है अभिशाप ये कैसा !
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वो आश्रम की बातें,न सपने थें झूठे;
कहाँ भूल बैठा, रे पथिक तू बेचारा !
निर्मल सा मन था,वो सुंदर सा काया;
मिटा खाक में सब , हुआ तू पराया।
भटकती जवानी थी, है कैसे गुजारी;
लूटे अरमानों को,न सजाया-संवारा।
वो ज्ञान की बातें,थी अमृत सी धारा;
कहाँ भूल बैठा , वो वैराग्य तुम्हारा।
थी वृक्षों की छाया, था कुएँ का पानी;
छूटा देशअपना,न मिला कोई ठिकाना।
वो पादुका की खटखट,मौनथी वाणी;
कहाँ भूल बैठा, वो श्वेत वस्त्र तुम्हारा।
था गुरु ने पुकारा , मिला जब सहारा;
है यादें वो पुरानी ,जो संकल्प तुम्हारा।
वो कर्मपथ तुम्हारा,वो धर्मपथ तुम्हारा;
कहाँ भूल बैठा , वो सत्यपथ तुम्हारा।
वो ग्रंथों की बातें ,थी संतों की वाणी;
कहाँ भूल बैठा , वह मौन की भाषा
वो कांति तुम्हारी , वो शांति तुम्हारी;
कहाँ भूल बैठा , रे पथिक तू बेचारा !
वो चौखट पुकारे,वो आश्रम की रोटी
कहाँ भूल बैठा , वो गुरूमंत्र तुम्हारा
ठठरी सी काया , है अकथ कहानी;
जला तू दीपक ,बुझा मन की वाणी।
बटोही तेरा दर्द , किसी ने न जाना;
अभिशप्त-सा जीवन,न कोई ठिकाना।
पथ में मिले जो , वो झूठे थें साथी ;
जला मनकी होली,है मरघट पे जाना।
पाषाण बना क्यों, अहिल्या हो जैसे;
वैदेही सा फिर तू , न धरा में समाना।
तेरे स्नेह का मोल , किसने है जाना ?
क्यों भटक रहा ,रे पथिक तू दीवाना।
चढ़ा प्रत्यंचा तू , है वीरगति पाना ;
शापित था जीवन, कर्ण को है जाना।
अभिशाप ये कैसा,क्यों दंड तूने पाया;
नियति से ना पूछ, छोड़ उसकी छाया।
- व्याकुल पथिक
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वो आश्रम की बातें,न सपने थें झूठे;
कहाँ भूल बैठा, रे पथिक तू बेचारा !
निर्मल सा मन था,वो सुंदर सा काया;
मिटा खाक में सब , हुआ तू पराया।
भटकती जवानी थी, है कैसे गुजारी;
लूटे अरमानों को,न सजाया-संवारा।
वो ज्ञान की बातें,थी अमृत सी धारा;
कहाँ भूल बैठा , वो वैराग्य तुम्हारा।
थी वृक्षों की छाया, था कुएँ का पानी;
छूटा देशअपना,न मिला कोई ठिकाना।
वो पादुका की खटखट,मौनथी वाणी;
कहाँ भूल बैठा, वो श्वेत वस्त्र तुम्हारा।
था गुरु ने पुकारा , मिला जब सहारा;
है यादें वो पुरानी ,जो संकल्प तुम्हारा।
वो कर्मपथ तुम्हारा,वो धर्मपथ तुम्हारा;
कहाँ भूल बैठा , वो सत्यपथ तुम्हारा।
वो ग्रंथों की बातें ,थी संतों की वाणी;
कहाँ भूल बैठा , वह मौन की भाषा
वो कांति तुम्हारी , वो शांति तुम्हारी;
कहाँ भूल बैठा , रे पथिक तू बेचारा !
वो चौखट पुकारे,वो आश्रम की रोटी
कहाँ भूल बैठा , वो गुरूमंत्र तुम्हारा
ठठरी सी काया , है अकथ कहानी;
जला तू दीपक ,बुझा मन की वाणी।
बटोही तेरा दर्द , किसी ने न जाना;
अभिशप्त-सा जीवन,न कोई ठिकाना।
पथ में मिले जो , वो झूठे थें साथी ;
जला मनकी होली,है मरघट पे जाना।
पाषाण बना क्यों, अहिल्या हो जैसे;
वैदेही सा फिर तू , न धरा में समाना।
तेरे स्नेह का मोल , किसने है जाना ?
क्यों भटक रहा ,रे पथिक तू दीवाना।
चढ़ा प्रत्यंचा तू , है वीरगति पाना ;
शापित था जीवन, कर्ण को है जाना।
अभिशाप ये कैसा,क्यों दंड तूने पाया;
नियति से ना पूछ, छोड़ उसकी छाया।
- व्याकुल पथिक
बहुत खूब
ReplyDeleteजी धन्यवाद । प्रणाम।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ...भावपूर्ण रचना....।
ReplyDeleteजी धन्यवाद। प्रणाम।
ReplyDeleteअभिशाप ये कैसा,क्यों दंड तूने पाया;
ReplyDeleteनियति से ना पूछ, छोड़ उसकी छाया।
बहुत खूब....सादर नमन
वो ज्ञान की बातें,थी अमृत सी धारा;
ReplyDeleteकहाँ भूल बैठा , वो वैराग्य तुम्हारा।
थी वृक्षों की छाया, था कुएँ का पानी;
छूटा देशअपना,न मिला कोई ठिकाना।
वो पादुका की खटखट,मौनथी वाणी;
कहाँ भूल बैठा, वो श्वेत वस्त्र तुम्हारा।...बेहतरीन रचना शशि भाई
सादर
कर्ण का जीवन, विवशता और झुलसता तप्त जीवन, बिल्कुल ही अलग। उतनी ही अच्छी आपकी अभिव्यक्ति । शुभकामनाएं आदरणीय ।
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति आदरणीय
ReplyDeleteबहुत खूब .....
ReplyDeleteबेहतरीन सृजन आदरणीय
"महाशिवरात्रि" की हार्दिक शुभकामनाएं
बहुत बहुत शानदार अभिव्यक्ति काव्य में भावों को सुंदरता से गूंथ दिया आपने शशि भाई।
ReplyDeleteज्यों ज्यों विज्ञान के साथ अलब्ध की खोज बढती गईं त्यों त्यों मानव स्वार्थी निरकुंश होता गया और शांति से दूर होता गया। विद्या लेने देने का स्वरूप बदला जीवन शैली बदली मूल्य घटते घटते अदृश्य हो गये।
आपकी काव्य पर पकड़ बहुत मजबूत होती जा रही है बधाई।
अप्रतिम लेखन।