( जीवन की पाठशाला से )
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बीसवीं सदी के सशक्त क़लमकार कामेश्वर जी की एक रचना "सुख" पढ़ रहा था। जिसमें उद्योगपति जमनालाल बजाज एक मछुआरे ,जो कि अपनी जर्जर नाव की छाँव में आराम से लेट कर बीड़ी पी रहा था, से प्रश्न कर रहे थे। वे उससे कह रहे थे कि यदि तुम अधिक मछलियाँ पकड़ते, तो अमीरी की तरफ बढ़ सकते थे। जैसे ,नाव की जगह मोटरबोट और नायलॉन के जाल खरीद सकते थे। तब तुम्हारी आमदनी काफ़ी बढ़ जाती और तुम बेफ़िक्र हो खुशी से ज़िदगी जी सकते थे। जिसके प्रतिउत्तर में मछुआरे ने उनसे कहा था कि वह ऐसा क्यों करे ? क्योंकि वह तो अब भी खुश है और उनसे ज्यादा सुखी भी है।
आज़ का मेरा विषय भी यही है। यह सुख क्या है ? मुझे आज़ भी भलीभाँति स्मरण है कि आजीविका की खोज में जब वाराणसी से मीरजापुर आया तो मेरे पास दो जोड़े कपड़े मात्र थे। समाचार पत्र कार्यालय से पारिश्रमिक के रूप में प्रतिदिन चालीस रुपया मिलता था। बनारस से मीरजापुर बस में ढ़ाई घंटे की यात्रा के दौरान मैं दो बड़े-बड़े अनार खरीद कर खा लिया करता था। रात्रि 11 बजे वापस लौटने पर एक ढाबे पर डट कर भोजन करता और साथ ही एक लीटर दूध सुबह-शाम गटक लेता था। पेट पर हाथ फेरकर डकार लेता और नींद तो इतनी अच्छी आती थी कि आँखें सुबह ही खुलती थीं।धनसंग्रह करने की कोई अभिलाषा नहीं थी। सो,स्वस्थ और प्रसन्न था। दिन भर श्रम करने से जो स्वेद निकलते थे, उनमें मोतियों जैसी मुस्कान थी।
कुछ माह पश्चात अख़बार के दफ़्तर में मेरे एक शुभचिंतक ने सलाह दी कि कुछ रुपये इनमें से बचा लिया करो, जिससे तुम्हें इस समाचार पत्र की मीरजापुर एजेंसी मिल सके। इससे तुम्हारा सम्मान और आर्थिक लाभ दोनों बढ़ेगा। मैंने पूछा कितना तो बताया गया कि कम से कम आठ हजार रुपये और नीचीबाग डाकघर में मेरा बचत खाता भी खोल दिया गया। यह वर्ष 1995 की बात है। मैं समाचार पत्र विक्रेता से अभिकर्ता बन गया। मुझे तीन किस्तों में पैसा संस्थान को देना था। इस धन को अर्जित करने के लिए मैं अपने ख़र्च में कटौती करने लगा। दो की जगह एक अनार और दूध भी कम कर दिया। जबकि यौवन उफान पर था और अत्यधिक श्रम भी करना पड़ता था, जो इससे पूर्व मैंने कभी किया नहीं था। परिणाम यह रहा कि मेरे स्वास्थ्य में परिवर्तन आना शुरू हो गया। और फ़िर मुझे भविष्य की अनेकानेक चिंताओं ने घेर लिया। विवाह के लिए प्रस्ताव आने लगे, पर मैंने स्पष्ट कह दिया था कि कहा कि धन तो है ही नहीं। तभी अचानक मेरे मन में यह विचार आया कि मुझे किसी भी प्रकार से प्रयत्न करके दस लाख रुपये अपने भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए एकत्र करना है।
