हमारी छोटी- छोटी खुशियाँ ( भाग-6)
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जिन्होंने मुझे खुशियाँ दी , उनसे कहीं अधिक मैं उनका आभारी हूँ , जिनसे मिली वेदना ने मेरा पथप्रदर्शन किया और जब मैं पुनः ब्लॉग पर सक्रिय हुआ , तो "जीवन की पाठशाला" में मिली " छोटी- छोटी खुशियों " को लेखनी के माध्यम से शब्द देने का प्रयत्न कर रहा हूँ। अवसाद से मुक्त आनंद की खोज में मेरे ये कदम बढ़ चले हैं..
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पवित्र कार्तिक पूर्णिमा एवं गुरुपर्व सन्निकट है। मन की ज्योति जलाने का पर्व, देव दीपावली का पर्व, यह सम्पूर्ण माह ही उत्सव एवं ज्ञानपर्व है। गुरुदेव की कृपा है कि मैं सांसारिक संबंधों के मोह से मुक्त होने के लिये पुनः प्रयत्नशील हूँ। गुरु ने सदैव नाम जपते रहने को कहा था-
नानक दुखिया सब संसार, सो सुखीया जिन्ह नाम आधार ...
पिछले कुछ महीने मैं अपने ब्लॉग से दूर और भावुक हृदय की दुर्बलताओं से अत्यधिक व्याकुल रहा, एकाकी जीवन में जब कभी ऐसी स्थिति बनती है कि हम जिसे अपना सच्चा हितैषी समझते हैं, हमारा वह अपनत्व भाव अकारण ही उसके कठोर आचरण/वाणी से आहत होता हैं ,तब पीड़ित व्यक्ति का तन-मन-धन तीनों ही क्षीण होता है। अतः इस भावनात्मक क्षति का प्रभाव मेरे बायें नेत्र पर पड़ा , जिस कारण मुझे हर वस्तु समुद्र की लहरों के सदृश्य कंपन करती दिखने लगी। दायीं आँख की रोशनी पहले से ही अत्यधिक मंद थी और अब मेरी बायीं आखँ भी गयी ? यह कल्पना करके मैं सिहर उठा। एक तो स्वास्थ्य की बूरी स्थिति है और यदि नेत्रों ने साथ छोड़ दिया तो फिर मुझे आश्रय कौन देगा।
यहाँ के प्रमुख नेत्र चिकित्सक ने बताया कि उच्चरक्तचाप के कारण ऐसा हुआ है। उन्होंने दवा दी । इस घटना से मैं यह समझ सका कि मानव शरीर हो अथवा इस जग के लौकिक संबंध, एकबार क्षय होने के पश्चात उनमें पूर्वतः सुधार नहीं होता। मेरी बायीं आँख की स्थिति आज भी यही है कि सीधी रेखाएँ भी मुझे उफनते समुद्र की शांत होती लहरों के समान दिखती हैं। सम्भवतः ये मेरे विचलित हृदय के ज्वार- भाटे को स्थिर होने का संकेत दे रही हैं।
ऐसी विषम परिस्थितियों में उन दिनों मेरा हृदय अत्यधिक विकल हो उठा, तभी ऐसी अनुभूति हुई कि मेरी ज्ञानचक्षु जागृत हो रही है। ज्ञान का प्रकाश जो मुझे लगभग तीन दशक पूर्व आश्रम जीवन से प्राप्त हुआ था , वह दीपक बन पुनः टिमटिमाने को है। वह मोह के तम से मुझे बाहर निकाल उजाले की ओर ले जाने के लिये प्रयत्नशील है । मुझे अपने गुरुदेव का स्मरण हो आया। मैंने गुरु चरणों की वंदना कुछ इस प्रकार से की -
" गुरु कृपा से उपजे ज्योति
गुरू ज्ञान बिन पाये न मुक्ति
माया का जग और ये घरौंदा
फिर-फिर वापस न आना रे वंदे
