झोंका हवा का..
( जीवन की पाठशाला से )
************************
तभी उसे अपने जीवन के एक और कठोर सत्य का सामना करना पड़ा, जिस स्नेह पुष्प को बसंत समीर ने महीनों में खिलाया था , उसे संदेह की लू का एक झोंका पलक झपकते ही जला कर राख कर देता है..
************************
ठंडी हवा के झोंके ने फिर से उसके सिर को भयानक पीड़ा दे रखी थी । दोपहर होते-होते वह बिस्तर पर यूँ गिरा कि अगले दिन सुबह ही उठने की स्थिति में था।
वह अपनी इस हालत पर स्वयं को धिक्कारा है -
"आखिर क्यों नहीं कनटोप लगा कर निकला , जब पता है कि तनिक-सी सर्द हवा सहन नहीं हो पाती है। देख तो दाना-पानी की व्यवस्था भी नहीं कर सका है और अब कौन ख्याल रखेगा तेरा। मौसम कैसा भी हो, बयार कैसी भी चले , तेरे लिए बसंत, शरद और ग्रीष्म ऋतु में क्या फर्क, तू तो पतझड़ है..पतझड़.. ? "
यह कटु उपदेश सुनकर राघव चौककर उठ बैठता है। एक तो सिर फटा जा रहा है और उसकी यह अंतरात्मा भी कुछ ज्यादा ही जुबां चलाने लगी है। मेज पर रखे बाम को माथे पर रगड़ते हुये वह भुनभुनाता है।
काश ! कोई अपना होता,जिसके स्नेहिल स्पर्श की अनुभूति इस वेदना में उसे हो पाती, परंतु कौन ढ़ाढस देता उसे ?
ऐसे कष्ट में प्रियजनों को याद कर उसी आँखें डबडबा उठती हैं। मन को दिलासा देने केलिए एक गीत गुनगुनाने का प्रयत्न करता है -
कब छोड़ता है, ये रोग जी को
दिल भूल जाता है जब किसी को
वो भूलकर भी याद आता है
आदमी मुसाफिर है..
अरे हाँ ! आज तो बसंत पंचमी है। छात्रजीवन में उसका सबसे प्रिय पर्व रहा। वह अपने सुनहरे अतीत को याद करता है, जब दस वर्ष का रहा, एक वैवाहिक कार्यक्रम में दार्जिलिंग गया था। बासंती बयार चल रही थी,खिलखिलाते बड़े-बड़े पहाड़ी पुष्पों के मध्य खूबसूरत पंडालों में माँ सरस्वती की सम्मोहक प्रतिमाएँ विराजमान थीं। साँझ होने तक घर की महिलाओं संग वीणावादिनी का पूजन-वंदन करता रहा। इसके पूर्व उसने एक और माँ शारदा की विशाल प्रतिमा देखी थी,तब वह कोलकाता के उस अंग्रेजी माध्यम विद्यालय के शिशु कक्षा का छात्र था और बाद में कोलकाता और बनारस में स्वयं पंडाल सजाया करता था। एक वर्ष तो मुजफ्फरपुर में भी बच्चों संग उसने पंडाल निर्माण में अपनी कारीगरी दिखाई थी। सभी ने उसे कोलकाता वाला कलाकार कह सम्मान दिया था। इसके पश्चात उसकी उदास जिंदगी में सरस्वती पूजन का अवसर कभी नहीं आया ..।
"बेवकूफ ! तेरी खुशियाँ कब की पीछे छूट चुकी हैं। अपने घाव पर खुद ही नश्तर क्यों रख रहा है ।"
- दिवास्वप्न से बाहर निकल राघव स्वयं को संभालता है ।
ओह ! तो यह बसंत पुनः सताने आ गया। अब क्या रखा है, एक मुरझाए पुष्प-सा हो चुका है वह। अन्यथा तो कभी राघव हवा के झोंके से झूमते- इठलाते उन सरसों के फूलों को अपलक देखा करता था। इन पुष्पों को अपने जीवन की पाठशाला का एक हिस्सा समझ उसने स्वयं से कहा था-
