
लॉकडाउन के दौरान सड़कों पर पसरे सन्नाटे के मध्य सफ़ेद चाक से बने सुरक्षा घेरे में दूर तक केवल पादुकाएँ ही दिख रही थीं। पेट की आग,तपती सड़क और बिलबिलाते ग़रीब लोगों के लिए उनकी पादुकाओं ने जहाँ एक तरफ़ सोशल डिस्टेंस की ज़िम्मेदारी बख़ूबी संभाल रखी थीं ,तो दूसरी तरफ़ वह-- "हुजूर ! मैं हाज़िर हूँ की पुकार लगा कर अपने स्वामी की उपस्थिति भी बैंक में दर्ज करवा रही थीं।"
कोरोना संकट के कारण तालाबंदी को देखते हुये श्रमिक वर्ग के आर्थिक सहयोग के लिए सरकार ने उनके जनधन खाते में जो छोटी सी रक़म भेजी है , उस धन की निकासी के लिए पिछले कई दिनों से पुरुष विशेषकर महिलाओं की लंबी कतारें बैकों के बाहर लगी हुई हैं। ये महिलाएँ सोशल डिस्टेंस के लिए चाक से बने सफ़ेद घेरे में खड़ी-खड़ी इस चिलचिलाती धूप को जब सहन नहीं कर पातीं ,तो वे वहाँ अपनी चप्पल अथवा ईंट रख , स्वयं तनिक छाँव में हो लेती थीं। उनका नंबर आने में घंटों लग रहा था। ऐसे में बैंक के इर्द-गिर्द जहाँ भी धूप से बचाव दिखता वे जा बैठती थीं।
भगवान भास्कर के ताप से स्वयं की रक्षा के इस कशमकश में वे स्वयं सोशल डिस्टेंस का पालन करने में असमर्थ थीं। छाँव युक्त थोड़े से स्थान पर दर्जनों लोग बैठे अथवा खड़े थे। ऐसा नहीं है कि इन अनपढ़ महिलाओं को कोरोना का भय नहीं था, किन्तु इसके अतिरिक्त इनके समक्ष और कोई विकल्प नहीं था।वहाँ ड्यूटी पर तैनात पुलिसकर्मियों की माने तो इन महिलाओं से सामाजिक दूरी की बात मनवाना अत्यंत कठिन कार्य हो गया है । पुलिस इन लोगों में कई बार दूरी स्थापित करती , समझाती और डराती-धमकाती भी थी, किन्तु कुछ देर पश्चात जब सूर्य की तीक्ष्ण किरणें इन्हें पीड़ा देने लगतीं , तो वे पुनः एकत्र होकर उसी छायादार स्थल पर पहुँच जातीं । इतनी संख्या में आगन्तुक खाताधारकों को संभालना बैंक कर्मियों के लिए भी अत्यंत कठिन कार्य था।
इस अव्यवस्था को देख उधर से गुजर रहे सुदर्शन के पाँव ठिठक जाते हैं। वैश्विक महामारी में नगर की सड़कों पर नारीशक्ति का यह विचित्र संघर्ष देख कर उसका मन तड़प उठा और मस्तिष्क सवाल करता है-- काश ! ऐसी कोई टोकन व्यवस्था ही इन ग़रीबों के लिए यहाँ होती कि जिसका भी नम्बर आता लाउडस्पीकर के माध्यम से उसे सूचित कर दिया जाता। ऐसे में छायेदार स्थान पर दूर-दूर खड़े भी रहते और सोशल डिस्टेंस की सरकार की हर मंशा भी पूरी हो जाती। वैसे तो मोबाइल कैश वैन से घरों तक पैसा पहुँचाया जा सकता था। तब समझ में आता कि सोशल डिस्टेंस के प्रति हमारे रहनुमा संवेदनशील हैं।
नेता, अफ़सर और बुद्धिजीवी सभी लॉकडाउन को लेकर ज्ञान बाँट रहे हैं। जो महाकवि डॉ. हरिवंशराय बच्चन की यह कविता वाच रहे हैं -
शत्रु ये अदृश्य है
विनाश इसका लक्ष्य है
कर न भूल, तू जरा भी ना फिसल
मत निकल, मत निकल, मत निकल..।
वे बैंकों की इस व्यवस्था पर मौन क्यों हैं? इन हजारों खाताधारकों द्वारा किये जा रहे सोशल डिस्टेंस के उल्लंघन का दोषी कौन है ?
