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Sunday 12 April 2020

सच्चे समाज सेवक

                          
             
   
 शहर के एक कोतवाली में लॉकडाउन से जुड़ी प्रशासनिक व्यवस्था को लेकर अधिकारी आपस में मंत्रणा कर रहे थे कि तभी दस वर्षीया एक बच्ची अपना गुल्लक लेकर वहाँ आती है। लड़की कहती है --

   " अंकल ! यह लें मेरा गुल्लक और इसमें जो भी रूपये हैं, उसे प्रधानमंत्री मोदी को कोरोना से जंग के लिए दे दें।"
 बालिका के इतना कहते ही ये अफ़सर अचम्भित से रह गये थे ; क्योंकि उसने यह भी बताया था कि पूरे एक वर्ष से वह इस गुल्लक में साइकिल खरीदने के लिए पैसा एकत्र कर रही थी। अधिकारियों ने गिनती की तो गुल्लक में चार हजार तीस रूपये मिले ।
  मैं भी इस बच्ची की मनोस्थिति को समझने का प्रयत्न कर रहा हूँ। मुझे मुंशी प्रेमचंद्र जी की कहानी " ईदगाह " का पात्र हामिद और उसका चिमटे याद आ रहा है। हामिद ने अपने अन्य मित्रों की तरह खिलौने अथवा मिठाइयाँ कुछ भी नहीं खरीदी थीं , किन्तु रोटी बनाते समय दादी की उँगलियाँ न जले , इसके लिए ईदगाह मेले से चिमटा खरीद लाया था। जिसे देख सजल नेत्रों से उसकी दादी ने जो दुआएँ की , उसका सौवाँ अंश भी बड़े से बड़े धर्मस्थल पर जाकर नहीं प्राप्त होगा। मेरा मानना है कि माँ भारती ने भी इस बच्ची को कुछ इसी प्रकार का आशीर्वाद दिया होगा।
      सुहानी चाहती तो इससे साइकिल खरीद सकती थी। जिसके लिए उसने एक वर्ष से अपने जेबखर्च का एक-एक रुपया उसी गुल्लक में डाल रखा था। लेकिन,उसने ऐसा नहीं किया ; क्योंकि उसे लगा कि इस लॉकडाउन में साइकिल खरीदने से कहीं अधिक इन पैसों की आवश्यकता उसके देश और असहाय लोगों को है। गुल्लक सौंपते समय  इस बच्ची ने अपने मन को किस तरह से बाँधा होगा। इस पर विचार कर कोतवाली में हरकोई इस परोपकारी बच्ची को सैल्यूट कर रहा था। नगर मजिस्ट्रेट ने कहा कि प्रधानमंत्री राहत कोष में रुपया जमा कर उसका रसीद उसके घर पहुँचा दिया जाएगा। 
   सरैया (घंटाघर) निवासी मध्यवर्गीय परिवार के 
सचिननाथ गुप्ता की कक्षा पाँच में पढ़ने वाली पुत्री सुहानी ने कोई मीडिया मैनेज़ नहीं किया था। जिससे ऐसा लगे कि वह फ़ोकस में आना चाहती है। फ़िर भी इस छोटी सी अवस्था में ज़रूरतमंदों के प्रति उसकी यह संवेदना सुर्ख़ियों में रही। उसने स्कूल जाने के लिए साइकिल खरीदने की अपनी अभिलाषा का त्याग मानवता की रक्षा के लिए जो किया था। 
   उसका यह कर्तव्य भाव देख मुझे एक बोधकथा का स्मरण हो आया है । राम- रावण युद्ध के पूर्व समुद्र पर सेतु निर्माण के समय भी कुछ ऐसा ही दृश्य उपस्थित हुआ होगा ,जब एक नन्ही गिलहरी बार-बार जल और रेत की ओर दौड़ लगाती थी और पुनः निर्मित हो रहे सेतु पर आ अपने गीले शरीर पर लगे उस रेत को वहाँ डाल देती थी, ताकि भगवान के कोमल चरणों को कठोर शिलाखण्ड से कष्ट नहीं पहुँचे। 
      जब भगवान राम के करकमलों का स्नेहिल स्पर्श उसे प्राप्त हुआ, तो जिन बलशाली वानरों को अपने कर्म पर दर्प था, वह जाता रहा। 
 इस लॉकडाउन के दौरान भी एक तरफ़ वह सुहानी जैसी नन्ही गिलहरी है और दूसरी तरफ़ वानरों की तरह ही समाजसेवियों की विशाल टोली। इनमें से किसी के भी महत्व को नकारा नहीं जा सकता , किन्तु तुलनात्मक रूप से पलड़ा    सुहानी जैसे निष्काम भाव वाले जनसेवकों का ही भारी रहेगा। इस पर भी तनिक विचार करें।

