जियो और जीने दो
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भगवान महावीर स्वामी की जयंती को दृष्टिगत कर यह लेख मैंने पिछले तीन दिनों से लिख रखा है । आज ब्लॉग पर इसे पोस्ट कर रहा हूँ। यह मेरे मन का एक भाव है। कृपया इसे किसी धर्म अथवा व्यक्ति विशेष पर कटाक्ष न समझें ।
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नगर के संकटमोचन मंदिर मार्ग पर पिछले दिनों सुबह पुनः वध से पूर्व किसी मुर्गे की आखिरी पुकार सुन मेरा हृदय कुछ पसीज सा गया। यह जानते हुये भी कि नियति ने हर प्राणी के लिये मृत्यु दण्ड तय कर रखा है। वह उसी तरह से निष्ठुर है , जिस तरह से कोई वधिक जो कि बकरे का पालन पोषण तो करता है, परंतु अपने हित में उसके गर्दन पर छूरा भी चलाता है, तब उसके हृदय में तनिक भी संवेदना नहीं जगती। बेचारे बकरे को पता भी नहीं चल पाता कि उसके पीठ को सहलाने वाले हाथ कब उसके मुख को जकड़ लेते हैं । मौत का खूंखार पंजा भी ऐसा ही होता है ? इन अबोध जानवरों की तरह हम मनुष्य भी उसे देख - समझ नहीं पाते हैं।
नवरात्र पर्व समाप्त होते ही ,मांस- मछली की दुकानों पर ग्राहकों की पुनः बढ़ी चहल-पहल को देख, वहीं एक प्रश्न फिर से मेरे मन में उठा कि यह कैसे देवी भक्त हैं । यदि वे अपने अधिकांश आराध्य देवों को निरामिष भोज्य सामग्री प्रसाद के रुप में अर्पित करते हैं , स्वयं भी विशेष पर्व और प्रमुख दिनों जैसे मंगलवार, वृहस्पतिवार अथवा शनिवार मांस- मदिरा से दूर रहते हैं, सात्विक आचरण का प्रदर्शन करते हैं। तो सामान्य दिनों में वे ऐसे पदार्थों को ग्रहण कैसे करते हैं। वे जीव हत्या के निमित्त क्यों बनते हैं। उन्हें मांस - मछली खरीदते समय वध के दौरान क्या कभी इन निरीह प्राणियों की करार और छटपटाहट का एहसास नहीं होता है ? अन्य बहुत से धर्मों की बात इसलिये मैं नहीं करता ,क्यों कि वहाँ किसी उपासना पर्व अथवा दिन मांसाहारी भोजन सम्भवतः वर्जित नहीं है। साथ ही कुछ धर्म का मानना है कि मनुष्य को छोड़ अन्य प्राणी में रूह नहीं रहता। लेकिन, हिन्दू धर्म तो चौरासी लाख योनियों की बात करता है। जीवात्मा इनमें भटकती है, फिर पशु वध क्यों ?