" देखो न ,एक स्निग्ध समीर का झोंका किस तरह से विश्वास फेंक जाता है। मनुष्य हो या फूल उन्हें नव स्फूर्ति की अनुभूति यह बसंत करा ही देता है, तभी तो इसे ऋतुराज कहते हैं।"
और अब तो यह पीला बिछावन उसे चुभन देता है।आखिर क्यों ? वह तो सदैव प्रकृति के निकट रहा है । माँ गंगा का पावन तट और सुंदर उपवन दोनों ही उसके विश्वसनीय सखा रहे । अन्य मित्रों की तरह इन्होंने तो कभी उसकी निर्धनता का उपहास और उसकी निष्ठा पर संदेह नहीं किया ।
ग्रीष्मकाल में यहीं किसी बेंच पर बैठा उमसभरी गर्मी से बेचैन हो जब वह नीले आसमान वाले देवता की ओर टकटकी लगाये देखा करता , तभी कहीं से हवा का एक झोंका आता और मौन खड़े वृक्षों की टहनियों में कम्पन होते ही उसके पत्तों से निकले शीतल पवन की अनुभूति ... हम वातानुकूलित बंगलों में बैठकर नहीं कर सकते हैं ।
स्नेह रखने वाले बुजुर्ग उसे पछुआ और पुरवा हवा का भेद समझाया करते थें।
इन्हीं अनुभवी सज्जनों के मध्य वह हँसता- रोता , लड़खड़ाता- संभलता , अपने सपनों में जीता- सोता था। जीवन के तिक्त एवं मधुर क्षण तब उसे समान लगते थे।
वे बुजुर्ग कहते -
" जीवन एक अग्निकुंड है, यहाँ धूप से अधिक तपन है।"
प्रेम- मोह , धर्म- मोक्ष की अनेक बातें यहाँ हुआ करती थीं।
और उस गंगा तट पर जहाँ उसने तैरने का अभ्यास किया था , नाविक उसे गंगा की लहरों के विपरीत दिशा में हाथ- पाँव मारते देख मुस्कुराते हुये यह पाठ पढ़ाते थे कि पवन की दिशा को देख इनके संग हो लो ,अन्यथा शीघ्र थक जाओगे और गणतव्य तक पहुँचना आसान नहीं होगा।
यद्यपि जिनके पास उत्साह है, वे विपरीत परिस्थितियों में भी लक्ष्य प्राप्त करके ही दम लेते हैं । अन्यथा इन्हीं तूफानों को अनेकों बार छोटी- छोटी नौकाओं ने परास्त नहीं किया होता। ऐसी कोई तूफानी बयार इस सृष्टि में नहीं है, जो मनुष्य की हिम्मत को हमेशा केलिए कुचलकर नष्ट कर दे।
हममें से कुछ मिसाइल मैन ए पी जे अब्दुल कलाम की तरह भी होते हैं , जिनके दृढ़ संकल्प के समक्ष हवा को भी मार्ग बदलना पड़ता है ।
इसलिए वे अपनी आत्मकथा 'अग्नि की खोज' में जार्ज बनार्ड शॉ का यह उदाहरण प्रस्तुत करते हैं-
" सभी बुद्धिमान मनुष्य अपने को दुनिया के अनुरूप ढाल लेते हैं, सिर्फ कुछ ही लोग ऐसे होते हैं, जो दुनिया को अपने अनुरूप बनाने में लगे रहते हैं और दुनिया में सारी तरक्की इन दूसरे तरह के लोगों पर ही निर्भर है। "
राघव भी धनी और निर्धन दोनों ही घरानों के मध्य सामंजस्य बैठा कर एक मेधावी छात्र के रूप में लक्ष्य की ओर बढ़ रहा था, तभी न जाने उसके किस अपराध पर यह कहा गया था -
" बड़े लोगों के साथ कुछ दिन रह क्या लिया कि तू हवा में उड़ने लगा । "
अपनों की उपेक्षा का दंश राघव नहीं सहन कर सका। वह अपना आशियाना छोड़ अनजान डगर पर निकल पड़ा । संग यदि कोई था ,तो यही गीत -
क्या साथ लाये, क्या तोड़ आये
रस्ते में हम क्या-क्या छोड़ आये
मंजिल पे जा के याद आता है
आदमी मुसाफिर है...