      शहर के चौबेघाट निवासी रोहित यादव को ही लें। स्नातक का छात्र रोहित भी मध्यवर्गीय परिवार से है। लॉकडाउन में वह अपनी मित्रमंडली के साथ जनसेवा में लगा हुआ है। ये सभी लड़के पहले राशन एकत्र करते हैं, फ़िर उससे भोजन तैयार कर ग़रीब लोगों की बस्तियों में उसका वितरण भी स्वयं करते हैं। इन्हें अपने सेवाकार्य का ढ़िंढ़ोरा पीटना पसंद नहीं है। अतः इन्होंने फ़ोटोग्राफ़ी पर पाबंदी लगा रखी है। पिछले दिनों मेरे एक मित्र सच्चिदानंद सिंह को किसी ने असहायजनों में वितरित करने के लिए खाद्यान्न सामग्री दी थी। तभी उन्हें रोहित का स्मरण हो आया । सूचना मिलते ही वह साइकिल से दौड़ा आया। हमारे मित्र के पुत्र संस्कार सिंह ने सारा सामान बोरे में भर कर उसकी साइकिल के कैरियर से बाँधा और उसे लेकर वह सेवास्थल की ओर रवाना हो गया। उसके पास अन्य समाजसेवियों की तरह इस लॉकडाउन में कोई प्रशासनिक परिचय पत्र (पास) नहीं है, इसलिए मार्ग में पुलिस से भी मोर्चा लेना पड़ सकता है। लेकिन ,समाजसेवा का इनका जुनून  पुलिसिया भय पर भारी है। यह देख मैंने जेब से मोबाइल फोन निकाला और दूर से ही उसका एक फ़ोटो ले लिया। 

   जनसेवा की ललक की एक और मिसाल देखें।   मीरजापुर रेलवे स्टेशन पर तैनात आरपीएफ जवान विभूति नारायण सिंह दोहरा कर्तव्य निभा रहे हैं। वे स्टेशन पर अपनी ड्यूटी करने के बाद घर आते ही मास्क बनाने में जुट जाते हैं। वे कपड़ों की कटिंग करते हैं तो उनकी धर्मपत्नी मीरादेवी सिलाई करती हैं। घर में वस्त्रों को सिलने के लिए लायी गयी मशीन अब ग़रीब और ज़रूरतमंदों की आवश्यकता बन गयी है। यह दम्पति सैकड़ों मास्क तैयार कर निःशुल्क ग़रीबों में बांट चुका है। पति के साथ जनसेवा में लगी मीरा बिना थके गृहस्थी का काम करने के साथ ही मास्क निर्माण करके प्रसन्नता का अनुभव कर रही हैं।
   मन के सच्चे, कर्म के पक्के ऐसे व्यक्तियों जिसमें बच्चे भी हैं,का उत्साहवर्धन हम पत्रकारों का धर्म है । और कुछ नहीं तो अपनी लेखनी का ही सदुपयोग किया जाए ।     
    अन्यथा बड़े आश्चर्य की बात है कि इस लॉकडाउन में सबसे अधिक फ़ोन अथवा मैसेज यदि किसी का आ रहा है ,तो वह कथित समाजसेवियों का है। इनमें से हर कोई अपने सेवा का मेवा चाहता है। जिसके लिए प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया का भरपूर उपयोग हो रहा है। कोई लंच पैकेट बांटते हुए तो कोई राहत कोष में चेक भेजते हुए अपना फ़ोटो चाहता है। यूँ भी कह ले कि स्वार्थ की प्रचुरता के कारण मूल्याकंन की दृष्टि भी बदली है। मीडिया भी इससे अछूता नहीं है।  व्यापार और सेवा में क्या अंतर है,हम भी यह भूल बैठें हैं। अतः इस भीड़ में ऐसे ज़रूरतमंदों की आवाज़ दब जा रही है, जिसे याचक के रूप में फ़ोटोग्राफ़ी से परहेज़ है। फ़िर भी ऐसे दानदाता हैं जिन्हें ऐसे स्वाभिमानी निम्न मध्यवर्गीय लोगों की चिन्ता है। सच कहूँ तो यदि मेरे पास जब भी कोई संदेश आता है कि अमुक व्यक्ति को अनाज की आवश्यकता है,तो मैं भी ऐसे ही सच्चे समाजसेवियों को ही याद करता हूँ, ताकि यह फ़ोटोग्राफ़ी वाला झमेला न रहे।  ख़ैर, इस लॉकडाउन में किसी भी तरह असहाय लोगों तक मदद पहुँचे प्राथमिकता यही होनी चाहिए ।  फ़िर भी ऐसे सच्चे समाज सेवकों की ख़बर भी हमें होनी चाहिए जो प्रचारतंत्र से दूर है। 
   और हाँ, सुहानी जैसे बच्चों का मनोबल बढ़ाने के लिए किसी विशेष अवसर पर उनका अभिनंदन भी होना चाहिए। 

