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पुत्र के मामले में माता-पिता और पति के मामले में पत्नी की दृष्टि जबतक सजग नहीं होगी , पुरुषों के ऐसे पाशविक वृत्ति एवं कृत्य पर अंकुश नहीं लग सकेगा**********************************
" तुम्हारी दोनों मौसी नहीं दिख रही हैं.. क्या वे दार्जिलिंग वापस चली गयी हैं..अच्छा,अब फिर कब आएँगीं..। "
वह दुग्ध सामग्री विक्रेता जब भी यह प्रश्न करता था , मैं कुछ भी नहीं समझ पाता था और समझता भी कैसे, मात्र दस वर्ष का ही तो था। छं
बनारस में मेरे मोहल्ले में ही उसकी बड़ी- सी दुकान थी और ठंड के मौसम में जब भी दार्जिलिंग वाले नानाजी का परिवार पूरे माहभर के लिये यहाँ नटराज होटल आता था , तो ये मौसियाँ मेरी मम्मी से मुलाकात करने घर पर आया करती थीं। रास्ते में लस्सी पीने अथवा रबड़ी- मलाई खाने के लिये वे मुहल्ले के उसी दूध की दुकान पर जाती थीं, जहाँ उनकी अनुपस्थिति में मुझसे ये सवाल पूछे जाते थें। मेरा बालमन उनकी मंशा को भला क्या समझ पाता, फिर भी मौसियों को लेकर उनकी हँसी- ठिठोली मुझे बिल्कुल नहीं भाती थी।
दरअसल , मेरी ये मौसियाँ न सिर्फ काफी खूबसूरत थीं, बल्कि जींस-शर्ट पहना करती थीं, बिल्कुल, सिने जगत की हीरोइन वे लगती थीं।
चार दशक पूर्व काशी जैसी सांस्कृतिक नगर में इस तरह के परिधान में युवतियों का दर्शन दुर्लभ था, इसीलिए जब भी वे आती थीं, मेरे मोहल्ले में वे आकर्षक का केंद्र बन जाती थीं। हाँ, तब काशी की संस्कृति का यह प्रभाव था कि महिलाओं को देख छींटाकशी कोई नहीं करता था।
अब मैं समझ सकता हूँ कि उनके ऐसे परिधान , हमारे गली, मोहल्ले शहर के वातावरण के अनुरूप नहीं थें। जिस कारण ही ये युवक चाहकर भी अपने मनोभाव को नहीं दबा पाते थें। संभव है कि प्रबुद्ध वर्ग का एक तबका इसे सांस्कृतिक राजधानी काशी के वासियों का तब आधुनिक परिधान के मामले में पिछड़ापन कह सकता है और ऐसे लोगों ( दुग्ध विक्रेता) को मानसिक रूप से बीमार भी बता सकता है।
अतः मैं इससे आगे कुछ नहीं कहना चाहूँगा , क्यों कि स्त्री के परिधान पर चर्चा करूँगा ,तो तथाकथित आधुनिक सभ्य समाज के रखवाले ठंडा लिये बैठें हैं। वे मुझे दकियानूसी प्रवृत्ति का बता न सिर्फ उपहास करेंगे , वरन् नारी संगठनों के झंडाबरदार मुझे आधी आबादी का विरोधी बताकर सामाजिक बहिष्कार तक का फतवा जारी करा सकते हैं।
सत्य तो यह भी है कि यदि हम पुरुषों ने अपने पारम्परिक परिधानों का त्याग कर दिया है,तो फिर स्त्रियों को हमें यह कहने बिल्कुल अधिकार नहीं है कि वे क्या पहने अथवा नहीं पहने। बस मैं इतना कहना चाहता हूँ कि यदि कोई युवती साड़ी अथवा सलवार सूट में है , तो उसे " बूढ़ी अम्मा " इस आधुनिक समाज के नुमाइंदे न कहें।
हाँ, जो हालात है उस पर एक शे'र आपसभी के लिए यहाँ पेश है-
रखो जिस्मों को ढक के एहतिआतन,
सड़क पर भूखे कुत्ते घूमते हैं !
संभल के घर से तुम बाहर निकलना
यहाँ हर तरफ दरिन्दे घूमते हैँ !
