यादों की ज़ंजीर
रात्रि का दूसरा प्रहर बीत चुका था, किन्तु विभु आँखें बंद किये करवटें बदलता रहा। एकाकी जीवन में वर्षों के कठोर श्रम,असाध्य रोग और अपनों के तिरस्कार ने उसकी खुशियों पर वर्षों पूर्व वक्र-दृष्टि क्या डाली कि वह पुनः इस दर्द से उभर नहीं सका है। फ़िर भी इन बुझी हुई आशाओं,टूटे हुये हृदय के आँसुओं और मिटती हुई स्मृतियों में न जाने कौन सा सुख है,जो उसे बिखरने नहीं देता है। वह जानता है कि ज़िदगी के सभी अक्षर फूलों से नहीं अंगारों से भी लिखे जाते हैं। संवेदनाओं को जागृत करने वाली ऐसी मार्मिक अनुभूति उसके लिए किसी दुर्लभ निधि से कम नहीं है।अब तो मनुष्य कृत्रिम जीवन का अभ्यस्त हो गया है, उसमें सहज प्रेम है कहाँ। फ़िर क्यों यही स्मृति आज़ उसके चित्त को पुनः उद्विग्न किये हुये थी ?
" उफ ! यह मनहूस दिवस हर वर्ष न जाने क्यों मेरे उस घाव को हरा करने चला आता है,जिसे समय और विस्मृति ने भर दिया है।" --सिर को तकिए में धँसाते हुये भरे मन से बुदबुदाया था विभु। हाँ, यह दिन उसके लिए विशेष हो सकता था ,यदि कोई अपना समीप होता। ऐसे ख़ास अवसर पर वह बिल्कुल असहज हो उठता है, क्योंकि स्नेह की ही नहीं पेट की भूख भी शांत करना उसे कठिन प्रतीत होने लगता है । माँ की मृत्यु के पश्चात उसे अपने जन्मदिन पर बढ़िया व्यंजन खाने को नहीं मिला है। यूँ तो जेब में पैसे हैं,परंतु इच्छाएँ मर चुकी हैं। उसके हृदय में एक टीस सी उठती है, उन दिनों को याद कर के ।
वैसे तो वह दिन भर मित्रों द्वारा भेजे ढेर सारे शुभकामना संदेशों में खोया रहा। परंतु ऐसे सुंदर शब्दों से मनुष्य के उदर की क्षुधा तो शांत नहीं होती है , इसलिए शाम ढलते ही आत्माराम का रुदन शुरू हो गया था । पेट में चूहे उधम मचाने लगे थे। आज़ अपने अवतरण दिवस पर वह कुछ अच्छा भोज्य सामग्री मांग रहा था। उसकी यह गुस्ताख़ी विभु के लिए असहनीय थी। वह बूरी तरह से झुंझला कर कल के बचे हुये दो करेले उबाल लाता है। " चल अब खा इस कड़वे चोखे संग ये सूखी रोटियाँ, आज़ भी तुझे यही मिलेगा। सsss..ले ! मिठाई चाहिए न ?" -उसकी फटकार सुन आत्माराम किसी मासूम बच्चे-सा सहम उठता है । उदर की पीड़ा शांत होते ही कमरे की बत्ती बुझा कर वह धम्म से बिस्तर पर जा गिरा था और फ़िर से यादों ने उसे अपने आगोश में लेना शुरू कर दिया। वह कहता है-" माँ ! काश तुम्हारे ही जैसा स्नेह करने वाला कोई और उसके जीवन में होता। किसी के हृदय में उसके लिए भी प्रेम होता। " तेज गति से भाग रहे मन से वह क्यों बार-बार एक ही प्रश्न करता है-"उफ! ये यादें रात में ही क्यों इतना सताती हैं ! क्या किसी दुःखी इंसान के हृदय को कुरेदने के लिए इन्हें भी एकांत की तलाश होती है ?"
