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Wednesday 4 December 2019

बचत खाता ( जीवन की पाठशाला )


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    मुझे लगा कि धन ऐसी वस्तु है कि कोई यह कहता नहीं दिखता कि बस- बस अब अधिक नहीं.. ? हाँ, सचमुच यह कैसा बचत बैंक है ..! और हमने ऐसा बचत खाता क्यों खोल रखा है ..?
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   पिछले सप्ताह सुपरिचित न्यूरोलॉजिस्ट डॉ पोद्दार से उपचार करवाने वाराणसी गया था। मेरे मित्र इंस्पेक्टर अरविंद यादव के सहयोग से शीघ्र ही नंबर मिल गया और  अपरान्ह तीन बजे तक दवा लेकर खाली हो गया था।
  एकाकी जीवन में जब जवानी का जोश ठंडा पड़ जाता है ,तब सबसे बड़ा भय यदि ऐसे व्यक्ति के समक्ष होता है,तो वह उसका बिगड़ता स्वास्थ्य है ।
   पहले बायीं आँख और अब इसी तरफ के हाथ के अँगूठे एवं हथेली ने जिस तरह से असहयोग का बिगुल बजाया है। उससे अपाहिज होने के भय से मैं निश्चित ही सहमसहमा-सा हूँ।
    सो, नियति के खेल पर चिंतन करते हुए ,पैदल ही समीप स्थित प्रसिद्ध दुर्गा जी मंदिर पर जा पहुँचा।जहाँ का दृश्य देख बचपन की स्मृतियों में खोता चला गया और रात्रि सवा आठ बजे तक मंदिर के इर्दगिर्द चहलकदमी करता रहा।
       वेदना में वह शक्ति है जो दृष्टि देती है। अतः  मैंने देखा एक वृद्ध भिक्षुक गरीबी और बेकसी की जिंदा तस्वीर बना सुबह से ही मंदिर के बाहर बैठा हुआ है । वह , ये बाबू ! कह रह-रह कर  करुण पुकार लगाता  साथ ही उधर से गुजरने वाले देवीभक्तों के समक्ष हाथ में लिया कटोरा बढ़ा दिया करता था। जो भी मिलता , उसे कटोरे से निकाल कर झोली में रखता जाता । कटोरा खाली का खाली रहता और झोली भरती जाती। मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह दिव्यांग भिखारी अपने बचत खाते में कितना धन आदि सामग्री संग्रहित करना चाहता है और क्यों ? इतनी खाद्य सामग्री उसे मिल गयी थी कि उसकी क्षुधा निश्चित ही तृप्त हो गयी होगी । फिर भी वह क्यों दीनता का प्रदर्शन करते हुये सुबह से रात तक हर किसी के समक्ष कटोरा बढ़ाये जा रहा है  ? वह किस अनजाने मोह से जूझ रहा है ?  मानव मन का यह कैसा अतृप्त भाव है.. ?
     ###  मुझे लगा कि धन ऐसी वस्तु है कि कोई यह कहता नहीं दिखता कि बस- बस अब अधिक नहीं.. ? हाँ, सचमुच यह कैसा बचत बैंक है ..! और हमने ऐसा बचत खाता क्यों खोल रखा है ..?  ###
     इसी चिंतन में मैं डूब-सा गया था और पता नहीं कब शाम हो गयी। खैर, मंदिर में हो रही आरती एवं घंटा-घड़ियाल की गूंज से मेरी तंद्रा भंग हुई। मंदिर के मुख्यद्वार की तरफ दृष्टि उठा कर भगवती को नमन किया। जीवन का सन्ध्याकाल सकुशल गुजर जाए, यह प्रार्थना भी की।
  और तभी मैंने देखा कि मुख्यद्वार पर हृष्टपुष्ट शरीर वाला संत वेषधारी एक चालीस वर्षीय व्यक्ति आ खड़ा हुआ है ।  गेरुआ वस्त्र , गले में ढेर सारी मालाएँ और हाथ में कमंडल था । उसकी पारखी निगाहें भक्तों की भीड़ में से कुछ एक पर ज्यों ही पड़ती , वह उस दर्शनार्थी के समीप जा कर धीरे-से फुसफुसाता - " भगत जी ,माता रानी तुम्हारी झोली भरेगी। एक वक्त के भोजन की व्यवस्था करवा दो। "
  उस बूढ़े भिखमंगे की तरह उसके स्वर में तनिक भी याचना का भाव नहीं था। मैं उसके चमकते ललाट और बलिष्ठ शरीर को अपलक देखता रहा। जिसने भी उसे दिया, वह दस-बीस से कम का नोट नहीं था।
  इस दौरान उसे यदि समोसा- ब्रेड पकौड़ा आदि कुछ मिलता , तो उसे वह वृद्ध भिखारी को दे दिया करता था। जैसे , ऐसे व्यंजनों में उसे कोई रुचि नहीं हो।
  मेरे देखते ही देखते दो-तीन घंटे में उसने कोई दो-ढाई सौ रुपये एकत्र कर लिये और जब वह प्रस्थान करने को हुआ , तो मेरी पत्रकारिता जाग उठी। अतः मैं उसके समीप गया और कहा -" बाबा,  जरा ठहरो तो ।"