पत्थर-सा मन जल नहीं उपजे
हिय की प्यास बुझे फिर कैसे..।"
गुरुज्ञान के आलोक में मैंने पाया कि इस जगत के लौकिक संबंधों के प्रति विशेष अनुरक्ति ही भावुक मनुष्य की सबसे बड़ी दुर्बलता है । वह अपने प्रति किसी के द्वारा दो शब्द सहानुभूति के क्या सुन लेता है , बिना परीक्षण किये ही उसे अपना सच्चा हितैषी समझ लेता है। वह यह नहीं समझ पाता कि जिस अनजाने व्यक्ति से वह अचानक यूँ स्नेह करने लगा है ,वह उसके प्रति कितना संवेदनशील है। अक्सर ऐसा होता है कि लोकव्यवहार के कारण भी तनिक प्रीति का प्रदर्शन लोग कर दिया करते हैं , परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि उनके लिये वह महत्वपूर्ण है। समय , परिस्थिति और मनोभाव के अनुरूप उनकी सहानुभूति में जब परिवर्तन आता है , तब ऐसे भावुक मनुष्य को उनके बदले हुये व्यवहार से वेदना होती है । जब कभी यह उपेक्षा तिरस्कार में बदल जाती है , तब हृदय को जो आघात पहुँचता है , उसकी भरपाई शीघ्र संभव नहीं है। अतः ऐसे इंसान जो भावनाओं में गोता लगाते रहते हैं , उन्हें किसी अपरिचित व्यक्ति से मित्रता करते समय सजग रहना चाहिए...।
इस जगत के लौकिक संबंधों के रहस्य एक-एक कर खुलते चले गये ,जब बीते गुरुपर्व पर विकल हृदय से पथिक काशी स्थित अपने उस पावन शरणस्थली का स्मरण कर रहा था। उसे ऐसी अनुभूति हुई कि मानों साक्षात गुरुदेव प्रगट हो गये हो। वैसा ही श्वेत वस्त्र , केश रहित विशाल ललाट, मुखमंडल पर अद्भुत तेज और मंद-मंद मुस्कान ,
यद्यपि गुरु - शिष्य में कोई प्रत्यक्ष संवाद नहीं हुआ, तथापि उनका मौन उससे अनेक प्रश्न कर रहा था ।
गुरु अपने शिष्य से यह जानना चाहते थें कि लगभग तीन दशक पूर्व आश्रम छोड़ने के पश्चात जिस अपनत्व की प्राप्ति के लिये वह दर- दर भटका , क्या उसे प्राप्त करने में सफल रहा ?रोगग्रस्त उसकी दुर्बल काया , मुखमंडल पर छायी कालिमा एवं मंद पड़ गयी नेत्रों की ज्योति को देख द्रवित हो गये गुरुदेव ,परंतु उनकी मौनवाणी में कठोरता थी। जिस गुरु ने उसे आश्रम जीवन में कभी फटकार तक नहींं लगायी थी। सदैव जिसे अपने सानिध्य में बैठा " सतनाम " जाप को कहा था ।
उनका प्रश्न स्पष्ट था -- " जिस अपनत्व की प्राप्ति के लिये तू दर-दर भटका , ठोकरें खाई और अब क्यों बिना मुक्तिपथ को प्राप्त किये ही रामनाम सत्य का उद्बोधन कर रहा है ? सामने पड़े 'अमृत कलश ' का परित्याग कर जिस ' मदिरापान ' के लिये निकला था , देख उसने तेरी क्या स्थिति कर रखी है। आश्रम में मिले खड़ाऊँ एवं साधारण वस्त्रों को त्यागने के पश्चात तूने जो भी मूल्यवान वस्त्र-आभूषण धारण किये थे , वे क्या तुझे वहीं दिव्य तेज प्रदान कर सके ? "