मुझे ऐसे लोगों से चिढ़न सी होती है, जो पूजा- पाठ तो खूब करते हैं और विशेष दिनों को छोड़ मांस- मदिरा का सेवन करते हैं।
कालिम्पोंग में था, तब वहाँ एक कश्मीरी पंडित पड़ोस में रहा करते थें। महाराष्ट्र की उनकी पत्नी अत्यंत धार्मिक थीं । लेकिन पति परमेश्वर के लिये मुर्गा पकाया करती थीं। मैं अकसर कहता था उनसे कि क्या अंकल आप भी कितने विचित्र हैं, कभी तो सोचा करें कि आंटी जी को कैसा महसूस होता है। वे चम्मच ,कांटे और चिमटे से किसी तरह से मांस को पकड़ कर उसे पकाया करती थीं। मांस के टुकड़े को हाथ लगाने में उन्हें मानसिक कष्ट पहुंचता था। लेकिन शाम को जब अंकल मस्ती में होते थें, तो कहते थें कि तुम दोनों बिल्कुल पागल हो , कभी टेस्ट कर के देखों इसकी यह टांग , बढ़िया से बढ़िया भोजन भूल जाओगे।
अपनी ही पत्नी की भावनाओं के प्रति उनमें मानो कोई संवेदना थी ही नहीं। बड़े- बुजुर्गों से मैंने भी यही सुना है कि मांसाहारी लोगों के हृदय में वैसी कोमलता, दूसरों के प्रति संवेदना और अन्य प्राणियों के प्रति दया का भाव नहीं रहता है। दूसरों के दर्द और उसके रूदन का वे यह कह उपहास उड़ाते हैं कि खाओ पियो ऐश करो । मुझे नहीं पता ऐसी धारणा में कितनी सच्चाई है।
वहीं , " जीवो जीवस्य भोजनम् " की बात कह मांसभक्षी लोग अकसर ही यह कुतर्क कर बैठते हैं कि इसके लिये तो शास्त्र भी अनुमति देता है।
खैर , मैं भी चुटकी लेता था कि अंकल जी क्यों नहीं फिर इसे प्रसाद के रुप में ठाकुर बाड़ी में चढ़ा आते हैं। आपके भी देवी- देवता प्रसन्न हो जाएँगें न ? और अंकल जी का गुस्सा फिर देखते ही बनता था ।
आज भी मैं अपने ऐसे कुछ मांसाहारी मित्रों से, जो मंगलवार , शनिवार अथवा नवरात्र का नाम लेते हैं, से कहता हूँ कि सत्तर चूहे खा कर बिल्ली बनी भक्तिन ।
हममें यह हँसी- ठिठोली होती रहती है आपस में ।
अपने विंध्यक्षेत्र की बात करूँ, तो जब मानव सभ्यता विकसित नहीं हुई थी। मांसाहार पर ही जीवन निर्वहन करना पड़ता था ,तब पशुओं का वध कर स्थानीय कोल- भील उसे अपने स्थानीय देवी- देवता को अर्पित करने लगे थें। लेकिन, जब मानव सभ्यता- संस्कृति का विकास हुआ और धर्म ग्रंथों की रचना हुई ,तो सात्विक गुणों को मानव जीवन में प्रमुखता दी गयी ।
पशुओं की बलि काली और भैरव को दी जाती है। यह वाममार्गी पूजन बिल्कुल अलग है । इससे जुड़े साधक नवरात्र में महानिशा पूजन करते हैं। वे पंच मकार विधि (मांस , मदिरा, मत्स्य ,मुद्रा, मैथुन) से अपनी अधिष्ठात्री देवी को प्रसन्न करते हैं । वैसे, वाममार्गी उपासना स्थल प्रमुख रूप से 4 हैं . जिन्हें चार सिद्ध पीठ कहा जाता है। जिनमें से राम गया घाट ,विंध्याचल के शिवराम में है। महिवग्राम बिहार में , श्रीरामपुर बंगाल में और मणिकर्णिका घाट वाराणसी का उल्लेख है। यहां रामगया घाट के समीप ही दक्षिणाभिमुख भगवती तारा देवी का मंदिर है ।