     उसने सोचा कि कोई बढ़िया आसामी(भक्त ) मिल गया है, जो स्वतः ही उसे यूँ पुकार रहा है। मैंने पुनः उसकी थोड़ी प्रशंसा की और फिर सवाल दागा कि शरीर से इतना बलिष्ठ होकर भी वह एक वक्त का भोजन क्यों मांग रहा है और यदि मंदिर पर आया भी तो मात्र दो घंटे में  ही अपना बाजार समेट अब क्यों जा रहा है। उस बूढ़े भिखारी की तरह रात होने की प्रतीक्षा करता तो कुछ और धन संग्रह कर लेता । मेरी बात सुनकर वह तनिक मुस्कुराया और फिर कहा कि धर्मशास्त्र का उसे भी ज्ञान है, परंतु दुकानदारी उसकी चली नहीं और मेहनत -मजदूरी कभी की नहीं, अतः यहाँ मातारानी के शरण में आ गया है। बिना वेषधारण किये भिक्षा कहाँ मिलती है, अतः ढोंगी महात्माओं- सा श्रृंगार वह किये हुए है, किंतु ब्लैकमेलिंग करने के लिए तिलक- चंदन नहीं लगाया है, न ही झूठ का आश्रय लेता है, जिसने भी भोजन के लिये उसे कुछ दिया , उसके कल्याण के लिए माँ दुर्गा से प्रार्थना करता है और   अनावश्यक किसी भी लौकिक सामग्री (अपने कंधे पर पड़े एकमात्र कंबल की ओर इशारा करते हुये)  का संग्रह नहीं करता है।
    वह संध्याकाल यहाँ मंदिर पर आता है और भिक्षा में जो भी धन मिला , उससे भोजन की व्यवस्था कर आनंदित है। भविष्य के लिये  धन, वस्त्र और अन्न संग्रह को लेकर चिंतित नहीं रहना ही उसके उत्तम स्वास्थ्य का रहस्य है।   लेकिन, उसके बचत खाते का बैलेंस सदैव शून्य रहता है।
       तभी मैंने देखा कि भीख मांग रही एक बच्ची के कटोरे में दो महिलाएँ पाँच- पाँच रुपये के दो सिक्के डालती हैं। जिसे देख उस मासूम बालिका की आँखों में अप्रत्याशित चमक आ जाती है। वह कटोरा लिये सड़क उस पार दौड़ती है। वहाँ ब्रेड पकौड़े वाले को दोनों सिक्के देती है और फिर पकौड़ा हाथ में ले इस तरह से खिलखिलाती है, मानों उसे जीवन की हर खुशी मिल गयी हो , यद्यपि बचत खाते में उसका बैंक बैलेंस भी शून्य ही  है , क्यों कि कटोरा खाली जो हो गया था, फिर भी उसकी आत्मा तृप्त थी।
   बूढ़े भिखारी, संत भेषभूषा वाले उस व्यक्ति और इस बच्ची तीनों की प्रवृत्तियों पर मनन करते वक्त मुझे लगा कि अपना बचत खाता भी टटोल लूँ। याद है आज भी जब वर्ष 1994 में आजीविका की खोज में अपने प्रेस में गया था। उस समय प्रतिदिन 40 रुपया मिला करता था और लगभग 25 रुपया मैं समाचार पत्रों की बिक्री एवं बस के किराये से बचा लेता था। तब मेरे पास कोई बचत खाता नहीं था। प्रतिदिन वाराणसी से मीरजापुर बस के सफर के दौरान मैं आधा किलोग्राम अनार खरीदता था और वापसी के समय भरपेट दूध- मलाई भोजन के पश्चात लिया करता था। धन संचय का कोई लोभ नहीं था। वाराणसी के " कंबल घर " से उस समय जब मैंने एक महंगा स्वेटर खरीदा , तो प्रेस कार्यालय पर मेरे एक शुभचिंतक ने कहा कि दोस्त कुछ पैसे भविष्य के लिये बचा लिया करो। जिसे मैंने हँसकर अनसुना कर दिया था।
 उस दौर में सुबह से रात तक शारीरिक और मानसिक श्रम के बावजूद मुझे बिल्कुल थकान महसूस नहीं हुई।
   परंतु अगले वर्ष मुझे इस अखबार में स्थापित करने वाले सरदार जी , जिन्हें मैं अंकल कहता था, उन्होंने मेरे समक्ष अखबार की मीरजापुर एजेंसी लेने का विचार रखा। उनका कथन था  कि इससे तुम्हारी प्रतिष्ठा बढ़ जाएगी। डाकघर में मेरा बचत खाता खोल दिया गया। मुझे मीरजापुर एजेंसी के लिए आठ हजार रुपया शीघ्र एकत्र करना था ।
  और फिर क्या इस बचत खाते में मैं अपना भविष्य देखने लगा। मैंने  " दस लाख " रुपये एकत्र करने का लक्ष्य रखा । परिणाम यह रहा कि मैं उस संत युवक अथवा बच्ची के तरह नहीं रह गया । मेरा कटोरा उस बूढ़ भिक्षुक की तरह हो गया। जिसे मैं अपनी इच्छाओं का दमन कर अत्यधिक परिश्रम से भरने के प्रयत्न में जुट गया  ।
  कितने वर्ष गुजर गये पत्रकारिता में इतना धन कहाँ था कि वह शीघ्र भर पाता और एक दिन अंतरात्मा की आवाज सुनाई पड़ी- " रे मुर्ख ! जो भी धन तेरे पास है , अब उसका क्या करेगा ? अत्यधिक श्रम कर अपना स्वास्थ्य तो तूने खो दिया है, क्या इसका उपभोग कर सकेगा..? "
   तभी मुझे ढाई दशक पहले वाला वह युवक याद आया । जिसके पास कोई बचत खाता नहीं था , परंतु वह जब कीमती वस्त्र और जूता पहन मीरजापुर की सड़कों पर अखबार बांटने निकलता था ,तो लोग स्तब्ध हो जाते थें। हिष्ट- पुष्ट शरीर और पहनावा देख उसे  कुलीन घराने का घर से नाराज होकर भागा हुआ बिगड़ैल बेटा समझ वे सभी स्नेह वर्षा करते थें।
  परंतु उसी नादान युवक ने बचत खाता खुलते ही , उस कटोरे को भरने के प्रयत्न में अपनी हर खुशियों को पीछे छोड़ दिया ।
  और मित्रों , जिस दिन यह आत्मबोध हुआ, सच  कहता हूँ कि मैंने अपना बचत खाता क्लोज कर दिया है। संचय की प्रवृत्ति से मुक्त हो गया हूँ ।लेकिन, देर से आयी यह सद्बुद्धि किस काम की, अब तो शारीरिक अपंगता की बढ़ने लगा हूँ, उस विकलांग वृद्ध भिक्षुक की तरह..।