सुदर्शन इसी चिंतन में डूबा हुआ था कि तभी हल्के के दरोगा जी की आवाज़ इसे सुनाई पड़ती है-- " अरे पत्रकार जी ! कहाँ खोये हुये हैं। देखें तो धूप कितनी चटख़ है और आपने टोपी तक नहीं लगा रखी है। "
दरोगा जी पहचान वाले थे, सो आगे बढ़ कर बड़े आत्मीयता से हाथ मिलाते हुये कहते हैं कि देखें स्वास्थ्य तो वैसे भी आपका ठीक नहीं रहता, दुपहरिया में जरा सावधानी से निकलें तो अच्छा है। बात काटते हुये सुदर्शन उनसे भी यही प्रश्न करता है कि इन दुर्बल काया वाली महिलाओं को देख रहे हैं न आप,किस तरह चंद रुपयों के लिए वे अपनी जान दाँव पर लगाए हुये हैं। क्या धूप और कोरोना का भय इन्हें नहीं है ? अभी घोंटूराम के सरकारी गल्ले की दुकान से होकर लौट रहा हूँ। वहाँ भी कोलाहल मचा हुआ था।पाँच किलो मुफ़्त चावल जो मिल रहा था। सो, राशनकार्ड धारकों की भीड़ गली के दूसरे छोर तक जा पहुँची थी। इस लॉकडाउन में आमदनी का ज़रिया बंद होने गृहस्थी का ख़र्च तो नहीं रुकता न ? अतः मुफ़्त सरकारी चावल भला कौन नहीं लेना चाहेगा ? किन्तु यह क्या अँगूठा लगाने के बाद ई- पॉस मशीन के स्क्रीन पर एरर बताने लगा। यह देख कोटेदार झुँझला कर कह रहा था--"बाबा ! सर्वर फ़ेल हो गया,मैं क्या करूँ ?" इसे लेकर वहाँ कोटेदार और कार्डधारकों में ख़ूब नोंकझोंक हो रही थी। वहाँ भी सोशल डिस्टेंस के लिए जो सफ़ेद सुरक्षा घेरा बना था,जो इस अव्यस्था के पाँव तले कुचला गया। एक बात और यह कि इस समय राशनकार्ड अथवा बायोमेट्रिक पहचान की अनिवार्यता यदि मेहनतकश पूरा न कर सके अथवा उनके अँगूठे का मिलान नहीं हो पाया तो क्या उन्हें मुफ़्त राशन से वंचित कर दिया जाय ?
तभी एक और सूचना आती है कि अमुक मोहल्ले में ट्यूबवेल खराब होने से पेयजल की आपूर्ति ठप्प है। जैसे ही वहाँ जलकल विभाग से टैंकर पहुँची, महिलाएँ खाली बाल्टी लिये दौड़ पड़ीं। कहाँ गया सोशल डिस्टेंस ?
सीमावर्ती क्षेत्र से ख़बर मिली है कि तिरपाल से ढके एक डीसीएम ट्रक से लगभग 50 सवारियों को जगह- जगह उतारा गया है। लॉकडाउन में फँसे लोगों ने ट्रक वालों के इस जुगाड़तंत्र का सहारा गंतव्य तक पहुँचने के लिया है, क्योंकि लॉकडाउन के प्रथम चरण में जब उन्हें घर भेजने की कोई व्यवस्था नहीं हुई तो वे अत्यधिक किराया देकर ,यह जोख़िम भरा सफ़र तय कर रहे हैं। सोशल डिस्टेंस और लॉकडाउन का उल्लंघन वे किस विवशता में रहे हैं ?
