लिप्सा
( जीवन की पाठशाला से )
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धन के प्रति उसकी लिप्सा उसके मानवधर्म केलिए अभिशाप बन गयी थी। अतः उसकी मृत्यु को भी अपने आर्थिक हितों से जोड़कर समाज ने देखा..
***************************
सुबह के पाँच बज रहे थे। बूँदाबादी ने ठंड को फिर से जकड़ लिया था , जो लोग चौराहे पर दिखे भी, वे बुझ रहे अलाव के इर्द-गिर्द गठरीनुमा बने बैठे मिले।
ऐसे खराब मौसम से बेपरवाह दुखीराम अपनी उसी पुरानी साइकिल से नगर भ्रमण पर निकल पड़ता है। यह उसकी नियमित दिनचर्या है।
बिगड़ते स्वास्थ्य के बावजूद भी वह क्यों ऐसा करता है ?
पापी पेट केलिए अथवा पैसे की वही इंसानी भूख ..?
बंधु ! किसके लिए.. ?
आज यह प्रश्न पुनः सिर उठाए उसके हृदय को रौंद रहा था। स्नेह की दुनिया में उस आखिरी चोट के बाद किसी से वार्तालाप , हँसी- ठिठोली में उसे तनिक भी रुचि नहीं रही ,फिरभी स्वयं को कमरे में बंद कर बुत बने रहना, विकल्प तो नहीं है ? खैर,अबतो वह इस आकांक्षा से मुक्त है। दुखीराम स्वयं से वार्तालाप कर ही रहा था कि एक वृद्ध महिला के करुण क्रंदन-
" ए हमार भइया ! तनिक उठ जाते भइया !!"
से उसका ध्यान भंग होता है।
" अरे ! ये क्या ? "
उस जाने-पहचाने से घर के करीब पहुँचते ही वह हतप्रभ रह जाता है ।
" अपना दीनबंधु अब नहीं रहा ! कैसे हो गया यहसब ? "
दुखीराम , अपने दिमाग पर फिर से जोर डालता है कि कहीं वह स्वप्न तो नहीं देख रहा है।
अभी पिछले दिनों ही तो मुख्यालय पर दुआ- सलाम हुई थी उससे !
हाथों में रत्नों की बड़ी-बड़ी अंगूठियाँ, गले में सोने की मोटी सिकड़ी और वह विदेशी चश्मा, किसी बड़े अफसर से कम नहीं दिखता था दीनबंधु ।
सदैव की तरह उस दिन भी वह हाय -हेलो करते हुये किसी उच्चाधिकारी के कक्ष में जा घुसा था । इससे अधिक किसी गैर व्यवसायी से कुछ और बात करने की उसे फुर्सत कहाँ थी ।मानों एक-एक मिनट की कीमत रूपये में होती हो उसकी !
दुखीराम केलिए इतना प्रयाप्त था कि दीनबंधु उसे देख अदब से हाथ ऊपर कर लेता था , अन्यथा ऐश्वर्य आने के पश्चात द्रुपद का द्रोणाचार्य से क्या रिश्ता ? भला धन के समक्ष ईमान की भी कोई कीमत है ?
वैसे, इस नमस्कारी को लेकर दीनबंधु पूरी तरह से आश्वस्त था कि यह जो उसका पुराना लंगोटिया यार दुखीराम है न , वह बड़ा स्वाभिमानी है और घोर संकट पड़ने पर भी सुदामा बन उस जैसे कलयुगी कृष्ण के दरवाजे पर दस्तक देने नहीं आएगा ।
अन्यथा अभिवादन तो दूर उसे ( दुखीराम ) देख ऐसा लगता कि बिल्ली ने रास्ता काट दी हो। इस अर्थयुग में दीनबंधु की यह सोच बुरी न थी। अनेक पापड़ बेलकर कर उसने यह रुतबा हासिल किया था। अन्यथा, " यथा नाम , तथा गुण" जैसे नीतिवचन का अनुसरण करता तो, वह भी दुखीराम की तरह उसी टूटही साइकिल को घसीटता रह जाता । आज जो उसके पास लग्जरी गाड़ी है, उसे बाप-दादे के रोकड़े से थोड़े न खरीदी थी । यह तो उसके दीमाग की कमाई है।
उसे भलिभाँति यह याद था कि यही सभ्य समाज कभी दलाल कहके उसे दुत्कारा करता था और वह था कि किसी गुलाम की भाँति सलामी दागते हुये - " भाई साहब ! कुछ खास ? सेवक हाजिर है । "
कह खी खी खी..किया करता था। दिनभर इधर-उधर भटकता फिरता था,पर निगाहें उसकी चिड़िए की आँखों पर थीं। एक दिन उसने किसी मकड़ी को जाल बुनते देख लिया और बस जैसे ही वह इस विद्या में परांगत हुआ,उसके मकड़जाल में शिकार फँसने लगा।
वे जेंटलमैन जो उसे ब्रोकर समझ हिकारत भरी निगाहों से देखते थे ,अब उसे " लाइजनिंग अफसर " कह अदब करने लगे। उनके लिए हर मर्ज का दवा था दीनबंधु ! कोतवाली से लेकर कलेक्ट्रेट तक यूँ समझें कि संतरी से लेकर मंत्री तक उसकी पकड़ थी। उसके नाम सिक्का चल निकला।
फिर क्या ..साला ! मैं तो साहब बन गया,
यह गीत आपने सुनी है न ?
और आज उसी आंगन में उसका शरीर निष्चेष्ट पड़ा है, जहाँ वह बचपन में किलकारियाँ भरा करता था।
जुगाड़ तंत्र का वह बड़ा खिलाड़ी जिसने धनलक्ष्मी को अपने घर मंदिर में स्थापित कर दिया था, उसी गृह का मनमंदिर सूना पड़ा है ।
" राम-राम ! बड़ा बुरा हुआ,बिल्कुल कच्ची गृहस्थी छोड़ गया । "
- यह कह नाते-रिश्तेदारों ने लोकलाज वश आँखें तनिक गीली कर ली थीं। उसकी मौत की खबर सुनते ही कुछ भद्रजन भी दौड़े आये थे।
कानाफूसी शुरु थी -" लो ससुरा, चला गया और डूबा गया हमारा लाखों रूपया ! "
उन्हें उसकी मृत्यु का गम नहीं था , वरन् दुःखी वे इसलिए थे कि अपने जिन कामों केलिए बयाना जो दे रखा था, वह सब बट्टे खाते में गया।
वे सभी हाथ मल ही रहे थे कि तभी रामनाम सत्य है , का वही कर्णप्रिय उद्घोष दुखीराम को सुनाई पड़ता है ।
चौक उठता है वह , उसे स्मरण हो आया उस अभागे व्यक्ति का जो कुछ माह पूर्व इसी श्मशानघाट मार्ग पर मिला था। जीवन की राह में भटकता- लड़खड़ा- गिड़गिड़ाता वह इंसान, जो स्नेह के दो बूँद केलिए पग- पग छला गया , तो लगा था, कुछ इसीतरह के शब्दों को बुदबुदाने ... और हाँ ,उसके जीवन का यह कटु सत्य किसी को इतना कड़वा लगा कि पूछे न ,उसे किन तिरस्कार भरे शब्दों के प्रयोग से दुत्कारा गया था।आखिर उस बावले से छुटकारा जो पाना था।
परंतु पागल वह नहीं यह दुनिया है। मृत्यु से पूर्व ही हर लौकिक सम्बंधों से मुक्त होना , यही तो रामराम नाम सत्य है ?