   वैसे तो एक बचत खाता  मुझे और स्मरण हो आया है, जब बेरोजगार था और हिय की प्यास बुझाने संत मुरारीबापू की रामकथा सुनने गया था। वहाँ , मैंने देखा कि अनेक भक्त एक पतली डायरी पर राम- राम लिख रहे थें। यह उनका बचत खाता ही था , जिसे रामनामी बैंक में जमा किया जाना था।
    क्या मैंने भी अपने जीवन मे ऐसा कोई बचत खाता खोल रखा है ? जिसकी जगमग से पथिक के विकल हृदय को जीवन के इस संध्याकाल में दिखाई पड़ रहे अंधकार से मुक्ति मिल सके। है क्या कोई ऐसा बचत खाता उसके भी पास..?

   -व्याकुल पथिक
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( बंधुओं, मैं इस लेख के माध्यम से क्या कहना चाहता हूँ ,आप भी जरा विचार करें ,प्रणाम। )

13 comments:

  1. बहुत ख़ूबसूरत.! अस्ल में संतोष का धन ही सबसे बड़ा धन है.जिसका संचय ही हम नहीं करते.और समय समय पर तमाम लोग हमें मिलते रहते हैं जो इस तरफ इशारा करते रहते हैं पर हम फिर मुद्रा संचय में लग जाते हैं.

