श्रम का यह कैसा उपहास !
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काश ! कोई जुगाड़ अपना भी होता कि मैं भी सांताक्लॉज जैसा बन जाता और मेरी झोली में ऐसा कुछ होता कि बिन बताएँ इनका सहयोग करते हुये ,अपनी निजी वेदना को भुला कर यह गुनगुनाते फिरता-
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मैं बाजीराव कटरा स्थित अपने आशियाने( होटल ) के ठीक सामने प्रिय मित्र घनश्याम जी की दुकान पर चाय पी रहा था। इस प्रंचड गर्मी में समाचार संकलन के लिये कलेक्ट्रेट, कचहरी,एसपी दफ्तर, अस्पताल और पोस्टमार्टम हाउस का चक्कर मारने के बाद पूरे पांच घंटे मोबाइल पर आँखें फोड़ होमवर्क कर लौटा था । सो , मित्र महोदय के यह कहने पर कि लोहा लोहे को काटता है,चाय पीने ठहर गया।
तभी एक युवक फटे- पुराने वस्त्रों में एक हाथ ऊपर किये, जिसकी उंगलियों मेंं ढेर सारे रंग बिरंगे चाबी का गुच्छे लटके हुये थें , सामने से गुजरा। दिन भर उसने पैदल ही नगर की गलियों में आवाज लगायी थी। उसका मलीन चेहरे इस बात का गवाह था कि अच्छे दिन लाने का, जो सब्जबाग देश की जनता को आजादी के बाद से दिखाया जा रहा है, उसका सच क्या है ?
किसी ने गरीबी हटाने की बात की , अब उसके वंशज गरीबी मिटाने के लिये 72 हजार रुपये सालाना आमदनी की प्लानिंग लेकर आये हैं। चुनाव है न साहेब , तो सियासी बिसात पर लोकलुभावने वायदों का महल खड़ा किया जा रहा है, एक बार फिर से ताकि वोटों की फसल अच्छी रहे।
खैर गरीबी के मामले में सुदामा का प्रतिविम्ब लग रहे इस व्यक्ति ने जेब को टटोला। जो एक पांच का सिक्का निकला , उससे उसने भी चाय पी अपने पेट की भूख शांत की। ब्रेड- ,मक्खन खाने वालों की तरफ निगाहें उठा कर देखा तक नहीं। सम्भवतः गरीबी की आग में उसने अपनी इन इच्छाओं को तपा कर मिटा लिया हो ,यह भी हो सकता है कि उसे अपनी बीवी - बच्चों की याद आ रही हो कि वे भी तो सूखी रोटियों से ही काम चला रहे हैं।
मुझे अनुभूति है, जब करीब 27 वर्ष पूर्व मैं कालिम्पोंग से दूसरी बार अपने घर वाराणसी वापस लौटा था। बेरोजगार था , तो ठंडा पानी अथवा चाय पी कर इसी तरह से कितने ही दिनों भूख पर लगाम लगाता था।
घनश्याम भाई ,जिनकी छोटी सी दुकान है, पर हैं दिल के अमीर , ने कहा कि देखें श्रम का यह कैसा उपहास है । दिन भर यह व्यक्ति इसी तरह एक हाथ ऊपर किये चाबी के गुच्छों को झुलाये फटफटा रहा है। क्या हाथ दर्द नहीं करता होगा ? परंतु पूरी निष्ठा के साथ किये गये श्रम के प्रतिदान में उसे क्या मिला ? किसी- किसी दिन तो वह सौ रुपये भी नहीं कमा पाता है।
तभी उधर से एक भिखारी गुजरा। उसने कटोरा बढ़ाया एक- दो के सिक्के आने लगे उसने। इसके बाद सामने पेड़ के नीचे अपनी पोटली खोल वह तरमाल ( कचौड़ी एवं मिठाई ) गटकने लगा। बाबू- भैया कर यह भिखारी रोजाना सौ- डेढ़ सौ की आमदनी कर लेता है साथ ही भोजन अलग से ।
एक बूढ़ी काकी प्रतिदिन उस ठेलागाड़ी को धक्का दे, सड़क किनारे ले जाती है। जिसके टायर फटे हैं। उस पर जगह-जगह रस्सी लिपटी है। ऐसे ठेले को किस तरह से वह ढकेलती होगी , कभी आप भी हाथ लगा कर देखें न..।