जिसे दुखीराम तो समझ गया , लेकिन यह दीनबंधु धन के दौड़ में रमा रहा । इसकी लालसा निरंतर " और -और " कह शोर मचाती रही। यह सत्य है कि लालसा अपनी गुलाबी मादकता के साथ उदय होती है, परंतु जब उसका सुनहरा आवरण हटता है, तो वास्तविकता नग्न स्वरूप में सामने आ जाती है।
अति-महत्वाकांक्षी मनुष्य को जीवन की इस क्षणभंगुरता का बोध भला कहाँ हो पाता है । वह अपनी आकांक्षा को गहरी नींव देने में इसप्रकार खोया रहता है कि स्वयं को चिरंजीवी समझ बैठता है ।
अतः एक दिन दीनबंधु के " जुगड़तंत्र" को भी झटका लगता है। उसका खेल बिगड़ जाता है। और फिर अवसादग्रस्त दीनबंधु को असमय ही मौत की यह पुकार सुनाई पड़ती है-
"तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला ।"
धन के प्रति उसकी लिप्सा उसके मानवधर्म केलिए अभिशाप बन गयी थी। अतः उसकी मृत्यु को भी अपने आर्थिक हितों से जोड़कर समाज ने देखा।
-व्याकुल पथिक
( जीवन की पाठशाला से )
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धन के प्रति उसकी लिप्सा उसके मानवधर्म केलिए अभिशाप बन गयी थी। अतः उसकी मृत्यु को भी अपने आर्थिक हितों से जोड़कर समाज ने देखा..
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सुबह के पाँच बज रहे थे। बूँदाबादी ने ठंड को फिर से जकड़ लिया था , जो लोग चौराहे पर दिखे भी, वे बुझ रहे अलाव के इर्द-गिर्द गठरीनुमा बने बैठे मिले।
ऐसे खराब मौसम से बेपरवाह दुखीराम अपनी उसी पुरानी साइकिल से नगर भ्रमण पर निकल पड़ता है। यह उसकी नियमित दिनचर्या है।
बिगड़ते स्वास्थ्य के बावजूद भी वह क्यों ऐसा करता है ?
पापी पेट केलिए अथवा पैसे की वही इंसानी भूख ..?
बंधु ! किसके लिए.. ?
आज यह प्रश्न पुनः सिर उठाए उसके हृदय को रौंद रहा था। स्नेह की दुनिया में उस आखिरी चोट के बाद किसी से वार्तालाप , हँसी- ठिठोली में उसे तनिक भी रुचि नहीं रही ,फिरभी स्वयं को कमरे में बंद कर बुत बने रहना, विकल्प तो नहीं है ? खैर,अबतो वह इस आकांक्षा से मुक्त है। दुखीराम स्वयं से वार्तालाप कर ही रहा था कि एक वृद्ध महिला के करुण क्रंदन-
" ए हमार भइया ! तनिक उठ जाते भइया !!"
से उसका ध्यान भंग होता है।
" अरे ! ये क्या ? "
उस जाने-पहचाने से घर के करीब पहुँचते ही वह हतप्रभ रह जाता है ।
" अपना दीनबंधु अब नहीं रहा ! कैसे हो गया यहसब ? "
दुखीराम , अपने दिमाग पर फिर से जोर डालता है कि कहीं वह स्वप्न तो नहीं देख रहा है।
अभी पिछले दिनों ही तो मुख्यालय पर दुआ- सलाम हुई थी उससे !
हाथों में रत्नों की बड़ी-बड़ी अंगूठियाँ, गले में सोने की मोटी सिकड़ी और वह विदेशी चश्मा, किसी बड़े अफसर से कम नहीं दिखता था दीनबंधु ।
सदैव की तरह उस दिन भी वह हाय -हेलो करते हुये किसी उच्चाधिकारी के कक्ष में जा घुसा था । इससे अधिक किसी गैर व्यवसायी से कुछ और बात करने की उसे फुर्सत कहाँ थी ।मानों एक-एक मिनट की कीमत रूपये में होती हो उसकी !
दुखीराम केलिए इतना प्रयाप्त था कि दीनबंधु उसे देख अदब से हाथ ऊपर कर लेता था , अन्यथा ऐश्वर्य आने के पश्चात द्रुपद का द्रोणाचार्य से क्या रिश्ता ? भला धन के समक्ष ईमान की भी कोई कीमत है ?