यह तंत्र साधना स्थल है । यहां गंगा नदी का किनारा , श्मशान भगवती शिवलिंग और बिल्वपत्र भी है एकांत स्थान है। कामरूप कामाख्या माया बंगाल नगरी के बाद विंध्याचल स्थित तारा देवी पीठ , भैरव कुंड एवं काली खोह तंत्र साधना के अद्भुत एवं फलप्रद स्थल हैं । ऐसी मान्यता है कि तारा देवी महालक्ष्मी रूपा विंध्यवासिनी देवी की सेवा करती हुई उनके भक्तों को आकर्षण एवं विकर्षण जैसे अलौकिक एवं तांत्रिक भव बाधाओ से मुक्ति दिलवाती हैं। वाममार्ग में सर्वोत्तम तंत्र श्रीयंत्र को माना जाता है। साधक श्री यंत्र की ज्यामिति रचना करके उसकी विधिवत पूजन करते हैं । वैसे तो प्राचीन काल में निशा पूजन में नरबलि तक की मान्यता थी परंतु अब बकरा, मुर्गा, कबूतर ,नारियल, जायफल, कोहरा आदि की बलि दी जाती है। वैसे , यहाँ विंध्यवासिनी धाम में भी प्रतिदिन एक पशु की बलि आज भी दी जाती है।
बचपन में हम सभी ने सिद्धार्थ( महात्मा बुद्ध ) उनके चचेरे भाई देवदत्त ,जिसके तीर से घायल हंस की कथा पढ़ी ही है। हंस पर जब अधिकार की बात हुई ,तो न्याय मंच पर बैठे राजा ने बालक सिद्धार्थ के इस कथन को स्वीकृति दे दी कि मारने वाले से बचाने वाले का अधिकार अधिक होता है।
आज भी मुझे याद है कि अपने पाठ्य पुस्तक में इस कहानी को पढ़ते समय और उसके चित्र देख मेरी आँखें नम हो आयी थीं। पशुवध चाहे , वह बलि के रूप में ही क्यों न हो मुझे स्वीकार नहीं है। गंभीर रुप से जब अस्वस्थ हुआ तो , यहाँ के सीएमओ जो कि मुझसे स्नेह करते थें , उन्होंने अनेक बार मछली के सेवन को कहा। हमारे मध्य एक अधिकारी और पत्रकार का संबंध नहीं था। अतः वे मुझे स्वस्थ देखना चाहते थें। उनके बहुत कहने पर मैंने अण्डे का सेवन किया ,परंतु अंतरात्मा ने उसे स्वीकार नहीं किया और मैंने निश्चय कर लिया कि अब अण्डा नहीं खाना है। वैसे , तो कोलकाता में जब था,वहाँ लहसुन- प्याज भी वर्जित था। वापस बनारस लौटने पर पिताजी की पिटाई के भय से इनसे निर्मित सब्जी का सेवन करना पड़ा।
मांसाहारी तो वाराणसी में भी मेरे परिवार में कोई नहीं था। मेरा स्पष्ट रुप से मत है कि जब क्षुधापूर्ति के लिये अन्य भोज्य सामग्री उपलब्ध हैं ,तो फिर किसी जीव की हत्या क्यों ?
बचपन में मुझे याद है कि घर में बरसात के मौसम में बड़ी- बड़ी काली चींटियाँ खूब निकला करती थीं। वे हम सभी को कांट लेती थीं। तो दादी उन्हें लकड़ी के एक तख्त से रगड़ - रगड़ कर मार देती थीं। देखा देखी मैं भी तब चीटियों , तितलियों और चूहों को सताने लगा। लेकिन, बचपना समाप्त होते ही मुझे आभास होने लगा कि मैंने इन प्राणियों के साथ उचित नहीं किया। वैसे बाद में भी मैं भयवश कनखजूरे को मार दिया करता था। मुझे लगता है कि भय अथवा क्षुधा के कारण किसी पशु की हत्या और अपने जिह्वा के स्वाद के लिये उसे मारने में अंतर है , फिर भी किसी की हत्या करते समय मन में कठोरता का भाव आना निश्चित है।
प्राचीन काल में जैन तीर्थंकरों ने अहिंसा को केंद्र में रखकर अपने कर्तव्यों का निर्धारण एवं निर्वाह किया। अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर की 17 अप्रैल को जयन्ती है। भगवान महावीर ने अहिंसा को जैन धर्म का आधार बनाया। उन्होंने तत्कालीन हिन्दू समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था का विरोध किया और सबको एक समान मानने पर बल दिया ।उन्होंने " जियो और जीने दो "के सिद्धान्त पर जोर दिया। सबको एक समान नजर में देखने वाले भगवान महावीर अहिंसा और अपरिग्रह के साक्षात मूर्ति थें । वे किसी को भी कोई दु:ख नहीं देना चाहते थें।