हमारे मीरजापुर नगर के युवा शायर खुर्शीद भारती का यह शे'र समसामयिक है, नारी-सम्मान में 'यंत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता' के निरन्तर उद्घोष वाले देश में उन सभी महिलाओं के लिए , ताकि वे पशुवत आचरण की ना शिकार हो। पता नहीं क्यों अपने देश में जहाँ पुरुषों का परिधान बड़ा होता जा रहा है, वहीं स्त्रियों के वस्त्रों में निरंतर कटौती होती जा रही है, मानों देश की सारी गरीबी की मार इनके कपड़ों पर ही पड़ी हो।
दूषित वातावरण सृजन में मीडिया भी पीछे नहीं
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अध्यात्म, साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकार पर स्पष्ट विचार रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार सलिल पांडेय जी का इस संदर्भ में कहना है कि ऐसे दूषित वातावरण के सृजन में मीडिया भी कम जिम्मेदार नहीं है। इस मामले में खासकर दृश्य मीडिया की जिम्मेदारी है कि वह सिर्फ न्यूज ही नहीं ऐसे विज्ञापनों के प्रसारण से बचें जो भारतीय संस्कारों का चीरहरण कर रहा हो । कुछेक चैनलों की एंकर तक एडल्ट फ़िल्म के ड्रेस में दिखती है । न्यूज पढ़ते समय फिल्मी अंदाज कहाँ तक उचित है? इस पर चिंतन की जरूरत है । महिला पुलिस अधिकारी, जज तो ड्रेस कोड में ही ड्यूटी करती हैं ! न्यूज को प्रोडक्ट बनाने से बचें या नैतिकता की दुहाई न दें । अन्यथा यह तीरघाट और मीरघाट एक करने की असफल कोशिश कहीं जाएँगी ।
उनका यह भी कहना रहा कि बड़ा नारा लगता है -"भारत में रहना है तो हर काम भारतीय रिवाज और परंपराओं से किए जाएँ ।" तो पहनावे के मामले में भी महिलाएँ समझें कि वे भारत में रहती हैं न कि योरप में ।
जरा विचार करें आप भी कि पाशविकता की शिकार तेलंगाना की महिला चिकित्सक के साथ हुये इस जघन्य अपराध से पहले दिसम्बर 2012 में निर्भया के साथ क्या हुआ था । अकेले नई दिल्ली में ही नहीं, बल्कि पूरे देश में निर्भया की मौत की सहानुभूति में बहुत सारी मोमबत्तियाँ जली थीं । जिसके पश्चात ऐसी जघन्य घटनाओं को रोकने के लिए शासन स्तर पर अनेक होमवर्क किये गये थें। परंतु कठोर सत्य तो यही है कि निर्भया कांड के बाद ऐसी घटनाओं की बाढ़-सी आ गई है । इलेक्ट्रॉनिक/प्रिंट मीडिया में इस तरह की खबरें निरन्तर चल/छप भी रही हैं । सच तो यह है कि किसी भी अमानवीय घटना में दिखावा ज्यादा होता है । सामान्य और कम पढ़े लिखे से ज्यादा तथाकथित बुद्धिमान लोग ऐसे कामों में लिप्त पाए गए । इसमें बहुत से ऐसे लोग चाहे शासन-सत्ता में बैठे हों, आश्रम चलाने वाले संत-महंत हों, मंचों पर नैतिकता पर भाषण देने वाले हों या न्यूज चैनल चलाने और उसमें बहस करने वाले ही क्यों न हों ?
पुरुष क्या विषय वासना का पुतला मात्र !
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मैं इसी चिंतन में डूबा हूँ कि विवाह- बारात के इस मौसम में जहाँ शहनाई की गूंज चहुँओर सुनाई पड़ रही है,वहीं ये कुछ अनसुनी भयावाह चीखें आधुनिक सभ्य समाज के पहरुओं तक क्यों नहीं पहुँच रही हैं,जिनसे मानवता शर्मसार हो गयी है।
महिला चिकित्सक की सामूहिक दुष्कर्म कर हत्या और शव को जला देने की घटना से नारी संगठन ही नहीं हर संवेदनशील व्यक्ति हतप्रभ है ।
इस आधुनिक (अर्थ) युग में मानवीय गुणों का पतन इसतरह से क्यों हो रहा है। इसे स्वछंदता कहें अथवा मनोविकार , मैं तो यह कहना चाहता हूँ कि आधुनिक सभ्य समाज ने हमें नैतिक मूल्यों से वंचित कर दिया है। ऐसी घटनाओं के संदर्भ में क्या कहा जाए..।
सिर्फ वासना की दृष्टि से औरतों को देखने की पुरुषों की यह कैसी प्रवृत्ति है .. ? इस व्यभिचार से क्या वह स्वयं को कभी भी ऊपर नहीं उठ सकता ? मानव को सभी प्राणियों में श्रेष्ठ कहा गया है , किन्तु सच तो यह है कि वह " विषय वासना" का एक पुतला मात्र है। जो अपनी ऐसी दुर्बलता पर कभी भी नियंत्रण नहीं पा सका है।
प्रश्न यह भी है कि वासना की वस्तु त्याग कर और वनवासी होकर भी क्या वासना से पिंड छूट जाता है ..? नासूर बना यह मर्ज क्या लाइलाज़ है.. ?