वैसे तो, इस अर्थयुग में पत्रकारिता को भी " जुगाड़ वाला धंधा" समझा जाता है, किन्तु मैं अनैतिक तरीक़े से धन अर्जित करने साहस नहीं जुटा सका, इसलिए मेरे लिए दस लाख रुपये बचत करने का लक्ष्य अत्यधिक कठिन था। इस गुल्लक को भरने के लिए मैं अपनी सारी सुख-सुविधाओं में कटौती कर आजीवन साइकिल से चलता रहा। वर्ष 1998 में असाध्य रोग ने मेरे दुर्बल शरीर पर आक्रमण कर दिया और फ़िर मेरे सारे स्वप्न बिखर गये। हाँ, मैंने कुछ धनसंग्रह अवश्य कर लिया , किन्तु "भविष्य" की चिन्ता में मेरा "वर्तमान"चला गया। मेरी " खुशी" चली गयी। प्रियजनों का वियोग सहना पड़ा। घर-परिवार विहीन व्यक्ति के लिए उसका स्वास्थ्य ही सबसे बड़ा धन होता है। अब मेरे पास न तो आजीविका का कोई साधन है और न ही वह खुशी, जिसे लेकर मैं मीरजापुर आया था। संग्रह किया हुआ धन "रोटी" दे सकता है, किन्तु "सुख" नहीं।
कुछ लोगों ने स्नेह प्रदर्शन कर छल भी किया। एकाकी जीवन में ऐसा होता ही है। ऐसी विषम परिस्थितियों में मेरा हृदय अत्यधिक विकल हो उठा। तत्पश्चात गुरुज्ञान के आलोक में मैंने पाया कि इस जगत के लौकिक संबंधों के प्रति विशेष अनुरक्ति ही भावुक मनुष्य की सबसे बड़ी दुर्बलता है । वह अपने प्रति किसी के द्वारा दो शब्द सहानुभूति के क्या सुन लेता है , बिना परीक्षण किये ही उसे अपना सच्चा हितैषी समझ लेता है।
इन दिनों मानसिक शांति और स्वास्थ्य के लिए मैं प्राणायाम कर रहा हूँ। अध्यात्मवेत्ता श्री सलिल पांडेय ने कहा है कि श्वांस को ऊपर से नाभि की ओर धीरे-धीरे नीचे (अपान वायु) की तरफ लाना है। वायु की प्रवृत्ति उर्ध्वगामी होती है । वायु का शरीर में उर्ध्वगामी होना पाचन-क्रिया को बाधित करता है। इसके लिए वायु को अपान स्वरूप ही श्रेष्ठ है। भगवान की पूजा में "पंचवायु" के समन्वय के क्रम में प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा, समानाय स्वाहा का जप करते हुए भगवान को नैवेद्य चढ़ाने का विधान किया गया है। मेडिकल साइंस भी वायु के इन स्वरुपों को मान्यता देता है। रक्तचापमापी यंत्र (स्फाइगनोमैनोमीटर) में पारा जिस प्रकार नीचे की ओर उतरता है, कुछ इसी प्रकार ही श्वांस को नीचे उतारने का प्रयत्न कर रहा हूँ। चरणबद्ध तरीके से ऐसा करना है। क्रमशः सर्वप्रथम सहस्त्रार चक्र (मस्तिष्क के मध्य भाग में), आज्ञा चक्र (नेत्रों के मध्य भृकुटि में), विशुद्ध चक्र (कंठ में),अनाहत चक्र (हृदय स्थल में), मणिपुर चक्र (नाभि के मूल में) से अनुभूति के माध्यम से श्वांस को नीचे नाभि पर केंद्रित करना है। मणिपुर चक्र में श्वांस नीचे उतारते समय मूलाधार (गुदा और लिंग के मध्य में) और स्वाधिष्ठान चक्र(लिंग मूल के चार अंगुल ऊपर ) की आनुभूति भी करनी होती है। तत्पश्चात मणिपुर चक्र से श्वास को ऊर्ध्वगामी ( ऊपर की ओर) सहस्त्रार चक्र की ओर ले जाना है।
ऋषियों ने माना है कि शिव शीश में स्थित हैं । पूरा शीश (गर्दन के ऊपर का भाग) ही शिवलिंग है। पंच ज्ञानेन्द्रियाँ इसी भाग में हैं। जबकि शिवा यानी माता पार्वती नाभि में रहती हैं । माँ और संतान का सर्वाधिक गहरा रिश्ता इसी नाभि से ही होता है। सारी तंत्रिका प्रणाली का मुख्य केन्द्र विंदु नाभि और मस्तिष्क ही है। शीश पर्वत है तो नाभि कुंड। उक्त प्राणायाम का आशय है कि शिव नीचे उतर कर पार्वती के पास आते हैं । इस स्थिति में तन स्वस्थ होता है। अपान वायु के जरिए नाभि में आकर जब शिव शिवा को लेकर अपने कैलाश पर्वत शीश में आते हैं तो चिंतन-मनन शिवस्वरूप हो जाता है। मन को शांत और तन को स्वस्थ करने के लिए सलिल भैया ने यह विशेष प्रकार का प्राणायाम मुझे सिखाया है।
