रिश्ते न संभाल पाया जीवन के
माँ , तुझे ढ़ूंढता रहा अपनों में
बीता बसंत एक और जग में
जो पाया सो खोया मग में ?
माँ, स्नेह फिर से न मुहँ खोले
अरमान सभी कुचल दे उर के
दिल झर झर न बरसे सावन में
मुक्ति दे चिर विधुर जीवन से।
दिये असीम प्यार उपहार तुमने
बस एक और वरदान मुझे दे ।
बन गगन का टिमटिमाता दीपक
वह दुलार तेरा फिर से पाऊँ माँ !
तुझ जैसे कुछ लोग मिले जब
पवित्र स्नेह था उनके हिय में ।
अपराधी हूँ मैं उनका भी अब
यह तिरस्कृत जीवन हर ले माँ !
माँ , क्षमादान दिलवाना उनसे
बस इतना कहलाना इनसे ।
दुख जीवन में अनेक उठाये
माँ के प्यारे तुम सो जाओ ।
माँ , अब ना धैर्य बंधाना मुझको
मंजिल नयी न दिखाना मुझको।
करता विलाप विकल मन मेरा
प्यार से तू ही मुनिया कह दे ।
माँ , देखो आज जन्मदिन मेरा
क्यों रुलाता व्यर्थ ये सबेरा ?
तुझ बिन कौन मनाये इसको
सूना पड़ा यह दिल का बसेरा।
अस्थि- पंजर से लिपट कर माँ
कब तब तड़पू आहें भर- भर !
न मिला हँसने का अधिकार मुझे
बना पाप- अपराध जीवन भर ।
माँ ,ये हृदय मधु-कोष जो मेरा
विषधर-सा क्यों लगता सबकों ?
लुटा कर सर्वस्व जीवन अपना
न दे सका अमृत बूंद किसी को !
ना कुर्ता न पैजामा है माँ
बाबा ने ना कुछ भेजा है माँ ।
हाड़ी दादू केक न लाते
लिलुआ से बड़ी माँ न आती।
माँ , मौसी भी दूर हुई जबसे
बिखर गयी खुशियाँ जीवन से
अँखियों में अंधियारा छाया
लेखनी थम गयी जीवन की ।
पत्थर के दिल मोम न होंगे
हँसते हैं ये सब जग वाले ।
अब तो आ के गले लगा ले
देश पराया और लोग बेगाने ।
-व्याकुल पथिक
28 जुलाई 2019
( जीवन की पाठशाला )
माँ , तुझे ढ़ूंढता रहा अपनों में
बीता बसंत एक और जग में
जो पाया सो खोया मग में ?
माँ, स्नेह फिर से न मुहँ खोले
अरमान सभी कुचल दे उर के
दिल झर झर न बरसे सावन में
मुक्ति दे चिर विधुर जीवन से।
दिये असीम प्यार उपहार तुमने
बस एक और वरदान मुझे दे ।
बन गगन का टिमटिमाता दीपक
वह दुलार तेरा फिर से पाऊँ माँ !
तुझ जैसे कुछ लोग मिले जब
पवित्र स्नेह था उनके हिय में ।
अपराधी हूँ मैं उनका भी अब
यह तिरस्कृत जीवन हर ले माँ !
माँ , क्षमादान दिलवाना उनसे
बस इतना कहलाना इनसे ।
दुख जीवन में अनेक उठाये
माँ के प्यारे तुम सो जाओ ।
माँ , अब ना धैर्य बंधाना मुझको
मंजिल नयी न दिखाना मुझको।
करता विलाप विकल मन मेरा
प्यार से तू ही मुनिया कह दे ।
माँ , देखो आज जन्मदिन मेरा
क्यों रुलाता व्यर्थ ये सबेरा ?
तुझ बिन कौन मनाये इसको
सूना पड़ा यह दिल का बसेरा।
अस्थि- पंजर से लिपट कर माँ
कब तब तड़पू आहें भर- भर !
न मिला हँसने का अधिकार मुझे
बना पाप- अपराध जीवन भर ।
माँ ,ये हृदय मधु-कोष जो मेरा
विषधर-सा क्यों लगता सबकों ?
लुटा कर सर्वस्व जीवन अपना
न दे सका अमृत बूंद किसी को !