भगवान महावीर ने अहिंसा, तप, संयम, पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ती, अनेकान्त, अपरिग्रह एवं आत्मवाद का संदेश दिया। उन्होंने यज्ञ के नाम पर होने वाली पशु-पक्षी एवं नर की बाली का विरोध किया । सभी जाती और धर्म के लोगों को धर्म पालन का अधिकार बतलाया। उन्होंने उस समय जाती-पाति और लिंग भेद को मिटाने के लिए उपदेश दिये।
वैसे तो " अहिंसा परमो धर्मः " इस नीति वचन पर महाभारत के वन पर्व में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। भगवान महावीर एवं महात्मा बुद्ध के बाद महात्मा गांधी को अहिंसा का पुजारी कहा गया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने तो बापू के सम्मान में 2 अक्टूबर को अहिंसा दिवस घोषित कर रखा है। यह "अहिंसा" पशु वध तक सीमित नहीं है , यह एक आदर्श है।
व्यवहार में मानव इसका कितना पालन करता है, इसके लिये उसे परिस्थितियाँ भी जिम्मेदार है, क्यों कि अन्याय का उन्मूलन कर के सत्य पर आधारित धर्म की स्थापना के लिए क्रांति, रक्तपात तथा प्रतिशोध शास्त्र विहित साधन माने गए हैं। इसीलिए बूट्स की तलवार पवित्र है, शिवाजी का बाघनख वंद्य है, इटली की क्रांति का रक्तपात मंगलमय है, विलियम टेल का बाण दिव्य है और चार्ल्स शिरच्छेद सत्कर्म है।
फिर भी ,दया ही धर्म का मूल तत्व है। इससे करुणा और प्रेम का भाव विकसित होता है। जब-तब हम अपनी हंसी ठहाके वाली दुनिया से बाहर निकल दूसरों की पीड़ा को नहीं समझते हैं। इसकी अनुभूति सम्भव नहीं है।
- व्याकुल पथिक
Bhai sb, bahut hi uttam blog jaise mere aur samaj ke ek bade hisse ke man ki anubhootiyon wa peeda ko aap ne bina kathor sabdon ka prayog kiye bahuton ke dil mein bejuban janwaron ke prati daya- bhav jagane wala lekh likha hai.👌🏻🙏🏻
ReplyDeleteटिप्पणीकार एक वरिष्ठ अधिकारी हैं।
आपकी लिखी रचना "मुखरित मौन में" शनिवार 20 अप्रैल 2019 को साझा की गई है......... https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी प्रणाम दी।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर विचार व्याकुल पथिक !
ReplyDeleteमैं दिगंबर जैन हूँ. हमारे घर में मांस-अंडा तो क्या, लहसुन, प्याज़ भी नहीं आता है. किन्तु मैं शुद्ध शाकाहारी होते हुए भी मांसाहारियों की निंदा नहीं करता. दुनिया की जब 90% आबादी मांसाहारी है तो फिर मांसाहार की निंदा करना तो नक्कारे में तूती की आवाज़ जैसी बे-असर होगी.
भगवान महावीर की अहिंसा केवल खान-पान तक सीमित नहीं है. उनकी दृष्टि में हिंसा तो किसी का हक छीनना भी है और धन का अधिक संचय करना भी है. पर-निंदा भी हिंसा है और स्वार्थपरता भी हिंसा है. छल, कपट, विश्वासघात आदि हिंसा के ही विविध प्रकार हैं. 'जियो और जीने दो' का सिद्धांत हमको सिखाता है कि हम अपनी भावनाओं के समान ही दूसरे की भावनाओं का भी सम्मान करें.
ख़ुमार बाराबंकवी ने कहा है -
'फूल, काँटों से निबाह कर लेता है,
आदमी, आदमी से नहीं करता.'
हम दूसरे से निबाह करना यदि सीख लेंगे तो हम भगवान महावीर के सन्देश को भी अपने जीवन में उतार लेंगे.