गुरु महाराज प्रश्न पर प्रश्न ही किये जा रहे थें - " तनिक लौकिक स्नेह की चाह में भूल, अपराध, पाप, उपहास , तिरस्कार एवं ग्लानि जैसे अलंकार युक्त किन-किन आभूषणों को तू धारण किये है कि जिनका वजन तेरा यह विकल हृदय संभाल नहीं पा रहा है ? "
वे शिष्य के मुख से उसकी उस लम्बी जीवनयात्रा का वृत्तांत सुनना चाहते थें कि लौकिक स्नेह रुपी उस मृगतृष्णा जिसे वे उसके साधनाकाल में निरंतर ' मायाजाल ' बताते रहे , उसने उसकी पवित्रता को कहाँ- कहाँ कलंकित एवं लांछित किया , यद्यपि शिष्य अपने गुरु से दृष्टि नहीं मिला सका और न ही उनके चरणों पर वह अपना मलिन मस्तक रख पाया , तथापि उसके नेत्रों से निकले नीर को गुरु के पदकमल का पावन स्पर्श प्राप्त हुआ और तब रुंधे कंठ से उसने अपने सद्गुरु को वचन दिया-
अब लौं नसानी, अब न नसैहों।
रामकृपा भव-निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं॥
अदृश्य होने से पूर्व गुरु यह कह उसे पुनः आगाह करते गये है - " देखो , अब तुम वचनबद्ध हो। संकल्प भंग मत करना। यही मेरी गुरुदक्षिणा है । इसी में तुम्हारी खुशियाँ समाहित है। जिसे दिये बिना ही तब तुमने आश्रम त्यागा था । "
मित्रों , याद रखें कि जो मधुर बोलते हैं, वे तीक्ष्ण विषवमन करने में भी समर्थ हैं । हमें इनसे भी सजग रहना होगा । समभाव ही जीवनदर्शन है। ब्लॉग पर आकर मैंने जीवन का यह एक और महत्वपूर्ण अध्याय पढ़ा है।
इस जीवनपथ पर ऐसे शुभचिंतक हमें मिलेंगे कि जब हम संकट में होंगे , जीवन-मृत्यु से संघर्ष कर रहे होंगे , तब वे अपना "राजदरबार" सजाए काव्यपाठ करते दिखेंगे । वे भूल जाएँगे कि कभी उन्होंने स्वतः ही मित्रता का हाथ आगे बढ़ाया था। याद दिलवाने पर वे इसे गुनाह कह मुकर जाएँगे ।
फिर भी हमें अपना मन मलिन नहीं करना चाहिए, यह मनुष्य की प्रवृति है, तभी तो गीतकार श्रीकृष्ण तिवारी ने ऐसे गीत की रचना की है-
एक आँख हँसते हैं लोग,
एक आँख रोते हैं लोग,
जाने कैसी ये आबोहवा,
जाने ये कैसे हैं लोग!
हमारे जैसे मनुष्यों की खुशी तो आदि शंकराचार्य द्वारा रचित निर्वाण षट्कम में निहित है। यह हमें राग व रंगों से दूर ले जाता है।सारे लौकिक संबंधों से परे कुछ इस तरह का वैराग्य भाव , जिसकी ध्वनि हमारे अंतरतम की गहराइयों में हलचल पैदा कर देती है-
नमे मृत्युशंका नमे जातिभेद: पिता नैव मे नैव माता न जन्म न बंधू: न मित्रं गुरु: नैव शिष्यं चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम।
आवश्यक यह भी है कि विरक्त होने के लिये हमें द्वेषभाव से बचना होगा । मौन का आश्रय हमारे चिंतन और ज्ञान को गति देता है -
न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ
मदों नैव मे नैव मात्सर्यभावः |
न धर्मो नचार्थो न कामो न मोक्षः
चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम |
अतः जिन्होंने मुझे खुशियाँ दी , उनसे कहीं अधिक मैं उनका आभारी हूँ , जिनसे मिली वेदना ने मेरा पथप्रदर्शन किया और जब मैं पुनः ब्लॉग पर सक्रिय हुआ , तो "जीवन की पाठशाला" में मिली " छोटी- छोटी खुशियों " को लेखनी के माध्यम से शब्द देने में जुट गया। अवसाद से मुक्त आनंद की खोज में मेरे ये कदम बढ़ चले हैं।
यही मेरा कर्मपथ है, मेरा धर्मपथ है और मेरा मुक्तिपथ भी है । मिसाइल मैन डा० एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि जीवन की सफलता के चार सूत्र हैं- लक्ष्य निर्धारण, सकारात्मक सोच,मन में स्पष्ट कल्पना और उस पर विश्वास।
लेविस कैरोल की कविता की इन पँक्तियों को जरा देखें -
कौशल, महत्वाकांक्षा
सपने अपने
कसौटी पर कसो।
जब तक
कि दुर्बलता बने शक्ति ,
कि अँधियारा उठे जगमग,
कि अन्याय हरे नीति।
- व्याकुल पथिक
( जीवन की पाठशाला)
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जिन्होंने मुझे खुशियाँ दी , उनसे कहीं अधिक मैं उनका आभारी हूँ , जिनसे मिली वेदना ने मेरा पथप्रदर्शन किया और जब मैं पुनः ब्लॉग पर सक्रिय हुआ , तो "जीवन की पाठशाला" में मिली " छोटी- छोटी खुशियों " को लेखनी के माध्यम से शब्द देने का प्रयत्न कर रहा हूँ। अवसाद से मुक्त आनंद की खोज में मेरे ये कदम बढ़ चले हैं..
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पवित्र कार्तिक पूर्णिमा एवं गुरुपर्व सन्निकट है। मन की ज्योति जलाने का पर्व, देव दीपावली का पर्व, यह सम्पूर्ण माह ही उत्सव एवं ज्ञानपर्व है। गुरुदेव की कृपा है कि मैं सांसारिक संबंधों के मोह से मुक्त होने के लिये पुनः प्रयत्नशील हूँ। गुरु ने सदैव नाम जपते रहने को कहा था-
नानक दुखिया सब संसार, सो सुखीया जिन्ह नाम आधार ...
पिछले कुछ महीने मैं अपने ब्लॉग से दूर और भावुक हृदय की दुर्बलताओं से अत्यधिक व्याकुल रहा, एकाकी जीवन में जब कभी ऐसी स्थिति बनती है कि हम जिसे अपना सच्चा हितैषी समझते हैं, हमारा वह अपनत्व भाव अकारण ही उसके कठोर आचरण/वाणी से आहत होता हैं ,तब पीड़ित व्यक्ति का तन-मन-धन तीनों ही क्षीण होता है। अतः इस भावनात्मक क्षति का प्रभाव मेरे बायें नेत्र पर पड़ा , जिस कारण मुझे हर वस्तु समुद्र की लहरों के सदृश्य कंपन करती दिखने लगी। दायीं आँख की रोशनी पहले से ही अत्यधिक मंद थी और अब मेरी बायीं आखँ भी गयी ? यह कल्पना करके मैं सिहर उठा। एक तो स्वास्थ्य की बूरी स्थिति है और यदि नेत्रों ने साथ छोड़ दिया तो फिर मुझे आश्रय कौन देगा।
यहाँ के प्रमुख नेत्र चिकित्सक ने बताया कि उच्चरक्तचाप के कारण ऐसा हुआ है। उन्होंने दवा दी । इस घटना से मैं यह समझ सका कि मानव शरीर हो अथवा इस जग के लौकिक संबंध, एकबार क्षय होने के पश्चात उनमें पूर्वतः सुधार नहीं होता। मेरी बायीं आँख की स्थिति आज भी यही है कि सीधी रेखाएँ भी मुझे उफनते समुद्र की शांत होती लहरों के समान दिखती हैं। सम्भवतः ये मेरे विचलित हृदय के ज्वार- भाटे को स्थिर होने का संकेत दे रही हैं।
