ReplyDelete
  9. प्रिय शशि भैया -- नजर और नजरिये पर आपका ये अनमोल चिंतन बहुत ही सार्थक है | सच कहूं तो मुझे इस सन्दर्भ में गोस्वामी तुलसीदास जी की ये पंक्तियाँ बहुत भाती है -- जिसकी रही भावना जैसी -- प्रभु मूर्ति देखि तिन तैसी | सच है नजरिये के खेल पर दुनियादारी चलती है |बहुत ही सकारात्मक बात लिखी आपने --

    कि जनता जिस दिन अपनी नजरों से कर्मपथ पर चलने वाले व्यक्ति के ईमान का जनाजा देखना बंद कर देगी,उसी क्षण से सामाजिक एवं राजनैतिक परिस्थितियाँ बदल जाएँगी।-- वाह !!!!कितना सही लिखा आपने |
    बहुत प्रेरक और विचारणीय चिंतन के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनायें |

    ReplyDelete
  10. बहुत ही सटीक और सारगर्भित लेख...

    ReplyDelete
  11. जी प्रणाम रेणु दी
    और सुधा जी आपकों भी

    ReplyDelete
  12. सारगर्भित सटीक सामायिक लेख.धन्यवाद.

    ReplyDelete

yes