कांटों पे खिलने की चाहत थी तुझमें,
राह जैसी भी रही हो चला करते थे ।
न मिली मंज़िल ,हर मोड़ पर फिरभी
अपनी पहचान तुम बनाया करते थे।
है विकल क्यों ये हृदय अब बोल तेरा
दर्द ऐसा नहीं कोई जिसे तुमने न सहा।
ज़ख्म जो भी मिले इस जग से तुझे
समझ,ये पाठशाला है तेरे जीवन की।
शुक्रिया कह उसे ,जिसने ये दर्द दिये
तेरी संवेदना सुंगध बन,जो महकती है।
पहचान उन्हें भी जो न थें अपने कभी
ग़ैर हैं जो उनके लिये,न रोया करते हैं।
करे उपहास-तिरस्कार न हो फ़र्क़ तुझे
इस सफर में मुसाफिर तो चला करते हैं।
माँ को ढ़ूँढो नहीं इस तरह पगले उनमें
तेरी आँसुओं पे वाह-वाह किया करते हैं।
न तू अपराध है न पाप फिर से सुन ले
कहने दे गुनाह, दोस्ती को न समझते हैं।
तेरी बगिया नहीं वीरान है फूल खिले
तेरे कर्मों की पहचान,ये दुआ करते हैं
बात ऐसी भी न कर ये राही खुद से
जीत की बाजी यूँ न गंवाया करते हैं ।
है चिर विधुर तू, न तेरा कोई पर्व यहाँ
विधाता की नियत पे,नहीं शक करते हैं।
- व्याकुल पथिक
राह जैसी भी रही हो चला करते थे ।
न मिली मंज़िल ,हर मोड़ पर फिरभी
अपनी पहचान तुम बनाया करते थे।
है विकल क्यों ये हृदय अब बोल तेरा
दर्द ऐसा नहीं कोई जिसे तुमने न सहा।
ज़ख्म जो भी मिले इस जग से तुझे
समझ,ये पाठशाला है तेरे जीवन की।
शुक्रिया कह उसे ,जिसने ये दर्द दिये
तेरी संवेदना सुंगध बन,जो महकती है।
पहचान उन्हें भी जो न थें अपने कभी
ग़ैर हैं जो उनके लिये,न रोया करते हैं।
करे उपहास-तिरस्कार न हो फ़र्क़ तुझे
इस सफर में मुसाफिर तो चला करते हैं।
माँ को ढ़ूँढो नहीं इस तरह पगले उनमें
तेरी आँसुओं पे वाह-वाह किया करते हैं।
न तू अपराध है न पाप फिर से सुन ले
कहने दे गुनाह, दोस्ती को न समझते हैं।
तेरी बगिया नहीं वीरान है फूल खिले
तेरे कर्मों की पहचान,ये दुआ करते हैं
बात ऐसी भी न कर ये राही खुद से
जीत की बाजी यूँ न गंवाया करते हैं ।
है चिर विधुर तू, न तेरा कोई पर्व यहाँ
विधाता की नियत पे,नहीं शक करते हैं।
- व्याकुल पथिक
जी प्रणाम भाई साहब
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 07 जनवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी आभार , यशोदा दी।
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ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना ....... ,.8 जनवरी 2020 के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद
जी , मेरी रचना का आपने चयन किया, यह जानकर अत्यंत हर्ष हुआ, प्रणाम।
Deleteआभार अनीता बहन, मंच पर स्थान देने केलिए
ReplyDeleteबहुत सुंदर/शानदार सृजन।
ReplyDeleteआभार दी, प्रणाम।
ReplyDeleteमन का खुद से ह्रदयस्पर्शी संवाद | दूसरे शब्दों में -- मन की विकलता को मार्मिकता से सहेजती रचना शशि भैया आपके लेखन की सफलता की कामना करती हूँ |
ReplyDeleteजी दी प्रणाम,आपकी टिप्पणी पाकर प्रसंता हुई।
Deleteमर्मस्पर्शी रचना। बात घूम फिर कर वहीं आती है, जहाँ से दुखों का समंदर प्रारंभ होता है। चिंता न होती, बेचैनी न होती, तो रचना का संसार नहीं होता। आह से उपजती है कविता। पाठक अपने आप को इस कविता के केंद्र में पाता है। कविता जो बेचैन कर जाए, कविता जो आंदोलित कर जाए, कविता जो संतोष भी दे... तरह-तरह के भाव उमड़-घुमड़ कर दिलो दिमाग़ में आते हैं। मित्र, जब तक जीवन है सब ऐसे ही चलता रहेगा। बहुत बढ़िया लिखा है भाई।
ReplyDeleteआप जैसे कुशल रचनाकार के द्वारा उत्साहवर्धन हृदय में हर्ष उत्पन्न करता है ,अनिल भैया।
Deleteशुक्रिया कह उसे ,जिसने ये दर्द दिये
ReplyDeleteतेरी संवेदना सुंगध बन,जो महकती है
लाज़बाब.... ,बेहद सुंदर सृजन ,सादर नमन
जी प्रणाम और आभार।
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