वह इस पर खीरा रख कर बेचती है । एक और बूढ़ी मैया शहर कोतवाली के मोड़ पर एक छोटे से परात में पापड़ रख दिन भर बैठी रहती है। मुझे आलू के पापड़ पसंद है। सो, वहाँ ठहर जाता हूँ। डबडबाई आँखों से बुढ़िया माँ बार-बार बिक्री के उन चंद सिक्कों को सहेजते रहती है। वह कहती है - " बेटवा , तेल, आलू और जलावन लकड़ी सब का दाम बढ़ गया है। महंगाई सुरसा डाइन बनी खड़ी है। लेकिन, बिक्री घट गयी है। अब बच्चे पैकेट वाला कुरकुरे खाते हैं। बेटा कुछ दूसरा काम हो तो बता न।"
क्या उत्तर दूँ इस वृद्ध माता को, यह कि अच्छे दिन आ गये हैं। हमारे राष्ट्र के कर्णधार तो यही कहते हैं कि तस्वीर बदल गयी है। अभी पिछले ही दिनों एक सम्पन्न किसान पड़ोसी जनपद से कुछ मजदूरों को फसल काटने लाया था। उसमें एक किशोरी भी थी। यौवन का सौंदर्य भला गरीबी में भी कहाँ छिपता है। लेकिन, किसान की कामाग्नि ने इस मज़दूर बाला को फूल बनने से पूर्व ही राख में तब्दील कर दी है। अब कानून व्यवस्था अपेक्षाकृत कुछ सख्त है । अतः ऐसे मामलों में मुकदमा कायम हो भी जाता है। अन्यथा ग्रामीण क्षेत्रों में पेट की आग ने कितनी ही महिला मज़दूरों के अस्मत का सौदा किया है। सहमति से नहीं बात बनी तो जोर जबर्दस्ती भी। कुछ फार्म हाउस ऐसे ही अय्याशी के ठिकाने थें। नारीशक्ति जहाँ अबला नारी बनी पांव तले कुचली जाती रही । क्या इन सभी मज़दूरों के श्रम का यही पुरस्कार है ?
परिश्रम एवं पुरुषार्थ को लेकर बड़ी- बड़ी बातें तो होती हैं, परंतु नियति के समक्ष वह विवश है। जब कभी क्रांतिदूत जन्म लेते हैं, तो वे अवश्य प्रतिकार करते हैं । हिंसक या अहिंसक माध्यम जो भी हो । वे बलिदान भी देते हैं। लेकिन, उनके संघर्ष पर यह गरीबी बार-बार मजबूरी बन पर्दा करती रहती है।
काश! कभी सत्ता में शीर्ष पर बैठे ये राजनेता अपने लग्जरी वाहन से नीचे उतर, सिपहसालारों को पीछे छोड़ , दबे कदम गरीबी की प्रतिमूर्ति इन सजीव पात्रों की दिनचर्या पर दृष्टि डालते और फिर कुम्भकर्णी निद्रा में सो रही अपनी संवेदना को बलात जगाते , तब उन्हें समझ में आता कि देश से गरीबी हटाने में वे कितना सफल हुये हैं। विडंबना यह है कि वे तो सरकारी कागजों पर गरीबों को मिटा रहे हैं।
ये रहनुमा बड़े तामझाम के साथ किसी दलित के घर भोजन कर मीडिया के माध्यम से हीरो तो बन जाते हैं। लेकिन कभी किसी गरीब मज़दूर के घर बिन बुलाये मेहमान की तरह पहुँच कर उसका बटुआ नहीं टटोलते हैं । जिससे उन्हें पता चल सके कि शाम के भोजन के लिये उसके पास क्या व्यवस्था है।
बीते सप्ताह श्रमिक दिवस (1 मई ) से एक बार पुनः मैं अपने चिन्तन- मंथन से उस अमृत कलश की खोज में जुटा हूँ ,जो तमाम मजदूरों के चेहरे पर खुशी, संतुष्टि, आत्मनिर्भरता और आत्मा सम्मान का भाव ला सके।
इस बार लोकसभा चुनाव होने के कारण जिला मुख्यालय पर सन्नाटा छाया था, अन्यथा पूर्व के वर्षों में यहाँ कलेक्ट्रेट में खासी गहमा गहमी रहती थी। श्रमिकों के दो वर्ग यहाँ दिखते थें। आम भाषा में इन्हें सरकारी एवं गैर सरकारी श्रमिक कहा जाता है। सरकारी नौकरियों में हैं, उनको तो मोटी तनख्वाह मिलती है। ऐसे चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी को मैं मज़दूर नहीं मानता और वे मजबूर भी नहीं है। उनका यूनियन बड़ा ही शक्तिशाली है।
मजदूर को लेकर एक बात मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि ऐसे लोग जो सरकार से बढ़िया वेतन पा रहे हैं । दिन भर सुरती मला करते हैं या अपने मुंह में पान घुलाएँ रहते हैं, उन्हें श्रमिक कहूँ अथवा ऊपर जिन पात्रों पर प्रकाश डाला है उनको ?