मेहनत के चंद पैसों केलिए हर शाम दरवाजे -दरवाजे पुकार लगाते उसका कंठ जबकभी ग्लानि से रुँध जाता था, वह स्वयं से प्रश्न किया करता था कि क्या बचपन में उसका पालन-पोषण किसी बड़े घराने में हुआ था।
हाँ, इस आस में वह टूटा नहीं कि कोई तो अपना होगा.. ।
और एक दिन जब उसका हृदय प्रसून प्रस्फुटित हो उठा था, तभी उसे अपने जीवन के एक और कठोर सत्य का सामना करना पड़ा। जिस स्नेह पुष्प को बसंत समीर महीनों में खिलाया था , संदेह की लू का एक झोंका पलक झपकते ही उसे जला कर राख कर देता है। जीवन के उसी खालीपन को समेटे राघव फिर से वहीं गीत गाता है-
झोंका हवा का, पानी का रेला
मेले में रह जाये जो अकेला
फिर वो अकेला ही रह जाता है
आदमी मुसाफिर है...
गैरों को अपना समझने के मोह से वह कबतक जुझता रहेगा। यही तो उसके भावुक हृदय का सबसे बड़ा अपराध है। जो उसके हँसते-मुस्कुराते जीवन को चाट गया। हर मोड़ पर वह संदेह का शिकार हुआ । भलेमानुस से न जाने कब- कैसे उसे अमानुष होने का यह खिताब मिल जाता है ।
" जैसे दिखते हो , लिखते हो, वैसे हो नहीं। "
- कानों में पिघले शीशे की तरह ये कठोर शब्द उसे बेचैन किये हुये है। उसका अंतर्मन चीत्कार कर उठा है।
आदर्श और यथार्थ में आत्मा एवं शरीर जैसे संबंध का हिमायती रहा वह, भला या बुरा जैसा भी , उसे छिपाना नहीं चाहता था । उसने निश्चय किया था कि अपने हृदय के घाव को झूठे मुस्कान से नहीं ढकेगा।
गुरूजनों का यह सबक उसे याद रहा-
" मनुष्य चाहे जितना प्रयत्न कर ले, हवा का झोंका आते ही बनावटी आवरण खिसक जाता है और तब तुम्हारा वास्तविक रूप समाज के समक्ष होगा।"
फिर किसने उसे विदूषक बना दिया ?
क्या अपराध है उसका ? नहीं चाहता है वह ऐसा जीवन , जिसका इस संसार में अपना कहने को कोई न हो।
लम्बी साँसें भर राघव अपनापन चित्रपट के उसी गीत की आखिरी बोल को पूरा करता है-
जब डोलती है, जीवन की नैय्या
कोई तो बन जाता है खिवैय्या
कोई किनारे पे ही डूब जाता है
आदमी मुसाफिर है...
उफ ! कैसे छुड़ाए इन स्मृतियों से पीछा ?
नहीं बनाना उसे ताश के पत्तों से भावनाओं का और कोई नया महल जो संदेह के हवा के तनिक झोंके से ढह जाता हो।
वह निस्सहाय-सा पुनः बिस्तर में जा धंसता है।
- व्याकुल पथिक
( जीवन की पाठशाला से )
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तभी उसे अपने जीवन के एक और कठोर सत्य का सामना करना पड़ा, जिस स्नेह पुष्प को बसंत समीर ने महीनों में खिलाया था , उसे संदेह की लू का एक झोंका पलक झपकते ही जला कर राख कर देता है..