         - व्याकुल पथिक



  

24 comments:

  1. आदरणीय शशिभाई,इन घटनाओं को प्रकाश में लाकर आप एक सच्चे पत्रकार का धर्म निभा रहे हैं। एक बात और जो दो तीन दिन पहले मेरे बेटे ने भी बताई कि कुछ गरीब लोग सरकार से, समाजसेवी संस्थाओं से, जहाँ से मिले वहाँ से मदद ले ले रहे हैं इससे किसी को तो दो जगह से राशन मिल रहा है किसी को एक से भी नहीं। इस कारण भी लोग उनके फोटो निकालकर रख रहे हैं। मुझे लगता है कि इनके पास आपदाग्रस्त का कार्ड होना चाहिए, जहाँ से भी मदद लें इस कार्ड में दर्ज किया जाए कि कितनी मदद ली और कब ली। आपके अन्य लेख भी पढ़े, बहुत अच्छा और संदेशप्रद लिख रहे हैं आप। बधाई।

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    1. मीना दी, एक डिब्बा लंचबॉक्स का क्या फ़ोटो खिंचवा कर रखना। यह कोई कुबेर का खजाना थोड़े ही है। यह ठीक है कि समाज एक वर्ग इन दिनों अधिक से अधिक राशन बटोर रहा है, किन्तु उससे भी कठोर सत्य यह है कि कथित जनसेवक उन्हीं के पास जाते हैं, क्यों कि फ़ोटोग्राफ़ी तो ऐसे ही लोगों के साथ संभव है। स्वाभिमानी जन ऐसा भीख पसंद नहीं करेंगे। वे भूखे रह लेंगे। अब तो निग़ाहें सरकार पर है कि वह राशनकार्ड पर अधिक से अधिक मदद करे।
      प्रतिक्रिया के लिए आभार मीना दीदी।

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 13 एप्रिल 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. आपका अत्यंत आभार भाई साहब।

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  4. Replies
    1. प्रतिक्रिया के लिए अत्यंत आभार गुरु जी।

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  5. बहुत बढ़िया शशि जी, सुहानी जैसी नन्ही बिटिया की संवेदनशीलता से हम सबको सीख लेनी चाहिए । इस लॉकडाउन की अवधि में ऐसे कई योद्धा हैं जिनके कार्यों का मूल्यांकन आप जैसे लोग ही कर सकते हैं अन्यथा ऐसे निःस्वार्थ योद्धाओं की गाथा हमारे समाज के जो तथाकथित समाजसेवी हैं जो हर पल सोशल मीडिया में अपने कार्यों को स्वयं प्रचारित-प्रसारित कर और करवा रहें हैं उनके सामने बौनी साबित हो जाती है। एक सच्चे पत्रकार का कर्तव्य है कि वो समाज के उन पहलूओं को सबके सामने लाए जहाँ तक हमारे समाज की दृष्टि नहीं पहुँच पाती।