वैसे, इस नमस्कारी को लेकर दीनबंधु पूरी तरह से आश्वस्त था कि यह जो उसका पुराना लंगोटिया यार दुखीराम है न , वह बड़ा स्वाभिमानी है और घोर संकट पड़ने पर भी सुदामा बन उस जैसे कलयुगी कृष्ण के दरवाजे पर दस्तक देने नहीं आएगा ।
अन्यथा अभिवादन तो दूर उसे ( दुखीराम ) देख ऐसा लगता कि बिल्ली ने रास्ता काट दी हो। इस अर्थयुग में दीनबंधु की यह सोच बुरी न थी। अनेक पापड़ बेलकर कर उसने यह रुतबा हासिल किया था। अन्यथा, " यथा नाम , तथा गुण" जैसे नीतिवचन का अनुसरण करता तो, वह भी दुखीराम की तरह उसी टूटही साइकिल को घसीटता रह जाता । आज जो उसके पास लग्जरी गाड़ी है, उसे बाप-दादे के रोकड़े से थोड़े न खरीदी थी । यह तो उसके दीमाग की कमाई है।
उसे भलिभाँति यह याद था कि यही सभ्य समाज कभी दलाल कहके उसे दुत्कारा करता था और वह था कि किसी गुलाम की भाँति सलामी दागते हुये - " भाई साहब ! कुछ खास ? सेवक हाजिर है । "
कह खी खी खी..किया करता था। दिनभर इधर-उधर भटकता फिरता था,पर निगाहें उसकी चिड़िए की आँखों पर थीं। एक दिन उसने किसी मकड़ी को जाल बुनते देख लिया और बस जैसे ही वह इस विद्या में परांगत हुआ,उसके मकड़जाल में शिकार फँसने लगा।
वे जेंटलमैन जो उसे ब्रोकर समझ हिकारत भरी निगाहों से देखते थे ,अब उसे " लाइजनिंग अफसर " कह अदब करने लगे। उनके लिए हर मर्ज का दवा था दीनबंधु ! कोतवाली से लेकर कलेक्ट्रेट तक यूँ समझें कि संतरी से लेकर मंत्री तक उसकी पकड़ थी। उसके नाम सिक्का चल निकला।
फिर क्या ..साला ! मैं तो साहब बन गया,
यह गीत आपने सुनी है न ?
और आज उसी आंगन में उसका शरीर निष्चेष्ट पड़ा है, जहाँ वह बचपन में किलकारियाँ भरा करता था।
जुगाड़ तंत्र का वह बड़ा खिलाड़ी जिसने धनलक्ष्मी को अपने घर मंदिर में स्थापित कर दिया था, उसी गृह का मनमंदिर सूना पड़ा है ।
" राम-राम ! बड़ा बुरा हुआ,बिल्कुल कच्ची गृहस्थी छोड़ गया । "
- यह कह नाते-रिश्तेदारों ने लोकलाज वश आँखें तनिक गीली कर ली थीं। उसकी मौत की खबर सुनते ही कुछ भद्रजन भी दौड़े आये थे।
कानाफूसी शुरु थी -" लो ससुरा, चला गया और डूबा गया हमारा लाखों रूपया ! "
उन्हें उसकी मृत्यु का गम नहीं था , वरन् दुःखी वे इसलिए थे कि अपने जिन कामों केलिए बयाना जो दे रखा था, वह सब बट्टे खाते में गया।
वे सभी हाथ मल ही रहे थे कि तभी रामनाम सत्य है , का वही कर्णप्रिय उद्घोष दुखीराम को सुनाई पड़ता है ।
चौक उठता है वह , उसे स्मरण हो आया उस अभागे व्यक्ति का जो कुछ माह पूर्व इसी श्मशानघाट मार्ग पर मिला था। जीवन की राह में भटकता- लड़खड़ा- गिड़गिड़ाता वह इंसान, जो स्नेह के दो बूँद केलिए पग- पग छला गया , तो लगा था, कुछ इसीतरह के शब्दों को बुदबुदाने ... और हाँ ,उसके जीवन का यह कटु सत्य किसी को इतना कड़वा लगा कि पूछे न ,उसे किन तिरस्कार भरे शब्दों के प्रयोग से दुत्कारा गया था।आखिर उस बावले से छुटकारा जो पाना था।
परंतु पागल वह नहीं यह दुनिया है। मृत्यु से पूर्व ही हर लौकिक सम्बंधों से मुक्त होना , यही तो रामराम नाम सत्य है ?