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ठंडी हवा के झोंके ने फिर से उसके सिर को भयानक पीड़ा दे रखी थी । दोपहर होते-होते वह बिस्तर पर यूँ गिरा कि अगले दिन सुबह ही उठने की स्थिति में था।
वह अपनी इस हालत पर स्वयं को धिक्कारा है -
"आखिर क्यों नहीं कनटोप लगा कर निकला , जब पता है कि तनिक-सी सर्द हवा सहन नहीं हो पाती है। देख तो दाना-पानी की व्यवस्था भी नहीं कर सका है और अब कौन ख्याल रखेगा तेरा। मौसम कैसा भी हो, बयार कैसी भी चले , तेरे लिए बसंत, शरद और ग्रीष्म ऋतु में क्या फर्क, तू तो पतझड़ है..पतझड़.. ? "
यह कटु उपदेश सुनकर राघव चौककर उठ बैठता है। एक तो सिर फटा जा रहा है और उसकी यह अंतरात्मा भी कुछ ज्यादा ही जुबां चलाने लगी है। मेज पर रखे बाम को माथे पर रगड़ते हुये वह भुनभुनाता है।
काश ! कोई अपना होता,जिसके स्नेहिल स्पर्श की अनुभूति इस वेदना में उसे हो पाती, परंतु कौन ढ़ाढस देता उसे ?
ऐसे कष्ट में प्रियजनों को याद कर उसी आँखें डबडबा उठती हैं। मन को दिलासा देने केलिए एक गीत गुनगुनाने का प्रयत्न करता है -
कब छोड़ता है, ये रोग जी को
दिल भूल जाता है जब किसी को
वो भूलकर भी याद आता है
आदमी मुसाफिर है..
अरे हाँ ! आज तो बसंत पंचमी है। छात्रजीवन में उसका सबसे प्रिय पर्व रहा। वह अपने सुनहरे अतीत को याद करता है, जब दस वर्ष का रहा, एक वैवाहिक कार्यक्रम में दार्जिलिंग गया था। बासंती बयार चल रही थी,खिलखिलाते बड़े-बड़े पहाड़ी पुष्पों के मध्य खूबसूरत पंडालों में माँ सरस्वती की सम्मोहक प्रतिमाएँ विराजमान थीं। साँझ होने तक घर की महिलाओं संग वीणावादिनी का पूजन-वंदन करता रहा। इसके पूर्व उसने एक और माँ शारदा की विशाल प्रतिमा देखी थी,तब वह कोलकाता के उस अंग्रेजी माध्यम विद्यालय के शिशु कक्षा का छात्र था और बाद में कोलकाता और बनारस में स्वयं पंडाल सजाया करता था। एक वर्ष तो मुजफ्फरपुर में भी बच्चों संग उसने पंडाल निर्माण में अपनी कारीगरी दिखाई थी। सभी ने उसे कोलकाता वाला कलाकार कह सम्मान दिया था। इसके पश्चात उसकी उदास जिंदगी में सरस्वती पूजन का अवसर कभी नहीं आया ..।
"बेवकूफ ! तेरी खुशियाँ कब की पीछे छूट चुकी हैं। अपने घाव पर खुद ही नश्तर क्यों रख रहा है ।"
- दिवास्वप्न से बाहर निकल राघव स्वयं को संभालता है ।
ओह ! तो यह बसंत पुनः सताने आ गया। अब क्या रखा है, एक मुरझाए पुष्प-सा हो चुका है वह। अन्यथा तो कभी राघव हवा के झोंके से झूमते- इठलाते उन सरसों के फूलों को अपलक देखा करता था। इन पुष्पों को अपने जीवन की पाठशाला का एक हिस्सा समझ उसने स्वयं से कहा था-
" देखो न ,एक स्निग्ध समीर का झोंका किस तरह से विश्वास फेंक जाता है। मनुष्य हो या फूल उन्हें नव स्फूर्ति की अनुभूति यह बसंत करा ही देता है, तभी तो इसे ऋतुराज कहते हैं।"
और अब तो यह पीला बिछावन उसे चुभन देता है।आखिर क्यों ? वह तो सदैव प्रकृति के निकट रहा है । माँ गंगा का पावन तट और सुंदर उपवन दोनों ही उसके विश्वसनीय सखा रहे । अन्य मित्रों की तरह इन्होंने तो कभी उसकी निर्धनता का उपहास और उसकी निष्ठा पर संदेह नहीं किया ।