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    1. जी प्रवीण जी ,आपका कथन बिल्कुल सत्य है कि हम पत्रकार भी विवशता में ही सही जुगाड़ तंत्र में सहायक बन जाते हैं।

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  6. संवेदन शीलता का आयु से कोई
    संबंध नहीं है शशि भाई,हम आप
    शब्दों के सिवा देश समाज को कुछ
    देने की स्थिति में नहीं हैं।
    - अधिदर्शक चतुर्वेदी, साहित्यकार।

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  7. शशि जी बहुत सुंदर सत्य का परिचय कराया आपने।सुहानी जैसी बिटिया अच्छे संस्कारो से बनते है।नमन है इनके माता पिता को।
    समाज मे एक वर्ग ऐसा भी है जो नाम के लिए नही सिर्फ जनसाधारण के लाभ के लिये कार्य करते है।और खास बात यह होती है कि वो भी जन मानुस भी सामान्य ही रहते है ।

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    1. प्रतिक्रिया के लिए आपका आभार मनीष जी, उचित कहा आपने।

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  8. शशि भी आपने तो आंखे खोल दी , ऐसा विडियो और सत्य को दिखा कर ।
    बहुत ही धन्यवाद

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  9. सच्चे लोगों की सच्ची कहानी के माध्यम से हम जैसे बनावटी लोगों को आपने बेनक़ाब कर दिया है। इस लॉकडाउन से पहले शहर से काफ़ी दूर कई महीनों तक जहाँ मैं तैनात था, वहाँ के लोगों ने मेरे खान-पान की अनियमित स्थिति को देखते हुए मुझे प्रतिदिन अपने घर की बनी हुई 10 रोटियाँ देते थे। घर आने पर सब्जी की व्यवस्था करने के पश्चात् मैं भोजन करके तृप्त हो जाता था। वे साधारण परिवारों के ग़रीब लोग थे, पर उनका हृदय विशाल था। वे देने के बाद दूसरे दिन पूछते थे, कैसी थी रोटी भैया? कभी-कभी पराठा भी दे देते थे। साथ में आचार भी। उनके हृदय के भावों को आज भी मैं अनुभूत करता हूँ। मिलने पर जब भी मैं कहता हूँ, "राम सतन, मैं इस एहसान को नहीं भूल सकता।" राम सतन कहते हैं, "अरे भैया! यह तो हमारा सौभाग्य था।" ओह! कितने सरल लोग इस दुनियाँ में रहते हैं! सब कुछ सहते हुए ऐसे लोग दूसरों की सेवा के लिए तत्पर रहते हैं। उनके लिए सामान्य और आपातकाल, दोनों कोई मायने नहीं रखते। मैंने देखा है कि ऐसे लोग किसी नाम के भूखे नहीं होते हैं। गुमनाम रहने में ही प्रसन्नता महसूस करते हैं।

    कोरोना वायरस के मद्देनज़र इस लंबी अवधि की लॉकडाउन की बात कुछ और ही है। राष्ट्र संकट में है, 130 करोड़ की आबादी के स्वास्थ्य को सुरक्षित रखना है। राजस्व संग्रह रुक गया है। लोगों की देखभाल के लिए धन की बहुत आवश्यकता है। तमाम उदारमना लोग मदद की हरसंभव कोशिश कर रहे हैं। इन सबके बीच जिस बच्ची का अपने उल्लेख किया है, उसका नाम आना महत्त्वपूर्ण है। हम जब छोटे थे, तो हर चीज़ लेना चाहते थे, देना कुछ भी नहीं चाहते थे। वहीं आपदा की इस घड़ी में इस सुहानी नाम की बच्ची ने कुछ और ही कहानी लिख दी है। उसकी छोटी-सी मदद इस कपटपूर्ण दुनिया में बहुत बड़ी मदद है। ऐसे सभी गुमनाम रहकर मानवता की सेवा करने वालों के समक्ष मैं नतमस्तक हूँ। एक सच्चे पत्रकार के रूप में आपने अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन किया है। ऐसी पत्रकारिता एक महान् समाज सेवा है। सीधे-साधे और सच्चे लोगों को हौसला देते रहिए।आपकी क़लम और वर्णित लोगों के सेवा भाव, दोनों को मेरा नमन है।🙏

