( एक सत्यकथा )
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होटल के रिसेप्शन से लेकर चौराहे तक खासा मजमा लगा हुआ था। दरोगा और सहयोगी सिपाही एक वृद्ध व्यक्ति को गिरफ्तार कर समीप के कोतवाली ले जा रहे थें। साथ में एक महिला पुलिसकर्मी थी और उसकी उँँगली थामे वह मासूम बच्ची बिल्कुल डरी-सहमी कभी उस वृद्ध को तो कभी अपने इस नये अभिभावक को देख रही थी ।
तभी तमाशाइयों की भीड़ में शामिल एक आदमी बुदबुदाता है- " अरे ! कैसा घिनौना मिथ्या आरोप !! सत्तर साल का बुड्ढा और आठ साल की यह लड़की.. !!! "
लगता है कि धूर्त होटल मैनेजर से कोई तकरार हो गयी होगी , जिसका ऐसा प्रतिशोध उसने लिया है। अन्यथा बेचारा यह बाबा तो पड़ोसी प्रांत मध्यप्रदेश से इस कन्या का दवा-दारू कराने यहाँ आया करता था । बड़ी भलमनसाहत से सबसे मिलता था । एक से बढ़ कर एक ज्ञान की बातें बताया करता था।
कैसा अंधेर है ! इस भले आदमी को शैतान बता दिया, अबतो नेकी का ..।
उसने अपना संदेह तनिक इस दार्शनिक अंदाज में व्यक्त किया कि मौजूद लोगों में से अन्य कई भद्रजन भी सुर में सुर मिला कर गुटूर गू करने लगते हैं- " हाँ , भाई ! आज कल ऐसा ही जमाना है। "
यदि पुलिस न होती तो बाबा के प्रति उनकी यह अंधभक्ति उस होटल मैनेजर पर भारी पड़ सकती थी। दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों ही यहाँ एक साथ चोंच भिड़ाए खड़े थें। मानों मैनेजर से उनकी कोई पुरानी खुन्नस हो ?
सत्य का अन्वेषण इनमें से कोई नहीं करना चाहता था। बकबक करने वालों में से किसी को भी लड़की के भयाक्रांत मुखमण्डल की ओर देखने की फुर्सत न थी, यद्यपि वे सभी अंतर्जामी बने मैनेजर को पानी पी-पी कर कोस रहे थें..।
आखिर क्या कसूर था होटल के उस अनुशासनप्रिय मैनेजर का ..?
जो उससे प्रतिशोध लेने केलिए भद्रजन यूँ हुंकार लगा रहे थे ..!
उस बाबा को तो कोई नहीं कह रहा था - " मारो ऐसे पापी को।"
ऐसी क्या अंधभक्ति है ?
बाबा, ज्ञानी- ध्यानी था इसलिए ?
और उस अबोध बच्ची की आपबीती भला जानते भी कैसे ये भलेमानुस ।
यदि कानून अपना काम नहीं करे तो ऐसे ढोगी बाबाओं की जय जयकार होती रहे ?
मीडियावाले भी पहुँच चुके थे। ऐसी घटनाएँ उनके लिए मसालेदार खबर तब भी थी और आज ढ़ाई दशक बाद भी है ।
ये पत्रकार दनदनाते हुये सीधे होटल की गैलरी में जा पहुँचे थे । यहीं मैनेजर , कर्मचारी और होटल का मालिक सभी एकत्र थे। कोई होटल के अंदर तो कोई बाहर जा कर मौका मुआयना कर रहा था। मैनेजर का बयान भी लिया गया ।
और तभी बाबा का वह धनाढ्य अनुयायी इनके समक्ष पुनः प्रगट होता है । वह कनखियों से इशारा कर एक पत्रकार को बुला उसके कान में कुछ फुसफुसाया है । उसके चेहरे पर कुटिल मुस्कान फिर से आ जाती है। उसे लगता है कि उसकी योजना सफल होगी। भला घर आयी लक्ष्मी को कौन ठुकराता है ?
