लॉकडाउन-एक अलग संसार
----------मंशा चाहे जो भी हो, स्वार्थ अथवा निःस्वार्थ, परंतु विश्व बंधुत्व की जो परिकल्पना हमारे पूर्वजों ने की थी,वह इस संकटकाल में साकार होती दिख रही है। कालाबाज़ारी करने वाले मुट्ठी भर व्यापारियों की बात छोड़ दे तो आज अपने इस शहर में जनसेवा का अद्भुत दृश्य देखने को मिल रहा है।
चहुँओर से एक ही आव़ाज उठ रही है -
" एक अकेला थक जाएगा, मिल कर बोझ उठाना..साथी हाथ बढ़ना..।"
प्रशासन,राजनेता, समाजसेवी ,सम्पन्न एवं निर्धन वर्ग के वे लोग जिनमें तनिक भी मानवता है, धर्म और जातीय भावनाओं से ऊपर उठ कर मानव बनने का प्रयास कर रहे हैं।
कोरोना जैसे महामारी ने हम मनुष्यों में वसुधैव कुटुंबकम् का भाव जागृत कर दिया है।
21दिनों के इस लॉकडाउन में हममें से अनेक लोग सामर्थ्य के अनुरूप अपने संचित धनराशि में से एक हिस्सा निर्बल ,असहाय और निर्धन लोगों की क्षुधा को शांत करने के लिए स्वेच्छा से दान कर रहे हैं।
इस तरह के भावपूर्ण दृश्य मैंने अपनी पत्रकारिता की लम्बी यात्रा में पहले कभी नहीं देखा था।
पुलिस -पब्लिक अन्नपूर्णा बैंक के माध्यम से कोई भी भूखा नहीं रहे , ऐसा प्रयत्न किया जा रहा है। मेरे पास भी कुछ लोगों को संदेश आया है कि वे भी इस सेवाभाव में सहयोगी होना चाहते हैं। अतः मैं भी अपने सभी व्हाट्सअप न्यूज़ ग्रुपों एवं फेसबुक के माध्यम से यह अनुरोध कर रहा हूँ-
मित्रों,
यदि अपने मीरजापुर में कहीं कोई भूखा व्यक्ति हो तो इसकी जानकारी नोडल अधिकारी को अवश्य दें। जनपद के किसी हिस्से में कोई भूखा न रहे इसका ध्यान रखने भोजन की व्यवस्था की जिम्मेदारी पुलिस थाना और चौकी प्रभारियों को सौंपी गयी है। इसके लिए पुलिस- पब्लिक अन्नपूर्णा बैक की स्थापना की गयी है। पुलिस लाइन को केन्द्र बनाने के साथ ही इसकी जिम्मेदारी नोडल अधिकारी संजय सिंह क्षेत्राधिकारी सदर को दी गई है। उनसे सम्पर्क और सहयोग के लिए मो0-9454401591 पर वार्ता किया जा सकता हैं। इस बैंक में खाद्य सामग्री, फल,सब्जी, दवाइयाँ, दूध और पानी आदि कोई भी संस्था अथवा व्यक्ति प्रदान कर सकता है।
-जय हिन्द
कोराना वायरस के भय ने हमें इतना उदार बना दिया है कि हमारी सोयी हुई मानवता जागृत हो रही है।
लॉकडाउन के तीसरे दिन मैंने यह पोस्ट किया था -
" ऐसा लगा है कि मनुष्य का पाखंड देख कर ईश्वर ने स्वयं अपने घर ( मंदिर) के द्वार बंद कर लिये हो। मानों वह कह रहा हो , हे मानव! एकांत में रहकर प्रायश्चित करो। कम सुविधाओं में जीना सीखो। पर्यावरण को अपने द्वारा निर्मित नाना प्रकार के वाहनों ,विमानों और कल- कारखाने के माध्यम से प्रदूषण मत करो।"