नारी संगठनों ने जो नहीं किया प्रतिकार
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ऐसी दिल को दहलाने वाली अनेक घटनाएँ विगत 26 वर्षों में जब से पत्रकारिता में हूँ, अपने जनपद में देखता आ रहा हूँ। इनमें से कुछ मामलों में दुष्कर्मी हत्यारे पकड़े जाते हैं , कुछ में नहीं और कई में तो पीड़िता के शव की पहचान तक नहीं हुई है ।
जब मैं मिर्ज़ापुर आया था ,तब पहली घटना शास्त्री सेतु के नीचे देखने को मिली थी। एक युवती के साथ ऐसा घृणित कार्य कर दुराचारियों ने बड़ी निर्ममता से उसकी हत्या की थी। उस अभागी युवती के शव की शिनाख्त अंततः नहीं हो सकी। दूसरी जघन्य घटना और भी भयानक रही, जिला मुख्यालय पर ही घर में सो रहे एक चिकित्सक के आँखों के समक्ष ही उसकी दोनों अविवाहित युवा पुत्रियों के साथ दुष्कर्म कर तीनों की ही निर्ममतापूर्वक हत्या कर दी गयी। इसके पश्चात अनेक घटनाएँ होती रहीं, यहाँ तक अबोध बालिका संग दुराचार कर उसकी हत्या की गयी।
एक बात मुझे समझ में नहीं आयी कि अपने ही जनपद में होने वाली ऐसी घटनाओं के पश्चात यहाँ की नारी संगठनों ने क्यों नहीं प्रतिकार किया ? वे कभी पुलिस अधीक्षक कार्यलय पर यह नहीं पूछने गयी कि ऐसी घटनाओं में पुलिस का होमवर्क कहाँ तक पहुँचा है। उन्होंने अपने जनपद में बच्चों को संस्कारी बनाने के लिये वृहद स्तर पर कोई कार्यक्रम किया हो , ऐसा कोई अभियान उनका जारी हो, ऐसा कोई मंच मुझे इन ढाई दशक में नहीं दिखा।
हाँ , समय- समय पर संस्कार भारती जैसी संस्थाएँ कुछ कार्यक्रम करवा दिया करती हैं, किंतु मार्डन सोसाइटी में उसके सांस्कृतिक कार्यक्रम आधुनिक विचारधारा वाले जेंटलमैनों के लिये उनके फेसबुक ( सोशल मीडिया) की शोभा बन कर रह गया है।
कैसे सुधरेंगे लोग और क्या होना चाहिए ?
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जब मैं समझदार हुआ और धार्मिक कथाओं के अध्ययन के क्रम में उससे यह वर्णन पढ़ने को मिला कि अमुक अत्याचारी दानव एवं राक्षस अपनी पतिव्रता स्त्री के सतित्व के कारण अजेय हैं और वे महिला सम्मान तक पर डाका डाला करते थें।
ऐसे में एक प्रश्न मैं सदैव ऐसी स्त्रियों से पूछना चाहता था कि क्या उनका कोई कर्तव्य समाज के प्रति नहीं बनता था, क्यों जालंधर वध के लिए पतिव्रता वृंदा का सतीत्व उसके ही आराध्य देव विष्णु को भंग करना पड़ा, इसलिए न कि शिव पत्नी पार्वती पर भी उसकी कुदृष्टि पड़ गई थी और पतिव्रता पत्नी के कारण वह अजेय था।
मेरा प्रश्न वृंदा से यह है कि यदि स्वयं का सतीत्व भंग होने पर वह अपने शरीर का त्याग कर सकती है,तो उसने अन्य स्त्रियों के साथ ऐसा ही दुष्कृत्य कर रहे अपने पति जालंधर का परित्याग क्यों नहीं किया ? इंद्र ने जब अहिल्या के साथ छल किया ,तब इंद्राणी (शची) क्यों मौन रही ? राज्यसभा में द्रौपदी के चीरहरण के समय गांधारी आदि सभी कुरुवंश की महिलाएँँ कहाँँ थींं, वे क्यों मौन थींं और उन्होंने दुर्योधन एवं दुशासन को इस दुस्साहस के लिए दंडित क्यों नहीं किया और परिणाम क्या निकला महाविनाश ?
