बड़े लोग
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( दृश्य -1)
देर रात तक चले देवी जागरण में सम्मिलित भद्रजन भजन कम सेठ धर्मदास के अतिथि सत्कार का कीर्तन अधिक करते दिख रहे थे ..।
एक दिन पहले हुये इकलौते बेटे की शादी में उसने दिल खोल कर धन लुटाया था.. मैरिज हॉल और होटलों की लाइटिंग से लेकर कैटरीन तक की व्यवस्था चकाचौंध करने वाली थी.. अतः तारीफ तो बनती थी..।
" छप्पनभोग भी फीका समझे जनाब ..! कैसा अद्भुत दावत-भोज था .. ? "
- एक ने लार टपकाते हुये मेवा युक्त व्यंजनों की बात क्या छेड़ी, कईयों ने सुर मिलाना शुरु कर दिया .. ।
" भाई जी ! छोड़ो आप भी न कहाँ भोजन पर आ अटके.. । यह बोलो न कि बरातियों को दिया गिफ्ट पैकेट क्या गजब का था ..। मेहमानों का ऐसा स्वागत हमने तो नहीं देखा.. ! "
- दूसरे ने कहा..।
" यथा नाम तथा गुण ,जैसे छप्पर फाड़ के ऊपरवाले ने दिया है , उतना बड़ा कलेजा भी है, अपने धरमु भाई का ..।"
- तीसरे ने भी हामी भरते हुये कह दिया..।
इन्हें अपनी तारीफ में कसीदे पढ़ते देख धर्मदास मंद-मंद मुस्कुराता है .. मेहमानों का अभिवादन करते हुये वह सपत्नीक मुख्य यजमान के रूप में माँ दुर्गा की प्रतिमा के समक्ष जा विराजा ..।
आभूषणों से लकदक पति-पत्नी पर पुष्प वर्षा होती है और फिर देवी गीत -संगीत के साथ सभी थिरकने लगते हैं ...।
( दृश्य- 2 )
उधर, इस मेहमान नवाजी का सारा खर्च अपने बूढ़े कंधे पर लिए दुल्हन का पिता
चुप्पी साधे इस तमाशे को देख रहा था..।
' थूक से सत्तू सानने वाले ' अपने समधी साहब की " वाह-वाह" से उसका कलेजा फटा जा रहा था ..।
उसकी आँखों में अनेक प्रश्न थें , पर जुबां खामोश..। बिटिया की खुशी के खातिर उसने अपने औकात से बाहर जाकर सेठ धरमु के इस दरियादिली का सारा बोझ अपने सिर पर उठा रखा था, फिर भी उससे किसी ने यह नहीं पूछा -
" कर्मचंद ! कैसे सहा तुमने घराती और बराती दोनों का इतना सारा खर्च। यह समाज भी कैसा विचित्र है .. दिल बड़ा तो लड़की के पिता का होता है , पर ढोल लड़के वालों का बजता है..। "
धर्मदास के इस दिखावे से उसे कुढ़न हो रही थी..।
और तभी किसी मेहमान ने उसके इस घाव पर यह कह नश्तर रख दिया-
" अरे करमू भाई ! कहाँ खो गये हो । देखो तो कितने भाग्यवान हो तुम.. विशाल हृदयवाले धरमु बाबू के समधी जो बने हो..। राज करेगी .. राज , तुम्हारी बिटिया.. । "
सत्य पर झूठ के इस आवरण से अंतर्नाद कर रहे कर्मदास के हृदय की यहाँ सुधि लेता भी कौन.. ?
( दृश्य -3 )
सुबह हो चुकी थी और मेहमानों का प्रस्थान भी.. धर्मदास अपनी पत्नी संग उपहार में मिले कीमती सामानों को अपनी कड़ी निगरानी में घर भेजने में व्यस्त था ..।
तभी एक वृद्धा भिखमंगी अनाधिकृत रूप से भोजन कक्ष तक जा पहुँचती है.. अवशेष मिष्ठानों को देख उसकी रसना बेकाबू हो उठती है.. ।
" ये बाबू.. ! एक ठे रसगुल्ला ..! "
- यह कह वह दुआएँ देती है..।
और तभी जैसे ही उसने अल्युमिनियम का अपना कटोरा आगे बढ़ाया धर्मदास का असली चेहरा सामने आ जाता है..।
वह क्रोध से भर नौकरों को आवाज लगाता है-
" अरे रमुआ ! मर गया क्या .. ? यह अपशगुनी कहाँ से चली आई.. दफा कर इसे..। "
सेठ की डांट सुन तीनों ही नौकर भागे आते हैं..
