मानवीयता
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लॉक डाउन की ख़बर मिलते ही इस छोटे से शहर में भी हर कोई सब्जीमंडी और किराना दुकान की ओर भागा रहा था। लोग अपने सामर्थ्य से अधिक की खाद्य सामग्री खरीद ला रहे थे। अटकलें लगायी जा रही थी कि इसबार स्थिति गंभीर हो सकती है। इसी आशंका से ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था, जो बाज़ार की ओर न निकला हो।
और उधर रामभरोसे के माथे पर चिंता की लकीर और गहरी हो चली थी। नोन-तेल की व्यवस्था उसे भी करनी थी। वह अपने खाली बटुए को टटोलते हुये बुदबुदाता है- " हे ईश्वर ! तू हम ग़रीबों की कितनी परीक्षा लेगा, जो हमपर सदैव शनि की साढ़ेसाती चढ़ा रहती है । क्या हम कामचोर हैं या तुझपे भरोसा नहीं रखते ? फ़िर यह दरिद्रता हमारे पीछे क्यों पड़ी रहती है ? "
अब भला पत्थर की मूर्ति क्या बोले । एक दुर्घटना में इकलौते पुत्र को खोने के बाद विधवा बहू माधुरी और उसके तीनों बच्चों की जिम्मेदारी उसी के बूढ़े कंधे पर आ पड़ी थी। एक प्रतिष्ठान में काम करने के एवज उसे पाँच हजार रुपये हर माह पगार मिलती थी। माधुरी को थोड़ा बहुत सिलाई का काम आता तो था, पर साड़ियों में फॉल लगा कर वह कितना कमा लेती ?
इनके पास जो भी थोड़ी- बहुत जमापूँजी थी होली पर बच्चों की खुशी में ख़र्च हो गयी थी। सोचा था कि सेठ से कुछ पैसे उधार ले लेगा। लेकिन , हुआ यह कि कोराना वायरस से डाँवाडोल अर्थव्यवस्था को देख सेठ ने कर्मचारियों की छँटाई क्या शुरू की कि तीन दशकों की उसकी वफ़ादारी भी काम नहीं आयी। वह जानता था कि इस अर्थ युग के सारे संबंध स्वार्थ के अधीन है। सो, अपने संकट में दूसरों की मानवता परखने की भूल न करें ।
फ़िर भी उसने पुत्र की मौत और शेष पाँच जनों की ज़िदगी का हवाला दे मिन्नतें की कि मालिक इस बुढ़ापे में किसके शरण में जाऊँ , परंतु उसकी इस दीनता पर भी सेठ की मानवता नहीं जगी।
यह सोचकर उसकी आँखें बार- बार बरस उठती थीं । तभी बहू की आव़ाज सुनाई पड़ी. माधुरी कह रही थी -" पिताजी , यह लें ..पाँच सौ रूपये किसी तरह जोड़-तोड़ मैंने ऐसे ही संकटकाल के लिए रखे थे।"
रुपये ले यह सोचते हुये रामभरोसे बाज़ार को निकला था कि चलों इतने से आटा,आलू ,प्याज और तेल आदि का जुगाड़ हो जाएगा और हाँ, माधुरी के लिए कुछ फल भी लेते चलेगा। कल उसका नवरात्र व्रत जो है।
लेकिन ,यह क्या बाज़ार में सब्जी और फलों की कीमत में लॉग डाउन की ख़बर आते ही तीगुने की वृद्धि हो चुकी थी। इस कालाबाज़ारी देख गुस्से से बेक़ाबू हो रामभरोसे चींख उठता है - " इस महामारी में हमें यूँ न लूटों भाई ! ऊपरवाले से कुछ तो डरो। क्या तुममें तनिक भी मानवता नहीं ? "