अपनों द्वारा किये जा रहे अन्याय के विरुद्ध नारी समाज का मौन कब मुखरित होगा,इस आधुनिक सभ्य समाज को इसकी प्रतीक्षा है।
ऐसे उदहारण प्रस्तुत कर मैं यह कहना चाहता हूँ कि नारी -सम्मान को आहत करने के मामले में पुरुष यदि अविवाहित हो तो उसके माता-पिता इसके लिए स्वयं को भी जिम्मेदार माने और
संस्कारहीन अपने दुष्कर्मी पुत्र का सार्वजनिक रूप से परित्याग करें। इसी प्रकार से पति की दुश्चरित्रता में पत्नी को भी अर्धांगिनी होने के कारण स्वयं को दोषी मानते हुये , उसका (पति) परित्याग करना ही चाहिए।
यह पारिवारिक एवं सामाजिक बहिष्कार ही ऐसे कुकर्मियों की सबसे बड़ी सजा होगी , साथ ही कानून और सख्त हो।
पुत्र के मामले में माता-पिता और पति के मामले में पत्नी की दृष्टि जबतक सजग नहीं होगी , पुरुषों के ऐसे पाशविक वृत्ति एवं कृत्य पर अंकुश नहीं लग सकेगा।
यदि नारी सचमुच सामर्थ्यवान बनना चाहती है,तो उसे वृंदा ,इंद्राणी और गांधारी की तरह जब स्त्रियों पर अत्याचार हो ,तो मौन नहीं रहना होगा और न ही मंदोदरी और सुलोचना की तरह अपने पतियों को उनके कुकृत्य के लिए स्वामी एवं नाथ कह कर समझाना होगा ,बल्कि सार्वजनिक रूप से उसकी भर्त्सना करनी होगी ।
एनकाउंटर विकल्प नहीं
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गत शुक्रवार की सुबह यह खबर आयी कि महिला चिकित्सक के साथ दुष्कर्म करने वाले चारों आरोपी पुलिस एनकाउंटर में मारे गये हैं। जिसे लेकर प्रबुद्धवर्ग का एक तबका सवाल उठा रहा है , लेकिन मातृ शक्तियों ने ही नहीं आम जनता ने भी पुष्प वर्षा कर पुलिस कार्रवाई का स्वागत किया है।
फिर भी बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि जब राष्ट्र के संविधान द्वारा तय न्याय व्यवस्था से इतर यदि " दरोगा ही न्यायाधीश " बन जाए और किसी के जीवन-मृत्यु का निर्णय लेने लगे , तो क्या यह व्यवस्था लोकतंत्र के लिए अत्यंत घातक साबित नहीं होगी ?
यह भीड़तंत्र आज भले ही ऐसे त्वरित न्याय पर "जय हो " का उद्घोष कर रहा है, लेकिन भविष्य में इसके गंभीर परिणाम सम्भव है।खाकी वाले फिर तो परम स्वतंत्र हो जाएँगे ?
एनकाउन्टर पर प्रबुद्धजनों ने तमाम सवाल किये हैं। पहला यह कि क्या जिन आरोपियों को पकड़ा गया वही बलात्कारी थे? दूसरा ,सैकड़ों पुलिसवालों के साथ मुंह ढांककर हथकड़ी लगाकर जिन आरोपियों को हिरासत के सात दिन बाद घटनास्थल पर ले जाया गया क्या उनके पास कोई हथियार थे? क्या उन्होंने बंद गाड़ी में पुलिस वालों पर हमला किया था? तीसरा आरोपियों को रात के तीन बजे पुलिस को घटना स्थल पर ले जाने की क्या जरूरत थी? चौथा क्या एनकाउन्टर सुनियोजित था तथा तेलंगाना पुलिस के मुखिया एवं मुख्यमंत्री के निर्देश पर प्रायोजित किया गया था? पांचवां महत्वपूर्ण सवाल यह है कि पीयूसीएल वेर्सेस स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र, सीडीजे 2014 एससी 831 प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पुलिस इनकाउन्टर को लेकर जो 16 गाइडलाइन दी गई थी, उनका पालन किया गया है या नहीं?
डाक्टर सुनीलम जो कि मध्यप्रदेश के पूर्व विधायक (दोबार)और समाजवादी पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय सचिव वर्तमान राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं , का कथन है कि एनकाउंटर के नाम पर सुनोयोजित हत्याएं महिलाओं के खिलाफ अपराध रोकने का कोई स्थायी हल नहीं है। उनका यह भी कहना है कि देश में औसतन हर वर्ष पचीस हजार से तीस हजार बलात्कार के प्रकरण दर्ज किये जाते हैं। 98 प्रतिशत बलात्कारी पीड़िता के पूर्व परिचित होते हैं,तो मुख्य सवाल यह है कि क्या जिस पर बलात्कार का आरोप लगे उसका एनकाउन्टर कर दिया जाना चाहिये?