अभी प्रारम्भिक चरण है। जिस सुख की कामना मैं ऐसे योग-प्राणायाम के माध्यम से इस अवस्था में कर रहा हूँ, वह सुख तो मुझे तीन दशक पूर्व सहज ही गुरुदेव के आश्रम में प्राप्त हो गया था। गुरुकृपा से आश्रम में मिले खड़ाऊँ एवं साधारण वस्त्रों में ही। मैं मोहवश इस 'अमृत कलश ' का त्याग कर ' मदिरापान ' के लिए निकल पड़ा था। परिणाम यह रहा कि उस दिव्य प्रकाश (आनंद) से वंचित हो गया।
परंतु मछुआरा बुद्धिमान था, उसे ज्ञात था कि उसकी खुशी किसमें है। इसीलिए उसने बड़ी दृढ़ता के साथ उद्योगपति श्री बजाज को जवाब दिया था - "मैं इसी स्थिति में आपसे अधिक सुखी हूँ।"
सत्य यही है कि मनुष्य अपने संतोष से सम्राट और अभिलाषाओं से दरिद्र हो जाता है। और हाँ, यदि सुख का एक द्वार जब कभी बंद होता है, तो दूसरा खुल भी जाता है। अतः बंद नहीं इस खुले द्वार की ओर भी देखें।
-व्याकुल पथिक
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बीसवीं सदी के सशक्त क़लमकार कामेश्वर जी की एक रचना "सुख" पढ़ रहा था। जिसमें उद्योगपति जमनालाल बजाज एक मछुआरे ,जो कि अपनी जर्जर नाव की छाँव में आराम से लेट कर बीड़ी पी रहा था, से प्रश्न कर रहे थे। वे उससे कह रहे थे कि यदि तुम अधिक मछलियाँ पकड़ते, तो अमीरी की तरफ बढ़ सकते थे। जैसे ,नाव की जगह मोटरबोट और नायलॉन के जाल खरीद सकते थे। तब तुम्हारी आमदनी काफ़ी बढ़ जाती और तुम बेफ़िक्र हो खुशी से ज़िदगी जी सकते थे। जिसके प्रतिउत्तर में मछुआरे ने उनसे कहा था कि वह ऐसा क्यों करे ? क्योंकि वह तो अब भी खुश है और उनसे ज्यादा सुखी भी है।
आज़ का मेरा विषय भी यही है। यह सुख क्या है ? मुझे आज़ भी भलीभाँति स्मरण है कि आजीविका की खोज में जब वाराणसी से मीरजापुर आया तो मेरे पास दो जोड़े कपड़े मात्र थे। समाचार पत्र कार्यालय से पारिश्रमिक के रूप में प्रतिदिन चालीस रुपया मिलता था। बनारस से मीरजापुर बस में ढ़ाई घंटे की यात्रा के दौरान मैं दो बड़े-बड़े अनार खरीद कर खा लिया करता था। रात्रि 11 बजे वापस लौटने पर एक ढाबे पर डट कर भोजन करता और साथ ही एक लीटर दूध सुबह-शाम गटक लेता था। पेट पर हाथ फेरकर डकार लेता और नींद तो इतनी अच्छी आती थी कि आँखें सुबह ही खुलती थीं।धनसंग्रह करने की कोई अभिलाषा नहीं थी। सो,स्वस्थ और प्रसन्न था। दिन भर श्रम करने से जो स्वेद निकलते थे, उनमें मोतियों जैसी मुस्कान थी।
कुछ माह पश्चात अख़बार के दफ़्तर में मेरे एक शुभचिंतक ने सलाह दी कि कुछ रुपये इनमें से बचा लिया करो, जिससे तुम्हें इस समाचार पत्र की मीरजापुर एजेंसी मिल सके। इससे तुम्हारा सम्मान और आर्थिक लाभ दोनों बढ़ेगा। मैंने पूछा कितना तो बताया गया कि कम से कम आठ हजार रुपये और नीचीबाग डाकघर में मेरा बचत खाता भी खोल दिया गया। यह वर्ष 1995 की बात है। मैं समाचार पत्र विक्रेता से अभिकर्ता बन गया। मुझे तीन किस्तों में पैसा संस्थान को देना था। इस धन को अर्जित करने के लिए मैं अपने ख़र्च में कटौती करने लगा। दो की जगह एक अनार और दूध भी कम कर