एक और तबका है , जिनके श्रम का उपहास होता है। आप ने दुकानों पर सेल्समैन तो देखा है न ? वह सुबह साढ़े नौ बजे अपनी ड्यूटी पर आ जाता है और छुट्टी नौ बजे के बाद ही मिलनी है। इनका वेतन पाँच हजार के आसपास है।
उच्च शीक्षा प्राप्त अनेक अध्यापक भी साधारण विद्यालयों में लगभग इतना ही तनख्वाह पाते हैं। ऊपर से विद्यालय प्रशासक इतना सख्त होता है कि कुर्सी पर बैठने की जगह ब्लैकबोर्ड के समक्ष खड़े - खड़े ही पूरा समय गुजरता है।
ऐसे निम्न- मध्य वर्ग के लोग महत्वाकांक्षी होते हैं। अपने परिवार को खुशहाल रखने के लिये कोचिंग अथवा घर- घर जाकर बच्चों क़ पढ़ाते हैं,फिर भी दस हजार रुपये के आसपास ही इनकी आमदनी होती है।
इनके परिश्रम का भी यह कैसा उपहास है की सरकारी प्राथमिक पाठशालाओं में शिक्षक का वेतन जहाँ करीब चालीस है और इनका पांच हजार। फिर क्यों कहा जाता है कि यह संसार परिश्रम का है।
मेरे जैसे जनपद स्तरीय अन्य श्रमजीवी पत्रकारों, जिनके पास आजीविका के लिये अतिरिक्त आर्थिक स्त्रोत नहीं है,उनकी दयनीय स्थिति को पर्दे में ही रहने दें , तो बेहतर है। कहने को हम मान्यता प्राप्त पत्रकार हैं। परंतु यदि इधर- उधर से धन का जुगाड़ न करें न, तो फिर पारिवारिक कर्तव्यों की पूर्ति सम्भव नहीं है। इसी भय ने युवावस्था में मुझे वैवाहिक बंधन से मुक्त रखा। यह कैसा चौथा स्तंभ है ? अन्य तीन खम्भे तो द्वारिकाधीश की तरह वैभव सम्पन्न हैं और यह सुदामा बना उसी कृष्ण के द्वार पर नतमस्तक है । एक शासक के रुप में जिसके गुण- दोष की उसे समीक्षा करनी है। लेकिन वह तो मित्रता और सहयोग की उम्मीद लिये वहाँ पहुँचा है ?
फिर भी पुरुषार्थ की यह तारीफ शास्त्रों में वर्णित है कि
ललाट पर लिखे विधि के लेखों को धोने की क्षमता तुम्हारे ललाट के पसीने की बूँदों में ही है। मैं तो यही कहूँगा कि जीवित रहते न सही कम से कम मृत्यु के पश्चात तो पुरुषार्थ करने वाले को सम्मान मिले।
राजनीति में दिन प्रतिदिन निष्ठावान, कर्मठ और ईमानदार कार्यकर्ताओं का अभाव क्यों हो रहा है , इसीलिये न कि हमारी नयी पीढ़ी यह समझ चुकी है कि चुनाव लड़ने के लिये टिकट प्राप्त करने का अब यह पैमाना नहीं रहा। यहाँ, तो दलबदलुओं, दागदार और जातीय- मजहबी भावनाओं को आहत करने वाले सफेदपोश बन झटपट जनप्रतिनिधि बन जा रहे हैं। वे जनता की अदालत में अपने जुगाड़ तंत्र का डंका बजाते हुये सर्वोच्च सदन तक पहुँच जाते हैं। वे ही हमारे माननीय हैं अब । हमारे पथप्रदर्शक हैं।
इस व्यवस्था को हम कैसे बदल पाएँगे ? इस बार भी चुनाव में एक-एक उम्मीदवार कितने ही करोड़ रुपया खर्च कर रहा है। लेकिन, इस अभागे चाभी के गुच्छे बेचने वाले इंसान को एक कुल्हड़ चाय पीने के लिये जेब टटोलना पड़ रहा है।
काश ! कोई जुगाड़ अपना भी होता कि मैं भी सांताक्लॉज जैसा बन जाता और मेरी झोली में ऐसा कुछ होता कि बिन बताएँ इनका सहयोग करते हुये ,अपनी निजी वेदना को भुला कर यह गुनगुनाते फिरता-
मधुबन खुशबू देता है, सागर सावन देता है
जीना उसका जीना है, जो औरों को जीवन देता है..।
जिस स्नेह को पाने से मैं वंचित रह गया और न कभी किसी ने मेरे उस स्नेह को समझा । उसे ऐसे लोगों में बांट पाता। फिर जीवन अपना सफल कर जाता !