तभी उसके मानसपटल पर चलचित्र की तरह अनेक स्याह-श्वेत दृश्य उभर आते हैं। और फ़िर वह बचपन की मधुर स्मृतियों में खोता चला जाता है। माँ के जीवनकाल में अपने उस आखिरी जन्मदिवस की एक-एक बात उसे स्मरण होने लगी थी । इस सुखद अनुभूति ने मानों उसके तप्त हृदय पर ठंडे पानी की फुहार डाल दिया हो, किन्तु वह नादान यह कब समझेगा कि ये यादें उस जंजीर की तरह हैं, जिससे मुक्त हुये बिना आगे की यात्रा संभवः नहीं है। जीवन में कुछ ऐसे क्षण होते हैं ,जब मन के आगे मस्तिष्क का बस नहीं चलता है।
विभु को माँ के हाथों से निर्मित नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजनों की याद आने लगती थी। तब घर में सुबह से ही कितना चहल-पहल रहती थी। बाबा ने टोकरी भर कर रजनीगंधा और गुलाब के पुष्पहार मंगा रखे थे। ठाकुरबाड़ी को ही नहीं, कमरे में जितनी भी तस्वीरें लगी होती थीं, वे सभी इस दिन इनसे सुशोभित होती थीं। देवी-देवताओं की मूर्तियों पर रोली और चंदन लगाये जाते थे। रंग-बिरंगे झालर और गुब्बारों से दुल्हन की तरह कमरे और बारजे को सजाने की व्यवस्था का दायित्व स्वयं उसके नाजुक हाथों में होता था। अब तो यह सोच कर उसे विश्वास ही नहीं होता है कि इतनी छोटी-सी अवस्था में ऐसे जटिल कार्य वह कैसे कर लेता था !
वो कहते हैं न कि उत्साह में कष्ट सहने की दृढ़ता के साथ ही कर्म में प्रवृत्त होने का आनंद भी होता है। इसीलिए उसकी अस्वस्थ माँ में इस दिन न जाने कहाँ से इतना साहस आ जाता था कि रुग्ण शैय्या का त्याग कर वे दिन भर भोजनालय में डटी रहती थीं। कारखाने का वह बूढ़ा नौकर बड़े से भगौने में दूध पहुँचा जाता था। आहा ! मेवे से निर्मित केशर युक्त खीर का स्वाद भला वह कैसे भूल सकता है ! पाकशास्त्र में माँ का मुकाबला करना उनके मायके और यहाँ ससुराल में ,किसी भी स्त्री के लिए संभव नहींं था। देखते ही देखते कांजी बड़ा, दही बड़ा और कैर-सांगरी की सब्जी वे तैयार कर लेती थीं। अतिथि कितने भी हो, द्रौपदी का यह भंडार खाली नहीं होता था।
उसके वैष्णव भक्त परिवार में बाज़ार से केक लाना संभव नहीं था। यह भ्रांति थी कि हर प्रकार के केक में अंडे का प्रयोग होता है। इसीलिए प्रसिद्ध बंगाली मिठाई संदेश और कैटबरी कोको पाउडर से निर्मित केक तैयार करने की ज़िम्मेदारी उस बड़े से तोंद वाले कारीगर को सौंपी जाती थी, जिसे वह हाड़ी दादू कहता था। शाम होते ही विभु नये वस्त्रों में खिलखिलाते हुये केक के मेज के समक्ष जा पहुँचता। माँ के हाथों से केक खाने का आनंद ही कुछ और था। उपहार और धन की तब भी उसे लालसा नहीं थी, लेकिन माँ के द्वारा बनाए गये व्यंजनों पर टूट पड़ता था। भोजन करते वक़्त उनके लाडले को किसी की नज़र न लगे , इस पर माँ का सदैव ध्यान रहता था।
ऐसे खुशनुमा माहौल के मध्य पल रहे बालक को उस दिन यह कैसे अंदेशा होता कि यह शाम फ़िर कभी उसके किसी जन्मदिन पर लौट कर नहीं आएगी। वह तो ममता का सागर लुटाने वाली माँ के लाड़ और दुलार की थपकियों में खोया हुआ था। माँ और बाबा दोनों ही उसकी शिक्षा को लेकर गंभीर थे। अपनी कक्षा में प्रथम आने पर उसे विशेष उपहार मिलने वाला था। किन्तु क्रूर नियति ने उपहार की जगह उसकी माँ को ही छीन लिया। मरघट पर बहे उसके अश्रु फ़िर कभी नहीं मुसकाये। अपना ही आशियाना उसके लिए पराया हो गया था। आँखों में डोलते सपने भयभीत करने लगे थे। किसी अपने की खोज में मिले दुत्कार ने उसके कोमल हृदय की भावनाओं को जला कर राख कर दिया था। वह निस्सहाय- हो गया था। उसके माथे पर ममत्व का चुंबन करने वाला कोई नहीं रहा।