ना कुर्ता न पैजामा है माँ
बाबा ने ना कुछ भेजा है माँ ।
हाड़ी दादू केक न लाते
लिलुआ से बड़ी माँ न आती।
माँ , मौसी भी दूर हुई जबसे
बिखर गयी खुशियाँ जीवन से
अँखियों में अंधियारा छाया
लेखनी थम गयी जीवन की ।
पत्थर के दिल मोम न होंगे
हँसते हैं ये सब जग वाले ।
अब तो आ के गले लगा ले
देश पराया और लोग बेगाने ।
-व्याकुल पथिक
28 जुलाई 2019
( जीवन की पाठशाला )
हृदयस्पर्शी...बच्चे के मन की व्यथा माँ ही समझ सकती है । बिना उसके संसार के समस्त सुख , रिश्ते-नाते अधूरे से जान पड़ते है ।
ReplyDeleteजी मीना दी आभार एवं प्रणाम।
Deleteमाँ को मार्मिक उद्बोधन शशि भाई |
ReplyDeleteइंसान कितना भी बड़ा क्यों ना हो जाए ,माँ की स्नेहिल याद हर दुःख -सुख का निर्मल अवलंबन बनकर रहती है |भावपूर्ण और हृदयस्पर्शी रचना के लिए हार्दिक शुभकामनायें |सस्नेह --
जी दी
Deleteइसी महीने मैंने माँ को खो दिया था।
बहुत-बहुत आभार गुरु जी
ReplyDeleteआपका बहुत-बहुत आभार।
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक और हृदय स्पर्शी सृजन आदरणीय शशि भाई.
ReplyDeleteसादर
जी अनीता बहन आभार।
Deleteमर्मस्पर्शी।
ReplyDeleteजी भाई साहब,प्रणाम।
Delete[15/12, 08:27] अनिल यादव न प: हृदयस्पर्शी लेखन
ReplyDelete[15/12, 08:33] अनिल यादव न प: जीवन के तमाम दुखों को आप अपने लेखन में पिरो देते हैं कि वह पढ़ते हुए हर किसी को छू जाता है।
[15/12, 08:34] अनिल यादव न प: जीवन की सच्चाई उनको शब्द देने वाले विरले ही होते हैं।
[15/12, 08:35] अनिल यादव न प: जब भी कोई पूछता है कि क्या हाल है तो हम लोग यही कहते हैं कि सब अच्छा है, लेकिन हकीकत इसके विपरीत होता है।
[15/12, 08:35] अनिल यादव न प: बिल्कुल मेरे भाई बिल्कुल करते रहिए, यही शब्द सरिता है बहाते रहिए।
[15/12, 08:36] अनिल यादव न प: बिल्कुल बिल्कुल जीवन की सच्चाई को लिखने वाले कम ही होते हैं।
[15/12, 08:36] अनिल यादव न प: मुझे यह बहुत अच्छा लगता है कि पत्रकारिता जगत् में, विशेष रूप से मिर्जापुर में सच को लिखने वाला, दिल की बात को लिखने वाला एक ऐसा शख्स है जिसका नाम श्री शशि गुप्ता है।
[15/12, 08:37] अनिल यादव न प: न किसी की प्रशंसा ना किसी का आलोचना, सिर्फ सच को दिखाना और सच के साथ रहना।
[15/12, 08:37] अनिल यादव न प: सच्चाई का सूरज कभी छुपता नहीं, वह सब को गर्मी और रोशनी दोनों देता रहता है।
[15/12, 08:38] अनिल यादव न प: ईश्वर से यही कामना है कि आप हमेशा स्वस्थ रहें। समाज का मार्गदर्शन करते रहें।
[15/12, 08:38] अनिल यादव न प: सुख और दुःख के साथ जीना है पड़ता है मेरे भाई
श्री अनिल यादव जी न सिर्फ नगरपालिका परिषद के गौशाला का कार्यभार संभाले हुये हैं,बल्कि अत्यंत संवेदनशील और अपने कार्यों के प्रति सजग भी रहते हैं।
Deleteऔर हाँ ,शाम ढलते ही उनकी रचनाओं में भी प्रेम का सागर उमड़ने लगता है।
भावपूर्ण,हृदयस्पर्शी पंक्तियाँ आदरणीय सर।सादर प्रणाम।
ReplyDelete