ग्रीष्मकाल में यहीं किसी बेंच पर बैठा उमसभरी गर्मी से बेचैन हो जब वह नीले आसमान वाले देवता की ओर टकटकी लगाये देखा करता , तभी कहीं से हवा का एक झोंका आता और मौन खड़े वृक्षों की टहनियों में कम्पन होते ही उसके पत्तों से निकले शीतल पवन की अनुभूति ... हम वातानुकूलित बंगलों में बैठकर नहीं कर सकते हैं ।
स्नेह रखने वाले बुजुर्ग उसे पछुआ और पुरवा हवा का भेद समझाया करते थें।
इन्हीं अनुभवी सज्जनों के मध्य वह हँसता- रोता , लड़खड़ाता- संभलता , अपने सपनों में जीता- सोता था। जीवन के तिक्त एवं मधुर क्षण तब उसे समान लगते थे।
वे बुजुर्ग कहते -
" जीवन एक अग्निकुंड है, यहाँ धूप से अधिक तपन है।"
प्रेम- मोह , धर्म- मोक्ष की अनेक बातें यहाँ हुआ करती थीं।
और उस गंगा तट पर जहाँ उसने तैरने का अभ्यास किया था , नाविक उसे गंगा की लहरों के विपरीत दिशा में हाथ- पाँव मारते देख मुस्कुराते हुये यह पाठ पढ़ाते थे कि पवन की दिशा को देख इनके संग हो लो ,अन्यथा शीघ्र थक जाओगे और गणतव्य तक पहुँचना आसान नहीं होगा।
यद्यपि जिनके पास उत्साह है, वे विपरीत परिस्थितियों में भी लक्ष्य प्राप्त करके ही दम लेते हैं । अन्यथा इन्हीं तूफानों को अनेकों बार छोटी- छोटी नौकाओं ने परास्त नहीं किया होता। ऐसी कोई तूफानी बयार इस सृष्टि में नहीं है, जो मनुष्य की हिम्मत को हमेशा केलिए कुचलकर नष्ट कर दे।
हममें से कुछ मिसाइल मैन ए पी जे अब्दुल कलाम की तरह भी होते हैं , जिनके दृढ़ संकल्प के समक्ष हवा को भी मार्ग बदलना पड़ता है ।
इसलिए वे अपनी आत्मकथा 'अग्नि की खोज' में जार्ज बनार्ड शॉ का यह उदाहरण प्रस्तुत करते हैं-
" सभी बुद्धिमान मनुष्य अपने को दुनिया के अनुरूप ढाल लेते हैं, सिर्फ कुछ ही लोग ऐसे होते हैं, जो दुनिया को अपने अनुरूप बनाने में लगे रहते हैं और दुनिया में सारी तरक्की इन दूसरे तरह के लोगों पर ही निर्भर है। "
राघव भी धनी और निर्धन दोनों ही घरानों के मध्य सामंजस्य बैठा कर एक मेधावी छात्र के रूप में लक्ष्य की ओर बढ़ रहा था, तभी न जाने उसके किस अपराध पर यह कहा गया था -
" बड़े लोगों के साथ कुछ दिन रह क्या लिया कि तू हवा में उड़ने लगा । "
अपनों की उपेक्षा का दंश राघव नहीं सहन कर सका। वह अपना आशियाना छोड़ अनजान डगर पर निकल पड़ा । संग यदि कोई था ,तो यही गीत -
क्या साथ लाये, क्या तोड़ आये
रस्ते में हम क्या-क्या छोड़ आये
मंजिल पे जा के याद आता है
आदमी मुसाफिर है...
मेहनत के चंद पैसों केलिए हर शाम दरवाजे -दरवाजे पुकार लगाते उसका कंठ जबकभी ग्लानि से रुँध जाता था, वह स्वयं से प्रश्न किया करता था कि क्या बचपन में उसका पालन-पोषण किसी बड़े घराने में हुआ था।
हाँ, इस आस में वह टूटा नहीं कि कोई तो अपना होगा.. ।
और एक दिन जब उसका हृदय प्रसून प्रस्फुटित हो उठा था, तभी उसे अपने जीवन के एक और कठोर सत्य का सामना करना पड़ा। जिस स्नेह पुष्प को बसंत समीर महीनों में खिलाया था , संदेह की लू का एक झोंका पलक झपकते ही उसे जला कर राख कर देता है। जीवन के उसी खालीपन को समेटे राघव फिर से वहीं गीत गाता है-
झोंका हवा का, पानी का रेला
मेले में रह जाये जो अकेला
फिर वो अकेला ही रह जाता है
आदमी मुसाफिर है...