बहुत-बहुत आभार...आपके बहुमूल्य विचारों ने मन की सारी धुँध हटा दी...हृदयतल से आभारी हूँ शुक्रिया सर।
Deleteनिंदा की बात नहीं है भाई जी, सवाल यह है कि हम हिंदुओं ने ही 84 लाख योनियों में जीवात्मा को माना है।
ReplyDeleteफिर यदि हमारे पास पेट भरने का विकल्प है, तो हम दूसरे प्राणियों की हत्या क्यों करें। सभी में एक ही जीवात्मा है, यही न हिन्दू ग्रंथ बताते हैं। तो कर्म के कारण यदि हमारे पूर्वज भी बकरा, मछली और मूर्गा बन गये हो। और हम उसका भक्षण कर रहे हो , तो यह कितना उचित है।
फिर देवी देवताओं को मांसाहारी प्रसाद क्यों नहीं अर्पित करतें। तब निरामिष की बात क्यों ? इसका मतलब ही यही है कि मन में कहीं कचोट है कि भगवान जी को मांस से निर्मित प्रसाद न चढ़ाया जाए।
मैंने सिर्फ हिन्दू धर्म की बात की है। अन्य कुछ धर्म में पशुओं में रूह नहीं होता। वे भोज्य सामग्री हैं।
मित्र ! अनेकान्तवाद और स्यादवाद जैसे उच्च दर्शन होने के बावजूद जैन धर्म के सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार इसीलिए कम हो सका क्योंकि उनमें त्याग-वैराग्य की जटिलता,दुरूहता अधिक किन्तु लचीलापन कम था. भगवान बुद्ध ने इसीलिए बौद्ध धर्म में मध्यम-मार्ग अपनाया था. देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए तो पशु-बलि ही क्या, नर-बलि तक प्रचलित थी. भगवान जगन्नाथ के रथ के नीचे आकर तो भक्त स्वयं अपनी गर्दन रख देते थे. 19 वीं शताब्दी में लार्ड विलियम बेन्टिंग ने नर-बलि को अपराध घोषित करवाया था.
Deleteअंधकार से संघर्ष करने के लिये सूर्य मौजूद न हो, तो क्या दीपक उसका प्रतिनिधित्व करना छोड़ दे।
Deleteहिंसक लोगों के मध्य ही गांधी जी अहिंसा का पाठ पठाने आये थें।
पहले उनका उपहास हुआ , बाद में वे अहिंसा का पुजारी कहलाए।
परोक्ष रूप से हिंसा का समर्थन करना भी जैन धर्म के विपरीत है।
श्वेता जी आप बताएं कि माँ दुर्गा को मांसाहारी भोज्य सामग्री अर्पित करना पसंद करेंगी ?
ReplyDeleteमैं सिर्फ हिन्दुओं की बात कर रहा हूँ , जिन्होंनेचौरासी योनियों में जीवात्मा को माना है, यानी चोला बस अलग अलग है हमारा। आत्मा एक ही है।
ReplyDeleteReplyDelete
ReplyDeleteमन की वीणा13 April 2019 at 03:35
बहुत सुंदर प्रस्तुति है भाई मन की अकुलाहट और हर प्राणी के प्रति करूणा सुंदर संदेश है ।बस जीभ के क्षणिक स्वाद के लिये कितने बेरहम हो जाता है इंसान। ज्यों ज्यों व्यक्ति मांसाहार की तरफ बढ़ता है उसके अंदर की कोमल भावनाएं खत्म होती जाती है।
बहुत प्रेरणा दाई रचना ।
ReplyDeleteरेणु12 April 2019 at 10:13
बहुत खूब प्रिय शशि भाई | सार्थक रचना के जरिये आपने उन दोहरे चरित्र वाले भक्तों को आईना दिखा दिया जो केवल कुछ दिनों के लिए बगुले भक्त बन पशु पक्षियों के लिए करुणा और स्नेह का दिखावा करते हैं |और अंत में इन्ही अनबोल प्राणियों को भुनकर खाने से नहीं हिचकते | जीवन देने और लेने का अधिकार मात्र ईश्वर का है इन्सान को नहीं | नवरात्रों में तो इन कथित भक्तों चरम पर होती है | भावपूर्ण रचना के लिए आपको शुभकामनायें | राम नवमी और माँ भगवती की पावन अष्टमी आपके लिए शुभता भरी हो | सस्नेह --
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल गुरुवार (21-02-2019) को "कवच की समीक्षा" (चर्चा अंक-3309) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी प्रणाम शास्त्री सर , धन्यवाद।
ReplyDeleteपिछली टिप्पणी में दिनांक गलत लिखी गयी थी। इसलिए दुसरा कमेंट कना पड़ा।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल गुरुवार (18-04-2019) को "कवच की समीक्षा" (चर्चा अंक-3309) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 17/04/2019 की बुलेटिन, " मिडिल क्लास बोर नहीं होता - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteसार्थक लेखन हेतु बधाई स्वीकार करें ।