परंतु उसके उपदेश पर भला किसका कलेजा पिघलता । उसे ही विक्षिप्त बता दुकानदारों ने मंडी से भगा दिया साथ ही वहाँ उपस्थित भद्रजनों में से किसी ने भी हस्तक्षेप नहीं किया था, जबकि वह सत्य बोल रहा था। ये सम्पन्न लोग तो झोले भर -भर के नाना प्रकार के खाद्य पदार्थ , मेवा-मिष्ठान और फल इत्यादि खरीदने में व्यस्त थे । उनके पास पैसा था ,तो वे क्यों मूल्यवृद्धि पर प्रतिवाद करते ? प्रशासन भी मौन था। वे अफ़सर, जनप्रतिनिधि और समाजसेवी जो मनुष्यता की बड़ी-बड़ी बातें किया करते थें। वे सभी मूकदर्शक थे। ग़रीबी की पीड़ा क्या होती है, यह उनके लिए पर उपदेश से अधिक कुछ न था।
संकट में तथाकथित धर्म के ठेकेदारों से किसी तरह की अपेक्षा रखना निर्बल वर्ग की सबसे बड़ी भूल होती है । इन बड़े-बड़े घोटालेबाजों के धार्मिक और सामाजिक कार्यों में निश्चित ही उनके स्वार्थ का राज छिपा होता है। इनके माध्यम से मानवीय कल्याण के बड़े- बड़े लच्छेदार और आदर्शात्मक वाक्य अवश्य सुनने को मिलते हैंं , परंतु जहाँ वास्तविकता का प्रश्न होता है, वे पाँव पीछे खींच लेते हैं। इनकी ही संकीर्ण भावनाओं के कारण मानवता खून के आँसू रोती है, फ़िर भी आश्चर्य तो यह है कि ये बुद्ध, ईसा, मुहम्मद और गांधी के उत्तराधिकारी बन बैठे हैं।
ऐसा विचार करते हुये वह वापस घर लौट आता है। वह बाज़ार में स्वाभिमान के आहत होने से बुरी तरह से टूट चुका होता है।
तभी उसकी दृष्टि पुनः ठाकुरबाड़ी में रखे उसी पत्थर की मूर्ति पर पड़ती है।
रामभरोसे मन ही मन बड़बड़ाते हुये कहता है- " जब तुझमें ही मानवीयता नहीं है , तो तेरे बनाए इन माटी के पुतलों में कहाँ से होगी ? तू तो नाम का भगवान है रे, काम का कुछ नहीं ?"
और फ़िर जैसे ही वह उस मूर्ति को बाहर फेंकने को होता है। दरवाजे पर दस्तक होती है।
" अरे ! दीनानाथ तुम, कैसे इधर आना हुआ ?"
- मन ही मन सकुचाते हुये रामभरोसे उससे सवाल करता है , क्यों कि आज अतिथि सत्कार केलिए चाय तक की व्यवस्था में वह असमर्थ था।
" कुछ नहीं रामू काका , सोचा था कि बच्चों से मिलते चलूँ । कल से तो अपने तबेले में 21 दिन गुजरेगी । "
- दीनानाथ ने उसकी मनोस्थिति को समझते हुये कहा।
" ओह ! अच्छा तभी खरीदारी कर के लौट रहे हो न ?" - राम भरोसे ने उसके हाथ में झोले भर सामान की ओर इशारे करते हुये कहा था।
" काका,आपभी , अब भला अपना कौन ठहरा, जो बाज़ार दौड़ लगाते फिरूँ। कुछ बन गया तो ठीक नहीं तो व्रत ।"
-- एक फीकी सी मुसकान के साथ दीनबंधु ने पूछा मुन्ना कहाँ है , तभी अंदर खेल रहा वह बालक आ जाता है। यह मुन्ना ही है , जिसके साथ कुछ पल के लिए अपनी वेदनाओं को भूल वह स्वयं भी बच्चों जैसा हो जाता है। अन्यथा तो इस मतलबी दुनिया से उसे छल -प्रपंच के अतिरिक्त मिला भी क्या है।
दीनबंधु जाने को होता है, तो मुन्ना के बहाने से वह झोला वहीं छोड़ जाता है, ताकि रामू काका के आत्मसम्मान को ठेस न पहुँचे।
झोले में वह सबकुछ होता है। जिसकी सख़्त ज़रूरत रामभरोसे के परिवार को इस समय थी।