ऐसी विषम परिस्थितियों में उन दिनों मेरा हृदय अत्यधिक विकल हो उठा, तभी ऐसी अनुभूति हुई कि मेरी ज्ञानचक्षु जागृत हो रही है। ज्ञान का प्रकाश जो मुझे लगभग तीन दशक पूर्व आश्रम जीवन से प्राप्त हुआ था , वह दीपक बन पुनः टिमटिमाने को है। वह मोह के तम से मुझे बाहर निकाल उजाले की ओर ले जाने के लिये प्रयत्नशील है । मुझे अपने गुरुदेव का स्मरण हो आया। मैंने गुरु चरणों की वंदना कुछ इस प्रकार से की -
" गुरु कृपा से उपजे ज्योति
गुरू ज्ञान बिन पाये न मुक्ति
माया का जग और ये घरौंदा
फिर-फिर वापस न आना रे वंदे
पत्थर-सा मन जल नहीं उपजे
हिय की प्यास बुझे फिर कैसे..।"
गुरुज्ञान के आलोक में मैंने पाया कि इस जगत के लौकिक संबंधों के प्रति विशेष अनुरक्ति ही भावुक मनुष्य की सबसे बड़ी दुर्बलता है । वह अपने प्रति किसी के द्वारा दो शब्द सहानुभूति के क्या सुन लेता है , बिना परीक्षण किये ही उसे अपना सच्चा हितैषी समझ लेता है। वह यह नहीं समझ पाता कि जिस अनजाने व्यक्ति से वह अचानक यूँ स्नेह करने लगा है ,वह उसके प्रति कितना संवेदनशील है। अक्सर ऐसा होता है कि लोकव्यवहार के कारण भी तनिक प्रीति का प्रदर्शन लोग कर दिया करते हैं , परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि उनके लिये वह महत्वपूर्ण है। समय , परिस्थिति और मनोभाव के अनुरूप उनकी सहानुभूति में जब परिवर्तन आता है , तब ऐसे भावुक मनुष्य को उनके बदले हुये व्यवहार से वेदना होती है । जब कभी यह उपेक्षा तिरस्कार में बदल जाती है , तब हृदय को जो आघात पहुँचता है , उसकी भरपाई शीघ्र संभव नहीं है। अतः ऐसे इंसान जो भावनाओं में गोता लगाते रहते हैं , उन्हें किसी अपरिचित व्यक्ति से मित्रता करते समय सजग रहना चाहिए...।
इस जगत के लौकिक संबंधों के रहस्य एक-एक कर खुलते चले गये ,जब बीते गुरुपर्व पर विकल हृदय से पथिक काशी स्थित अपने उस पावन शरणस्थली का स्मरण कर रहा था। उसे ऐसी अनुभूति हुई कि मानों साक्षात गुरुदेव प्रगट हो गये हो। वैसा ही श्वेत वस्त्र , केश रहित विशाल ललाट, मुखमंडल पर अद्भुत तेज और मंद-मंद मुस्कान ,
यद्यपि गुरु - शिष्य में कोई प्रत्यक्ष संवाद नहीं हुआ, तथापि उनका मौन उससे अनेक प्रश्न कर रहा था ।
गुरु अपने शिष्य से यह जानना चाहते थें कि लगभग तीन दशक पूर्व आश्रम छोड़ने के पश्चात जिस अपनत्व की प्राप्ति के लिये वह दर- दर भटका , क्या उसे प्राप्त करने में सफल रहा ?रोगग्रस्त उसकी दुर्बल काया , मुखमंडल पर छायी कालिमा एवं मंद पड़ गयी नेत्रों की ज्योति को देख द्रवित हो गये गुरुदेव ,परंतु उनकी मौनवाणी में कठोरता थी। जिस गुरु ने उसे आश्रम जीवन में कभी फटकार तक नहींं लगायी थी। सदैव जिसे अपने सानिध्य में बैठा " सतनाम " जाप को कहा था ।