मीडियाकर्मियों के पास होटल मालिक से हिसाब चुकता करने का यह एक सुनहरा अवसर था ; क्यों कि स्वामीभक्त मैनेजर ने उनके मेहमानों को ठहरने केलिए कभी मुफ्त में एक कमरा तक नहीं दिया था । वे चाहते तो खबर को ट्विस्ट (विकृत) कर सकते थें। लेकिन, तब की पत्रकारिता में वह गंदगी नहीं थी।
एक ने कोशिश की भी, तो अन्य सहयोगियों का असहयोग देख डर गया कि कहीं अखबार का सम्पादक तलब न कर ले।
वैसे, आज का दौर भी बुरा नहीं है। सोशल मीडिया अपना काम बखूबी कर रहा है । यदि इसका दुरुपयोग न हो तो यह जनता केलिए सच उगलने की मशीन है।
हाँ तो, मैनेजर ने बताया कि यह बाबा उस बच्ची के साथ होटल में बराबर आता रहा है,परंतु उसको इलाज केलिए कमरे के बाहर कहीं ले जाते कभी नहीं देखा गया , फिरभी उसपर संदेह करना आसान तो नह था ; क्योंकि एक तो उसकी अवस्था और दूसरा उसकी धार्मिक प्रवृत्ति दीवार बने खड़ी थीं ।
अतः काफी धर्मसंकट में था वह ।
कमरे के अंदर की गतिविधि जानने की मैनेजर की उत्सुकता ने उसकी राह आसान कर दी।
बाबा जिस कमरे में ठहरता था , उसकी खिड़की में जहाँ कुलर रखा था ,वहीं एक सुराख था।
और उस रात उसी से उसने यह कैसा घिनौना दृश्य देखा था !
बिस्तर पर बेसुध पड़ी वह बच्ची और उसके मुख में मदिरा उड़ेलता बाबा !
अरे ! अब यह क्या ?
छी-छी ! धूर्त बूढ़े ने अपनी पिपासा शांत करने का यह कैसा माध्यम बनाया है ..!
राम ! राम!! कमीना कहीं का..।
क्रोध से भरे मैनेजर की ललकार सुनते ही अन्य कर्मचारी दौड़ पड़े, फिर क्या था, दरवाजा खुलवा ढोगी बाबा की लात-घूंसे से खातिरदारी शुरू हो गयी।
और जब उसने देखा कि प्राणरक्षा केलिए कोई उपाय शेष नहीं है ,तब बाबा के चोंगे से शैतान बाहर आ गया।
पुलिस ने भी बताया कि बाबा ने अपराध स्वीकार कर लिया है कि वह बच्ची के साथ कुकृत्य किया करता था।
थानेदार का बयान आते ही बाबा का वह भक्त चुपचाप खिसक लेता है और तमाशाई मैनेजर की वाहवाही करते हुये अपने रास्त..।
यह घटना पिछले दिनों बातों ही बातों में मैनेजर ने जब मुझे बतायी, तभी से मैं इस चिंतन में खोया हूँ कि शारीरिक रूप से असमर्थ और विवेकशील होकर भी बाबा ऐसा घृणित कर्म करने को विवश क्यों था ?
यह कैसी पिपासा है..!!!
मैं तो अब तक यह समझता रहा हूँ कि पिपासा तृप्त होने की वस्तु नहीं है । यह संवेदनशील मानव हृदय की वह आग है, जिसे पानी की नहीं घृत की आवश्यकता है, जिससे यह और भड़के । तब तक भड़के जब तक मनुष्य बुद्ध न हो जाए;
क्योंकि मानव जीवन एक पिपासा ही तो है। शिशु के जन्म के साथ ही जैसे ही उसे ज्ञान का बोध होता है , उसकी पिपासा अपना कार्य करने लगती है।
किन्तु ज्ञान पिपासा, प्रेम पिपासा ही नहीं , काम पिपासा भी तो है और यही तृष्णा हमारे सारे सद्कर्मों का क्षण भर में भक्षण कर लेती है।
अतः तृष्णा हमारे दुख का कारण है। शरीर के लिए आवश्यक वस्तुओं के उपभोग को तृष्णा नहीं कहते हैं । जब वस्तुओं की लालसा बढ़ने लगती है , तो यह मनुष्य के जीवन में विषय वासना उत्पन्न कर उसे पथभ्रष्ट कर देती है।