वे बुढ़िया का हाथ पकड़ उसे लगभग घसीटते हुये होटल के मुख्यद्वार पर ला पटकते हैं..।
इतने पर भी उस वृद्धा की स्वादेन्द्रिय न जाने क्यों आज हठ ही कर बैठी थी.. बुढ़ापा होता ही ऐसा है..जब दीपक बुझने को होता है तो भभक उठता है..।
वह होटल पर खड़े एक युवक से पुनः वही विनती करती है -
" बबुआ ! एक ठे रसगुल्ला दिलवा देत ना ..।"
अपने इच्छाओं के प्रवाह को रोक नहीं पा रही थी.. वृद्धा की मनोदशा देख उस युवक का मन पसीज गया और कहता है- " माई ! हम त ई होटल क नौकर हई..अउर सुन ई सेठ एक नंबर क कंजूस बा..इहा कुछ न मिले तोहे.. ई सब बड़े लोगन क झूठा माया बा । "
यह सुन मन मसोस कर वृद्धा आगे को बढ़ती है, तभी जेब टटोलते हुये नौकर ने बड़ी आत्मियता से पुकार लगायी -
" सुन मावा ! चल चाय पी लियल जाय..। "
बुढ़िया की आँखें फिर से भर आती हैं..।
अबकि उसकी दुआ में सच्चाई होती है-
" बेटवा ! असली बड़ मनई त तू ही है..।"
-व्याकुल पथिक
लाजवाब ,छली दुनिया का छलावा मर्म छू गया , बहुत सुंदर और सच्ची भावाभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteबहुत बहुत सुंदर।।
जी दी बहुत - बहुत आभार
Deleteआपकी प्रतिक्रिया
मनोबल को बढ़ाती है।
सादर प्रणाम।
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 03 फरवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआपका हृदय से आभारा यशोदी दी, मेरी रचना को सम्मान देने केलिए।
ReplyDeleteशशि भाई, बडे लोगों की कड़वी सच्चाई को बहुत ही सुंदर तरीके से व्यक्त किया हैं आपने। सिर्फ़ पैसा होने से कुछ नहीं होता, दिल भी बड़ा होना चाहिए।
ReplyDeleteजी ज्योति दी आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा ही कर रहा था, प्रणाम।
Deleteमार्मिक प्रहसन
ReplyDeleteजी प्रणाम गुरुजी, हमारे शहर से कथा का तीसरा हिस्सा संबंधित है।
DeleteShashi Gupta Shashi bhai
ReplyDeletemaine pura aalekh dekh
liya aur tanik bhi hairat nahin hui, vahi javab dunga, bhookh Aankhon
me hua karti hai।
श्री अधिदर्शक चतुर्वेदी
बहुत ही सटीक सार्थक और मार्मिक सृजन भाई
ReplyDeleteजी आभार दी, मेरी लेखनी सार्थक हुई आपकी टिप्पणी से।
Deleteएक तरफ़ किसी की विवशता तो दूसरी तरफ़ किसी का पाखंड। एक कन्या पक्ष तो दूसरा वर पक्ष। वर पक्ष भी क्या.... ले-देकर उस वर के माता-पिता। सारा भार कन्या पक्ष पर डाल देना, निश्चित रूप से कतिपय ऐसा ही करते हैं। पर, सभी ऐसे नहीं होते हैं। कई वर पक्ष तो कन्या पक्ष को अपने परिवार का अभिन्न अंग समझकर संबंधों का धर्म निभाते हैं।
ReplyDeleteदेवी जागरण जैसे कार्यक्रमों में दिखावा कुछ अधिक हो जाता है। इसमें धर्म और व्यक्ति का विकास बहुत कम दिखाई देता है। बिना समझे-जाने इसमें लोगों की प्रतिभागिता देखने को मिलती है। ख़ैर, प्रचलन है, तो फिर ऐसे कार्यक्रमों का होना स्वाभाविक है। इसके कुछ प्रकाशमान् पक्ष भी हैं। गायक और उसके दल को रोज़गार भी मिल जाता है और दूसरे लोगों को व्यस्त कार्यक्रमों से निकलकर इसमें आने का अवसर भी मिलता है। संगीतमय भक्ति में डूबकर कुछ तनाव कम हो जाता है।
रही बात कन्या की पिता की पीड़ा की, तो उसे आप ने बख़ूबी उभारा है। उपहार पाने वाले और उस कार्यक्रम में भोजन ग्रहण करने वालों की प्रसन्नता और प्रतिक्रिया स्वाभाविक ही है। उन्हें इस कार्यक्रम की आर्थिक पृष्ठभूमि का पता नहीं होगा।
भीख माँगने वाली वृद्धा ने पेशे के अनुसार उसने कोई अपराध नहीं किया। कई बार लोग झुंझला जाते हैं। सेठ धर्मदास भी झुंझला गए।