-व्याकुल पथिक
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काश ! कोई जुगाड़ अपना भी होता कि मैं भी सांताक्लॉज जैसा बन जाता और मेरी झोली में ऐसा कुछ होता कि बिन बताएँ इनका सहयोग करते हुये ,अपनी निजी वेदना को भुला कर यह गुनगुनाते फिरता-
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मैं बाजीराव कटरा स्थित अपने आशियाने( होटल ) के ठीक सामने प्रिय मित्र घनश्याम जी की दुकान पर चाय पी रहा था। इस प्रंचड गर्मी में समाचार संकलन के लिये कलेक्ट्रेट, कचहरी,एसपी दफ्तर, अस्पताल और पोस्टमार्टम हाउस का चक्कर मारने के बाद पूरे पांच घंटे मोबाइल पर आँखें फोड़ होमवर्क कर लौटा था । सो , मित्र महोदय के यह कहने पर कि लोहा लोहे को काटता है,चाय पीने ठहर गया।
तभी एक युवक फटे- पुराने वस्त्रों में एक हाथ ऊपर किये, जिसकी उंगलियों मेंं ढेर सारे रंग बिरंगे चाबी का गुच्छे लटके हुये थें , सामने से गुजरा। दिन भर उसने पैदल ही नगर की गलियों में आवाज लगायी थी। उसका मलीन चेहरे इस बात का गवाह था कि अच्छे दिन लाने का, जो सब्जबाग देश की जनता को आजादी के बाद से दिखाया जा रहा है, उसका सच क्या है ?
किसी ने गरीबी हटाने की बात की , अब उसके वंशज गरीबी मिटाने के लिये 72 हजार रुपये सालाना आमदनी की प्लानिंग लेकर आये हैं। चुनाव है न साहेब , तो सियासी बिसात पर लोकलुभावने वायदों का महल खड़ा किया जा रहा है, एक बार फिर से ताकि वोटों की फसल अच्छी रहे।
खैर गरीबी के मामले में सुदामा का प्रतिविम्ब लग रहे इस व्यक्ति ने जेब को टटोला। जो एक पांच का सिक्का निकला , उससे उसने भी चाय पी अपने पेट की भूख शांत की। ब्रेड- ,मक्खन खाने वालों की तरफ निगाहें उठा कर देखा तक नहीं। सम्भवतः गरीबी की आग में उसने अपनी इन इच्छाओं को तपा कर मिटा लिया हो ,यह भी हो सकता है कि उसे अपनी बीवी - बच्चों की याद आ रही हो कि वे भी तो सूखी रोटियों से ही काम चला रहे हैं।
मुझे अनुभूति है, जब करीब 27 वर्ष पूर्व मैं कालिम्पोंग से दूसरी बार अपने घर वाराणसी वापस लौटा था। बेरोजगार था , तो ठंडा पानी अथवा चाय पी कर इसी तरह से कितने ही दिनों भूख पर लगाम लगाता था।
घनश्याम भाई ,जिनकी छोटी सी दुकान है, पर हैं दिल के अमीर , ने कहा कि देखें श्रम का यह कैसा उपहास है । दिन भर यह व्यक्ति इसी तरह एक हाथ ऊपर किये चाबी के गुच्छों को झुलाये फटफटा रहा है। क्या हाथ दर्द नहीं करता होगा ? परंतु पूरी निष्ठा के साथ किये गये श्रम के प्रतिदान में उसे क्या मिला ? किसी- किसी दिन तो वह सौ रुपये भी नहीं कमा पाता है।
तभी उधर से एक भिखारी गुजरा। उसने कटोरा बढ़ाया एक- दो के सिक्के आने लगे उसने। इसके बाद सामने पेड़ के नीचे अपनी पोटली खोल वह तरमाल ( कचौड़ी एवं मिठाई ) गटकने लगा। बाबू- भैया कर यह भिखारी रोजाना सौ- डेढ़ सौ की आमदनी कर लेता है साथ ही भोजन अलग से ।