दिया। जबकि यौवन उफान पर था और अत्यधिक श्रम भी करना पड़ता था, जो इससे पूर्व मैंने कभी किया नहीं था। परिणाम यह रहा कि मेरे स्वास्थ्य में परिवर्तन आना शुरू हो गया। और फ़िर मुझे भविष्य की अनेकानेक चिंताओं ने घेर लिया। विवाह के लिए प्रस्ताव आने लगे, पर मैंने स्पष्ट कह दिया था कि कहा कि धन तो है ही नहीं। तभी अचानक मेरे मन में यह विचार आया कि मुझे किसी भी प्रकार से प्रयत्न करके दस लाख रुपये अपने भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए एकत्र करना है।
वैसे तो, इस अर्थयुग में पत्रकारिता को भी " जुगाड़ वाला धंधा" समझा जाता है, किन्तु मैं अनैतिक तरीक़े से धन अर्जित करने साहस नहीं जुटा सका, इसलिए मेरे लिए दस लाख रुपये बचत करने का लक्ष्य अत्यधिक कठिन था। इस गुल्लक को भरने के लिए मैं अपनी सारी सुख-सुविधाओं में कटौती कर आजीवन साइकिल से चलता रहा। वर्ष 1998 में असाध्य रोग ने मेरे दुर्बल शरीर पर आक्रमण कर दिया और फ़िर मेरे सारे स्वप्न बिखर गये। हाँ, मैंने कुछ धनसंग्रह अवश्य कर लिया , किन्तु "भविष्य" की चिन्ता में मेरा "वर्तमान"चला गया। मेरी " खुशी" चली गयी। प्रियजनों का वियोग सहना पड़ा। घर-परिवार विहीन व्यक्ति के लिए उसका स्वास्थ्य ही सबसे बड़ा धन होता है। अब मेरे पास न तो आजीविका का कोई साधन है और न ही वह खुशी, जिसे लेकर मैं मीरजापुर आया था। संग्रह किया हुआ धन "रोटी" दे सकता है, किन्तु "सुख" नहीं।
कुछ लोगों ने स्नेह प्रदर्शन कर छल भी किया। एकाकी जीवन में ऐसा होता ही है। ऐसी विषम परिस्थितियों में मेरा हृदय अत्यधिक विकल हो उठा। तत्पश्चात गुरुज्ञान के आलोक में मैंने पाया कि इस जगत के लौकिक संबंधों के प्रति विशेष अनुरक्ति ही भावुक मनुष्य की सबसे बड़ी दुर्बलता है । वह अपने प्रति किसी के द्वारा दो शब्द सहानुभूति के क्या सुन लेता है , बिना परीक्षण किये ही उसे अपना सच्चा हितैषी समझ लेता है।
इन दिनों मानसिक शांति और स्वास्थ्य के लिए मैं प्राणायाम कर रहा हूँ। अध्यात्मवेत्ता श्री सलिल पांडेय ने कहा है कि श्वांस को ऊपर से नाभि की ओर धीरे-धीरे नीचे (अपान वायु) की तरफ लाना है। वायु की प्रवृत्ति उर्ध्वगामी होती है । वायु का शरीर में उर्ध्वगामी होना पाचन-क्रिया को बाधित करता है। इसके लिए वायु को अपान स्वरूप ही श्रेष्ठ है। भगवान की पूजा में "पंचवायु" के समन्वय के क्रम में प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा, समानाय स्वाहा का जप करते हुए भगवान को नैवेद्य चढ़ाने का विधान किया गया है। मेडिकल साइंस भी वायु के इन स्वरुपों को मान्यता देता है। रक्तचापमापी यंत्र (स्फाइगनोमैनोमीटर) में पारा जिस प्रकार नीचे की ओर उतरता है, कुछ इसी प्रकार ही श्वांस को नीचे उतारने का प्रयत्न कर रहा हूँ। चरणबद्ध तरीके से ऐसा करना है। क्रमशः सर्वप्रथम सहस्त्रार चक्र (मस्तिष्क के मध्य भाग में), आज्ञा चक्र (नेत्रों के मध्य भृकुटि में), विशुद्ध चक्र (कंठ में),अनाहत चक्र (हृदय स्थल में), मणिपुर चक्र (नाभि के मूल में) से अनुभूति के माध्यम से श्वांस को नीचे नाभि पर केंद्रित करना है। मणिपुर चक्र में श्वांस नीचे उतारते समय मूलाधार (गुदा और लिंग के मध्य में) और स्वाधिष्ठान चक्र(लिंग मूल के चार अंगुल ऊपर ) की आनुभूति भी करनी होती है। तत्पश्चात मणिपुर चक्र से श्वास को ऊर्ध्वगामी ( ऊपर की ओर) सहस्त्रार चक्र की ओर ले जाना है।