ReplyDeleteजी धन्यवाद भाई साहब
ReplyDeleteप्रिय शशि भाई -- सबसे पहले देर से उपस्थिति के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ | यूँ तो मैं अपनी बात आपकी पिछली पोस्ट पर लिख चुकी और उस पर अडिग हूँ | मेरी बात किसी को निजी रूप से आहत करने के लिए नहीं है |यदि किसी को दुःख पहुंचा हो तो ह्रदय से क्षमा प्रार्थी हूँ | धर्म और संस्कृति के परिपेक्ष्य में आपने मांसाहार पर बहुत ही भावपूर्ण चिंतन किया है | सबसे पहले तो ये बात कहना चाहती हूँ कि मैं कोई ज्ञानी नहीं और ना ही ऐसे विषयों पर बहुत जानकारी रखती हूँ पर जैसा कि आदरणीय गोपेश जी ने लिखा है कि संसार की 90 प्रतिशत आबादी मांसाहार पर आश्रित है और किसी को अधिकार नहीं कि कोई किसी के खानपान पर ऊँगली उठाये क्योकि आहार प्राय काल और परिस्थितयों पर आधारित रहा है | |पर ये बात जरुर कहना चाहूंगी कि हर दौर में सनातन संस्कृति के अहिंसा के सिद्दांत ने मूक प्राणियों की भोजन के निमित्त हत्याओं पर अनगिन मनों में करुणा जगाई है |सबको मांसाहार से रोकने की सामर्थ्य किसी में नहीं पर कुछ लोग किसी प्रेरणा वश जरुर शाकाहार की ओर मुड़े हैं | उन्होंने अबोले प्राणियों की पीड़ा को समझा है | यहाँ तक कि रावण ने भी बलि प्रथा का विरोध किया था
ReplyDeleteभगवान् बुद्ध और भगवान महावीर से लेकर , महात्मा गाँधी इत्यादि ने मानवता को अहिंसा का संदेश दिया जिसका अर्थ व्यापक था जिसमें पशु पक्षियों की ह्त्या से लेकर शाब्दिक हिंसा तक का निषेध था | क्योंकि शब्दों से जानबूझ कर किसी को जीवन भर का घाव देना किसी जघन्य अपराध से कम नहीं |तो वहीँ अपनी पूजा की सफलता के लिए मूक प्राणी की बलि को कौन उचित ठहराएगा |सुप्रसिद्ध लेखिका तसलीमा नसरीन ने भी अपने लेखन में धर्म में कुर्बानी की प्रथा की घोर निंदा की है और अपने लेखों और विचारों के जरिये लोगों को निरीह प्राणियों की हत्या के प्रति करुणा जगाने का प्रयास किया है |
इसके अलावा अन्तरिक्ष परी कल्पना चावला के सुसंस्कृत व्यक्तित्व और शाकाहार के तर्कों के आगे नत होकर उनके विदेशी पति -- जो कि घोर मांसाहारी थे -- ने हमेशा के लिए शाकाहार को अपना लिया था | मेरा खुद का अनुभव है मेरे मायके में मांसाहार नितांत वर्जित है तो शादी के बाद पतिदेव को मांसाहार का शौक़ीन पाया हालाँकि यहाँ भी रसोई में कभी नहीं बनाया गया | पर शादी के कुछ ही दिन बाद पतिदेव ने स्वयम ही किसी ग्लानिवश मांसाहार को सदा के लिए त्याग दिया |इसी तरह ऐसे लेख विशुद्ध रूप से इसी तरह की प्रेरणा जगाने के लिए लिखे जाते हैं नाकि निजी आरोप प्रत्यारोप के लिए || बाकी तो सबकी अपनी इच्छा और शौक पर निर्भर है | मैंने भी अपने आसपास ऐसे लोगों को देखा है जो खूब पूजा पाठ करते हैं और पूजा पाठ की अवधि में पूर्णतः सात्विक आहार पर निर्भर रहते हैं पर अपने दूसरे आहार के लिए आकुल व्याकुल देखे जा सकते हैं | इसका अर्थ ये बिलकुल नहीं कि उनकी पूजा में खोट है | और रही लाख चौरासी योनियों के भुगतान की जो करे वो ही जाने | कबीर जी ने भी यही कहकर पल्ला झाड़ लिया था --
"कबीरा तेरी झोपडी, गल कटीयन के पास |
जैसी करनी वैसे भरनी, तू क्यों भया उदास |
सार्थक लेख |
ReplyDeleteसादर
अधिदर्शक जी: Shashi bhai ,aapka prose
ReplyDeleteAapki poetry se bhi adhik
shandar hai, Mahavir jayanti par aapka lekh parha,itni Pratibha Kahan
chhipa kar Rakhi thi aapne,?