एक बूढ़ी काकी प्रतिदिन उस ठेलागाड़ी को धक्का दे, सड़क किनारे ले जाती है। जिसके टायर फटे हैं। उस पर जगह-जगह रस्सी लिपटी है। ऐसे ठेले को किस तरह से वह ढकेलती होगी , कभी आप भी हाथ लगा कर देखें न..।
वह इस पर खीरा रख कर बेचती है । एक और बूढ़ी मैया शहर कोतवाली के मोड़ पर एक छोटे से परात में पापड़ रख दिन भर बैठी रहती है। मुझे आलू के पापड़ पसंद है। सो, वहाँ ठहर जाता हूँ। डबडबाई आँखों से बुढ़िया माँ बार-बार बिक्री के उन चंद सिक्कों को सहेजते रहती है। वह कहती है - " बेटवा , तेल, आलू और जलावन लकड़ी सब का दाम बढ़ गया है। महंगाई सुरसा डाइन बनी खड़ी है। लेकिन, बिक्री घट गयी है। अब बच्चे पैकेट वाला कुरकुरे खाते हैं। बेटा कुछ दूसरा काम हो तो बता न।"
क्या उत्तर दूँ इस वृद्ध माता को, यह कि अच्छे दिन आ गये हैं। हमारे राष्ट्र के कर्णधार तो यही कहते हैं कि तस्वीर बदल गयी है। अभी पिछले ही दिनों एक सम्पन्न किसान पड़ोसी जनपद से कुछ मजदूरों को फसल काटने लाया था। उसमें एक किशोरी भी थी। यौवन का सौंदर्य भला गरीबी में भी कहाँ छिपता है। लेकिन, किसान की कामाग्नि ने इस मज़दूर बाला को फूल बनने से पूर्व ही राख में तब्दील कर दी है। अब कानून व्यवस्था अपेक्षाकृत कुछ सख्त है । अतः ऐसे मामलों में मुकदमा कायम हो भी जाता है। अन्यथा ग्रामीण क्षेत्रों में पेट की आग ने कितनी ही महिला मज़दूरों के अस्मत का सौदा किया है। सहमति से नहीं बात बनी तो जोर जबर्दस्ती भी। कुछ फार्म हाउस ऐसे ही अय्याशी के ठिकाने थें। नारीशक्ति जहाँ अबला नारी बनी पांव तले कुचली जाती रही । क्या इन सभी मज़दूरों के श्रम का यही पुरस्कार है ?
परिश्रम एवं पुरुषार्थ को लेकर बड़ी- बड़ी बातें तो होती हैं, परंतु नियति के समक्ष वह विवश है। जब कभी क्रांतिदूत जन्म लेते हैं, तो वे अवश्य प्रतिकार करते हैं । हिंसक या अहिंसक माध्यम जो भी हो । वे बलिदान भी देते हैं। लेकिन, उनके संघर्ष पर यह गरीबी बार-बार मजबूरी बन पर्दा करती रहती है।
काश! कभी सत्ता में शीर्ष पर बैठे ये राजनेता अपने लग्जरी वाहन से नीचे उतर, सिपहसालारों को पीछे छोड़ , दबे कदम गरीबी की प्रतिमूर्ति इन सजीव पात्रों की दिनचर्या पर दृष्टि डालते और फिर कुम्भकर्णी निद्रा में सो रही अपनी संवेदना को बलात जगाते , तब उन्हें समझ में आता कि देश से गरीबी हटाने में वे कितना सफल हुये हैं। विडंबना यह है कि वे तो सरकारी कागजों पर गरीबों को मिटा रहे हैं।
ये रहनुमा बड़े तामझाम के साथ किसी दलित के घर भोजन कर मीडिया के माध्यम से हीरो तो बन जाते हैं। लेकिन कभी किसी गरीब मज़दूर के घर बिन बुलाये मेहमान की तरह पहुँच कर उसका बटुआ नहीं टटोलते हैं । जिससे उन्हें पता चल सके कि शाम के भोजन के लिये उसके पास क्या व्यवस्था है।
बीते सप्ताह श्रमिक दिवस (1 मई ) से एक बार पुनः मैं अपने चिन्तन- मंथन से उस अमृत कलश की खोज में जुटा हूँ ,जो तमाम मजदूरों के चेहरे पर खुशी, संतुष्टि, आत्मनिर्भरता और आत्मा सम्मान का भाव ला सके।
इस बार लोकसभा चुनाव होने के कारण जिला मुख्यालय पर सन्नाटा छाया था, अन्यथा पूर्व के वर्षों में यहाँ कलेक्ट्रेट में खासी गहमा गहमी रहती थी। श्रमिकों के दो वर्ग यहाँ दिखते थें। आम भाषा में इन्हें सरकारी एवं गैर सरकारी श्रमिक कहा जाता है। सरकारी नौकरियों में हैं, उनको तो मोटी तनख्वाह मिलती है। ऐसे चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी को मैं मज़दूर नहीं मानता और वे मजबूर भी नहीं है। उनका यूनियन बड़ा ही शक्तिशाली है।
मजदूर को लेकर एक बात मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि ऐसे लोग जो सरकार से बढ़िया वेतन पा रहे हैं । दिन भर सुरती मला करते हैं या अपने मुंह में पान घुलाएँ रहते हैं, उन्हें श्रमिक कहूँ अथवा ऊपर जिन पात्रों पर प्रकाश डाला है उनको ?
एक और तबका है , जिनके श्रम का उपहास होता है। आप ने दुकानों पर सेल्समैन तो देखा है न ? वह सुबह साढ़े नौ बजे अपनी ड्यूटी पर आ जाता है और छुट्टी नौ बजे के बाद ही मिलनी है। इनका वेतन पाँच हजार के आसपास है।
उच्च शीक्षा प्राप्त अनेक अध्यापक भी साधारण विद्यालयों में लगभग इतना ही तनख्वाह पाते हैं। ऊपर से विद्यालय प्रशासक इतना सख्त होता है कि कुर्सी पर बैठने की जगह ब्लैकबोर्ड के समक्ष खड़े - खड़े ही पूरा समय गुजरता है।
ऐसे निम्न- मध्य वर्ग के लोग महत्वाकांक्षी होते हैं। अपने परिवार को खुशहाल रखने के लिये कोचिंग अथवा घर- घर जाकर बच्चों क़ पढ़ाते हैं,फिर भी दस हजार रुपये के आसपास ही इनकी आमदनी होती है।
इनके परिश्रम का भी यह कैसा उपहास है की सरकारी प्राथमिक पाठशालाओं में शिक्षक का वेतन जहाँ करीब चालीस है और इनका पांच हजार। फिर क्यों कहा जाता है कि यह संसार परिश्रम का है।
मेरे जैसे जनपद स्तरीय अन्य श्रमजीवी पत्रकारों, जिनके पास आजीविका के लिये अतिरिक्त आर्थिक स्त्रोत नहीं है,उनकी दयनीय स्थिति को पर्दे में ही रहने दें , तो बेहतर है। कहने को हम मान्यता प्राप्त पत्रकार हैं। परंतु यदि इधर- उधर से धन का जुगाड़ न करें न, तो फिर पारिवारिक कर्तव्यों की पूर्ति सम्भव नहीं है। इसी भय ने युवावस्था में मुझे वैवाहिक बंधन से मुक्त रखा। यह कैसा चौथा स्तंभ है ? अन्य तीन खम्भे तो द्वारिकाधीश की तरह वैभव सम्पन्न हैं और यह सुदामा बना उसी कृष्ण के द्वार पर नतमस्तक है । एक शासक के रुप में जिसके गुण- दोष की उसे समीक्षा करनी है। लेकिन वह तो मित्रता और सहयोग की उम्मीद लिये वहाँ पहुँचा है ?