किन्तु सुदर्शन की ये साधारण सी बातें वहीं समीप खड़े उक्त बैंक के एक बड़े खाताधारक सेठ तोंदूमल को बिल्कुल समझ में नहीं आ रही थीं। वह बैंक के इर्दगिर्द जुटी महिलाओं की भीड़ देख भुनभुनाते हुये कहे जा रहा था-- " छी-छी ! कैसे गँवार लोग हैं ? सरकार ने कितना समझाया है। लेकिन ये हैं कि सोशल डिस्टेंस में पलीता लगाने से बाज़ नहीं आ रहे हैं। इन ससुरों को तो लॉकअप में डाल देना चाहिए। "
और तभी सामने स्थित तोंदूमल के आलीशान बंगले से आधा दर्जन महिला-पुरुष एक छोटे बालक को कंधे पर डाले बदहवास सड़क के उस ओर भागे जा रहे थे, जिधर अस्थिरोग विशेषज्ञ का नर्सिंगहोम है।
अरे! क्या हुआ मेरे गोलू को ? ऐसा चीत्कार करते हुये तोंदूमल भी उनके साथ हो लेता है।लॉकडाउन में इन लोगों को एकजुट देख ड्यूटी पर मौजूद पुलिस कर्मी टोकता है - "क्यों भीड़ लगाए हो, दूर- दूर हो जाओ ? "
इतना सुनते ही तोंदूमल आगबबूला हो उठता है। वह चींख कर कहता है -- " दीवान जी, कैसे नासमझ हो, मेरा इकलौता पौत्र सीढ़ी से गिर पड़ा है। उसके सिर से रक्तस्राव हो रहा है और तुम्हें सोशल डिस्टेंस की पड़ी है ? "
सुदर्शन , सोशल डिस्टेंस के प्रति सेठ के विचार में आये इस परिवर्तन पर मन ही मन मुस्कुराते हुये कहता है, ‘जाके पाँव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई’ ।
- व्याकुल पथिक
सोसल डिस्टेंसिंग का पालन हो या पेट मे जल रही अग्नि को शांत करने का उपाय, घर मे बच्चे भूखे है।जल्दी से उन्हें भोजन का व्यवस्था भी करनी है।सोसल डिस्टेंसिंग का पालन करते रहे तो शायद आज भी वंचित रह जाएंगे।
ReplyDeleteयही समस्या सिर्फ एक मोहल्ले की नही एक शहर शहर की है।बस एक बात मान के चलिए ये लोकडौन सिर्फ गरीबो के लिए है।vvip के लिए नही।
इसी लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंस के सरकारी फ़रमान के बीच एक पूर्व मुख्यमंत्री के पुत्र के विवाह की तस्वीर भी सामने आयी है। कोई कार्रवाई हुई क्या इन भद्रजनों के विरुद्ध ?
Deleteसत्य कहा मनीष जी आपने
सारे नियम ग़रीबों के लिए ही है।
सही कहा,
ReplyDeleteजाके पाँव न फटे बिवाई,
वो क्या जाने पीर पराई।
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 19 एप्रिल 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआपका अत्यंत आभार भाई साहब।
Deleteकोरोना जैसी महामारी में सामाजिक दूरी कैसे बनाए रखी जाए, यह एक सवाल है। इसका जवाब पूर्णता में नहीं है। इसमें व्यवहारिकता आड़े आती है। कितना डिस्टेंस मेंटेन करेंगे, कितने लोगों को डंडे मारेंगे, कितने लोगों को रोकेंगे। एक-दो दिन काम धंधा बंद हो जाता है, तो खाने के लाले पड़ जाते हैं। यहाँ लगातार बंदी चल रही है। भूखे लोग जुलूस नहीं निकाल सकते हैं। वे सिर्फ़ निवेदन कर सकते हैं। एक बड़ी जनसंख्या भिखारियों की स्थिति में आ गई है। दानी और दयालु निरंतर मदद कर रहे हैं। आपदा के इस दौर में उनकी मदद को आजीवन भूला नहीं जा सकता है। सरकार द्वारा भी ख़्याल रखा जा रहा है। आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई और धन की उपलब्धता को सुनिश्चित किया जा रहा है। पर, कोई एक बिंदु होगा, जहाँ पर लोगों के मिलने की संभावना होती है। कोई ऐसा पटल होगा, जिसके सामने लाभार्थी खड़े होकर सरकारी योजनाओं का लाभ उठाता है। और जब ऐसा होता है, तो सोशल डिस्टेंस फिर लोगों के बीच में आ खड़ा होता है। अनुशासन और धैर्य की परीक्षा लेने लगता है।