होटल कर्मियों के लिए तो रोज़-रोज़ की बात है। वो भिखारी तो होते नहीं, लेकिन मजबूर परिवारों से आते हैं। ऐसे लोग धीरे-धीरे प्रोफ़ेशनल हो जाते हैं। आसपास के लोगों से उनके आत्मीय संबंध हो जाते हैं। साथ में चाय पी लेना या फिर अपने हिस्से की कुछ चीज़ों को बाँट देना उनकी आदत में शुमार हो जाता है। इस कहानी में भी यही हुआ है।
आपने अपनी इस लघु कहानी के माध्यम से विवशता और संवेदनहीनता के तत्वों का उद्घाटन किया है। प्रेम और करुणा की समाज को आज के दिन ज़्यादा ज़रूरत है। आपने एक घटना को अपनी संवेदनशील दृष्टि से देखा और उसे ज्यों का त्यों पाठकों के सामने रख दिया। ध्यान दे शशि भाई, आप किसी को बदल नहीं सकते। हो सकता है कि उसकी मजबूरी उसे बदल दे। कुछ लोगों के जीवन में अच्छे दिन कम होते हैं। बुरे दिनों की अवधि ज़्यादा होती है। जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। समाज में अच्छे लोग आज भी हैं और हमेशा रहेंगे। पीड़ाहीन समाज की कामना ईश्वर की आराधना है। आपकी कहानी प्रकारांतर से यही बात कहती है। बहुत सुंदर शशि भाई।
आप सदैव ही मेरी रचना के हर पक्ष को बखूबी अपनी लेखनी के माध्यम से प्रकट करते हैं।
Deleteऔर मुझे इससे अपने लेख में काफी कुछ सुधार करने का अवसर मिलता है अनिल भैया।
रही बात वृद्धा की तो
यह हमारे ही होटल की घटना है।
सो, कर्मचारियों ने बताया ।
अतः मन हो गया कुछ लिखने का।
सादर।
अनिल भैया ने तो कहने के लिए कुछ भी छोड़ा नहीं |
Deleteसुन्दर व सार्थक रचना भाई पथिक जी!
ReplyDeleteजी आभार, सादर नमन।
Deleteलिखते रहें।
ReplyDeleteजी आभार, अग्रज। सादर प्रणाम।
Deleteएक तरफ मजबूर पिता ,अपने बेटी के सुख की खातिर सब चुपचाप सहन करता है ,और पाखंडी लोग दिखावा कर झूठी वाहवाही बटोर कर ,खलनायकी मुस्कान बिखेरते हैं ,कडवी सच्चाई है यह । लाजवाब चित्रण किया है आपने शशी जी ।
ReplyDeleteआपका आभार दी।
Deleteजी आभार गुरु जी।
ReplyDeleteवर्तमान का यथार्थ चित्रण
ReplyDeleteसर अति सुन्दर
जी आपका हृदय से आभार
ReplyDeleteदिल बड़ा तो लड़की के पिता का होता है , पर ढोल लड़के वालों का बजता है..। "
ReplyDeleteसत्य को उजागर करता बेहद मार्मिक कथा ,बहुत खूब ,सादर नमन आपको
आपका आभार कामिनी जी।
Deleteसुंदर लघु-कथा। कन्या के पिता की विवशता, धन्नासेठ का झूठा आडम्बर और उसके मुकाबले कम आर्थिक सम्पन्न व्यक्ति की संवेदनशीलता यह कहानी बखूबी दर्शाती है। हर तरह के लोग समाज में हैं। आभार।
ReplyDeleteअंजान जी प्रथम बार आप मेरे ब्लॉग पर आए हैं ,आपका स्वागत है ,इस सारगर्भित एवं सटीक प्रतिक्रिया के लिए आपका हृदय से आभार।
Deleteबहुत मर्मस्पर्शी रचना ! एक एक वाक्य मन में नश्तर की तरह उतरता चला गया....
ReplyDeleteबड़े लोग ऐसे ही तो बड़े लोग नहीं ना कहलाते भैया !!!
बिल्कुल सही कहा दी
ReplyDeleteआपने
बड़े लोग ऐसे ही बड़े लोग नहीं बनते।
वाह शशि भाई . आपकी ये सुंदर कथा गागर में सागर जैसी है | बेटी के पिता का मनोविज्ञान तो कमाल लिख दिया आपने | कथित बड़े लोगों के झूठे वैभव और दिखावा प्रदर्शन की पोल खोलती इस कहानी के लिए आपको ढेरों शुभकामनाएं|समाज में यत्र तत्र सर्वत्र ऐसे लोग मौजूद हैं जो इस तरह की दिखावे की भक्ति से अपनी वाही -वाही करवाने में जुटे हैं |पर बड़ा वही जिसका दिल बड़ा | आपकी लेखनी मंजती जा रही है जिससे ऐसी अनमोल कथाएं अस्तित्व में आ रही हैं | लिखते रहिये |
ReplyDeleteआपका स्नेहाशीष इसी तरह बना रहे दी।
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