गैरों को अपना समझने के मोह से वह कबतक जुझता रहेगा। यही तो उसके भावुक हृदय का सबसे बड़ा अपराध है। जो उसके हँसते-मुस्कुराते जीवन को चाट गया। हर मोड़ पर वह संदेह का शिकार हुआ । भलेमानुस से न जाने कब- कैसे उसे अमानुष होने का यह खिताब मिल जाता है ।
" जैसे दिखते हो , लिखते हो, वैसे हो नहीं। "
- कानों में पिघले शीशे की तरह ये कठोर शब्द उसे बेचैन किये हुये है। उसका अंतर्मन चीत्कार कर उठा है।
आदर्श और यथार्थ में आत्मा एवं शरीर जैसे संबंध का हिमायती रहा वह, भला या बुरा जैसा भी , उसे छिपाना नहीं चाहता था । उसने निश्चय किया था कि अपने हृदय के घाव को झूठे मुस्कान से नहीं ढकेगा।
गुरूजनों का यह सबक उसे याद रहा-
" मनुष्य चाहे जितना प्रयत्न कर ले, हवा का झोंका आते ही बनावटी आवरण खिसक जाता है और तब तुम्हारा वास्तविक रूप समाज के समक्ष होगा।"
फिर किसने उसे विदूषक बना दिया ?
क्या अपराध है उसका ? नहीं चाहता है वह ऐसा जीवन , जिसका इस संसार में अपना कहने को कोई न हो।
लम्बी साँसें भर राघव अपनापन चित्रपट के उसी गीत की आखिरी बोल को पूरा करता है-
जब डोलती है, जीवन की नैय्या
कोई तो बन जाता है खिवैय्या
कोई किनारे पे ही डूब जाता है
आदमी मुसाफिर है...
उफ ! कैसे छुड़ाए इन स्मृतियों से पीछा ?
नहीं बनाना उसे ताश के पत्तों से भावनाओं का और कोई नया महल जो संदेह के हवा के तनिक झोंके से ढह जाता हो।
वह निस्सहाय-सा पुनः बिस्तर में जा धंसता है।
- व्याकुल पथिक
सुन्दर लेखन।
ReplyDeleteआभार भाई साहब
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteजीवन की यात्रा में कई मोड़ ऐसे आते हैं, जब आप स्वयं से संवाद करने लगते हैं। सुख के पलों के बारे में, संबंधों के बारे में, आकांक्षाओं के बारे में, अपेक्षाओं के बारे में...कुछ सवाल उठते हैं, कुछ जवाब मिलते हैं... कुछ अनुत्तरित रह जाते हैं...रोज़-दर-रोज़। वक़्त बीतता जाता है...ढलती हुई रात आपको अपने आगोश में लेने के बाद एक नई सुबह रोज़ आपके हवाले कर जाती है। अमर अभिलाषाओं के पंखों पर उड़ता हुआ आपका मन ज़िंदगी के धड़कनों को नए गीत देता रहता है। ठोकरें और बाधाएँ आपकी दृष्टि को व्यापक करती जाती हैं। कभी आँसू बहते हैं, तो कभी आप उन्हें रोक लेते हैं। कभी दिल की बात कह देते हैं, तो कभी आप उसे अपने दिल में ही रख लेते हैं। मुस्कुराकर जिंदगी की दुश्वारियों को आसान बनाने की कोशिश में कभी क़ामयाब होते हैं, तो कभी नाक़ामयाब। कभी आप अनुरक्त होते हैं, तो कभी विरक्त। दूसरों के बजाए आप ख़ुद को बेहतर तरीके से पहचानने लगते हैं। प्रत्येक पल घना होता चिंतन आपको अनुभवों से समृद्ध करता रहता है। त्योहारों जैसे पल और उस पल में बहारों जैसी खुशबू आपकी ज़िंदगी को नया मुक़ाम देती है। तेज़ी से जाते हुए सुख के उन पलों के लिए दिल की यही पुकार होती है कि वो थोड़ी देर और रुक जाएं, लेकिन ऐसा कहाँ हो पाता है। फिर भी, हज़ार विवशताओं के समक्ष आपके दिल की धड़कनें कभी रुकती नहीं और नहीं रुकते आपके पाँव। आप यादों से आगे बढ़ते रहते हैं। जीना यहाँ, मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ, जैसे भाव आपके पाँवों को गति देते रहते हैं। कुछ करने का विकल्प आपके पास हमेशा रहता है। मनुष्य सदैव परिस्थितियों से बड़ा होता है। सकारात्मक विचार ही उसे जीने का हौसला देते हैं।
ReplyDeleteआपकी लेखनी अपने पाठकों को भावुक बना देती है। आपके लेखन में मुंशी प्रेमचंद की झलक दिखाई पड़ती है। अकेलेपन की अपनी समस्याएँ हैं। समस्याएँ आती जाएंगी और ज़िंदगी जब तक है उसको हल करती रहेगी। यह मत भूलिए कि आपके लेखन से हज़ारों लोग आप से जुड़े हुए हैं। लेखक कभी अकेला नहीं होता है। उसके साथ पाठक और उसके जैसी विचारधारा के रखने वाले लोग होते हैं। शशि भाई, बहुत ही सुंदर लिखा है आपने।
अनिल भैया आप जैसे श्रेष्ठ रचनाकार की प्रतिक्रिया मेरे लिए वरदान से कम नहीं है।
Deleteबस आपलोगों के सानिध्य में इसी तरह जीवन की पाठशाला में सदैव ही कुछ सीखता, कुछ लिखता और कुछ गुनगुनाता रहूँ, यही आकांक्षा है।
काश ! बचपन में हिन्दी की उपेक्षा नहीं की होती, तो आपकी तरह मेरे पास भी शब्दों का भंडार होता।
शशि भाई, अकेलेपन के दुख को बहुत अनूठे तरीके से व्यक्त किया हैं आपने। परीस्थिति के हिसाब से गीतों का चयन भी बहुत लाजबाब है।
ReplyDeleteआभार ज्योति दी।
Deleteआपका स्नेहाशीष इसी तरह से टिप्पणियों के माध्यम से बना रहे।
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 31 जनवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआभारा यशोदा दी
Deleteबेहद हृदयस्पर्शी लेख लिखा शशि भाई 👌👌
ReplyDeleteआभारा दी।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(०१-०२-२०२०) को "शब्द-सृजन"-६ (चर्चा अंक - ३५९८) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
-अनीता सैनी
आपका हृदय से आभार अनीता बहन।
DeleteJindgi yun hi chalti hai dost,vartman hamare hath
ReplyDeleteme hona bure se bure ateet ki hi saugat hai, ise
muskura ke gale lagao,
Jinda to hain,ye bahut
badi baat hai, patthron ko
tod jharne ka nikalna
Jindgi hai,Frustration
creeps in when we think
too much।
श्री अधिदर्शक चतुर्वेदी , वरिष्ठ साहित्यकार।
atteet me t chhoot gaya hai, ant me dhanyvad hai
DeletePl correct।
अकेलेपन का दर्द आपकी लेखनी में उतर आया है । जब भी आपकी कोई भी रचना पढती हूँ ,बहुत भावुक हो जाती हूँ ।
ReplyDeleteआभारा दी,
Deleteआपकी प्रतिक्रिया सदैव उत्साहवर्धन करती है।
भावनाओं से परिपूर्ण पोस्ट हृदय को छू गई।
ReplyDeleteनकारात्मक माहौल बनाने में और फिर उसी के आदि हो जाने में हमारा कोई सानी नहीं है।