इसे संयोग कहे अथवा चमत्कार , उसे कुछ नहीं समझ आता और पत्थर की मूर्ति को वापस मंदिर में रख फुसफुसाता है - " हे भगवान ! तेरी दुनिया में भी अभी कुछ ऐसे लोग हैं , जो मेरे ही तरह निर्धन हैं , किन्तु उनकी आँखों में इंसानियत शेष है, अतः तू जहाँ है , वहीं रह।
( रामभरोसे को यह अबभी नहीं पता चल पाया था कि जब वह मंडी में था, तो किसी की चौकन्नी आँखें उसपर टिकी थीं )
ख़ैर, वृद्ध श्वसुर के नेत्रों से एकबार फ़िर बह चले नीर का मर्म समझ माधुरी संतोष की साँस लेती है । वह देवी पूजन के लिए कलश स्थापना की तैयारी में जुट जाती है।
- व्याकुल पथिक
अत्यंत मार्मिक और आज के यथार्थ को बखूबी दर्शाती लघु कथा। इस लॉक डाउन ने कइयों का महीने भर का मुनाफा एक दिन में ही करा दिया तो वहीं कइयों को महीने भर किसी तरह एक वक़्त के खाने के लिए भी मोहताज बना दिया है। ऐसे में मानवता तो यही कहती है कि जिससे जो बन पड़े वो आगे आये और मदद करे ऐसे बुरे वक़्त में जिसके लिये किसी ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था।
ReplyDeleteत्वरित प्रतिक्रिया के लिए आभार प्रवीण भैया।
Deleteमार्गदर्शन आपसभी का मिलता रहे।🙏
शशि भाई, वर्तमान स्थिति को स्पष्ट करती बहुत ही सुंदर रचना। दुनिया में दोनों तरह केलोग हैं। कुछ ने मानवता खो दी हैं तो कुछ मानवता के नए कीर्तिमान स्थापित करते हैं। और वैसे भी ईश्वर अपने भक्तों की लाज रखता है हैं।
ReplyDeleteआपका अत्यंत आभार ज्योति दी,यह संसार ऐसे ही अच्छे लोगों से कायम है।
Deleteकाश! दीनबंधु का झोला हर कोई अपने पास रखता ज्योत्सना मिश्रा
ReplyDeleteलॉक डाउन की घटना अभूतपूर्व है। अमीर हो या ग़रीब, हर कोई इससे प्रभावित हो गया है। अमीरों को तो ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता, लेकिन ग़रीबों का तो बहुत बुरा हाल है। उनके लिए रोज ही कमाना और खाना था। अब कमाना तो रहा नहीं, लेकिन भूख से कौन बच सका है। जैसे नोटबंदी में किसी को मौका नहीं था, वैसे इस बार भी गरीबों के लिए कोई अवसर नहीं था कि वे ख़ुद को इसके प्रभाव से मुक्त रख सकें।
ReplyDeleteएक मर्मस्पर्शी कथा के माध्यम से आपने वर्तमान हालात स्वार्थी तत्वों पर सटीक प्रहार किया है। साथ ही साथ यह भी आपने साबित कर दिया कि जब तक यह दुनिया है, मुट्ठी भर अच्छे लोग मानवता को हमेशा ज़िंदा रखेंगे। आपकी लेखनी को नमन शशि भाई।🙏
इस स्नेहिल एवं सटीक प्रतिक्रिया के लिए आपका हृदय से आभार अनिल भैया।
ReplyDeleteउचित कहा आपने, मुट्ठी भर नेक इंसानों से ही यह दुनिया और इंसानियत कायम है।
प्रणाम🙏
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में शुक्रवार 27 मार्च 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआपका अत्यंत आभार यशोदा दी।
DeleteShashi Gupta,
ReplyDeleteBandhu bazar apni dasha
disha khud nirdharit karta hai,sara dushchakr demand aur supply ke gap
ka hai,if supply chain is
uninterrupted,market will
go on ,as usual ,if not,
more the gap in Demand
