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Monday 25 November 2019

ज़िदगी तूने क्या किया( जीवन की पाठशाला से )


जीने की बात न कर
लोग यहाँ दग़ा देते हैं।
जब सपने टूटते हैं
तब वो हँसा करते हैं।
कोई शिकवा नहीं,मालिक !
क्या दिया क्या नहीं तूने।
कली फूल बन के
अब यूँ ही झड़ने को है।
तेरी बगिया में हम
ऐसे क्यों तड़पा करते हैं ?
ऐ माली ! जरा देख
अब हम चलने को हैं ।
ज़िदगी तुझको तलाशा
हमने उन बाज़ारों में ।
जहाँ बनके फ़रिश्ते
वो क़त्ल किया करते हैं ।
इस दुनियाँ को नज़रों से
मेरी , हटा लो तुम भी।
नहीं जीने की तमन्ना
हाँ, अब हम चलते हैं।
जिन्हें अपना समझा
वे दर्द नया देते गये ।
ज़िंदगी तुझको संवारा
था, कभी अपने कर्मों से ।
पहचान अपनी भी थी
और लोग जला करते थें।
वह क़लम अपनी थी
वो ईमान अपना ही तो था ।
चंद बातों ने किये फिर
क्यों ये सितम हम पर ?
दाग दामन पर लगा
और धुल न सके उसको।
माँ, तेरे स्नेह में लुटा
क्या-क्या न गंवाया हमने ।
बना गुनाहों का देवता
ज़िन्दगी, तूने क्या किया ?
पर,ख़बरदार !सुन ले तू
यूँ मिट सकते नहीं हम भी।
जो तपा है कुंदन - सा
चमक जाती नहीं उसकी ।
व्याकुल पथिक

11 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (26-11-2019) को    "बिकते आज उसूल"   (चर्चा अंक 3531)   पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

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  2. जी बहुत-बहुत आभार आपका, प्रणाम

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  3. .. सही कहा शशि जी जिंदगी ने क्या दिया.. हम जैसे कई लोग हैं जिन्हें जिंदगी से शिकायत है कि उन्होंने हमें कुछ नहीं दिया उल्टे हम लोगों से सब कुछ छीन लिया लेकिन शशि जी हमें सिर्फ एक ही लाइफ मिली है इस जिंदगी के खत्म होने के बाद हमें पता नहीं हम दोबारा मनुष्य योनि में जन्म लेंगे भी या नहीं मैं तो आपसे यही कहूंगी की लोक परलोक आगे क्या है कुछ नहीं पता लेकिन फिलहाल हम जी रहे हैं हमारी सांसे चल रही है, जिंदगी ने और कुछ नहीं लेकिन हमें जीने का अधिकार दिया है इसलिए जब तक हो सके हमें अपने लिए खुलकर और खुशी से जीना चाहिए मैं भी परेशान हो जाती हूं अपनी जिंदगी को लेकर कभी-कभी सोचती हो कि मैं क्यों आई हूं यहां क्या कर रही हूं इस दुनिया में पता है उस वक्त में लिखती हूं बहुत कुछ लिखती हूं, वैसे ही आपकी लेखनी भी बहुत कमाल की है आप जब लेख लिखते हैं तो उस पर जीवन दर्शन होते हैं अध्यात्मिकता के भाव होते हैं आप लिखा करिए निराश मत रहा कीजिए....
    आपकी यह रचना भी बहुत कमाल की है सिर्फ दुख के भाव आप अगर हटा देते तो और भी अच्छी हो जाती लेकिन कविताएं हम तभी करते हैं जब अपने अंदर कुछ महसूस करते हैं चलिए अगली बार आप कुछ और नया लिखिए गा इंतजार रहेगा