हाँ, रक्त पिपासुओं ने भी मानवता को कम आघात नहीं पहुँचाया है।
-व्याकुल पथिक
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होटल के रिसेप्शन से लेकर चौराहे तक खासा मजमा लगा हुआ था। दरोगा और सहयोगी सिपाही एक वृद्ध व्यक्ति को गिरफ्तार कर समीप के कोतवाली ले जा रहे थें। साथ में एक महिला पुलिसकर्मी थी और उसकी उँँगली थामे वह मासूम बच्ची बिल्कुल डरी-सहमी कभी उस वृद्ध को तो कभी अपने इस नये अभिभावक को देख रही थी ।
तभी तमाशाइयों की भीड़ में शामिल एक आदमी बुदबुदाता है- " अरे ! कैसा घिनौना मिथ्या आरोप !! सत्तर साल का बुड्ढा और आठ साल की यह लड़की.. !!! "
लगता है कि धूर्त होटल मैनेजर से कोई तकरार हो गयी होगी , जिसका ऐसा प्रतिशोध उसने लिया है। अन्यथा बेचारा यह बाबा तो पड़ोसी प्रांत मध्यप्रदेश से इस कन्या का दवा-दारू कराने यहाँ आया करता था । बड़ी भलमनसाहत से सबसे मिलता था । एक से बढ़ कर एक ज्ञान की बातें बताया करता था।
कैसा अंधेर है ! इस भले आदमी को शैतान बता दिया, अबतो नेकी का ..।
उसने अपना संदेह तनिक इस दार्शनिक अंदाज में व्यक्त किया कि मौजूद लोगों में से अन्य कई भद्रजन भी सुर में सुर मिला कर गुटूर गू करने लगते हैं- " हाँ , भाई ! आज कल ऐसा ही जमाना है। "
यदि पुलिस न होती तो बाबा के प्रति उनकी यह अंधभक्ति उस होटल मैनेजर पर भारी पड़ सकती थी। दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों ही यहाँ एक साथ चोंच भिड़ाए खड़े थें। मानों मैनेजर से उनकी कोई पुरानी खुन्नस हो ?
सत्य का अन्वेषण इनमें से कोई नहीं करना चाहता था। बकबक करने वालों में से किसी को भी लड़की के भयाक्रांत मुखमण्डल की ओर देखने की फुर्सत न थी, यद्यपि वे सभी अंतर्जामी बने मैनेजर को पानी पी-पी कर कोस रहे थें..।
आखिर क्या कसूर था होटल के उस अनुशासनप्रिय मैनेजर का ..?
जो उससे प्रतिशोध लेने केलिए भद्रजन यूँ हुंकार लगा रहे थे ..!
उस बाबा को तो कोई नहीं कह रहा था - " मारो ऐसे पापी को।"
ऐसी क्या अंधभक्ति है ?
बाबा, ज्ञानी- ध्यानी था इसलिए ?
और उस अबोध बच्ची की आपबीती भला जानते भी कैसे ये भलेमानुस ।
यदि कानून अपना काम नहीं करे तो ऐसे ढोगी बाबाओं की जय जयकार होती रहे ?
मीडियावाले भी पहुँच चुके थे। ऐसी घटनाएँ उनके लिए मसालेदार खबर तब भी थी और आज ढ़ाई दशक बाद भी है ।
ये पत्रकार दनदनाते हुये सीधे होटल की गैलरी में जा पहुँचे थे । यहीं मैनेजर , कर्मचारी और होटल का मालिक सभी एकत्र थे। कोई होटल के अंदर तो कोई बाहर जा कर मौका मुआयना कर रहा था। मैनेजर का बयान भी लिया गया ।
और तभी बाबा का वह धनाढ्य अनुयायी इनके समक्ष पुनः प्रगट होता है । वह कनखियों से इशारा कर एक पत्रकार को बुला उसके कान में कुछ फुसफुसाया है । उसके चेहरे पर कुटिल मुस्कान फिर से आ जाती है। उसे लगता है कि उसकी योजना सफल होगी। भला घर आयी लक्ष्मी को कौन ठुकराता है ?