उनका प्रश्न स्पष्ट था -- " जिस अपनत्व की प्राप्ति के लिये तू दर-दर भटका , ठोकरें खाई और अब क्यों बिना मुक्तिपथ को प्राप्त किये ही रामनाम सत्य का उद्बोधन कर रहा है ? सामने पड़े 'अमृत कलश ' का परित्याग कर जिस ' मदिरापान ' के लिये निकला था , देख उसने तेरी क्या स्थिति कर रखी है। आश्रम में मिले खड़ाऊँ एवं साधारण वस्त्रों को त्यागने के पश्चात तूने जो भी मूल्यवान वस्त्र-आभूषण धारण किये थे , वे क्या तुझे वहीं दिव्य तेज प्रदान कर सके ? "
गुरु महाराज प्रश्न पर प्रश्न ही किये जा रहे थें - " तनिक लौकिक स्नेह की चाह में भूल, अपराध, पाप, उपहास , तिरस्कार एवं ग्लानि जैसे अलंकार युक्त किन-किन आभूषणों को तू धारण किये है कि जिनका वजन तेरा यह विकल हृदय संभाल नहीं पा रहा है ? "
वे शिष्य के मुख से उसकी उस लम्बी जीवनयात्रा का वृत्तांत सुनना चाहते थें कि लौकिक स्नेह रुपी उस मृगतृष्णा जिसे वे उसके साधनाकाल में निरंतर ' मायाजाल ' बताते रहे , उसने उसकी पवित्रता को कहाँ- कहाँ कलंकित एवं लांछित किया , यद्यपि शिष्य अपने गुरु से दृष्टि नहीं मिला सका और न ही उनके चरणों पर वह अपना मलिन मस्तक रख पाया , तथापि उसके नेत्रों से निकले नीर को गुरु के पदकमल का पावन स्पर्श प्राप्त हुआ और तब रुंधे कंठ से उसने अपने सद्गुरु को वचन दिया-
अब लौं नसानी, अब न नसैहों।
रामकृपा भव-निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं॥
अदृश्य होने से पूर्व गुरु यह कह उसे पुनः आगाह करते गये है - " देखो , अब तुम वचनबद्ध हो। संकल्प भंग मत करना। यही मेरी गुरुदक्षिणा है । इसी में तुम्हारी खुशियाँ समाहित है। जिसे दिये बिना ही तब तुमने आश्रम त्यागा था । "
मित्रों , याद रखें कि जो मधुर बोलते हैं, वे तीक्ष्ण विषवमन करने में भी समर्थ हैं । हमें इनसे भी सजग रहना होगा । समभाव ही जीवनदर्शन है। ब्लॉग पर आकर मैंने जीवन का यह एक और महत्वपूर्ण अध्याय पढ़ा है।
इस जीवनपथ पर ऐसे शुभचिंतक हमें मिलेंगे कि जब हम संकट में होंगे , जीवन-मृत्यु से संघर्ष कर रहे होंगे , तब वे अपना "राजदरबार" सजाए काव्यपाठ करते दिखेंगे । वे भूल जाएँगे कि कभी उन्होंने स्वतः ही मित्रता का हाथ आगे बढ़ाया था। याद दिलवाने पर वे इसे गुनाह कह मुकर जाएँगे ।
फिर भी हमें अपना मन मलिन नहीं करना चाहिए, यह मनुष्य की प्रवृति है, तभी तो गीतकार श्रीकृष्ण तिवारी ने ऐसे गीत की रचना की है-
एक आँख हँसते हैं लोग,
एक आँख रोते हैं लोग,
जाने कैसी ये आबोहवा,
जाने ये कैसे हैं लोग!