वैसे, हाईकोर्ट ने इस मामले को संज्ञान में लिया है और पोस्टमार्टम का वीडियो मांगा है। 9दिसंबर तक चारों शव सुरक्षित रखने का आदेश भी दिया है। तेलंगाना मुठभेड़ की जाँच राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की विशेष टीम भी करेगी।
वहीं, चीफ जस्टिस बोबड़े का यह बयान - " बदला न्याय नहीं हो सकता, न्याय जल्दबाजी में नहीं होता, न्याय का चरित्र खराब ना करें । "
देश की जनता को इस पर गंभीरता से चिंतन करना चाहिए।
- व्याकुल पथिक
शशि भाई ,जरूरत और फैशन में
ReplyDeleteफर्क समझना जरूरी है, जीन्स और
शर्ट, छोटे केश महानगरीय महिला की विवशता है,लोकल ट्रेनों, बसों
में चढ़ती उतरती समय पर कार्य
स्थल पर पहुंचने की मजबूरी समझ
में आने वाली है,किन्तु छोटे शहर,
कस्बों की लड़कियां इसे फैशन
समझती हैं और विज्ञापन एजेंसियां
इसमें सहायक हो जाती हैं, कस्बाई
परिवेश में पले पगे लोग उन्हें गलत
समझ लेते हैं।
शर्म आंखों में हुआ करती है नकि
पर्दे में,जो सड़क पर निकलेगा वो
नजर आएगा,विहंगम दृष्टि पड़ना
स्वाभाविक है,लेकिन दृष्टि में पाप
नहीं होना चाहिए लेकिन शोहदे
हर जगह हैं और यहीं पुलिस की
भूमिका का आगाज होता है।
आपने पौराणिक पात्रों का जिक्र
किया है,तो जब जब महिला के साथ
छल, प्रपंच,कपट का सहारा ले कर
अनर्थ हुआ है,भयावह विनाश के
दृश्य उपस्थित हुए हैं,सीता का अपहरण हुआ तो कालजयी ग्रंथ
रामायण का सृजन हुए,लंका राख
हो गई, द्रौपदी का अपमान हुआ
तो महाभारत रचा गया, ट्रॉय का
राजकुमार एक अन्य राजा की
विवाहिता हेलेन को भगा ले आया
तो ट्रॉय नगर नष्ट हो गया, इलिय ड
जैसी कृति होमर ने दी, दक्षिण
भारत का महान चोल साम्राज्य
देवी कन्नगी के श्राप की ताब न
ला सका और ध्वस्त हो गया और
रामायण जैसी कालजई कृति
Shilappadikaram प्राप्त हुई।
इस कृति में एक नारी पात्र माधवी
है जो वैश्या है,उसके सवाल का
जवाब पुरुष समाज से आज तक
अपेक्षित है कि पुरुष नारी को किस
रूप में देखना चाहता है ,देवी
कन्नगी के रूप में या वैश्या माधवी
के रूप में,पुरुष की प्रकृति आश्चर्य
का विषय है अपनी एक कहानी
सुहाग का शव में प्रेमचंद जी ने एक
महिला पात्र से कहलाया है।
ईसाई, मुस्लिम और यहूदी समाज
में भी हालत कम बुरी नहीं है,
Only one apple,fruit of
Wisdom,bite and women
would suffer till eternity,
अतीत से चिपके रहने का मोह और
वर्तमान से होड़ लेने की तड़प ने
मनुष्य को भ्रमित कर के मनुष्य
नहीं रहने दिया है,कहना ग़ालिब का
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसान
होना,इसके बाद कहने के लिए
कुछ नहीं रह जाता,
सुप्रभात, नमस्कार।।
- अधिदर्शक चतुर्वेदी , वरिष्ठ साहित्यकार
सटीक चिंतन।
ReplyDeleteजी भाई साहब धन्यवाद, प्रणाम
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 08 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत - बहुत आभार यशोदा दी
Deleteसटीक और सार्थक सृजन
ReplyDeleteजी धन्यवाद दी
Deleteसटीक प्रस्तुति👌👌👍
ReplyDeleteजी धन्यवाद दी
Deleteमेरा प्रश्न वृंदा से यह है कि यदि स्वयं का सतीत्व भंग होने पर वह अपने शरीर का त्याग कर सकती है,तो उसने अन्य स्त्रियों के साथ ऐसा ही दुष्कृत्य कर रहे अपने पति जालंधर का परित्याग क्यों नहीं किया ?