ReplyDeleteकोरोना के दौर में दुनिया बदल गई है। अब लोग टूटने लगे हैं। अनाज के लिए लगी हुई लाइनें, ₹500-1000 के लिए चिलचिलाती धूप में खड़े हुए लोग, पुरुषों से ज्यादा महिलाएँ और पुलिस वालों की निगाहें। नंबर भी बहुत देर में आता है। डिजिटल दुनियाँ लोगों के आँसू पोछने में लगी है। उसके भी हाथ काँप रहे हैं। काश! ऐसा होता है कि एक ही झटके में सभी वंचितों और पीड़ितों के चेहरे पर मुस्कान आ जाती। तंत्र और तकनीकी की अपनी एक सीमा है। फ़ोन से सूचित किया जा सकता है, लाउडस्पीकर से आवाज़ दी जा सकती है, पर लॉकडाउन से हमें बाहर निकलना होगा। सुरक्षा और विश्वास की घोषणा करनी होगी। जब ऐसा होगा तो उस घड़ी का इंतज़ार है। अभी हमें तो विरोधाभासों को देखना होगा। कतिपय शाही शादी की झलकियाँ हमारे सामने आएंगी। हम मज़दूरों को पैदल अपने परिवार के साथ घर जाते हुए देखेंगे।
ग़रीबी आवाज़ छीन लेती है, स्वाभिमान छीन लेती है, स्वतंत्रता छीन लेती है और खड़े होने की ताक़त भी छीन लेती है। ग़रीबों के ख़्वाब मर जाते हैं। वह टीवी पर बहस नहीं कर सकता। उसे अकेले ही रोना है, अकेले ही तड़पना है, अकेले ही ज़िंदगी का हर बोझ उठाना है। उससे कुछ पूछिए तो वो हँसकर ज़वाब देगा, इस तरह आपको वो लाजवाब कर देगा। समाज और सरकार को हर मोर्चे पर काम करना होगा।अभी तो उन चंद हाथों का बहुत-बहुत शुक्रिया, जो गरीबों के सर पर हैं। शशि भाई, आपने जो लिखा है, वो लेख नहीं, पीड़ा है। हम इसे शिद्दत से महसूस करते हैं। हमेशा लिखते रहिए। आपके सुझाव हमेशा अर्थपूर्ण होते हैं।🙏
बिल्कुल सच कहा आपने अनिल भैया, होश वालों को यह नहीं पता कि ओरों की जिंदग़ी भी होती है। उनकी भी समस्या है, उनकी भी पीड़ा है। वह तो उपदेश देना जानता है। निर्देश देना जानता है।
Deleteमेरे लेख को अपनी प्रतिक्रिया के माध्यम से दिशा देने के लिए आपका अत्यंत आभार।
वैश्वीकरण के दौर में कभी भारतीय राष्ट्रीय चरित्र पर लिखने की सोचो। कुछ बदलने वाला नहीं है। हम वही लोग है जो शवदाह के बाद बने हुऐ आलू पेट में ठूँसते हुऐ खिलखिलाते हुऐ लौटना शुरु करते हैं और मान लेते हैं कि हम कभी नहीं मरेंगे। बाकी आप की रिपोर्ताजें सच का आईना होती हैं जिसमें कोई देखना चाहता नहीं है। ऐसे ही चलेगा और लोग दुहाई देते चलेंगे सकारात्मक सोच बनायें कुछ।
ReplyDeleteइसी लिए मेरा प्रयास है कि असली तस्वीर पेश करने के लिए फ़ोटो भी मौके का पोस्ट करूँ आभार आपका।
Deleteसही मार्गदर्शन के लिए।