तभी विभु को आभास होता है कि इस धुप्प अंधेरे में एक डरावनी परछाई उसे घेरे जा रही है। यह देख उसकी बरसती आँखें भय से झपकने लगती हैं। वह रुँधे गले से मदद के लिए स्मृतिशेष उन सभी प्रियजनों को पुकारता है, जिनसे उसे अत्यंत स्नेह है, किन्तु इस बंद कमरे में उसे सिर्फ़ उस काली परछाई का अट्टहास सुनाई पड़ रहा था। मानों वह पूछ रही हो - " यहाँ मेरे सिवा,तेरा हैं कौन ?" यह भयावह परछाई और कोई नहीं उसका सुनहरा अतीत था।
वह जानता है कि मनुष्य स्मृति-लोभ से मुक्त हुये बिना आत्मोत्थान को नहीं प्राप्त कर सकता है,क्योंकि यह ज़ंजीर बनकर हमारे पैरों में लिपट जाती है,यदि हमें आगे बढ़ना है, तो इस क़ैदखाने से बाहर निकलना होगा, फ़िर भी उसके विवेक पर भावना भारी पड़ जाती है... और साथ ही यादों की जंजीर की जकड़न भी।
उफ! परिस्थितियों ने उसके जीवन को किस द्वंद्व में उलझा दिया है ! ...अब तो कोई अवलंबन तलाशो विभु ।
- व्याकुल पथिक
शशि जी,विभु की कहानी आपकी अपनी आत्मकथा प्रतीत होता है और इसे पढ़ कर मन भर आया है। बीते दिनों की मधुर यादें प्रायः बहुत पीड़ा देती हैं यदि बीते दिनों की वो बातें जो उन यादों को मधुर बनाती थी वो वर्तमान का हिस्सा नहीं होती। जीवन कुछ ऐसा ही है कि पिछला बहुत कुछ भूलता नहीं और भविष्य की चिन्ता हर समय घेरे रहती है विशेषकर उस इन्सान को जो संवेदनशील होता है।
ReplyDeleteबहुत दर्द झलकता है आपके ऐसे लेखों में लेकिन शायद यही दर्द आपकी लेखनी को नित्य नई धार देता है।
जी आभार प्रवीण जी।
Deleteकुछ यादें जीवन में मिठास कम और कड़ुवाहट अधिक घोल देती हैं।
प्रतिक्रिया के लिए आभार।
मधुर स्मृतियों के जाल में उलझे हुए, फिर से उन पलों में जीने को आतुर मन की व्यथा की झलक आपके इस लेख में स्पष्ट दिखाई दे रही है। बेहद हृदयस्पर्शी प्रस्तुति शशि भाई।
ReplyDeleteजी आभार, दीदी जी।
Deleteबेहद शानदार सृजन
ReplyDeleteजी आपका आभार।
Deleteस्मृति पटल पर चलित होता सा सृजन
ReplyDeleteजी अत्यंत आभार,प्रणाम।
Deleteबेहतरीन दिल सोज़ सृजन ।
ReplyDeleteसादर ।
जी आभार 🙏
Deleteबहुत सुन्दर।
ReplyDeleteयादे ही जीवन का सम्बल हैं।
जी गुरुजी,सत्य कहा आपने।
Deleteउत्तम सृजन
ReplyDeleteउत्तम सृजन
ReplyDeleteमेरे कमेंट्स नहीं जा रहे न मुझे ब्लागर पर कोई ब्लाग दिखाई देता जो फेसबुक पर शेयर किया जाता है बस उसी पर आ पाती हूं
ReplyDeleteजी आप रेणु दीदी से इस संदर्भ में पूछ लें🙏
Deleteइस कहानी में दम है,
ReplyDelete" फ़िर भी उसके विवेक पर भावना भारी पड़ जाती है... और साथ ही यादों की जंजीर की जकड़न भी। "
ReplyDeleteविवेक पर भावनाएं भरी पड़ ही जाती है सुंदर सृजन,सादर नमन
जी ,अत्यंत आभार।
Deleteप्रणाम।
एकाकी जीवन स्मृति के कारागार में निरुद्ध हो जाता है। इससे मुक्त होना अत्यंत कठिन है। विशेष रूप से जब कोई भविष्य के लिए अवलंबन की कोई आशा न हो। स्मृति पटल पर गाहे-बगाहे चलते चलचित्र आहें भरने को बाध्य करते हैं। ख़त्म होती है ऊर्जा किसी अन्य संभावनाओं को भी ख़त्म कर देती है। वैसे कहा गया है कि आशा अमर है, इसकी आराधना कभी निष्फल नहीं होती, इसलिए सदैव अपने उत्साह को बनाए रखना चाहिए। बीता हुआ कल लौट नहीं सकता, फिर भी वर्तमान और भविष्य तो हमेशा सामने रहता ही है। ईश्वर ऐसा दीपक है, जहाँ से कभी भी अंधकार निकल नहीं सकता। ईश्वर की आराधना और समय की साधना करनी ही होगी। अब सब भाग्य पर छोड़ना पड़ेगा। इसी में प्रसन्नता है। हमेशा की तरह एक और सुंदर लेखन शशि भाई। 💖
ReplyDeleteविषय को सदैव की तरह विस्तार देने के लिए आभार अनिल भैया।