ReplyDeleteयह पारिवारिक एवं सामाजिक बहिष्कार ही ऐसे कुकर्मियों की सबसे बड़ी सजा होगी , साथ ही कानून और सख्त हो। पुत्र के मामले में माता-पिता और पति के मामले में पत्नी की दृष्टि जबतक सजग नहीं होगी , पुरुषों के ऐसे पाशविक वृत्ति एवं कृत्य पर अंकुश नहीं लग सकेगा।
मैं आपके इन बातों से पूर्णतः सहमत हूँ शशि जी ,आपने बहुत ही अच्छी बात कही हैं ,मेरा भी यही मानना हैं कि घर -परिवार ,संस्कार और समाज बनाने की पहली जिम्मेदारी स्त्रियों की रही हैं और रहेंगी ,खुद को सँभालने की जिम्मेदारी भी उन्ही की रही हैं ,फिर भी ना जाने क्यों हम अपने आप को अबला कह पुरुषों का मुँह तकती रहती हैं आज इतनी स्वलंम्बी होने के बाद भी। मेरी समझ से इसके लिए भी हम स्त्रियाँ ही जिम्मेदार हैं क्युकी हमने कभी एक दूसरे की हाथ थामने की कोशिश ही नहीं की ,हमेशा पुरुषों की ही हिमाकत करती रही ,हमेशा उन्हें अपनी आँचल में छुपाती रही कभी माँ कभी बहन कभी पत्नी कभी बेटी बनकर। सादर नमन आपको
जी , आपका कथन उचित है, अन्याय अपने प्रिय लोग भी करें, तो हम मौन नहीं रहना चाहिए।
Deleteराज्यसभा में द्रौपदी चीरहरण के समय गांधारी आदि सभी महिलाएँँ कहाँँ थींं, वे क्यों मौन थींं और उन्होंने दुर्योधन और दुशासन को दंडित क्यों नहीं किया और परिणाम क्या निकला महाविनाश?
गंभीर चिन्तन ।
ReplyDeleteजी दी
Deleteमैं अपनी अनुभूतियों के आधार पर चिंतन करता हूँँ और फिर उसे शब्द देने का प्रयत्न करता हूँ। मार्गदर्शन आपका मिलता रहे तो मुझे बहुत खुशी होगी।
अत्यंत गहन चिंतन और विचारोत्तेजक लेख है। हमारे यहाँ स्त्रियाँ ही स्त्रियों का साथ नहीं देती यह सबसे बड़ी विडंबना है।
ReplyDeleteजी मीना दी
Deleteआपने इस लेख पर अपना हस्ताक्षर कर दिया है, तो मेरी लेखनी सार्थक हुई।
प्रणाम।
ज्वलंत प्रश्न उठाती प्रबुद्ध चिंतन देती आपकी ये व्खात्मक चर्चा
ReplyDeleteसचमुच एक सुदृढ़ खाका खींच रही है ।
इतने मुद्दो पर प्रकाश डालता सचमुच
हर अखबार में प्रकाशित होना चाहिए ।
साधुवाद ।
जी कुसुम दी मैं अपने वाले में तो करवा सकता हूँ।
Deleteप्रणाम।
मैने तो कल ही आपको अपने विचार आपके व्हाट्सएप पर भेज दिये थे.वैसे आप ने इस विषय पर अपने विचार रखने के साथ हमारे भी विचारों को जगह दी भले ही प्रबुद्ध वर्ग या जेंटलमैन कह कर.फिर भी आप ने सभी पक्षों की बात रख एक निष्पक्ष कोशिश की है.इस विषय या नारी मुक्ति के सवाल पर हमारे बीच मत भिन्नता है.और इस कारण हम इस समस्या को अलग अलग ढंग से देखते हैं. शेष मिलने पर त्र
ReplyDeleteधन्यवाद सलीम भाई
Deleteआपकी प्रतिक्रिया अच्छी लगी, यदि नारी सचमुच स्वयं का कल्याण चाहती है,तो उसे वृंदा ,इंद्राणी और गांधारी की तरह जब स्त्रियों पर अत्याचार हो तो मौन नहीं रहना होगा और ना ही मंदोदरी और सुलोचना की तरह अपने पतियों को उनके कुकृत्य के लिए स्वामी एवं नाथ कह कर समझाना होगा बल्कि उसकी भर्त्सना करनी होगी।
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (09-12-2019) को "नारी-सम्मान पर डाका ?"(चर्चा अंक-3544) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं…
*****
रवीन्द्र सिंह यादव
बहुत-बहुत आभार आपका मंच पर स्थान देने के लिए..