शशि जी सोशल डिस्टेंस का नियम उन पर ही लागू होता है जो आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हैं और जिनसे समाज ने स्वयं दूरी बना कर रखी है। आज जब ये थोड़े से पैसे या अनाज के लिए चिलचिलाती धूप में कतारबद्ध होते हैं और छावँ की तलाश में सोशल डिस्टेंस का ध्यान रखना भूल जाते हैं तो सबसे बड़े दोषी ठहरा दिये जाते हैं। वहीं समाज का उच्च सक्षम वर्ग सोशल डिस्टेंस के नियमों की खुलेआम धज्जियां उड़ाता है और उसके इस आचरण को न्यायसंगत भी ठहरा दिया जाता है जैसा कि कर्नाटक के एक विवाह समारोह में हुआ भी है। श्रमिक वर्ग पर तो कोरोना की चौतरफा मार पड़ रही है। आपके इस लेख में इस वर्ग की पीड़ा का सदृश्य वर्णन है जो किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के दिल को झकझोर सकता है।
ReplyDeleteजी प्रवीण जी
Deleteप्रयास यही है, मेरा कि फ़ोटो सहित ग़रीबों की समस्या पर ध्यान आकृष्ट करूँ, अन्यथा तो ऐसे लोग इसे झुठलाने में तनिक भी संकोच नहीं करेंगे।
आपका आभार।
Bahut hi sahi picture AAP ne prastut kiya hai Shashi ji.Realty yahi hai. Comment Bina Jane aur soche to sabhi kar dete hai. Par jab unpar ATI hai to sabhi dharana badal jati hai
ReplyDeleteRajkumar Tandon Mirzapur General Secretary of All India khatri Mahasabha
मीरजापुर
ReplyDeleteऐसे गरीब, बेबस लोग जिन्हें लॉक डाउन के कारण काफी कठनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। समाज के सहयोग से ऐसे लोगों के चूल्हे ठंढे नहीं होने चाहिये एकबार पुनः(दसवीं बार) मेरे निवास स्थान लालडिग्गी से खाद्य सामग्री आटा, चावल,दाल, आलू,नामक,तेल इत्यादि का वितरण हुआ।
- मनोज श्रीवास्तव ,वरिष्ठ भाजपा नेता
Desh ki karib Chalis karod
ReplyDeleteAabadi ke liye ye paanch
Sau paanch hajar ke saman hain,hafta das din
Jaise taise kat jayenge.
Itne hi log haves ki shreni
me aate hain jinke liye PM
ne e commerce companiyon ko kam karne
ki chhoot de rakhi hai,
In dono ke Madhya ek
Dalal tantr hai jo har mausam me falta fulta hai,
Garib ka hak marta hai
aur haves ke tukdon par
bhi palta hai.
- अधिदर्शक चतुर्वेदी, साहित्यकार
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🌹🙏आप का लेख विद्वानों में एक है गरीबों के दिलों की बात आपबीती लिख देते हैं🌹🙏
Kundan LAL sevak vindhaychal🙏🙏🙏🙏🌹
शशि भाई, पेट की आग होती ही कुछ ऐसी हैं कि सब कुछ जानते समझते हुए भी पापी पवत के लिए इंसान मृत्यु को भी गले लगाने तैयार हो जाता हैं। अंदर विचारणीय लेख।
ReplyDeleteजी बिल्कुल सही कहा आपने।
Deleteपर ग़रीबों के पेट की इस अग्नि से ये उपदेश कब परिचित होंगे ?
प्रतिक्रिया के लिए आभार ज्योति दी।
यहां भी लोग अपनी अपनी रोटी सेकने में लगे हैं.
ReplyDeleteमहामारी क्या आईं कुछ की तिजोरी भर जायेगी...
भूख के बेहालों से आप दूरी बना के कैसे रह सकते हैं. पेट भरा रहेगा तभी हम दूरियां भी बना पायेगें.वर्ना सब बेमानी है.