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    1. आपकी और हमारी एक ही स्थिति है, जब कभी कोई मित्र मुझे भी टिफ़िन पहुँचा जाता है, तो आँखें इसी तरह से नम हो जाती हैं।
      ऐसे सच्चे और अच्छे लोग इस स्वार्थ भरे संसार में कहाँ मिलते हैं।
      ऐसे लोगों के लिए हम दो शब्द लिख-पढ़ सकें, तो यह हमारे लिए गर्व का विषय होगा न.. ।
      आज आपकी प्रतिक्रिया सदैव से कहीं अधिक भावपूर्ण है।
      जब हाथ में झुनझुनाहट के कारण रोटी बिल्कुल ही नहीं बना पा रहा था, तो समझ में आया था कि रोटी का स्वाद क्या है।
      अन्यथा वातानुकूलित कक्ष में बैठ भूख पर तो अनेक लोग काव्यपाठ करते हैं।
      अनिल भैया , आप जैसे मित्र को पाकर मैं गौरवान्वित हूँ।🙏

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  10. शशि भाई , संवेदनाओं की कोई उम्र नहीं होती | जिन व्यक्तियों में करुणा और मानवीयता का भाव होता है - बचपन से ही होता है |यही बच्चे बड़े होकर मानवता का चेहरा बनते हैं | सच्चे जनसेवकों को समर्पित आपका ये लेख मानवता की अनकही कहानी कहता है | छोटी सी बिटिया सलोनी , उत्साही युवा रोहित यादव , माननीय विभूतिनारायण सिंह जी और उनकी उदारमना मीरा जी सरीखे लोग ही मानवता के ज्योति पुंज हैं जिनकी निश्छल सेवा से संसार में दया करुणा आदि भावनाएं टिकी हुई हैं

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    1. बिल्कुल उचित कहा आपने रेणु दी।
      आपकी ही टिप्पणी की प्रतीक्षा कर रहा था।
      शुभ रात्रि।

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  11. शशि भाई,
    छोटी छोटी खुशियों से रोज समझौता करना किसी निश्चित लक्ष्य के लिए लिए और उस लक्ष्य की पूर्ति के समय अचानक से उसी लक्ष्य से समझौता/बलिदान दे देना सहज नही होता। बहुत सुंदर कार्य बिटिया के द्वारा किया गया जिससे पूरे परिवार का सर गर्व से ऊंचा कर दिया है। भाई साहब एक और बात कहना चाहता हूं कि बेटिया होती ही है बहुत प्यारी शारी ज़िन्दगी ऐसे समझौते करती रहती है और एकभी इसका श्रेय भी नही लेती। समाज के हर उस व्यक्ति को मेरा दिल से धन्यवाद/साधुवाद है जो इस संकट की घड़ी में किसी भूखे और गरीब की मदद कर रहा हो। ��������

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    1. आपने बिल्कुल सही कहा अजीत जी
      स्त्रियों का जीवन ऐसा ही होता है कि वे अपना श्रेय परिवार को समर्पित कर देती हैं। प्रतिक्रिया के लिए आपका आभार ।
      शुभ रात्रि।

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  12. बच्चे देश के भविष्य है। इनकी समाज सेवा में अभी से रुचि देख कर उनके माता-पिता को प्रणाम। 🙏 🌹

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  13. Bachi ki bhawana bahut hi preranadayak hai.God bless her. Maine yah post Akhil Bhartiya khatri Mahasabha group men Dali hai .

    Bahut Bahut Dhanyabad Shashi ji
    Rajkumar Tandon
    General Secretary of All India khatri Mahasabha.

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  14. देने या कुछ करने का जज्बा ही सबसे बड़ी बात है ...महत्व रकम का नहीं नीयत का है ...बहुत अच्छा लेख

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yes