हाँ, एक कार्य हमें और करना होगा कि हमारे पास जो भी है उसमें से एक हिस्सा ग़रीबों को स्वेच्छा से पहुँचा दिया जाए, अन्यथा भूख से व्याकुल हो, यदि वे लॉकडाउन का उल्लंघन कर अपने घर से बाहर निकल गये , तो हमारा 21 दिनों का यह एकांत व्रत निष्फल होगा और महामारी स्वागत के लिए हमारे द्वार पर बिन बुलाए मेहमान की तरह खड़ी मिलेगी। इससे अच्छा है कि स्वयं किसी अतिथि ( ज़रूरतमंद ) की खोज की जाए। जिस मानवता को इस अर्थयुग में हम भूल बैठे हैं, उसे पुनः अपना लिया जाए।
क्योंकि कोरोना वायरस से उत्पन्न विश्वव्यापी महामारी ने इस वैज्ञानिक युग में इस सत्य से मनुष्य को पुनः अवगत करवा दिया है कि हम अपने जिस ज्ञान और विज्ञान पर इतना अहंकार करते हैं , वह वास्तव में हमारा भ्रम है।
मेरा मानना है कि कोरोना वायरस ने हमें यह समझाने का प्रयत्न किया है कि इस संसार का नियंता तो एकमात्र ईश्वर अथवा प्रकृति ( अपने विश्वास और विवेक के अनुरूप ) ही है।
यदि हम उसकी इच्छा के अनुसार कार्य नहीं करेंगे, तो वह कठोर दंड के माध्यम से हमें नियंत्रित करेगा , ताकि हम पुनः मानव बन सकें और उसके द्वारा प्रदत्त मानवीय गुणों से इस संसार को सिंचित करें ।
अब आप देखें न 21 दिनों के इस लॉकडाउन में वायु प्रदूषण बढ़ाने वाले मानव निर्मित तमाम वाहन, विमान और कल-कारखाने सभी बंद हो गये हैं। जो जहाँ है, वह वहीं ठहर गया है।
परिवहन के तमाम प्रकार के सन -साधनों के बावजूद भी अपने शहर और गाँव से बाहर लोग नहीं जा पा रहे हैं।
यात्रा पर वही है, जिसमें स्वयं का पुरुषार्थ हो, जैसे श्रमिक वर्ग। जो सदैव प्रकृति के अनुरूप रहा है, इसलिए संकट कैसी भी हो उसकी प्रबल जिजीविषा उसे पराजित नहीं होने देती है।
लॉकडाउन से एयर क्वालिटी इंडेक्स(AQI) अपने मानक 51-100के बीच आ गया है । पहले नई दिल्लीमें 600 तक था। इससे
वायुप्रदूषण जनित रोगों पर नियंत्रण होगा। इस तरह के प्रदूषण को रोकने के लिए सरकार की हर कोशिश अब तक नाक़ाम रही है।
मेरे मित्र राजन गुप्ता ने घर के बाहर खड़ी अपनी स्कूटी की ओर इशारा कर कहा था कि लॉकडाउन का यह भी प्रभाव देखिए कि सुबह से शाम होने को है और इसके सीट पर धूल नहीं जमा है। पहले जब भी कहीं जाना होता था, तो गाड़ी पोछनी पड़ती थी।
मैंने एक पोस्ट और भी किया था -
" हो सके तो व्रत में खाए जाने वाले मेवा -पकवान न खरीद कर उसके स्थान पर ब्रेड अथवा कोई अन्य खाद्य सामग्री किसी गरीब व्यक्ति को प्रदान करें, इससे इस संकटकाल में दोनों का ही कल्याण होगा। मातारानी की कृपा आप पर बनी रहेगी। "
बचपन में बड़े-बुजुर्गों कहा करते थे- "दाल-रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ। "
वास्तव में अनेक लोग इन दिनों कुछ इसी प्रकार से संयमित भोजन कर रहे हैं, किन्तु ऐसे भी हृदयहीन धनाढ्य जनों की कमी नहीं है, जो अपने कल-कारखाने में काम करने वाले लोगों को दो जून की रोटी तक नहीं दे रहे हैं। जिस कारण विवश हो ये श्रमिक भूखे पेट पैदल ही अपने गाँव की ओर निकल पड़ रहे हैं। इनके साथ में महिलाएँ और मासूम बच्चे भी हैं। सैकड़ों किलोमीटर का इनका यह कठिन सफ़र है। जिसकी फैक्ट्री आदि में ये दिन- रात पसीना बहाते थे , उन्होंने तो इन्हें उपवास करने को विवश कर दिया था, किन्तु मार्ग में ऐसे कई परोपकारी ग्रामीण मिलते गये , जिन्होंने इन्हें भोजन कराया । उनके साथ प्रशासन ने भी सहयोग किया है।