फिर भी पुरुषार्थ की यह तारीफ शास्त्रों में वर्णित है कि
ललाट पर लिखे विधि के लेखों को धोने की क्षमता तुम्हारे ललाट के पसीने की बूँदों में ही है। मैं तो यही कहूँगा कि जीवित रहते न सही कम से कम मृत्यु के पश्चात तो पुरुषार्थ करने वाले को सम्मान मिले।
राजनीति में दिन प्रतिदिन निष्ठावान, कर्मठ और ईमानदार कार्यकर्ताओं का अभाव क्यों हो रहा है , इसीलिये न कि हमारी नयी पीढ़ी यह समझ चुकी है कि चुनाव लड़ने के लिये टिकट प्राप्त करने का अब यह पैमाना नहीं रहा। यहाँ, तो दलबदलुओं, दागदार और जातीय- मजहबी भावनाओं को आहत करने वाले सफेदपोश बन झटपट जनप्रतिनिधि बन जा रहे हैं। वे जनता की अदालत में अपने जुगाड़ तंत्र का डंका बजाते हुये सर्वोच्च सदन तक पहुँच जाते हैं। वे ही हमारे माननीय हैं अब । हमारे पथप्रदर्शक हैं।
इस व्यवस्था को हम कैसे बदल पाएँगे ? इस बार भी चुनाव में एक-एक उम्मीदवार कितने ही करोड़ रुपया खर्च कर रहा है। लेकिन, इस अभागे चाभी के गुच्छे बेचने वाले इंसान को एक कुल्हड़ चाय पीने के लिये जेब टटोलना पड़ रहा है।
काश ! कोई जुगाड़ अपना भी होता कि मैं भी सांताक्लॉज जैसा बन जाता और मेरी झोली में ऐसा कुछ होता कि बिन बताएँ इनका सहयोग करते हुये ,अपनी निजी वेदना को भुला कर यह गुनगुनाते फिरता-
मधुबन खुशबू देता है, सागर सावन देता है
जीना उसका जीना है, जो औरों को जीवन देता है..।
जिस स्नेह को पाने से मैं वंचित रह गया और न कभी किसी ने मेरे उस स्नेह को समझा । उसे ऐसे लोगों में बांट पाता। फिर जीवन अपना सफल कर जाता !
-व्याकुल पथिक
काश इतनी संवेदनशील नजर उन आकाओं की भी होती जिनके हाथ में पैसा है, ताकत है और अधिकार है।
ReplyDeleteमराठी कवि नारायण सुर्वे की एक प्रसिद्ध रचना है,मजदूर के कष्टमय जीवन के बारे में, जिसकी कुछ पंक्तियों का अनुवाद यहाँ दे रही हूँ -
"दो दिन तो दुःख झेलने में चले गए और दो सुख के इंतजार में,
बस यही हिसाब लगाता रहता हूँ कि -
चार दिन की जिंदगी में और कितने कष्ट देखने बाकी हैं ?
सैकड़ों बार मादक रातें आईं, चमकते तारों और खूबसूरत चाँद वाली!
रोटी का चाँद खोजने में ही बर्बाद होती रही ये ज़िंदगी !"
जी मीना दी,
ReplyDeleteआपने भी कठिन संघर्ष किया है। अतः आप से बेहतर और कौन समझ पाएगा !
प्रणाम।
आपकी हर रचना हृदय के अंतर तक उतर जाती है , जिसनें स्वयं सहा हो वो इन भावनाओं को अच्छी तरह समझ सकता है ।
ReplyDeleteजी प्रणाम।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार मई 07 2019 को साझा की गई है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (08-05-2019) को "पत्थर के रसगुल्ले" (चर्चा अंक-3328) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (07-05-2019) को "पत्थर के रसगुल्ले" (चर्चा अंक-3328) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी प्रणाम यशोदा दी और शास्त्री सर , आप दोनों का बहुत बहुत आभार।
ReplyDeleteसंवेदनशील मन और सूक्ष्म दृष्टि के योग से लिखा गया
ReplyDeleteसार्थक लेख।
जी धन्यवाद, प्रणाम।
ReplyDeleteकाश ! कोई जुगाड़ अपना भी होता कि मैं भी सांताक्लॉज जैसा बन जाता और मेरी झोली में ऐसा कुछ होता कि बिन बताएँ इनका सहयोग करते हुये ,अपनी निजी वेदना को भुला कर यह गुनगुनाते फिरता-
ReplyDeleteआपने सही कहा शशि जी ,जिसके मन में संवेदनाये हैं उनके हाथ खाली हैं और सामर्थवान की संवेदनाये ही मर चुकी हैं। बेहतरीन प्रस्तुति ,सादर नमस्कार
जी प्रणाम।
ReplyDeleteपता नहीं तब क्या होता,जब हम भी सामर्थ्यवान हो जाते ?
गिरगिट जैसा रंग बदलना इंसानों को भी जो आता है !