and supply,more people
are discouraged by the
market itself ,and price
hike breaks the long queue of aspirants।
- श्री अधिदर्शक चतुर्वेदी जी, साहित्यकार
अब आपकी कहानी पर ,जो हमारे
ReplyDeleteआपके लिए अभाव है वही पूंजी के
लिए एक अवसर है। मान लीजिए
कि हमारे पास लाल मिर्च के सौ बोरे हैं ,और हर बोरे पर हमे पचास
रुपए का मुनाफा मिलना है,यदि
किसी वजह से हमें चालीस ही
हाथ लगे तो हम कहेंगे की हमे
हजार रुपए का घा टा होगया।
पूंजी अपने स्वामी पूंजीपति का
अपने प्रति आकर्षण कम नहीं
होने देती ,इसके अलावा पूंजी
पति को कुछ नजर ही नहीं आता
क्यों की उसे भी प्रगति पथ पर
औरों से आगे निकलना है।
अगर मान वोचित गुण हो तो यही
बाज़ार उसी दर पर दो किलो खरीदने वाले को एक किलो देकर
किसी आधे किलो के खरीदार को
भी प्रसन्न चित्त घर लौटा सकता
है।
और हां शशि , यार आप हमसे सर
पे सवार हो कर इतना सब लिखवा
लेते हो,पर मेरी वॉल पे झांकते भी
नहीं, तो फिर आज से तय रहा कि
आप हम पर हैं मेहरबान पर
फिफ्टी पर्सेंट,
हम भी हैं आप पे कुर्बान पर
फिफ्टी पर्सेंट।
ठीक है ना?
- श्री अधिदर्शक चतुर्वेदी जी
शशि भाई , तुलसीदास जी ने तो कहा था --परहित सरिस धर्म नहीं भाई | -- पर आज साधना संपन्न लोगों को कोई
ReplyDeleteपरवाह नहीं , कोई आसपास भूखा रहे या प्यासा | कभी बाल मुकुंद गुप्त जी ने कुछ पंक्तियाँ लिखी थी --
हे धनियों ,क्या दींन जनों की नहीं सुनते हो हाहाकार
जिसका मरे पड़ोसी भूखा - उसके भोजन को धिक्कार
समाज जहाँ दिखावा हो वहां खर्च करने में जरा भी गुरेज नहीं करता पर पड़ोसी की भूख से किसे क्या ? अप्रत्याशित परिस्थितियों से जूझते एक परिवार की वस्तु स्थिति को बहुत ही स्वाभाविक अभिव्यक्ति दी है आपने | साधनसम्पन्न लोग तो खुशहाली से जियेंगे | पर रोज कुआं खोद पानी पीने वालों का ये लाक डाउन क्या हाल करने वाला है , भगवान जाने | सब यही दुआ है इंसानियत ज़िंदा रहे |
जी रेणु दी...
Deleteऐसा लगा है कि मनुष्य का पाखंड देख कर ईश्वर ने स्वयं अपने घर ( मंदिर) के द्वार बंद कर लिये हो।
मानों वह कह रहा हो - हे मानव! एकांत में रहकर प्रायश्चित करो। कम सुविधाओं में जीना सीखो। पर्यावरण को अपने द्वारा निर्मित नाना प्रकार के वाहनों ,विमानों और कल- कारखाने के माध्यम से प्रदूषण मत करो। हाँ, यह और एक कार्य करना मत भूलना , जो भी है तुम्हारे पास उसमें से कुछ हिस्सा ग़रीबों को भी स्वेच्छा से पहुँचा दो, अन्यथा भूख से व्याकुल हो, यदि वे लॉक डाउन का उलंघन कर अपने घर से बाहर निकल गये , तो तुम्हारा 21 दिनों का यह एकांत व्रत निष्फल होगा और महामारी स्वागत के लिए तुम्हारे द्वार पर बिन बुलाए अतिथि की तरह खड़ी मिलेगी। इससे अच्छा है कि स्वयं किसी पात्र अतिथि ( ज़रूरतमंद ) का खोज करो। तुम्हारे पड़ोस में कई होंगे। जिस मानवता को इस अर्थयुग में तुम भूल बैठे हो, उसे पुनः अपना लो। "
मार्मिक कथा।