मीडियाकर्मियों के पास होटल मालिक से हिसाब चुकता करने का यह एक सुनहरा अवसर था ; क्यों कि स्वामीभक्त मैनेजर ने उनके मेहमानों को ठहरने केलिए कभी मुफ्त में एक कमरा तक नहीं दिया था । वे चाहते तो खबर को ट्विस्ट (विकृत) कर सकते थें। लेकिन, तब की पत्रकारिता में वह गंदगी नहीं थी।
एक ने कोशिश की भी, तो अन्य सहयोगियों का असहयोग देख डर गया कि कहीं अखबार का सम्पादक तलब न कर ले।
वैसे, आज का दौर भी बुरा नहीं है। सोशल मीडिया अपना काम बखूबी कर रहा है । यदि इसका दुरुपयोग न हो तो यह जनता केलिए सच उगलने की मशीन है।
हाँ तो, मैनेजर ने बताया कि यह बाबा उस बच्ची के साथ होटल में बराबर आता रहा है,परंतु उसको इलाज केलिए कमरे के बाहर कहीं ले जाते कभी नहीं देखा गया , फिरभी उसपर संदेह करना आसान तो नह था ; क्योंकि एक तो उसकी अवस्था और दूसरा उसकी धार्मिक प्रवृत्ति दीवार बने खड़ी थीं ।
अतः काफी धर्मसंकट में था वह ।
कमरे के अंदर की गतिविधि जानने की मैनेजर की उत्सुकता ने उसकी राह आसान कर दी।
बाबा जिस कमरे में ठहरता था , उसकी खिड़की में जहाँ कुलर रखा था ,वहीं एक सुराख था।
और उस रात उसी से उसने यह कैसा घिनौना दृश्य देखा था !
बिस्तर पर बेसुध पड़ी वह बच्ची और उसके मुख में मदिरा उड़ेलता बाबा !
अरे ! अब यह क्या ?
छी-छी ! धूर्त बूढ़े ने अपनी पिपासा शांत करने का यह कैसा माध्यम बनाया है ..!
राम ! राम!! कमीना कहीं का..।
क्रोध से भरे मैनेजर की ललकार सुनते ही अन्य कर्मचारी दौड़ पड़े, फिर क्या था, दरवाजा खुलवा ढोगी बाबा की लात-घूंसे से खातिरदारी शुरू हो गयी।
और जब उसने देखा कि प्राणरक्षा केलिए कोई उपाय शेष नहीं है ,तब बाबा के चोंगे से शैतान बाहर आ गया।
पुलिस ने भी बताया कि बाबा ने अपराध स्वीकार कर लिया है कि वह बच्ची के साथ कुकृत्य किया करता था।
थानेदार का बयान आते ही बाबा का वह भक्त चुपचाप खिसक लेता है और तमाशाई मैनेजर की वाहवाही करते हुये अपने रास्त..।
यह घटना पिछले दिनों बातों ही बातों में मैनेजर ने जब मुझे बतायी, तभी से मैं इस चिंतन में खोया हूँ कि शारीरिक रूप से असमर्थ और विवेकशील होकर भी बाबा ऐसा घृणित कर्म करने को विवश क्यों था ?
यह कैसी पिपासा है..!!!
मैं तो अब तक यह समझता रहा हूँ कि पिपासा तृप्त होने की वस्तु नहीं है । यह संवेदनशील मानव हृदय की वह आग है, जिसे पानी की नहीं घृत की आवश्यकता है, जिससे यह और भड़के । तब तक भड़के जब तक मनुष्य बुद्ध न हो जाए;
क्योंकि मानव जीवन एक पिपासा ही तो है। शिशु के जन्म के साथ ही जैसे ही उसे ज्ञान का बोध होता है , उसकी पिपासा अपना कार्य करने लगती है।
किन्तु ज्ञान पिपासा, प्रेम पिपासा ही नहीं , काम पिपासा भी तो है और यही तृष्णा हमारे सारे सद्कर्मों का क्षण भर में भक्षण कर लेती है।
अतः तृष्णा हमारे दुख का कारण है। शरीर के लिए आवश्यक वस्तुओं के उपभोग को तृष्णा नहीं कहते हैं । जब वस्तुओं की लालसा बढ़ने लगती है , तो यह मनुष्य के जीवन में विषय वासना उत्पन्न कर उसे पथभ्रष्ट कर देती है।
हाँ, रक्त पिपासुओं ने भी मानवता को कम आघात नहीं पहुँचाया है।
-व्याकुल पथिक
