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कलुआ होने का उसे कोई मलाल नहीं है..यह तो उसके श्रम की निशानी है..। हाँ, उसके निश्छल हृदय को कोई काला-कलूटा न कहे..इंसानों की इस बस्ती में फिर कोई शुभचिंतक उसे न छले..और कोई कामना नहीं है उसकी..।
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जरा देखो तो तुम्हारे भैया के हाथ की चमड़ी कैसी हो गयी है..कोई क्रीम रखी हो ?
" छोड़े ,आप भी न ..अब बच्चा तो नहीं रह गया हूँ ..कुछ तो नहीं हुआ है..अवस्था के साथ ऐसे परिवर्तन होते ही रहेंगे ..।"
मासी माँ को इस तरह से विचलित होते देख रजनीश ने बात बीच में ही काट, उन्हें तनिक तसल्ली दी थी..यह मासी माँ ही हैं ,जो उसपर अब भी अपनी ममता लुटाया करती हैं..उन्हें पता है कि रजनीश को कितने नाजो नेमत से पाला गया है..जब सबने उसे दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका हो, तो अपना कहने को इस संसार में उसका वही (मासी माँ) तो एक हैं..तभी तो इतनी दूर से उसे देखने चली आयी हैं।
इतने में माँ की पुकार सुन सुकन्या भी आ गयी .. भाई के हाथों के पंजों और चेहर पर दृष्टि पड़ते ही वह चौंक उठती है .. सच में ऐसा सांवला त्वचा भैया का बचपन में कभी नहीं रहा..।
माँ तो कहती थी कि सिलीगुड़ी के नर्सिंगहोम में जब उसका जन्म हुआ , तब इतना स्वस्थ्य और सुंदर था कि उस बालक को गोद में खिलाने के लिये सभी लालायित रहते थें..।
फिर उसकी उजले त्वचा का रंग इस तरह श्यामवर्ण कैसे हो गया..!
खैर, वह ब्यूटीशियन तो थी नहीं..हाँ, अतिरिक्त आय के लिये किसी नामी कम्पनी की सौंदर्य प्रसाधन सामग्री के कारोबार से जुड़ गई है.. सो ,उसने एक बिल्कुल छोटी-सी डिबिया निकाल भाई को दिया और कहाँ कि इसे लगा लिया करें.. ।
साढ़े छः सौ रुपये की क्रीम की डिब्बी देख रजनीश के अधरों पर तनिक मुस्कान आ गयी..
उसे याद हो आया कि अतीत में चंद पैसों के लिये उसने कहाँ- कहाँ नहीं ठोकरें खायी थी ...यह पेट की आग ही थी कि जिसमें झुलस कर वह " कलुआ " हो गया है..।
अतः सस्नेह डिब्बी वापस कर उसने कहा -
" बहन पचास का हो रहा हूँ, यह मेरे किस काम की, अब तो तेरे भाई को ढलती उम्र से जंग लड़नी है ..। "
मरघट में रेशमी महल बनाने की अभिलाषा भला रजनीश में बची ही कहाँ है ..उसका पौरूख थकता जा रहा है.. अपनों के तिरस्कार का संताप उसे भीतर ही भीतर दीमक की तरह चाटते जा रहा है..।
कलुआ होने का भी कोई मलाल नहीं है..यह तो उसके श्रम की निशानी है..।
हाँ, उसके निश्छल हृदय को कोई काला-कलूटा न कहे..इंसानों की इस बस्ती में फिर कोई शुभचिंतक उसे न छले..और कोई कामना नहीं है उसकी..।
बीते तीन दशक से जीवन के तिक्त दिनों को सहते-सहते रजनीश यह भूल चुका है कि कभी उसमें मधुर क्षण भी आये थें..।
नानीमाँ की मृत्यु के बाद ननिहाल से जब वह वापस घर लौटा था ,तो उसके पुराने सहपाठी और मुहल्ले के लोग आँखें फाड़े उसके गोलमटोल मुखड़े को निहारा करते थें .. और धूप में जब वह निकलता , सिर पर छतरी हुआ करती थी..।
लेकिन, परिस्थितिजन्य कारणों से घर छोड़ते ही उसे कहीं ऐसा ठिकाना नहीं मिला, जहाँ राजाबाबू की तरह रहता ..।
वो कहते हैं न कि वक्त की मार सबसे भयानक होती है..अतः पेट की आग से विवश हो उसने कबाड़ के एक कारखाने में मैनेजरी कर ली थी।
दिनभर तेज धूप में खड़े हो कबाड़ तौलाता रहा रजनीश..। परिणाम सामने है उसके शरीर का जो हिस्सा धूप में झुलसता रहा, वह बदरंग हो गया है । परिस्थितियों ने उसके कोमल तन-मन पर कभी न छुटने वाला स्याह रंग चढ़ा दी है ।
फिर कैसे चढ़ता उसपर प्रीत का रंग .. ? किसी का साथ होगा, इसी आस में पैसा- पैसा जोड़ कर गृहस्थी खड़ी की थी..परंतु जीवन की शून्यता और दर्द को उजला रंग कहाँ से देता वह ..।
स्नेह की नगरी में रजनीश ने जब भी पांव बढ़ाया ,उसने महसूस किया कि स्वार्थ के तराजू पर वह स्वयं कबाड़ बना पड़ा है। किसी भी मित्र,संबंधी और शुभचिंतक को उसकी आवश्यकता नहीं है.. कलुआ जो ठहरा वो..उसे तो निष्ठुर नियति की धधकती भट्टी में तपना है..जिसमें एक दिन उसका अस्तित्व विलीन हो जाएगा.. तब वह जड़ पदार्थ बन कर पुनः बाहर आएगा..कोई उसका श्यामवर्ण हर कर श्वेत रंग दे..ऐसे ठठेरे की उसे फिर से प्रतीक्षा रहेगी .. यही तो है जीवन का रहस्य.. !