अपने जिले के फैक्ट्री मालिकों की निष्ठुरता और प्रशासन की सक्रियता का एक मिसाल यहाँ प्रस्तुत है-- लॉकडाउन के चौथे दिन शाम ढलने को थी, तभी रोडवेज परिसर मीरजापुर के पास चुनार की हैण्डलूम और अन्य दो फैक्ट्रीयों के 52 मजदूर पैदल आते हुए दिखाई दिये। ये भूख से व्याकुल थे और अपने गृह जनपद सीतापुर को जाने के लिए निकले थे। क्यों कि इन कारखानों के संचालक ने उन्हें गाँव वापस जाने के लिए विवश कर दिया था।
सूचना मिलने पर पुलिस द्वारा रोक लिया गया, पुलिस अधीक्षक डा0 धर्मवीर सिंह द्वारा उन्हे भोजन का पैकेट दिया गया। जिसे देखते ही इनकी आँखें चमक उठीं , हालाँकि एक श्रमिक के लिहाज़ से इसे पर्याप्त भोजन नहीं कहा जा सकता था ,फ़िर भी डूबते को तिनके का सहारा कम तो नहीं होता है। भोजन कराने के पश्चात रोड़वेज की बस की व्यवस्था कर इन्हें उसमें बैठा कर पुनः उन्हीं फैक्ट्रियों मे वापस भेजा गया। पुलिस अधीक्षक का कहना रहा कि अगले 14 अप्रैल तक इनके खाने -पीने और रहने की व्यवस्था फैक्ट्री मालिक से ही कराया जायेगा,अगर वह अक्षम है तो पुलिस प्रशासन द्वारा उनके भोजन की व्यवस्था की जायेगी और यदि मालिक उन्हें अपने यहाँ रखने मे आना कानी करते हैं तो उनके विरूद्ध वैधानिक कार्यवाही की जायेगी।
लेकिन साथ ही मेरा एक प्रश्न भी है कि यदि स्थानीय पुलिस अपने क्षेत्र के ऐसे कारखानों पर पहले से ही दृष्टि रखती तो इन मजदूरों को इस संकट का सामना नहीं करना पड़ता और यदि हमारी सरकार लॉकडाउन के प्रथम दिन से ही इन मजदूरों के प्रति संवेदनशील होती , तो वे क्यों पैदल अपने गाँव की ओर प्रस्थान करते ?
बहरहाल , " आज " समाचरपत्र से लम्बे समय तक जुड़े रहे सलिल पांडेय जी का भी यही कहना रहा कि मां विन्ध्यवासिनी के भक्ति-भाव वाले शहर मिर्ज़ापुर की आबोहवा में विनम्रता की ख़ुशबू विद्यमान रहती हैं। लिहाज़ा जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आती हैं, तो सब के मन मे एकता और सौहार्द्रता की तरंगें उठने लगती हैं । चाहे पब्लिक हो या सरकारी तबक़ा । सब एक दूसरे की प्रायः मदद ही करते हैं कुछेक अपवादों को छोड़कर ।
शास्त्रों में कहा गया है कीर्ति की लालसा से परोपकार नहीं करें, किन्तु ऐसे भी लोग हैं जो सोशल मीडिया पर दानवीर कर्ण के रूप में स्वयं को प्रदर्शित कर रहे हैं। इसमें भी क्या बुराई है , वे कुछ एक का भला तो कर ही रहे हैं। मैं जब भी अपने समाचार ग्रुपों में जनसेवा के फोटो पोस्ट करता हूँ, तो इसे देख अन्य लोगों का संदेश आता है - " शशि भैया ! मैं भी कुछ करना चाहता हूँ ?"
हाँ, वैसे यह कहा गया है कि नेकी यदि दिल में रहे तो नेकी, बाहर निकल आये तो बदी है। संकटकाल में किसी का काम चला देने का अर्थ यह नहीं कि हम प्रतिदान की आस लें, सेवा वहीं है जिसमें निस्वार्थता है।
हम अपनी अंतरात्मा की आवाज़ का अनुसरण कर सत्यरूपी परमेश्वर का अन्वेषण निरंतर करते रहे और यह प्रकृति भी हमें इसी प्रकार श्रम और अनुशासन की पाठशाला में प्रशिक्षित करती रहेगी।
हमारे मित्र व साहित्यकार श्री अनिल यादव का भी यही कहना रहा कि 21 दिनों का लॉकडाउन धीरे-धीरे अपनी मंज़िल की ओर बढ़ रहा है। विश्वास का माहौल कायम हुआ है। कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में भारी कमी आई है।इस लॉकडाउन से सीधे-सीधे भारत के नागरिकों को लाभ हो रहा है। सुबह हो, दोपहर हो या शाम हो, वातावरण बेहद सुंदर दिखाई दे रहा है। कोरोना वायरस को लेकर शासन, प्रशासन और स्थानीय निकाय सजग है। नागरिक सुविधाओं और सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। समस्त निरोधी उपाय अपनाए जा रहे हैं। सोशल डिस्टेंस एक कामयाब उपाय दिखाई पड़ रहा है। दूर रहने से मोहब्बत बढ़ रही है। वास्तव में हम प्रकृति की गोद में जा रहे हैं।
मुझे ऐसा प्रतीक हो रहा है कि विफलता में विकास का अंकुर भी छिपा होता है। जब सर्वशक्तिमान होने का दर्प टूट जाता है। मानव जब अहंकार के रथ से नीचे उतर आता है। तब उसे आत्मबोध होता है कि वह कुछ भी नहीं है । जो कुछ है वह प्रकृति है और यह प्रकृति कहती है कि सबको साथ लेकर चलो । किसी का भी अत्यधिक दोहन मत करो। मुझे तो लगता है कि इन कुछ ही दिनों में मनुष्य के दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ है। उसमें विश्व बंधुत्व का भाव जागृत हो रहा है।
- व्याकुल पथिक
सांसों से जीवन घड़ियां चलतीं, सांसों पर प्रहार हुआ है।आओ भारत की सब कड़ियां जोड़े,नव जीवन की लड़ियां जोड़े। आपदा कोष में दान करें, भारत का जग में नाम करें। जयहिंद । ज्योत्सना मिश्रा
ReplyDeleteबहुत सुन्दर।
ReplyDeleteसंक्रमण काल में सेवारत कोरोनावीरों को नमन।
जी आभार गुरुजी जी,
Deleteमानवता की यही झलक सबसे सुकून भरा पल है, जीवन में..।
आपने बहुत ही अच्छा अनुभव साझा किया हैं ,बिपदा के घडी में ही अच्छाई और बुराई की परख होती हैं ,संतोष हो रहा हैं कि -मानवता का आस्तित्व जिन्दा हैं अभी ,सादर नमन आपको
ReplyDeleteजी आपका अत्यंत आभार कामिनी जी,प्रणाम।
Delete*वक्त तकलीफ़ का जरुर होता है,लेकिन कटता मुस्कुराने से ही है!*
ReplyDelete*सदैव प्रसन्न रहिये, जो प्राप्त है-पर्याप्त है*
*कोरोना के प्रसार को रोकें,*
*घर पर रहें, सुरक्षित रहें !*
दीपक दुबे
जी बिल्कुल सही कहा आपने।
Deleteएक पाठक के रूप में आपको पढ़ना बहुत अच्छा लगता है। आपका संघर्ष और त्याग आपके शब्दों में दिखाई देता है। संवेदना आपके आचरण में झलकती है। कठिन परिस्थितियों में आप अपना काम करते रहते हैं। सामान्य दिनों की अपेक्षा कठिन दिनों में पत्रकारिता अतिरिक्त ऊर्जा की माँग करती है। पत्रकार के साथ आप साहित्यकार भी हैं और समाज के सभी तबकों से जुड़े हुए हैं। इस शहर की गलियों और जनपद के सभी अंचलों की आपने यात्रा की है। सुख-दुःख से भरे हुए तमाम चेहरों को आपने देखा है। उनकी आवश्यकताओं को आपने समझा है। उनकी असफलता और सफलता की कहानियाँ को भी आपने अपने क़लम से लिखी है। न जाने कितने शुभचिंतकों से आपकी मुलाक़ात हुई है। आपने अपेक्षा भी की है और अपेक्षाओं को छोड़ भी दिया है। जीवन का बहुमूल्य समय अनिश्चित जीविका की पगडंडियों पर चलते हुए गुज़ार दिया। आपने एक झटके में अपनी जन्मभूमि को छोड़ दिया। आप ठिकाने बदलने को विवश होते रहे। पीड़ा आपकी साथी रही। आप प्रतिस्पर्धियों बीच रहे, लेकिन विद्वानों से प्रशंसा पाते रहे। आपने जो देखा और जो महसूस किया, वही लिखा। पत्रकारिता के माध्यम से आपने राजनीति नहीं की। आपकी पत्रकारिता एक मिशन रही। लॉकडाउन की कठिन घड़ी में भी आपने उनको जोड़ने और खोजने का काम किया, जो हाशिए पर रहे। आपने बेज़ुबानों को आवाज़ देने की कोशिश की। उदास चेहरे पर मुसकान देखना चाहा। जनता और प्रशासन के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी बनकर अपना काम करते रहे। यही वज़ह है कि आप इस जनपद के तमाम करुणामयी अवतारों का वास्तविक चित्रण करके अन्य लोगों को भी प्रेरणा देने का काम किया है।
ReplyDeleteकोरोना वायरस से बचना है, तो जो भी उपाय उपलब्ध होंगे, उन्हीं को अपनाए जाएंगे। जब तक दवा कोई उपलब्ध नहीं होती, तब तक के लिए लॉकडाउन के माध्यम से सोशल डिस्टेंस ही इस वायरस से बचाव का उपाय है। लेकिन, इस लॉकडाउन ने देश की एक और तस्वीर हमारी आँखों के सामने खड़ा कर दिया है। हज़ारों दिहाड़ी मज़दूर, जिन्हें हम भूल गए थे कि हमारे ही बीच से हमारे ही मोहल्लों से निकलकर महानगरों की तरफ़ चले गए थे, उनका क्या होगा! जैसे ही उनके समाचार और तस्वीरें सामने आईं सरकार, समाज और प्रशासन सजग हो गया। सेवा और उदारता के वास्तविक नायक सामने आने लगे। मदद के लिए हाथ बढ़ने लगे। बेसहारा लोग भी मदद पाने लगे। तमाम लोगों को एक याद आया कि इस शहर में अकेले रहने वाले बहुत से लोग हैं, उनका कुशलक्षेम पूछकर उनके खाने की व्यवस्था की जाए। मदद करने वालों की जय-जयकार होने लगी। आपका यह पोस्ट उस जयकारे में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे रहा है। सेवा और परोपकार से मानवता और प्रकृति, दोनों सुरक्षित रहेगी। बहुत अच्छा लिखा है शशि भाई, लिखते रहिए।🙏
अनिल भैया, मैं तो एक साधारण पत्रकार हूँ। आपने स्नेह में बहुत अधिक ही लिख दिया है।
Deleteपरंतु हाँ, इतना अवश्य जानता हूँ कि हमारा कार्य सिर्फ़ समाचार बेचना ही नहीं है। हम आम दुकानदारों की तरह नहीं हैं। हमें समाज में जो कुछ हो रहा है , उसे शब्द देना ही है।
यदि हम यह भी नहीं कर सकें,तो उस सब्जी विक्रेता से अधिक कुछ नहीं हैंं।
सत्य तो यह भी है कि समाचर पत्र निष्पक्ष नहीं रहे हैं। ऐसे में सोशल मीडिया का हर संभव सही उपयोग होना चाहिए।
मार्गदर्शन एवं उत्साहवर्धन के लिए आपका हृदय से आभार भैया🙏
शशि भाई, संकट की इस घड़ी ने दिखा दिया है कि मनावता अभी जिंदा हैं। सभी बिंदुओं पर प्रकाश डालता बहुत सुंदर आलेख।
ReplyDeleteजी ज्योति बहन, आभार।
Deleteआपका लेख सच व सच का पूर्ण आईना है। शशि भैया🙏🙏🙏
ReplyDelete- श्री आशुतोष मिश्रा
हर सिक्के के दो पहलू होते हैं शशि जी और ये एक दूसरे के पूरक भी होते हैं । इस संक्रमण काल में जहाँ एक तरफ जीवन खतरे में लग रहा है वहीं मानवता का उदारवादी चेहरा उभर कर सामने आ रहा है। आपका ये सार्थक सुन्दर लेख आज की परीस्थिति को सजीवता के साथ प्रस्तुत करता है।
ReplyDeleteजी प्रवीण भैया, इस संकटकाल में मानव का उदार चेहरा देख सच में सुखद अनुभूति हो रही है।
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (31 -3-2020 ) को " सर्वे भवन्तु सुखिनः " ( चर्चाअंक - 3657) पर भी होगी,
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
---
कामिनी सिन्हा
मंच पर स्थान देने के लिए आपका अत्यंत आभार।
Deleteशशि भाई , कोरोना नाम के वैश्विक सकंट से उपजी परिस्थियाँ सबसे ज्यादा श्रमिक तबके को विचलित कर रही हैं | असल में यही वर्ग है जो तुरंत कुआं खोदकर पानी पीता है | जिसके पल्ले कुछ दिन की जीवन रक्षक सामग्री ना हो वह कैसे किसी नगर या महानगर में रुक सकता है ? और ये आपदा अप्रत्याशित है |फिर भी इंसानियत के सहारे संसार चल रहा है सो इनकी मदद को आगे आने वालों की कमी नहीं रहती | पूरी ना सही कम पर्याप्त मदद से बहुत कुछ अच्छा होने की उम्मीद बनी रहती है | आपने अपने शहर में चल रहे मानवीय प्रयासों को बहुत ही अछे ढंग से लिखा | जिसके लिए हार्दिक साधुवाद | मुझे लगता है ये एक सामाजिक क्रान्ति हो रही है | दुसरे शब्दों में कहूं ये भी लगता है , किप्रकृति का ये ठहराव इंसान के लिए जरूरी था | आजकल वातावरण में स्वच्छता देखते ही बनती है पर मजदूरों और साधनविहीन लोगों की दुर्दशा खबरों के माध्यम से देखकर बहुत दुःख हो रहा है | भगवान् करे ये संकट जल्दी खत्म हो और जनजीवन सुचारू रूप से चले | जो लोग मानवता के इस यज्ञ में , निस्वार्थ आहूत कर रहे हैं उन्हें कोटि नमन | सच है कभी- कभी प्रकृति हमें खुद को सिद्ध करने का पूरा मौक़ा देती है | आज यही मौक़ा है | सार्थक लेख के लिए पुनः आपका आभार | आपने बहुत गहराई से चिंतन कर विषय वस्तु को लिखा है | सस्नेह
ReplyDeleteजी रेणु दी
ReplyDeleteइस लेख की समीक्षा के लिए आपका अत्यंत आभार।
श्रमिक वर्ग पर निश्चित ही सम्पन्न वर्ग की उदार दृष्टि होनी चाहिए।
साथ ही नेक कार्यों के लिए उत्साहवर्धन भी आवश्यक है।
इस संकटकाल में रचनाओं के माध्यम से संवेदनाओं को प्राकट्य होना चाहिए, न की श्रृंगार का ऐसा मेरा मानना है।
वाह!शशि भाई .बहुत खूब!!.इस विपदा की घडी में( कुछ) मानवोंं द्वारा जो मानवता के कार्य किए जा रहे हैं ,प्रशंसनीय हैं । लगभग सभी जगहों पर भोजन वितरण इन श्रमिक वर्ग को करनें का प्रयास किया जा रहा है । अब तो यही कामना है कि ये संकट की घडी शीध्र समाप्त। हो ।
ReplyDeleteजी, शुभा दी
Deleteबिल्कुल , समाप्त हो जाएगा यह संकटकाल भी।
बहुत अच्छा विश्लेषण
Deleteजी आपका अत्यंत आभार।
ReplyDelete