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (१८ -०१ -२०२०) को "शब्द-सृजन"- 4 (चर्चा अंक -३५८४) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
-अनीता सैनी
जी आभार अनीता बहन
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" कल शनिवार 18 जनवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी यशोदा दी , आभार आपका।
Deleteनिशब्द हूं।
ReplyDeleteजी आभार दी
Deleteभरा हुआ है समाज मुखौटे ओढ़े हुऐ ऐसे लोगों से।
ReplyDeleteजी उचित कहा आपने, घर में भी और घर के बाहर भी ऐसे लोग हैं।
Deleteप्रणाम।
सच ही है ,ओढे गए मुखौटों में मानव की पहचान करना बडा मुश्किल है ।
ReplyDeleteजिस घटना का मैंने उल्लेख किया, वह अत्यंत ही घृणित एवं मानवता को शर्मसार करने वाली घटना है,
Deleteबाबा के वेश में शैतान तो सभी जगह है।
प्रणाम।
बेहतरीन सृजन ।सच्चाई से ओत-प्रोत।
ReplyDeleteजी आभार, प्रणाम।
Deleteक्योंकि मानव जीवन एक पिपासा ही तो है। शिशु के जन्म के साथ ही जैसे ही उसे ज्ञान का बोध होता है , उसकी पिपासा अपना कार्य करने लगती है
ReplyDeleteसत्य कहा आपने ,यह पिपासा ही तो हैं जो हमारे सारे सद्कर्मों का क्षण भर में भक्षण कर लेती है,सत्य को दर्शाता शानदार लेख ,सादर नमन आपको
जी प्रणाम ,कामिनी जी, आभार आपका।
Deleteबाबा का मुखौटा पहनकर ऐसे कृत्य करने वालों की तादाद लम्बी होती जा रही है
ReplyDeleteसत्य उजागर करती बहुत ही मार्मिक कृति
जी प्रणाम, बिल्कुल सच कहा आपने।
Deleteबहुत ही घिनौना कृत्य,
ReplyDeleteलगता समाज में हर कोने में इंसान के भेष में भेड़िये छुपे है। ओह...
- श्री आशीष बुधिया ,पूर्व शहर कांग्रेस अध्यक्ष, मीरजापुर
इस प्रकार के आचरण करने वाले तमाम कथित संत और साधु हमारे आपके बीच में मौजूद होते हैं। विकारों से ग्रस्त ऐसे मनुष्य वास्तव में मनुष्य के भेष में राक्षस होते हैं। कई मामले सामने आते हैं तो कई मामले छुपे रह जाते हैं। अज्ञानता के अभाव में लोग ऐसे पाखंडियों के पीछे पागल की तरह घूमते रहते हैं। तकनीकी के युग में डिजिटल विकास के कारण ऐसे मामलों का छुपा रहना अब मुश्किल होता चला जा रहा है। धूर्त किस्म के कथावाचक तथा चमत्कारी महापुरुष बहुत दिनों तक अब समाज को बेवकूफ़ बनाने में कामयाब नहीं हो पाएंगे। कई बार लोग ऐसे लोगों के अपराध पर पर्दा डाल देते हैं जिससे इनकी हिम्मत बढ़ती चली जाती है। ऐसे लोगों के यहाँ राजनेता और अधिकारी भी जाया करते हैं। समाज के प्रभावशाली वर्ग के उपस्थिति के कारण समाज भ्रमित हो जाता है। ऐसे तथाकथित संत और साधुओं के अनुयायियों की संख्या बढ़ती चली जाती है। अचानक एक दिन उनके पाप का घड़ा भर जाता है और पर्दाफाश हो जाता है। निश्चित रूप से आपका लेखन मुंशी प्रेमचंद की याद दिलाता है। इस प्रकार के घटनाओं को निरंतर अपने लेखन के माध्यम से आप सबके समक्ष लाते रहें। बहुत बढ़िया लिखा है आपने। सजीव और अनाचार का उद्घाटन करने वाला लेखन।
ReplyDeleteजी अनिल भैया, उचित कहा आपने, हम पत्रकारों की भी जिम्मेदारी बनती है।
Deleteमानव के मुखौटे में छिपे हुए हैवानों को पहुँचान पाना बहुत मुश्किल है। ऐसे लोग इंसानियत ऊपर बोझ बन बैठे हैं । बहुत ही सटीक प्रस्तुति 👌👌
ReplyDeleteजी प्रणाम आभार।
Delete