ऋषियों ने माना है कि शिव शीश में स्थित हैं । पूरा शीश (गर्दन के ऊपर का भाग) ही शिवलिंग है। पंच ज्ञानेन्द्रियाँ इसी भाग में हैं। जबकि शिवा यानी माता पार्वती नाभि में रहती हैं । माँ और संतान का सर्वाधिक गहरा रिश्ता इसी नाभि से ही होता है। सारी तंत्रिका प्रणाली का मुख्य केन्द्र विंदु नाभि और मस्तिष्क ही है। शीश पर्वत है तो नाभि कुंड। उक्त प्राणायाम का आशय है कि शिव नीचे उतर कर पार्वती के पास आते हैं । इस स्थिति में तन स्वस्थ होता है। अपान वायु के जरिए नाभि में आकर जब शिव शिवा को लेकर अपने कैलाश पर्वत शीश में आते हैं तो चिंतन-मनन शिवस्वरूप हो जाता है। मन को शांत और तन को स्वस्थ करने के लिए सलिल भैया ने यह विशेष प्रकार का प्राणायाम मुझे सिखाया है।
अभी प्रारम्भिक चरण है। जिस सुख की कामना मैं ऐसे योग-प्राणायाम के माध्यम से इस अवस्था में कर रहा हूँ, वह सुख तो मुझे तीन दशक पूर्व सहज ही गुरुदेव के आश्रम में प्राप्त हो गया था। गुरुकृपा से आश्रम में मिले खड़ाऊँ एवं साधारण वस्त्रों में ही। मैं मोहवश इस 'अमृत कलश ' का त्याग कर ' मदिरापान ' के लिए निकल पड़ा था। परिणाम यह रहा कि उस दिव्य प्रकाश (आनंद) से वंचित हो गया।
परंतु मछुआरा बुद्धिमान था, उसे ज्ञात था कि उसकी खुशी किसमें है। इसीलिए उसने बड़ी दृढ़ता के साथ उद्योगपति श्री बजाज को जवाब दिया था - "मैं इसी स्थिति में आपसे अधिक सुखी हूँ।"
सत्य यही है कि मनुष्य अपने संतोष से सम्राट और अभिलाषाओं से दरिद्र हो जाता है। और हाँ, यदि सुख का एक द्वार जब कभी बंद होता है, तो दूसरा खुल भी जाता है। अतः बंद नहीं इस खुले द्वार की ओर भी देखें।
-व्याकुल पथिक
जी आपका अत्यंत आभार भाई साहब।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लेख
ReplyDeleteजी आपका अत्यंत आभार,प्रणाम।
Deleteजी आभार मीना दीदी।
ReplyDeleteशशि भाई मैं आपके इस बात से सहमत हूं कि मनुष्य अपने संतोष से सम्राट और अभिलाषाओं से दरिद्र हो जाता है।
ReplyDeleteजी ज्योति दी, आपका आभार।
Deleteआज फिर से जीवन का एक महत्वपूर्ण सत्य आपके लेख के माध्यम से महसूस करने का अवसर प्राप्त हुआ जिसके लिए आपका आभार शशि जी । संतोष ही सुख है और कई बार हमें संतोष तभी मिलता है जब हम केवल वर्तमान पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं। भविष्य की चिन्ता हमसे हमारा संतोष छीन लेती है और हम सुख की अनुभूति से वंचित होते चले जाते हैं।
ReplyDeleteजी बिल्कुल आपने सही कहा प्रवीण जी,भविष्य -भविष्य करते हुये वर्तमान भी पीछे छूट जाता है।
Deleteबहुत सुन्दर विचारोत्तेजक आलेख।
ReplyDeleteजी आभार गुरु जी, प्रणाम।
Deleteवाह!शशि भाई ,बहुत ही खूबसूरत लेख पढने को मिला । कहते है न कि संतोषी सदा सुखी ...पर भविष्य की चिंता में ही हम जीवन गुजार देते है और वर्तमान के सुख से हाथ धो बैठते है ।