Deleteमहिलाओं के साथ रेप की घटनाएं विश्वव्यापी घटनाएं रही हैं और आज भी हैं । इन घटनाओं के महिलाओं के द्वारा रेप की बढ़ती घटनाओं के ख़िलाफ़ एक गीत गाया जा रहा है - अ रेपिस्ट इन योर पाथ । यह गीत अर्जेंटीना की थ्योरिस्ट रिता सेगेटो के एक अध्ययन पर आधारित है । यह गीत चिली के वेलपेरेइसो शहर के फेमिनिस्ट थियेटर ग्रुप लेटसिस द्वारा लिखा गया था जो बाद में यौन हिंसा के खिलाफ़ महिलाओं की आवाज़ बन कर उभरा । इस गीत के मुताबिक यौन हिंसा नैतिक नहीं, राजनैतिक समस्या है । इसीलिए गीत के बोल पुलिस, न्यायव्यवस्था और राजनैतिक ताक़तों से सवाल करते हैं-
ReplyDeleteद रेपिस्ट इस यू
इट्स द कॉप्स, द जजेज,
द स्टेट्स, द प्रेजिडेंट
(बलात्कारी आप है, पुलिस, जज, राज्य, राष्ट्रपति हैं)
गीत की एक पंक्ति है-
एंड इट्स नॉट माई फाल्ट
नार वेयर आई वॉज़
नार व्हाट आई वोर
(और यह मेरी गलती नहीं, न ही मेरी यह गलती है कि मैं किसी ख़ास जगह पर थी, न यह कि मैंने क्या पहना था)
इस गीत को सबसे पहले नवंबर के आख़िर में महिलाओं द्वारा गया गया था । इसके बाद वायरल होने के तुरंत बाद पूरे लैटिन अमेरिका में तेजी के साथ फैल गया । इसके बाद महिलाओं ने मैक्सिको, कोलंबिया, स्पेन, फ्रांस, यूके इत्यादि अन्य जगहों पर भी महिलाओं ने सामूहिक रूप से इसे सड़कों पर गाया । यह बात सही प्रतीत होती है कि महिलाओं के प्रति होने वाली यौन उत्पीड़न के ये घटनाएं विश्वव्यापी घटनाएं नैतिक से बहुत ज्यादा राजनैतिक और व्यवस्थागत समस्या ही है जो विश्वव्यापी पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर बढ़ते संकट के परिणामों के रूप में प्रकट हो रही हैं । भारत में भी उभरती सामंती शक्तियों और पूंजीवादी व्यवस्था में गहराते संकटों के कारण यह समस्या रफ़्तार पकड़ रही है । इन पूंजीवादी व्यवस्थागत नाकामियों और कमजोरियों पर पर्दा डालने के लिए ही त्वरित न्याय के नाम पर राज्य द्वारा मुठभेड़ जैसी गैरकानूनी और असंवैधानिक घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा है । यह घटनाएं साबित करती हैं कि भारत में सामंती-पूंजीवादी गठजोड़ पर आधारित व्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त हो चुकी है । दूसरी ओर, राजनीतिक चेतना की कमी की वजह से जनता भी व्यवस्था के विरोध की बजाय तालियां बजा रही है । यह दुर्भाग्यपूर्ण है ।
साभारः कामरेड मो0 सलीम
गंभीर चिन्तन ।
ReplyDeleteसटीक प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक लेख शशि भाई | नारी जीवन पर ये विवेचनात्मक लेख अपने भीतर कई ज्वलंत पश्नों के साथ कई समस्याओं का हल समेटे है | सचमुच एक नारी के प्रति दूसरी नारी का भेदभावपूर्ण रवैया सदियों से एक अनुत्तरित प्रश्न सा उलझा है | जहाँ भी हम नारियां एक नारी का अपमान होते देखती हैं कन्नी काट निकल जाने में ही अपनी भलाई समझती हैं | ना जाने क्यों हमें नही लगता कि आज जिस स्थान पर कोई और है उस स्थान पर कल हम भी हो सकते हैं | | सामूहिक शक्ति में अतुलनीय बल होता है पर शायद सदियों से भीतर व्याप्त कुंठाएं या आत्महीनता हमें बेबाक , निष्पक्ष निर्णय लेने में बाधक बन जाती हैं | पुराणों के स्त्री विषयक प्रसंग तो हैरान कर देते हैं हाँ , रामायण में मंदोदरी इसका अपवाद जरुर है , जिसने रावण जैसे बली पति को आखिरी साँस तक समझाने का प्रयास और नारी की अस्मिता के मूल्य का पाठ पढ़ने का प्रयास नहीं छोड़ा ||मंदोदरी इसीलिए अपनी न्यायपूर्ण दृष्टि के लिए विशेष है और प्रातःस्मरणीय और प्रथम पूज्या सात देवियों में शामिल है |और अहिल्या के लिए शची का अन्यायपूर्ण रवैया सोचने पर विवश करता है कि स्वर्ग अधिपति की भार्या क्या इतनी कायर अथवा विवश हो सकती है कि उसे एक नारी के उपर हुए अन्याय पर बोलने का साहस ना हुआ | क्या उन्हें अपनी सत्ता छिन जाने का भय था अथवा स्त्री और देहलोलुप पति के छद्म प्रेम से वंचित