जिस शिक्षा या धर्म ने हमें अकेले रहने की सलाह दी है उसी धर्म व शिक्षा ने हमे गृहस्थ जीवन क्यों जरूरी हैं की हज़ार बातें बताई है।
गृहस्थ जीवन अपनाकर कबीर व नानक जी ने वो पाया जो हम कभी पा ही नहीं सकते।
नई पोस्ट पर आपका स्वागत है- लोकतंत्र
आभार भाई जी, निश्चित आऊँगा।
ReplyDeleteबहुत मार्मिक अभिव्यक्ति ,सादर नमन आपको
ReplyDeleteजी आभार, कामिनी जी।
Deleteप्रणाम।
हृदय स्पर्शी लेख आत्म कथा या स्वगत कथन के स्वरूप में बहुत शानदार लेख ।
ReplyDeleteजी दी आभार, प्रणाम।
Delete👏 मां के अतिरिक्त जीवन में आ औरों को दी गई संवेदनायें वेदना बन जाती हैं।
ReplyDelete- श्रीमती ज्योत्सना मिश्र
👏 परिवारों में साथ रहते हुए भी लोग अपनी अपनी दुनिया में रहते हैं। " जब हों दिलों में दूरियां, तो घर नहीं शामियाने हुआ करते हैं"।
Deleteभावपूर्ण लेखन
ReplyDelete'हवा का झोंका' को बड़ी तेज भागती दुनियां के लिए 'लघु उपन्यास' कहा जाए तो उचित ही लगेगा क्योंकि वृहद ढंग के उपन्यास को पढ़ने का वक्त अब सामान्यतया लोगों के पास कम है।
ReplyDeleteइसे 'लघु कहानी' नहीं बल्कि 'लघु उपन्यास' इसलिए कह रहा हूं क्योंकि 'राघव' के बहाने समाज के उस पात्र के अंतरतम तक पहुंचने की कोशिश की गई है, जिसे 'राघव' बनकर ही महसूस किया जा सकता है । वरना सारे कथ्य ऊपर ही ऊपर 'झोंका हवा का' बन जाएगा ।
'राघव' बनना सच में 'अ-मानुष' बनना है । जो मनुष्य से ऊपर देवत्व की ओर ले जाता है, वह मानुष श्रेणी का हो ही नहीं सकता । यहां अमानुष का अर्थ यही ध्वनित करता है ।
मर्यादा की रक्षा के लिए राजा बनते बनते ईश्वरत्व प्राप्त कर लिया त्रेतायुग के 'राघव' ने । खुद ठोकर खाने, विपरीत हालातों से जूझने, अर्धांगिनी से बिछुड़ने का दर्द सहना मंजूर किया । इस दर्द को वाल्मीकि ने संभवतः राघव बन कर ही महसूस किया और उसे रामायण में उतार दिया । आदिकवि वाल्मीकि को क्रौंच पक्षी के दर्द की अनुभूति जो हुई, वह क्रौंच पक्षी के स्तर पर जाकर हुई होगी । इस लघु उपन्यास के लेखक की भी यही अनुभूति प्रकट होती है । अगर ऐसा न होता तो सहज लेखन में 'किनारे डूब जाना...' 'जीवन एक अग्निकुंड है, यहां धूप से अधिक तपन है..' जैसे वाक्यों का स्वमेव वर्णित हो जाना संभव न होता । जिन वाक्यों पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है ।
'पतझड़' नए जीवन के लिए रास्ता प्रशस्त करता है । राघव का 'उत्साह' का पतवार पकड़े रहना नैय्या को डूबने से बचाएगा भी ।
बहराल उत्कृष्ट लेखन के लिए बधाई ।-सलिल पांडेय, मिर्जापुर ।
अति सुंदर सच्चाई और आत्म भावनाओं का पूरा समावेश है आपकी इस रचना में जो किसी न किसी के जीवन के रूबरू कराती है।
ReplyDelete-श्री संतोष गिरी
एकाकी मन दर्द यदा - कदा आपके लेखन में आँसू की भांति छलक ही आ जाता है शशि हाई | अत्यंत हृदयस्पर्शी लेखन जो मन छूता सोचने को विवश करता है |
ReplyDeleteजी दी .. सुख और दुख, यही तो जीवन है।
Delete