जिसे दुखीराम तो समझ गया , लेकिन यह दीनबंधु धन के दौड़ में रमा रहा । इसकी लालसा निरंतर " और -और " कह शोर मचाती रही। यह सत्य है कि लालसा अपनी गुलाबी मादकता के साथ उदय होती है, परंतु जब उसका सुनहरा आवरण हटता है, तो वास्तविकता नग्न स्वरूप में सामने आ जाती है।
अति-महत्वाकांक्षी मनुष्य को जीवन की इस क्षणभंगुरता का बोध भला कहाँ हो पाता है । वह अपनी आकांक्षा को गहरी नींव देने में इसप्रकार खोया रहता है कि स्वयं को चिरंजीवी समझ बैठता है ।
अतः एक दिन दीनबंधु के " जुगड़तंत्र" को भी झटका लगता है। उसका खेल बिगड़ जाता है। और फिर अवसादग्रस्त दीनबंधु को असमय ही मौत की यह पुकार सुनाई पड़ती है-
"तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला ।"
धन के प्रति उसकी लिप्सा उसके मानवधर्म केलिए अभिशाप बन गयी थी। अतः उसकी मृत्यु को भी अपने आर्थिक हितों से जोड़कर समाज ने देखा।
-व्याकुल पथिक
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 27 जनवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआपका हृदय से आभार, यशोदा दी।
Deleteप्रतिष्ठित पटल पर मेरे लेख को स्थान देने केलिए।
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteशशि जी आपकी लिखी 1 पंक्तियां लालसा अपनी गुलाबी मादकता के साथ बढ़ती है ये पंक्तियाँ इतनी सटीक बैठती है .. बिल्कुल आज के समय में ऐसा ही हो रहा है गुलाबी आवरण और करके ही हमारी इच्छाएं लालसा हमें लील रही है कमाल का लिखा आपने वाकई में बहुत अच्छा .....आप ग्रामीण परिवेश में जब भी लिखते हैं उसकी भाषा शैली संवाद यह सब कहानी ko.. पाठक के साथ सीधा जोड़ते हैं लिखते रहिएगा धन्यवाद
ReplyDeleteउत्साहवर्धन के हृदय से धन्यवाद अनु जी,आसपास जो देखता हूँ, शब्द देने का प्रयास कर रहा हूँ।
Deleteपुनः प्रणाम।
दार्शनिक शैली इस रोचक कथा/संस्मरण को नया आयाम प्रदान करती है। अनुभव पर आधारित आपका यह सृजन सराहना से परे है। मानव के विभिन्न पहलुओं को स्पर्श करने में आपकी यह रचना सक्षम है। अतिवाद एवं लालसा के बंधनों में बंधा यह मानव न जाने कब रुकेगा! कब मुक्त होगा! इस आडम्बर, धनलोलुपता और धर्म के नाम पर विभिन्न दिवसों पर गंगा स्नान कर यह मानव कभी मुक्त नहीं हो सकता, न गणेश चतुर्दर्शी पर और न ही मकरसंक्रांति पर ! बुद्ध के मार्गों पर चलने हेतु स्वयं आपको उस दिखावे वाले पांडित्यधर्म से निकलना होगा । उसमें कूपमंडूक बनकर ज्ञान बांचने से वह ज्ञान आपको स्वयं निराशा के गहरे अंधकार में ले जायेगा! केवल मुँह से दर्शन की बातें तभी अच्छी लगती हैं जब व्यक्ति स्वयं इनका खंडन करता हो न कि इन अंध आडम्बरों का प्रचार-प्रसार निरंतर धर्म बचाने हेतु करता हो। दार्शनिक रचना हेतु मेरी अशेष शुभकामनाएं ! सादर 'एकलव्य'