ReplyDeleteजी आभार, सुधा दी।
Deleteप्रणाम।
🙏🙏🙏🙏🙏 जीवन ज्ञान
ReplyDeleteजी अत्यंत आभार।
Deleteक्या ख़ूब कहा आपने, " मनुष्य अपने संतोष से सम्राट और अभिलाषाओं से दरिद्र हो जाता है"
ReplyDeleteजी आभार,अनिल भैया।
Deleteसुंदर , सारगर्भित लेख शशि भैया |आपने बहुत ही भावपूर्ण परिभाषा लिखी है 'सुख' की--'" मनुष्य अपने संतोष से सम्राट और अभिलाषाओं से दरिद्र हो जाता है----------''
ReplyDeleteमन के अनुसार न किसी को कभी कोई वस्तु मिली है और न ही मिलने वाली है। क्योंकि हमारा मन भी दलदल में फँसे हाथी जैसा ही है, जो बाहर निकलने के प्रयास में और अधिक धँसता जाता है। ऐसे ही यह करूँ, वह करूँ, इतना कर लूँ, इतना पा लूँ, करते-करते मनुष्य संसार में और फँसता चला जाता है। ऐसी ही स्थिति के लिए तुलसीदास जी ने लिखा है
गोधन, गजधन, वाजिधन, और रतन धन खान। पर संतोष को प्राप्त करने वाले मानव की दुनिया ही बदल जाती हैऔर अंत में विदा हो जाता है । ऐसी ही स्थिति के लिए तुलसीदास जी ने लिखा है ----
जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान॥
बढ़िया लेख के लिए हार्दिक शुभकामनाएं|
जी रेणु दी , विस्तार से प्रतिक्रिया के लिए आपका हृदय से आभार । आप सदैव मेरा उत्साहवर्धन करती रही हैं और इसी प्रकार भविष्य में भी मार्गदर्शन करती रहे।
ReplyDeleteयदि मनुष्य को सच्चा सुख चाहिए, तो वह ध्यान का अवलंबन ले।
क्योंकि लौकिक सुख सदैव परिवर्तित होते रहते हैं।
मस्तिष्क को स्पन्दित करता एक विचारोत्तेजक लेख! आपके इस सहज-स्पष्ट व सशक्त लेखन के लिए हार्दिक बधाई पथिक जी!
ReplyDeleteजी आभार, प्रणाम।
Deleteजी आभार।
ReplyDeleteआ शशि जी (व्याकुल पथिक ) , बहुत अच्छा विश्लेषण ! ये पंक्तियाँ तो पूरा जीवन दर्शन प्रस्तुत करती हैं:
ReplyDeleteमनुष्य अपने संतोष से सम्राट और अभिलाषाओं से दरिद्र हो जाता है।--ब्रजेन्द्र नाथ
जी आभार भाई साहब।
Delete"मैं मोहवश इस 'अमृत कलश ' का त्याग कर ' मदिरापान ' के लिए निकल पड़ा था।"अक्सर ऐसी ही गलतियां हो जाती है हम सब से,परन्तु ये भी सत्य है कि -"जब जागे तभी सवेरा "मान खुद को सुधार लेना ही बुद्धिमता है ,सुंदर लेख सार नमन आपको
ReplyDeleteजी आपका आभार,कामिनी जी।
Deleteसही कहा आपने सुधार का अवसर सदैव रहता है।
बहुत खूब शशि भैया, इन्शान महज इतनी सी बात को नही समझ पाता और आजीवन धन को ही सुख समझ उसके पीछे भागता रहता है। जिस दिन उसे ये समझ आ जाये कि मानसिक सुख आर्थिक सुख से ज्यादा महत्वपूर्ण है तो संभव है कि समाज मे एक दूसरे से बैमनस्य भी स्वतः कम हो जाये।
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा आपने रंजीत भैया।
Deleteप्रतिक्रिया के लिए आभार।
भईया यथार्थ और सारगर्भित ज्ञान 🙏🏻
ReplyDeleteजी आभार, धन्यवाद।
Delete*कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूढे वन माहि*- जीवन को सुगंधित करने वाला सुख वाह्य जगत में संभव नहीं । एक पंक्ति में दूर तक प्रहार करने वाला तीर चलाते हुआ लिखा भी है कि *कुछ ने छल किया* तो वाह्य दुनियां छल की मोटी किताब है। प्रायः किताब में चमचमाता अध्याय बल पूर्वक लिखा जाता है। भले लिखने वाले को कृत्रिमता का सहारा क्यों न लेना पड़ता हो। जब कोई जिंदगी में होता कुछ और है तथा फिल्मी कलाकारों की तरह अभिनय कुछ और करता है तब यह किताब किसी सफर में टाइम-पास वाली किताब की तरह हो जाती है। कालजयी नहीं हो पाती।
ReplyDeleteगोस्वामी तुलसीदास ने दो चौपाई में अलग-अलग एक दूसरे को काटते हुए नहीं बल्कि वाह्यजगत और अंतर्जगतको प्रतिबिंबित करते हुए अपनी बात कही है।
*क्षिति जल पावक गगन समीरा, पंच रचित यह अधम शरीरा* चौपाई में वाह्य यानी जड़ पदार्थों में जब व्यक्ति उलझता है, तब यह *शरीर अधम* हो जाता है और *बड़े भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रँथन गावा* चौपाई में मन में स्थित होने पर ब्रह्मानन्द और परमानन्द का असली घर हो जाता है। यहां तक जाने का रास्ता *प्राणायाम* ही जिसका अर्थ ही प्राण को आयाम यानी विस्तार देना है। बीज विस्तार लेता है तो अनाज बनकर जीवन देता है।
निश्चित रूप से यह सबको प्राप्त नहीं होता। जिस पर दैवीकृपा होती है, वही इस दिशा में बढ़ता है। वरना बहुतेरे अंत समय तक छल-छद्म की आग में जीवन भस्म कर देते हैं ।
*सलिल पांडेय, मिर्जापुर ।*
अध्यात्मविद्।
अत्यंत सुंदर लेख बड़े भैया,सच में कहा गया है कि संतोष से बड़ा कोई सुख नहीं है।
ReplyDeleteइंसान अपने महत्वाकांक्षी की वजह से सुख त्याग कर अपनी एक के बाद एक इच्छा पूर्ति के लिए अपने सभी सुखों से वंचित होता जाता है।वास्तव में जो सबसे बड़ा सुख है वह गरीबी में ही है। दिन भर मेहनत किए रात को भोजन किए और फिर बिना नींद की गोलियां खाए ही पूर्ण निद्रा में सो जाना यह सुख का प्रतीक है।बाकी रुपया वाले तो नींद के लिए न जाने क्या क्या करते है मात्र थोड़ी सी नींद के लिए।
"वैसे बड़ी अजीब बात है इंसानों के जिस रुपए के लिए वह अपनी नींद खराब करता है उसी नींद के लिए फिर वही रुपया भी खर्च करता है।"
जी आभार साहनी जी।
Delete
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा लेख हैं जो वास्तविक जीवन का सार संछेप में आपने व्यक्त किया है।बहुत साधुवाद।👌🙏
-आशीष बुधिया, पूर्व शहर कांग्रेस अध्यक्ष मिर्ज़ापुर
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दिल को छू लेने वाली आपकी कहानी है शशि भाई , आपकी लिखी सच्ची कहानी से कुछ ज्ञान भी सीखने को मिलता है ,
-मेराज खान, पत्रकार।
आपके लेखनी का कोई जोड़ नही है भैया🙏🙏
संतोष मिश्रा, पत्रकार
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शशि भाई सुख की परिभाषा को हर ब्यक्ति अपने हिसाब से परिभाषित करता रहता है जैसे तपती धूप से परेशान ब्यक्ति पेड़ की छांव में सुख ढूढ़ता है , बचपन मे जब हमारे पास पैसे कम होते थे लेकिन खाने की वस्तुए देख कर खाने का दिल करता था आज जेब मे पैसे है लेकिन खाने का दिल नही करता , बुजुर्ग पहले कहा करते थे कि संतोष ही सबसे बड़ा सुख होता है , आज भी सुखी होना दिमाग के हाथ मे है , हम सीमित संसाधनों में भी खुश हो सकते थे ।
ReplyDelete- अखिलेश मिश्र पत्रकार।