ऐसे ही चिंतन में खोया कलुआ स्वयं को एक दार्शनिक समझने लगा था.. तभी एक मधुर गीत ने उसे फिर से उसी भावनाओं के सागर में ला पटका ..।
और कलुआ उसमें डूबते चला गया..
मोरा गोरा अंग लइ ले
मोहे श्याम रंग दइ दे
छुप जाऊँगी रात ही में
मोहे पी का संग दइ दे..
काश ! कभी किसी ने उससे भी यह कह पुकारा होता .. !!
- व्याकुल पथिक
बढ़िया।
ReplyDeleteजी , आभार आपका.. प्रणाम।
ReplyDeleteShashi bhai ,apka feature pura parh gaya,aatap varsha aur sheet ke vajraghaton ko jhelne vale
ReplyDeleteJante hain ki prakriti ke
sannidhya me jine marne
Vale vastvik manushy hote
hain aur ishvar ke jyada
najdeek hote hain,ishvar
Prakriti ke madhyam se khud ko abhi vyakt karta hai।thanks।
-अधिदर्शक चतुर्वेदी ,वरिष्ठ साहित्यकार
Shashi ji,kale shaligram ki
DeletePuja hoti hai,jeth ke mahine me kale baadlon
Ka intjar hota hai,krishna
Ka nam hi shyam pad gaya ,Ram bhi neel saroruh syam ke taur par
Pahchane gaye,bas dil ka
Kala nahin hona chahiye
Bas itna hi।thanks
-अधिदर्शक चतुर्वेदी ,वरिष्ठ साहित्यकार
मर्मस्पर्शी कहानी है कलुआ की, अद्भुत लेखन भाई।
ReplyDeleteजी आभार दी ,प्रणाम
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ReplyDeleteप्रिय शशि भाई, कलुवा के माध्यम से आपने रजनीश के मन की व्यथा को सार्थकता से
ReplyDeleteकथा के रूप में पिरोया है। असल में एक दर्शनीय व्यक्ति समय की धूप में तपकर जब श्यामवर्ण का हो जाता है, तो किसी के कलुवा कह देने से उस मर्मांतक पीड़ा होती है। ये पीड़ा अकेलेपन में और बढ़ जाती है। यूँ तो ये व्यथा रजनीश की नहीं हर इंसान की है। पर साँवलापन जब ताना बन जाए तो दुख होता है। मुझे लगता है साँवलेई रंग की महिमा बढ़ाने के लिए स्वयं भगवान ने भी इसे धारण किया था और वे नीलवर्ण के कहलाये । और ये सचमुच श्रम और शौर्य का प्रतिक है। यूँ भी दुनिया कर्म से चलती है, रंग से नहीं। रंग ने किसी का कोई भला नहीं किया। भावपूर्ण कथा के लिए हार्दिक शुभकामनायें।
जी दी
Deleteआप जैसे संवेदनशील जन ही यह समझ पाते हैंं कि श्रम का पुरस्कार ही यह श्याम वर्ण है,अन्यथा जुगाड़ तंत्र से लोग इसे श्वेत करने में जुट जाते हैं।
प्रणाम।
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२३ -११ -२०१९ ) को "बहुत अटपटा मेल"(चर्चा अंक- ३५२८) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
आपका बहुत- बहुत आभार अनीता जी, प्रणाम।
Deleteसुन्दर और सटीक प्रस्तुति...
ReplyDeleteधन्यवाद आपका
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