ReplyDeleteजी आभार गुरुजी
Deleteबहुत ही सुंदर लेख,वास्तव में अब मानवता राजाओं ने नहीं गरीबों में आ बसा है,जिसके अंदर मानवता नाम का गुण रहेगा वह गरीबी की स्थिति में ही होगा अक्सर।
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteआपका आभार।
Deleteबहुत ही मर्मस्पर्शी रचना शशि भाई । आज हमारा समाज एसे मौकापरस्त लोगों से भरा है जो इतने कठिन समय में भी सिर्फ अपने मुनाफे के बारे में ही सोचते हैं ,पर ऐसे कुछ दीनबंधुओं की वजह से दुनियाँ चल रही है ।
ReplyDeleteजी शुभा दी
Deleteपरंतु ऐसे दीनबंधुओं को यह आधुनिक समाज मूर्ख समझता है। यह भी एक विडंबना है।
बहुत ही मर्मस्पर्शी कहानी है,बल्कि यही तो आज की वास्तविकता है शशिभैया। वरना हजारों मजदूर और दिहाड़ी कामगार अपना बसेरा छोड़ पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर का सफर तय करके गाँवों की ओर क्यों लौट पड़े ? जिन मालिकों ने उनके दम पर लाखों कमाए, क्या वे उनको दो महीने के राशन का इंतजाम नहीं कर सकते थे ? सोचिए, यदि ये सारे कारीगर और कामगार गाँवों से वापस ना लौटें तो शहरी लोगों के छोटे बड़े उद्योग,डेयरियाँ,कारखाने,होटल्स,मॉल्स में कौन काम करेगा और कैसे उनकी जिंदगी पटरी पर लौटेगी ? और क्या ये लोग जब वापस लौटेंगे तब इस दंश की वेदना भुला पाएँगे जो शहरियों ने इन्हें दिया ?
ReplyDeleteफिर भी कहीं कहीं कुछ लोग हैं जो विशाल हृदय और मानवता का परिचय दे रहे हैं।
जी मीना दी
Deleteमानवता ऐसे ही लोगों से कायम हैं। जो निर्ध हैं ,परंतु उनकी संवेदनाएँ मरी नहीं हैं।
महोदय आप द्वारा लिखी गई रचना आज की वास्तविक परिस्थिति का अवलोकन है।
ReplyDeleteशहरों में पसरा हुआ सन्नाटा ये बयां कर रहा है
कि इंसानों ने कुदरत को नाराज बहुत किया है
माफ़ करदे अपने बच्चों के हर गुनाह..
सुना हैं, तेरी मर्ज़ी के बिना तो पत्ता भी नहीं हिलता!!!
भवदीय
जी आभार
Delete[28/03, 08:29] प्रदीप मिश्रा: शशि जी,बात आपकी सोलहो आने सच है।आज राजनेताओं,धर्मनेताओं और व्यापार नेताओं का गंठजोड़ पूरे अर्थ तन्त्र को चला रहा है।आम इंसान बैंकों में अपनी गाढ़ी कमाई जमा करता रहता है और मिनिमम बैलेन्स बनाए रखने की चुनौती से जूझता रहता है।मन्दिरों में जाकर कुछ न कुछ इस आशा से चढ़ाता है कि उसके कष्ट दूर होंगें ,किन्तु उसके पैसों से व्यापारियों को बड़े,बड़े लोन जो बाद में NPA की भेंट चढ़ जाते हैं दिए जाते हैं।यही हाल धर्मस्थलों का है, आज की इतनी बड़ी त्रासदी में 2,4 धार्मिक ट्रस्टों ने आर्थिक मदद का ऐलान किया है।सबसे बड़े वाले चोर ये कथावाचक और धर्म प्रचारक हैं जो हजारों,हजार लोगों की धार्मिक भावनाओं का दोहन करते हैं।एक भी कथावाचक,धर्म प्रचारक चाहे वः किसी भी मजहब का हो आगे नहीं आ रहा।किन्तु इस देश की जनता भी इसी की पात्र है, वह स्वयं को सशक्त करने के बजाय किसी चमत्कार की उम्मीद में इनका अंधानुकरण करती रहती है और इस दुष्प्रवृत्ति को बढ़ावा देती है।जब तक लोगों की अंतर्चेतना नहीं जागती तब तक यह अनैतिक कारोबार फलता,फूलता रहेगा।