हमारे जैसे मनुष्यों की खुशी तो आदि शंकराचार्य द्वारा रचित निर्वाण षट्कम में निहित है। यह हमें राग व रंगों से दूर ले जाता है।सारे लौकिक संबंधों से परे कुछ इस तरह का वैराग्य भाव , जिसकी ध्वनि हमारे अंतरतम की गहराइयों में हलचल पैदा कर देती है-
नमे मृत्युशंका नमे जातिभेद: पिता नैव मे नैव माता न जन्म न बंधू: न मित्रं गुरु: नैव शिष्यं चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम।
आवश्यक यह भी है कि विरक्त होने के लिये हमें द्वेषभाव से बचना होगा । मौन का आश्रय हमारे चिंतन और ज्ञान को गति देता है -
न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ
मदों नैव मे नैव मात्सर्यभावः |
न धर्मो नचार्थो न कामो न मोक्षः
चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम |
अतः जिन्होंने मुझे खुशियाँ दी , उनसे कहीं अधिक मैं उनका आभारी हूँ , जिनसे मिली वेदना ने मेरा पथप्रदर्शन किया और जब मैं पुनः ब्लॉग पर सक्रिय हुआ , तो "जीवन की पाठशाला" में मिली " छोटी- छोटी खुशियों " को लेखनी के माध्यम से शब्द देने में जुट गया। अवसाद से मुक्त आनंद की खोज में मेरे ये कदम बढ़ चले हैं।
यही मेरा कर्मपथ है, मेरा धर्मपथ है और मेरा मुक्तिपथ भी है । मिसाइल मैन डा० एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि जीवन की सफलता के चार सूत्र हैं- लक्ष्य निर्धारण, सकारात्मक सोच,मन में स्पष्ट कल्पना और उस पर विश्वास।
लेविस कैरोल की कविता की इन पँक्तियों को जरा देखें -
कौशल, महत्वाकांक्षा
सपने अपने
कसौटी पर कसो।
जब तक
कि दुर्बलता बने शक्ति ,
कि अँधियारा उठे जगमग,
कि अन्याय हरे नीति।
- व्याकुल पथिक
( जीवन की पाठशाला)
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (05-11-2019) को "रंज-ओ-ग़म अपना सुनाओगे कहाँ तक" (चर्चा अंक- 3510) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाई।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी आपका बहुत- बहुत आभार,प्रमाण।
Deleteवाह बहुत सुंदर पथिक जी
ReplyDeleteगुरु के दिखाए पथ से भटकन हो तो गुरु ही पुनः राह दिखाते हैं।
हर जगह ऐसे लोग हैं जो मुँह पर अच्छा बोलते है लेकिन मौका मिलने पर असली रूप दिखाने पर भी बाज नहीं आते।
जिंदगी हमें बहुत कुछ सिखाती रहती है... आदमी को सीखते रहना चाहिए।
"पाश" साहब ने एक कविता में लिखा है कि
" सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना...
ऐसी शांति भी कोई काम की नहीं जो दिखावटी हो...अंदर तो घमासान मचा हो,
बाहर हम शांति का आवरण ओढ़े फिरते रहें।
आपसे ईमेल के माध्यम से कॉन्टेक्ट करने का मन है
लेकिन आपकी ईमेल id मिली नहीं।
" सबसे ख़तरनाक होता है
ReplyDeleteमुर्दा शांति से भर जाना...
जी बिलकुल मानव वही है,जिसमें बनावट, दिखावट मिलावट नहीं है।
shashimzp71@gmail.com
जब सांसारिक सुखों से मन विरक्त हो जाता है तब ऐसे ही किसी सत्य की खोज में निकल पड़ता है जीवन दर्शन की और प्रकाश पुंज की तरह ले कर गई आपकी लेख... आपके द्वारा लिखे गए संस्मरण या लेख में आध्यात्मिकता का पुट बहुत ही प्रभावशाली होता है बहुत गहराई में जाकर आप जीवन के प्रति किए गए आधार को लेकर आप शब्दों में उतार देते हो ऐसे ही लिखते रहा कीजिएगा आपकी लेखनी में अद्भुत ज्ञान ज्योति शा अनुभव होता है