बहुत यथार्थवादी चित्रण व्याकुल पथिक
ReplyDeleteबहुत से मेहनतकश इंसानों को तो कोल्हू के बैल जितनी ख़ुराक भी नहीं मिल पाती है. काबिलियत होते हुए भी और लाख कोशिश करने के बाद भी काम न मिल पाना तो जी-तोड़ मेहनत के बाद रूखा-सूखा मिलने से भी बदतर है.
हमारे देश में भूमि-हीन खेतिहर मज़दूरों की गाँवों में बुरी हालत है. उतनी ही बुरी हालत लेबर चौक में घंटों खड़े रहकर भी कोई काम न मिलने वाले मज़दूर और कारीगर की है.
इस देश में गरीब लड़की का ही नहीं, बेबस लड़कों का भी यौन शोषण होता है.
एक बिन माँगी सलाह - अपनी बात कहने के बाद किसी फ़िल्मी गाने को उद्धृत करने की कोई आवश्यकता नहीं है. आपकी अपनी बात ख़ुद में दम रखती है. हाँ, कोई काल-जयी कविता या नज़्म से आप अपनी बात ख़त्म करते तो बात कुछ और होती.
आपका कथन उचित है।
ReplyDeleteयह फिल्मी गाने मेरी बुरी आदतों में से एक है।
आभार आपका।
बेहतरीन आलेख
ReplyDeleteजी प्रणाम
ReplyDeleteप्रिय शशि भाई - समाज के करुण पात्रों को बहुत ही समीप से देखकर उनकी वेदना को बहुत ही संवेदनशीलता से लिखा है आपने | मान्यता प्राप्त पत्रकार होने के बावजूद भी आप खुद श्रम के अनुरूप मानदेय से वंचित हैं तो औरो की क्या कहें ? चाबी के गुच्छे लटकाने वाले को शायद अभी ये नहीं पता आज जमाना डिजिटल हो चला | आज पुराना फेंकों नया खरीदों का जमाना है | चाबी से वंचित ताले आज कबाड़ की शोभा बढाते हैं | कोई नहीं जो जो इस सिकलीगर की राह देखता हो | अक्सर अपनी कालोनी में बन रहे नये मकानों पर हंसते गाते काम करते मजदूरों को देखती हूँ तो यही सोचती हूँ कि कितना संयम और हर हाल में खुश रहने की कला से मालामाल किया है भगवान् ने इन्हें | अगर काम मिल जाए तो दाम थोड़े बहुत मिल ही जाते हैं पर काम से वंचित मजदूर और ग्राहकों से वंचित छोटे से कामगारों का नसीब कौन सँवारे? क्या कोई मुक्तिदाता आयेगा जो इनकी पीड़ा को हरने का दम ख़म दिखाएगा ?या फिर इनकी भावी पीढियां भी यूँ ही आधी अधूरी जीकर संसार से प्रयाण को विवश होती रहेंगी | व्यंग और कातर भावों से परिपूर्ण आपका ये आलेख श्रमजीवियों की पीड़ा को दर्शाता पाठकों के मन में करुणा का संचार कर सोयी संवेदनाएं जगाने में सक्षम है | सस्नेह
ReplyDeleteअकाट्य सत्य और दारुण दशा मेहनतकस की बहुत दर्द के साथ उकेरा है आपने शशि भाई।
ReplyDeleteबहुत ही हृदयस्पर्शी लेख ...सही कहा संवेदना जिनमें है वे सक्षम नहीं... और जो सक्षम हैं उनके पैर जमीन में कहाँ पड़ते हैं...शोषण ही तो है यहाँ कदम कदम पर अक्षम का....फिर चाहे वह पढ़ा-लिखा बेरोजगार प्राइवेट टीचर ही क्यों न हो...अनपढ़ मजदूरों व किसानों का तो कहना ही क्या...गहन चिन्तनीय विचारोत्तेजक और दिल को छूता लेख... बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteसार्थकता लिए सशक्त आलेख ... बधाई सहित शुभकामनाएं
ReplyDeleteआवश्यक सूचना :
ReplyDeleteसभी गणमान्य पाठकों एवं रचनाकारों को सूचित करते हुए हमें अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है कि अक्षय गौरव ई -पत्रिका जनवरी -मार्च अंक का प्रकाशन हो चुका है। कृपया पत्रिका को डाउनलोड करने हेतु नीचे दिए गए लिंक पर जायें और अधिक से अधिक पाठकों तक पहुँचाने हेतु लिंक शेयर करें ! सादर https://www.akshayagaurav.in/2019/05/january-march-2019.html