ReplyDelete[28/03, 08:51] प्रदीप मिश्रा: prdip mishra,owner of Rainbow public School, vindhyachal
शशि भाई आपके द्वारा लेख बहुत ही अच्छा है,यह लेख दिल को हिला कर रख दिया ,इस समय समाज जो विकृत है उसपर आप का लेख सटीक है,समाज मे मानवतावादी नही के बराबर है,
ReplyDeleteआपके लेख एक सिख जरूर मिला की समाज मे कमजोर व असहाय लोगो का यथासम्भव मदद करनी चाहिए
जी आपका आभार, प्रणाम।
DeleteBahut marmik bhayia
ReplyDelete***
शशी भाई मानवीयता के इस आलेख पर क्या प्रतिक्रिया दूं। मित्र शब्द मौन है। बस
- राजेंद्र तिवारी, शिक्षक नेता
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दिल को छू लिया , काश ये बात देश की जनता समझती
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बहुत ही सुंदर लेख,वास्तव में अब मानवता राजाओं में नहीं बल्कि गरीबों में बस रहा है,इसलिए तो अधिकतर मानवतावादी लोग गरीब ही होते हैं।
रामलाल साहनी पत्रकार
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पढ़ लिए । रामभरोसे की व्यथा । वास्तव में महामारी गरीब पर ही भारी पड़ती है ।
वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार श्री सलिल पांडेय
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Bhai sb. Bilkul satya. Saare rishte vartamaan mein vyavasayikta paar aadhari hone ke vaavjood, maanavata - sahridayata samaj jinda hai. 🙏🏻🌹
वरिष्ठ पुलिस अधिकारी श्री तिवारी जी
बहुत ही मार्मिक वर्तमान की हकीकत को आपने बया किया है इससे अच्छी कोई स्टोरी हो नही सकती🙏🙏🙏🙏
ReplyDeleteश्री सुमित गर्ग, रिपोर्टर ईटीवी मिर्जापुर।
इस महामारी हमे अपने ईश्वर को नही भूलना चाहिए , बहुत ही सुंदर लेख 🙏
ReplyDelete-श्री संदीप यादव
मानवता सिर्फ पन्नो पे नज़र आती है ,जहाँ हम बार बार यह कहते रहते है कि मानवता भी कोई चीज़ होती है ,उधर जब मानवता दिखाने की बारी आती है तो सब मौके का उचित लाभ उठाने का प्रयास करने लगते है। संकट के इस घड़ी में इन्शानियत को कंधे से कंधा मिला कर चलने की आवश्यकता है।। @मनीष कुमार
आपका अत्यंत आभार अनीता बहन।
ReplyDeleteकलेजे को चीरती हुइ घटना ,आपके शब्दो से रोना आ रहा है , आप जैसा इमोशनल आदमी मैंने आज तक नहीं देखा 🙏
ReplyDelete- राज महेश्वरी, गौ सेवक
शशि जी ,आज भी दीनबन्धु हैं और आज भी दीनानाथ पर भरोसा भी बाकी हैं तभी तो सृष्टि कायम हैं ,मार्मिक और यथार्थ चित्रण ,सादर नमन
ReplyDeleteजी आपका अत्यंत आभार कामिनी जी।
Deleteकहीं न कहीं अभी मानवता है तभी तो सन्तुलन और अस्तित्व बना है सृष्टि का ...
ReplyDeleteबहुत ही हृदयस्पर्शी मार्मिक कहानी
जी सुधा दी ,बिल्कुल है, इस महामारी में ऐसा देखने को मिल भी रहा है।
ReplyDelete