Deleteनिश्चित ही हमें आशावादी होना चाहिए। हमें अपने जीवन के अभिशापों को ही नहीं वरदानों को भी देखना चाहिए।
किन्तु यह भी याद रखना चाहिए कि आशा मनुष्य की आँखों पर चढ़ा एक हरा चश्मा है। जब यह चश्मा उतरता है, तो जीवन का सत्य सामने आ जाता है।
🙏
शशि भैया , यूँ तो यादें खट्टे और मीठे दोनों रूप में हर इंसान की जिन्दगी में व्याप्त रहती हैं ,पर जब कोई इंसान किसी भी कारणवश नितांत अकेला रह जाता है तो शायद ये यादें उसके जीवन का सबसे बड़ा संबल होती होंगी |पर अकेलेपन में यादों का इतना चिंतन अवसाद को जन्म देता है | व्यस्तता इस अवसाद से दूर ले जाती है क्योंकि बीते दिन तो वैसे भी कभी लौट कर नहीं आते , यही जीवन का सबसे कडवा सत्य है | इनसे निकलकर ही कोई आध्यात्म पथ पर अग्रसर हो सकता है | विवेक पर भावनाओं को हावी होने से रोकना होगा तभी आत्मोत्थान की विराट भावना फलीभूत हो सकती है | भावपूर्ण लेख के लिए बधाई और शुभकामनाएं|
ReplyDeleteरेणु दीदी, आपके स्नेहाशीष और अपनत्व भरी इस प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार । दी , वह गीत है न--
Deleteयाद न जाए, बीते दिनों की
जा के न आये जो दिन
दिल क्यूँ बुलाए
उन्हें, दिल क्यों बुलाए...
अतीत की सम्भावनाओं पर वर्तमान का चिंतन कभी भारी तो कभी आसान से सवाल खड़े कर देता है.इसी के बीच चकरघिन्नी सा व्यथित मन जब उद्वेलित होजाता है तभी कथ्य के रूप में कुछ पंक्तियाँ कैनवास पर उभर आती हैं. परिणाम सुखद संयोग सहित दुखद वर्तमान का अन्तरद्वंद आपस में टकराहट पैदा करते हैं.
ReplyDeleteकुछ इन्हीं भावनाओं को परिलक्षित करती आपकी यह द्वंदात्मक कथा मन को झिझोर देने के लिए काफी हे.
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राजेन्द्र मिश्र (अतृप्त मीरजापुरी)
चुनार से..
8अगस्त 2020
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जी अग्रज , आपने बिल्कुल उचित कहा, मनुष्य के हृदय में यह जो अंतर्द्वंद है, इसे नियंत्रित करना अत्यंत कठिन होता है। विस्तार से प्रतिक्रिया के लिए आपका आभार प्रणाम।
Deleteशशि भैया विभु आत्मसत्य है , विभु जैसे किरदार को जीवंत करना आप जैसे कलमकार के द्वारा ही संभव है। बहुत सुंदर रचना भैया ।
ReplyDeleteअत्यंत आभार आशीष भाई।
Deleteमुझे बहुत ही अच्छा लगा
ReplyDeleteये भी ज्ञात हुआ है कि स्नेह की भी भूख लगती है।
*साभारः पूर्व विधायक भगवती प्रसाद चौधरी*
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जीवन की यादों को बेहतरीन तरीक़े से सृजन किया है जो पूर्णता की kasoiti पर खरा उतरता है ।
राधेश्याम विमल पत्रकार
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आपका कोई जोड़ नही।
आप बहुत ही सुंदर लिखते हैं।।
बहुत अच्छा लगा आपकी सोच को सलाम 🌹🙏🙏🌹
पंकज उपाध्याय जिला पंचायत सदस्य
बहुत सुन्दर भैया जी आप के लेख में सभी चित्रण बहुत नजदीक से देखे और महसूस किए जा सकते है। लेखनी को बहुत बहुत साधुवाद।
ReplyDelete-चंद्रांशु गोयल,अध्यक्ष होटल एसोसिएशन,मीरजापुर।
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शशि भाई आपकी कहानी में शब्द ऐसा होता है , कि पढ़ने वाले का मन भर आता है , ऐसा लगता है पूरी फिल्म जिंदगी की सामने चल रही हो ।
---मेराज खान पत्रकार
बहुत सुंदर
ReplyDeleteजी आभार।
Delete.विवेक पर भावना भारी पड जाती है,
ReplyDeleteसुन्दर लेख ,
बहुत बहुत बधाई
बहुत ही अच्छा लगा सर जी । 👍 🌹 🙏
ReplyDeleteजी आभार।
Deleteसुन्दर रचना! आपका दर्द-लेखन उद्वेलित कर देने वाला होता है शशि जी!
ReplyDeleteजी आभार, भाई साहब।
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