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    1. जी अनु जी,
      मानव की प्रवृत्ति बड़ी ही विचित्र होती है..अब देखें न.. जब मैं आनंद की खोज में कदम बढ़ा रहा था, तो पहले एक नेत्र की ज्योति लगभग चली गयी और दूसरे का भी हाल बुरा है..अधिक पढ़- लिख नहीं सकता ..
      और अब बायें हाथ की हथेली का एक हिस्सा अचानक ही झुनझुनी आने से शून्यता की ओर बढ़ रहा है.. अत्यधिक कष्ट की अनुभूति हो रही है..
      परंतु आपकी टिप्पणी से छात्रजीवन में पढ़ी गयी
      जॉन मिल्टन' की कविता 'ऑन हिज ब्लाइंडनेस' (ON HIS BLINDNESS) का स्मरण हो आया है-
      जो इस तरह है...

      जब मैं समझा ये दुनिया रोशनी खो चुकी है और मेरी आंखें अंधी हो चुकी हैं
      फिर भी आधी जिंदगी और काटनी है; इस अंधेरे, बड़े संसार को बांटनी है
      आज जब कर्म ही पूजा है मैं जानता हूं, आत्मा को मालिक की सेवा के और काबिल मानता हूं
      पर वो कैसे कह सकता है सुंदर अक्षरों के लिए, जब खुद ही बुझाए हैं मेरी आंखों के दिए
      मैं आसमान पर चिल्लाकर पूछना चाहता हूं,
      पर धैर्य मेरी भुनभुनाहट का गला रेत देता है
      हड़बड़ाया सा जवाब देता है, वो है ईश्वर!
      इंसान क्या ही उसकी इच्छा पुराएगा? उसका मन उपहारों से लुभाएगा?
      जो भी बैलों सी लगाम मुंह में डाले नधता जाता है
      वही उस स्वर्गिक सत्ता वाले की सेवा कर पाता है
      कहते हैं, उसका एक आदेश पाते ही हजारों  दौड़ जाते हैं, जमीन और सागरों के पार
      यों ही वे उसकी सेवा करते हैं, जो लंगड़े होकर भी खड़े रहते हैं और करते हैं इंतजार

      और जिसे मौत ही छीन सकती है मेरा वो फन, अब यूं फालतू है जैसे गरीब का यौवन
      फिर सोचता हूं आज वो मुझे नकार देगा, सेवा न कर पाने पर फटकार देगा...
      ******
      अतः हमें अपना कर्म करते रहना चाहिए .. आज भी मैं निकला था ,कुछ स्कूली बच्चे स्वतः ही पॉलिथीन के प्रयोग के विरुद्ध जनजागरण कर रहे थें। उन्होंने अपने जेबखर्च से दो सौ रद्दी पॉलिथिन खरीदा था..।
      यह बड़ी बात थी, हमने उनका उत्साह बढ़ाया और समाचार संकलन किया..।
      हम पत्रकारों का यही कर्म ईश्वर की सेवा है..
      मानव जीवन दर्शन तो यह है कि विपरीत परिस्थितियों में भी हमें कर्मपथ पर बढ़ते रहना है, परंतु अनुभूतियों को निश्छल भाव से शब्द देना भी साहसिक कार्य है..।

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    2. प्रिय अनु का रचना पर सारगर्भित चिन्तन और आपका भावपूर्ण बौद्धिकता भरा प्रतिउत्तर बहुत ही सराहनीय और पठनीय है | आप दोनों बधाई के पात्र हैं

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  4. सुन्दर रचना...

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  5. प्रिय शशी भाई, ये रचना वीतरागी मन का विरह्गान है , जो व्यथित मन से निकल पढने वाले के मन में करुणा का भाव जगाता है | वेदना के पलों माँ को पुकारना मानव मन की सहज प्रवृति है और यही विकल मन का सुदृढ़ अवलंबन भी है जो मरहम सरीखा काम करता है | मार्मिक रचना के लिए साधुवाद |

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  6. आपने बिल्कुल उचित कहा रेणु दी।

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yes