जीवन की पाठशाला से
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नज़रों में न हो दुनिया तेरी
हौसले को गिराते क्यों हो
यादों के दीये जलाओ मगर
रोशनी से मुंह छिपाते क्यों हो
तेरी नज़्मों में अश्क हो गर
ग़ैरों को ज़ख्म दिखाते क्यों हो
इंसानों की नहीं ये बस्ती है
मुर्दों को जगाते क्यों हो
तेरी क़िस्मत में मंज़िल नहीं
दोस्ती को आजमाते क्यों हो
है सफर में अभी मोड़ कई
पथिक ! राह भुलाते क्यों हो
वक्त के साथ यूँ बढ़ते चलो
ग़म को प्यार जताते क्यों हो
जो न हुये थे कभी अपने
दिल उनपे लुटाते क्यों हो
- व्याकुल पथिक
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नज़रों में न हो दुनिया तेरी
हौसले को गिराते क्यों हो
यादों के दीये जलाओ मगर
रोशनी से मुंह छिपाते क्यों हो
तेरी नज़्मों में अश्क हो गर
ग़ैरों को ज़ख्म दिखाते क्यों हो
इंसानों की नहीं ये बस्ती है
मुर्दों को जगाते क्यों हो
तेरी क़िस्मत में मंज़िल नहीं
दोस्ती को आजमाते क्यों हो
है सफर में अभी मोड़ कई
पथिक ! राह भुलाते क्यों हो
वक्त के साथ यूँ बढ़ते चलो
ग़म को प्यार जताते क्यों हो
जो न हुये थे कभी अपने
दिल उनपे लुटाते क्यों हो
- व्याकुल पथिक
सुंदर रचना आदरणीय पथिक जी।
ReplyDeleteजी प्रणाम भाई साहब।
Deleteवाह !लाज़वाब सृजन आदरणीय शशि भाई
ReplyDeleteसादर
जी प्रणाम, अनीता बहन।
Deleteजो न हुये थे कभी अपने
ReplyDeleteदिल उनपे लुटाते क्यों हो
बहुत सटिक सवाल।
जी प्रणाम आभार।
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 13 जनवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी आभार यशोदा दी प्रणाम।
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (14-01-2020) को "सरसेंगे फिर खेत" (चर्चा अंक - 3580) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
-- लोहिड़ी तथा उत्तरायणी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी आभार गुरुजी, प्रणाम।
Deleteज़ेहन में सवाल उठना तो लाज़िमी है। कोई संवेदनशील व्यक्ति चुप कैसे रह सकता है? शेरो-शायरी ख़ुद से गुफ़्तगू का भी नाम है। हमेशा की तरह दिल को छू लेने वाली रचना।
ReplyDeleteदी उचित कहा अनिल भैया आपने, परंतु शेरो-शायरी मुझे नहीं आती कहाँ ? हां ,पत्रकारिता के क्षेत्र में होने के कारण दाएं- बाएं, उल्टे- सीधे कुछ कलम, पर अब कलम भी कहां, मोबाइल पर उंगलियां चला लेता हूं।
Deleteप्रणाम।
अच्छी कृति
Deleteमार्मिक भावों से भरी रचना शशि भाई | हर कोई ये सवाल करता है पर जीवन और खुद से ये सवाल हमेशा अनुत्तरित रहे हैं | भावपूर्ण लेखन के लिए शुभकामनाएं| लोहड़ी और मकर संक्रांति पर्व की हार्दिक बधाई |
ReplyDeleteउचित कहा आपने दी, आपको भी इन पर्वों की शुभकामनाएँँ।
Deleteयादों के दीये जलाओ मगर
ReplyDeleteरोशनी से मुंह छिपाते क्यों हो
बहुत खूब शशि जी ,काफी दिनों बाद ब्लॉग पर आई ,अच्छा लगा बहुत कुछ अच्छा पढ़ने को मिला ,आपको भी मकरसंक्रांति की हार्दिक बधाई
ब्लॉग जगत में आपका पुनः स्वागत है और आप भी रेणु दी की तरह ही उदार हैं।
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