होने की कुंठा थी ????????????? ये प्रश्न अनुत्तरित ही रहा है | लेख के जरिये एक नये चिंतन से साक्षात्कार हुआ जिसके लिए साधुवाद और आभार | लेख के साथ साथ , माननीय अभिदर्शक जी ने जरूरत और फैशन का जो अंतर परिभाषित किया है , आजके गिरते नैतिक मूल्यों का दर्पण है |बेटियों के साथ हुए अन्याय की इन्तहा नहीं पर शालीन पहनावा एक स्त्री के सौदर्य में चार चाँद लगाता है नाकि उसे गंवार या पिछड़ा दिखाता है |हाँ यदि कोई महिला छोटे अथवा फैशनेबल कपडे पहनती है तो इसका अर्थ ये नहीं उसे वासना की दृष्टि से ही देखा जाए || सज्जन व्यक्ति उसमें भी अपनी माँ , बहन ,बेटी को ही देखेगा नहीं तो उसकी दृष्टि में खोट है | |
ReplyDelete|अंत में यही , कहना चाहूंगी लेख तो बहुत ही अच्छा है ही अधिदर्शक जी ने जो विषय को विस्तार दिया और सलीम भाई ने भी जिस तरह '' रेपिस्ट इन योर पाथ ''गीत के सन्दर्भ के जरिये , विषय के अनछुए बिन्दुओं को छुआ है वे सराहना के पात्र हैं | दोनों को आभार | आप भी लिखते रहिये |
जी रेणु दी , आपने मेरी इस रचना पर प्रतिक्रिया व्यक्त कर उसे सार्थक कर दिया है।
ReplyDeleteकहना यह चाहता हूँ कि मंदोदरी ने सिर्फ रावण समझाया ही था, परंतु प्रतिकार नहीं किया, पति का परित्याग भी नहीं किया।
जब तक स्त्री में ये दोनों गुण अपने प्रियजनों के प्रति नहीं आएँगे, वे निष्पक्ष नहीं कहीं जाएँगी।
वे अपनी रचनाओं में तो आग उगलती हैं, परंतु अपने परिवार में , विशेष कर पति आदि के समक्ष , उन्होंने समानता के अधिकार का पाठ पढ़ाने से पीछे हट जाती हैं।
इसपर भी चिंतन करें दी।
बहुत ही सुन्दर सटीक चिन्तनपरक लेख...
ReplyDeleteजी धन्यवाद, आपका बहुत - बहुत आभार।
Deleteजी नमस्ते , आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 24 मार्च 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDelete......
सादर
रेणु
आपका अत्यंत आभार रेणु दी।
Deleteआज जबकि निर्भया कांड के दोषियों को फाँसी हो चुकी है और मैंने उस दिन आपसे फोन पर बात करते कहा भी था कि जब उन दरिंदों को फाँसी हो जाएगी, मुझे बहुत खुशी होगी। मेरी कौन थी निर्भया कि मैं 19 मार्च की रात तीन बजे तक जागकर यही इंतजार करती रही कि फाँसी इस बार भी टल तो नहीं जाएगी। प्रिय शशिभाई, ये भी सच है कि केवल इस केस में फाँसी हो जाने से ऐसी घटनाएँ एकदम बंद तो नहीं हो जाएँगी। आज जब छोटे छोटे बच्चों के हाथ में मोबाइल है और मोबाइल में उनको राह से भटकाने के सारे साधन मौजूद हैं,परिवार,समाज और प्रशासन स्त्रियों के साथ होनेवाले अत्याचार को कैसे रोक पाएँगे? और जैसा कि इस लेख में आपने सोदाहरण स्पष्ट भी किया है कि स्त्री के साथ दुर्व्यवहार आदिकाल से चला आ रहा है परंतु जब आरोपी अपना भाई, पति, पुत्र होता है तो स्त्री उसकी ढाल बनकर खड़ी हो जाती है। आपका यह लेख बहुत महत्त्वपूर्ण है,विशेष रूप से जिस तरह आपने एक एक मुद्दे को पकड़कर उसका विस्तार किया है वह एक सधा हुआ लेखक ही कर सकता है। एक पत्रकार के रूप में और एक जागरूक नागरिक के रूप में आप जिस तरह अपनी लेखनी का प्रयोग करते हैं वह अत्यंत प्रशंसनीय है, हृदय पर गहन छाप छोड़ जाता है।
ReplyDeleteजी मीना दी , आपका आभार और आपका स्नेहाशीष इसी प्रकार बना रहे।
Deleteआज सुबह से कोराना को लेकर समाचार संकलन में व्यस्त रहा।
नारी स्वरूप दिखाने के लिए है या छुपाने के लिए है ये आजकल खुद नारी तय कर रही हैं। उनको पक्ष और विपक्ष दोनों को सोच कर पहनावा करना चाहिए न कि आधुनिकता की होड में आकर।
ReplyDeleteदुष्कर्मों के पीछे मनोवैज्ञानिक कारण क्या है" इस पर कभी चर्चा नहीं होती। सही कहा आपने नारी संगठन सिर्फ नाम का काम करते हैं।
बहुत विचारणीय लेख।
आपने बिल्कुल उचित कहा। आपका आभार।
Deleteइस कोरोना के कारण काम हमलोगों का इतना बढ़ गया है कि समाचार संकलन और लोगों के प्रश्नों का उत्तर देते-देते परेशान हूँ।