    -मो0 कामरेड सलीम
    वरिष्ठ भाकपा (माले) नेता

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  2. प्रिय शशि भाई , बचत खाते पर केन्द्रित ये मर्मस्पर्शी लेख बहुत कुछ कहता है | बचत तभी सार्थक है जब जरूरतें पूरी हो चुकी हों | अगर तन -मन की जरूरत पूरी हुए बिना हम बचत पर जुट जाते हैं तो मानसिक और शारीरिक अवसाद झेलते हैं | अनावश्यक बचत को ही निन्यानवे का फेर कहा गया है , जिससे एक आम आदमी जीवन पर्यंत मुक्त नहीं हो पाता |यही माया का फेर चराचर जगत की गतिविधियों का केंद्र है |आपने अपने अनुभव से जता दिया कि आप इस व्यर्थ दौडभाग की प्रवृति से मुक्त हो चुके हैं जो अध्यात्म की ओर बढने की सार्थकता सिद्ध करता है | ईश्वर के नाम का बचत खाता हर किसी के नसीब में कहाँ होता है !हमारे जैसे नश्वर प्राणी अंध दौड़ में लगे इन पंक्तियों को सिद्ध करते जी रहे हैं ---

    बरसों का सामान कर लिया--- पल की खबर नहीं |
    सार्थक ल्रेख के लिए साधुवाद |

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    1. बरसों का सामान कर लिया--- पल की खबर नहीं
      जी दी , बिल्कुल सही कहा प्रणाम।

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  3. बहुत ही ममस्पर्शी लेख लिखा आपने, खुशियों को बचत खाता में कहां जोड़ पाएंगे हम खुशियों की बचत करने लगे तो यह जीवन सर से निकल जाएगा फिर हाथ में सिवाय रेत के ढेर के कुछ भी नहीं बचेगा..!
    कल की चिंता करके बचत करना अच्छी बात तो है लेकिन अपने आज को गवा देना वह सबसे बड़ी मूर्खता है कल को अगर हमारा शरीर ही नहीं बचेगा तो यह बचत किस काम की और आजकल के समय में जीवन अनिश्चित दूरी पर चल रहा है अब क्या होगा किससे कुछ नहीं पता इसलिए जहां तक संभव हो सके अपने वर्तमान में भी खुश रहना चाहिए और बचत करनी चाहिए लेकिन अपने वर्तमान को कष्ट में डालकर नहीं बहुत ही शानदार लेख लिखा आपने बहुत-बहुत बधाई आपको
    और एक बात कहना चाहूंगी शशि जी आप हमेशा अपने अनुभवों का पिटारा खोलकर के एक से एक मोती चुनकर लाते हैं और वह वाकई में बहुत ही उपयोगी मिले होते हैं उन्हें पढ़कर हमें बहुत कुछ सीखने और समझने को मिलता है यूं ही लिखा कीजिएगा

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    1. भविष्य से पहले वर्तमान पर ध्यान देने की आवश्यकता है, परन्तु हम यही भूल कर बैठते हैं।
      आपकी सटीक टिप्पणी से अत्यंत खुशी हुई ।

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (05-12-2019) को    "पत्थर रहा तराश"  (चर्चा अंक-3541)    पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।  
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ 
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. जी प्रणाम , बहुत- बहुत आभार आपका

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  5. बचपन में एक कहानी पढ़ी थी - निन्यानबे का फेर।
    हम सब इसी फेर में जीवन काट देते हैं। बचत खाते में स्वास्थ्य और रिश्तों का बैलेंस शून्य होता जा रहा है। तिजोरी में पड़े हीरे मोती और कंकड़ पत्थर एक होते हैं यदि उनका कोई उपयोग ना हो।
    आपका लेख मेरे लिए बड़ा प्रेरणादायक है। इस प्रकार के लेख लिखकर साझा करने हेतु आपका बहुत बहुत धन्यवाद शशिभाई। ईश्वर आपको स्वस्थ और सकुशल रखें।

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  6. आपसभी का स्नेह बना रहे, इस नश्वर शरीर को लेकर अब मुझे मोह नहीं रहा।
    प्रणाम। आपकी प्रतिक्रिया सदैव उत्साहवर्धन करती है।

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  7. आशा रखें। हमारी शुभकामनाएं भी हैं आपके साथ एक खाता इसे भी मान लें। शीघ्र स्वास्थ लाभ की मंगलकामनाएं।

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    1. बिल्कुल भाई साहब, इससे अधिक खुशी मुझे और क्या होगी, प्रणाम।

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  8. अपरिग्रह पर एक चिंतन ।
    सभी वास्तविक घटनाओं को सुंदर दृश्य दिया है आपने ।
    यथार्थ और प्ररेणा लेने योग्य कथन ।

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    1. जी दी प्रयत्न करता हूँ, की अनुभूतियों को शब्द दे सकूँ।

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yes