ReplyDeleteआपका आभार , सच अद्भुत शांति की अनुभूति हो रही है, इन दिनों।
ReplyDeleteपूरा प्रयास करूँगा कि सत्य का अनुसरण करते हुए अनुभव को विचारों के माध्यम से प्रस्तुत करता रहूँ।
प्रणाम।
" पथ और प्रकाश दो तो चलने की शक्ति पाए
ReplyDeleteगुरुवर तुम्ही बता दो किसके शरण में जाये "
गुरु कृपा से आपका , पथ प्रकाशित हो चूका हैं ,बस अब चलते रहे मंजिल जरूर मिलेगीं ,सादर नमस्कार
जी, मानव जीवन में इसीलिए गुरु का सर्वाधिक महत्व है, यह मैं अब समझ पा रहा हूँ। वे ही इस मायामोह से हमें बाहर निकालते हैं। वे ही पथप्रदर्शक हैं।
ReplyDeleteआपका बहुत- बहुत आभार , प्रणाम।
भौतिक जीवन के सुखों के स्थान पर आध्यात्मिक जीवन की श्रेष्ठता
ReplyDeleteपर बल देता अत्यंत सुन्दर लेख शशि भाई ।
आपका आभार, मेरी अनूभूति यही कहती है कि लौकिक सुख नश्वर है ,लौकिक संबंधों में निरंतर परिवर्तन है,परंतु अध्यात्मिक संबंध हमें निरंतर शीर्ष पर लेते जाते हैं, वहाँ से पतन का कोई मार्ग नहीं है, वरन हम आनंद की ओर बढ़ते जाते हैं।
Deleteप्रणाम।
दुविधा में फसा हुआ है मन,गुरुवर पार लगा जाना।
ReplyDeleteभूल गए हैं हम सत्कर्म,तुम ज्ञान की लौ जगा जाना।
जब भी हम राह भटकने लगते हैं एक गुरु ही हैं जो हमारे मन में ज्ञान की लौ जगाकर जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। बेहतरीन लेख लिखा भाई जी
यदि गुरु पर विश्वास होगा, तो आनंद की प्राप्ति निश्चित है, इसमें तनिक भी संदेह नहींं
Deleteआपका आभार, प्रणाम।
शशि जी,आप उन कुछ लोगों में एक हैं जिनके लिए मेरे मन में बहुत सम्मान है।आपका जीवन संघर्षों की एक ऐसी कहानी है जिससे अनेकों को प्रेरणा मिल सकती है।आप सदा सुखी,प्रसन्न रहें,रचनाधर्मिता के पथ और अग्रसर रहें यही मङ्गल कामना है मेरी।💐💐👏
ReplyDeleteश्री प्रदीप मिश्र जी
वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता ने यह टिप्पणी कर मेरा उत्साहवर्धन किया है।
शशि भाई आपका आलेख देखा,
ReplyDeleteमेरे अनुभव तो और कटु रहे हैं
अकेले में चरण स्पर्श करने वालों
ने भीड़ में पहचानने से इंकार कर
दिया है,जिन्हें स्थापित करने में
अपना सर्वस्व झोंक दिया उन्हें
मेरी समस्या को लेे कर एक समाचार लिखने का समय नहीं
रहा,अमर उजाला के एक ब्यूरो
चीफ अपवाद रहे।
जनपद के स्थापित साहित्यकार
एकाध को छोड़ डा ह की भावना
से त्रस्त हैं तो उर्दू के लोगों के
लिए बाहर का आदमी हूं ,ना
इधर का ना उधर का और इसका
बड़ा कारण यह भी रहा की कुछ
पहले से स्थापित रिश्तेदारों से
संबंध तनाव पूर्ण रहे।
होता यह है कि हम परिचितों
को मित्र समझने की गलती करते
हैं और हमारी उदारता ही हमारी
शत्रु हो जाती है, हुरमत साहब का
एक शेर है,
रस की सो त बनेगी दुश्मन,
गन्ने से चुप सोच रहा हूं।
बस कहीं लिप्त ना हों,किसी से
कोई अपेक्षा मत रखिए,निर्बल के
बल राम ,आपके गुरु जी भी यही
कहना चाह रहे होंगे।
धन्यवाद
श्री अधिदर्शक चतुर्वेदी जी ,पूर्व अभियंता की टिप्पणी , ये वरिष्ठ साहित्यकार हैं, इन दिनों मुंबई में रहते हैं।
जी , प्रणाम दी , बहुत- बहुत आभार आपका
ReplyDelete