Shashi you are great,too
good in comparison of
so many well estlibshed
Ones ,keep it up brother.
रेणु दी और अनिता बहन आप दोनों का बहुत बहुत आभार।
ReplyDeleteमैं खुश हूँँ, क्योंं कि मेरे इस लेख का सार्थक प्रभाव हमारे एक-दो मित्रों पर पड़ा है।
बेहतरीन लेख लिखा आपने 👌👌
ReplyDelete
ReplyDeleteव्याकुल पथिक20 April 2019 at 20:37
[21/04, 08:56] प्रदीप मिश्रा: शशि जी आज आपके ब्लॉग में अनेक लेख जी आपने लिखे हैं को विधिवत पढ़ा।विशेषतः महावीर जयंती और मुख्यमंत्री के नाम एक निरीह पशु की पाती ने अंदर से मर्माहत कर दिया।आप कलम के सिपाही हैं और जो जिम्मेवारी आपको मिली है नियति अनुसार आप बखूबी उसका पालन भी कर रहे हैं,और ऐसे लोगों की राह बड़ी मुश्किल भी होती है किन्तु अपने नैतिक कर्तव्य की पूर्ति करके जो आत्म सन्तुष्टि मिलती है वह उस कठिन मार्ग पर भी आगे बढ़ते रहने की ऊर्जा प्रदान करती है।जीवन तो सभी जीते हैं किन्तु प्रश्न यह है कि कैसे जीते हैं?एक तरफ लुभावन सस्ती लोकप्रियता और क्या अकेले मेरे संघर्ष से समाज बदल जाएगा? की भावना है और दूसरी तरफ बूँद,बूँद से सागर बनता है, तिनके,तिनके से रामसेतु बनेगा(गिलहरी की कर्तव्यशीलता) की भावना है।आपने राम की गिलहरी वाली भावना को अपने जीवन का ध्येय पथ बनाया है।मशहूर कवि दुष्यंत कुमार की लाइनें हैं*** तुम्हारे पाँवों के नीचे कोई जमीं नहीं,कमाल है कि फिर भी तुम्हें यकीं नहीं।मै बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूँ, मै इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं।पुनः कोटिशः धन्यवाद,अपनी लेखनी को स्याही की अंतिम बूंदों तक यूँ ही चलाते रहें।ॐ शांति👌👍🙏
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प्रदीप मिश्रा जी प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में आध्यात्मिक शिक्षक/ रेनबो पब्लिक स्कूल, विन्ध्याचल का प्रबन्धक भी हैं।
आपका हृदय से आभार।
पर्यूषण पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं,क्षमा व्यक्ति के
ReplyDeleteचरित्र का आभूषण है लेकिन अत्याचार का विरोध करने
की सामर्थ्य भी व्यक्ति में होनी चाहिए।अन्यथा क्षमा
कायरता में परिवर्तित हो जाती है। बहुत ही सुन्दर आलेख।
जी आपने सत्य कहा दी
ReplyDeleteअत्यंत प्रासंगिक लेख
ReplyDeleteयथार्थ काल का दर्पण
जी आपका आभार।
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति , आपको बहुत बहुत बधाई ज्योत्सना मिश्रा
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