ReplyDeleteआप जैसे प्रखर युवा साहित्यकार का आशीर्वचन मेरी लेखनी केलिए वरदान हैं, परंतु मित्र
Deleteबुद्ध को भी उनके ही अनुयायी छलते रहे हैं, जिस तरह से हमारी परम्परा को चंद तथाकथित पण्डित।
अतः मैं अपनी परम्पराओं संग सदैव खड़ा रहूँगा, उसमें संशोधन केलिए संघर्ष भी करता रहूँगा , बुद्ध के उन भक्तों की तरह उनकी वाणी को बड़े-बड़े मठों और स्पूत में कैद कर रखने से यह उत्तम है।
बुद्ध ने प्रेम से लोगों को अपने बस में किया और उनके अनुयायी इस गुण को भुला बैठे इसलिए उन्होंने बुद्ध के ध्यान को, ज्ञान को , ध्यान को, उद्देश्य को गंभीर क्षति पहुँचाई है।
आपको हृदय से शुभाकामनाँ, आप अपने पथ पर बढ़ते रहे।
कृपया बस को वश पढ़ा जाए,
ReplyDeleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार(28-01-2020 ) को " चालीस लाख कदम "(चर्चा अंक - 3594) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
...
कामिनी सिन्हा
चर्चाकार के रुप में आपका स्वागत है और यह मेरा सौभाग्य है कि आपकी प्रस्तुति के प्रथम अंक में मंच पर मेरी भी रचना यह सम्मान पा रही है,सादर नमन।
Deleteईश्वर से प्रार्थना है कि आप एक कुशल चर्चाकार में पहचानी जाए।
कटु सत्य है फिर भी किसे निगलने से परहेज है हम सब इसी राह के राही हैं :)
ReplyDeleteजी भाई साहब, जिसे नहीं मिला वह साधू है, हमारे जैसे डरपोकों की तरह 😊
Deleteप्रणाम।
जैसे कोई नेता जनता को हरिश्चंद्र लगता है ,लेकिन जैसे ही सत्ता हाथ लगती है , पता चलता है कि वह तो रंगा सियार निकला।
सादर।
Maxim Gorki ki ek kahani
ReplyDeletehai Ghanta, kahin mile to
Parhna, usme bhi Dinbandhu se milta julta
ek Patra hai,ek sher se
baat khatm karta hun,
Hampe daulat nahin to
Kya hua dharam to hai,
Jigar me dard to hai aankh
me sharam to hai,
Aur bhi,
Mera kya hai, main to dukh
Ki chadar gam ka jama hun, tum to kapde pahne
ho aur mujhse jyada nange ho, Agyant।
Bhookh Aankhon me hua
karti hai।
अधिदर्शक चतुर्वेदी , वरिष्ठ साहित्यकार
अति-महत्वाकांक्षी मनुष्य को जीवन की इस क्षणभंगुरता का बोध भला कहाँ हो पाता है । वह अपनी आकांक्षा को गहरी नींव देने में इसप्रकार खोया रहता है कि स्वयं को चिरंजीवी समझ बैठता है । सत्य कहा आपने, अद्भुत लेखन शशि भाई 💐💐👌
ReplyDeleteआभार दी।
Deleteसटीक और सार्थक लेख गहरा चिंतन ,सही दर्शन ,सच में ये राग और मोह की जाई पिपासा जाने कैसे सुनहरे सपने दिखाती है, छलती है मानव को ,
ReplyDeleteबहुत शानदार लेखन ।
ऐसे लेख लिखने में कितनी एकाग्रता और सामायिक तथ्यों से जुड़ना साफ झलकता है ।
बहुत बहुत बधाई।
जी आभार दी, आपका स्नेहाशीष बना रहे।
Deleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteआभार भाई साहब
Delete