भेदभाव वाली सरकारी नीतियों से तो कैसे काम चलेगा..
सब गड्ड मड्ड होता जारहा है.कल क्या होगा कोई नहीं जानता...
- राजेंद्र मिश्र
शशि भैया , लोकबंदी के संकटकाल में राशन वितरण के नाम पर कथित समाज सेवियों द्वारा साधनविहीन लोगों का जो भावनात्मक शोषण किया जा रहा है . वह बहुत दुखद है | मानवता पर छाये इस घोर विपद काल में भी यदि किसी के भीतर संवेदनाएं ना जगीं तो कब जागेंगी | उनकी व्यथा -कथा चित्र भली भांति कह रहे हैं |सर पर छाँव का एक टुकडा तलाशते , धूप में जलते बदन जब इस अग्न से बचेंगे तभी कोरोना से बच पाने में सक्षम होंगे | महिला हो या पुरुष तन मन् की पीड़ा समान ही होती है | आपकी सुदक्ष लेखनी ने आमजन की व्यथाकथा को बेहतरीन ढंग से लिखकर , अपना कर्तव्य बखूबी निभाया है | आप जैसे अनुभवी पत्रकार की बात दूर तक जाती है | उनकी समस्याओं को दूर करने में ये बहुत लाभप्रद रहेगा | और तोंदुमल सरीखे लोग मानव कहलाने की किसी भी श्रेणी में आने योग्य नहीं हैं | उन पर -- अपना दुःख गात में तो दूसरे का भीत में -- वाली कहावत बखूबी चरितार्थ होती है | सस्नेह शुभकामनाएं इस भावपूर्ण सार्थक लेखन के लिए
ReplyDelete
Deleteआपकी समीक्षात्मक प्रतिक्रिया सदैव ही मेरा मार्गदर्शन करती है, रेणु दी।
बनावटी, मिलावटी और दिखावटी लोगोंं से एक दिन उनका ही अंतर्मन प्रशन करेगा ।
समस्यायें अनेक हैं ,लोगों के चेहरे भी अनेक - विषमकाल में ही इंसान की पहचान होती है.
ReplyDeleteजी बिल्कुल सही कहा आपने।
Deleteब्लॉग पर आपका स्वागत है, प्रणाम।
सही कहा आपने शशि भाई ,जाके पैर न फटी बिबाई ,वो क्या जाने पीड पराई ।
ReplyDeleteआपका अत्यंत आभार शुभा दी।
Deleteबहुत सुन्दर भैया जी आप हकीकत का चित्रण इतने सहज ढंग से करते है , मानो आंख कर सामने वस्तु स्तिथि चल रही हो।
ReplyDeleteसाधुवाद । ऐसे ही आप हम लोगों को प्रेरणा देते रहे ।
सुंदर और सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आपका अत्यंत आभार।
Deleteआपका शुभ नाम 🙏
असल में अब रहनुमा (नेता) कहलाने वाले इतने पेशेवर हो गए हैं कि इन लोगों में संवेदनशीलता का स्तर बहुत ही घट गया है। हर प्रकार से आपत्ति के समय में अपनी राजनीति की मार्केटिंग करेंगे और अपना राजनीतिक फायदा ढूढेंगे। अब इसी अवसर को देखिए लाक डाउन किये जाने के पूर्व इसकी पुख्ता रणनीति नहीं बनाई गई कि दिहाड़ी व प्रवासी मजदूरों के खान-पान की क्या व्यस्था है। बस अब बंद। खास यह कि क्रांतिकारी परिवर्तन का दिवा स्वप्न दिखाया गया। अब जब आफत खड़ी हो गई तब ग्राउंड रिपोर्ट यह कि बहुत भारी संख्या में गरीबों के राशन कार्ड ही नहीं बने हैं सो गरीब मजदूर को राशन नहीं मिल रहा है।
ReplyDelete- अजय कुमार मिश्र।
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (21 -4 -2020 ) को " भारत की पहचान " (चर्चा अंक-3678) पर भी होगी,
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा