माँ का रुदन
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अरे ! ये कैसा रुदन है..? स्वतंत्रता दिवस पर्व पर उल्लासपूर्ण वातावरण में देशभक्ति के गीत गुनगुनाते हुये चिरौरीलाल शहीद उद्यान से निकला ही था कि किसी स्त्री के सिसकने की आवाज़ से उसके कदम ठिठक गये थे। ऐसे खुशनुमा माहौल में रुदन का स्वर सुन चकित हो वह इधर-उधर देखने लगा था। उसने अपने कान उस ओर कर यह सुनने का प्रयत्न किया कि मन को विकल करने वाली यह आवाज़ किसकी है। और फिर जब पीछे पलट कर देखा तो स्तब्ध रह गया था चिरौरी । क्योंकि इसी उद्यान में अमर शहीदों की आदमकद प्रतिमाओं के समक्ष एक स्त्री बैठी हुई थी, जो कभी देश की स्वतंत्रता के लिए सर्वोच्च बलिदान करने वाले भारत माता के इन वीर सपूतों के मुखमंडल को अपना सिर उठाकर गर्व से निहारती, तो कभी आँखें नीचे कर विलाप करती दिखी । उसकी वाणी में अथाह वेदना थी। मानों दर्द का समुंदर इस उपवन में उमड़ पड़ा हो।
चकित हृदय से वह स्वयं से प्रश्न करता है --अभी कुछ देर पूर्व ही तो इस उद्यान में अनेक राजनेता, अफ़सर और अन्य विशिष्टजन जुटे हुये थे। जिन्होंने इन शहीदों की प्रतिमाओं पर माल्यार्पण कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने के पश्चात शहीद स्तंभ के समक्ष आत्मनिर्भर भारत पर बड़ी-बड़ी लच्छेदार बातें कही थीं। झंडारोहण कर मुख्य अतिथि ने 'सबका विकास, सबको काम, सबका कल्याण और सबका साथ ' ऐसा उद्घोष करते हुये राष्ट्र के प्रति अपनी वचनबद्धता दोहराई थी। कैसा पावन वातावरण था ? जैसे लग रहा था कि गाँधी बाबा के सारे अनुयायी खादी धारण किये उनके सपने को साकार करने यहाँ आ पहुँचे हों। वर्ष में दो बार यह अद्भुत दृश्य इस उद्यान में अवश्य देखने को मिलता है। देशभक्ति वाले गीत भी सुनने को मिलते हैं।
किन्तु पंद्रह अगस्त के दिन इस पार्क में रोने की आवाज़ उसने इससे पूर्व कभी नहीं सुनी थी या यूँ भी कह लें कि उसने इस रुदन को सुनने का प्रयत्न ही नहीं किया था। उसके जीवन का अधिकांश समय तो अपनी शिक्षा की डिग्री लिये आजीविका की खोज में बड़े लोगों की चिरौरी करते गुजर गया है। और तभी से न जाने कैसे उसका नाम चिरौरीलाल पड़ गया है।कर्तव्यनिष्ठ हो कर भी आज़ाद भारत में वह स्वालंबी नहीं बन सका। जब भी सरकार बदलती, उसे लगता कि जैस रामराज्य आने वाला है,किन्तु चुनावी बुखार उतरते ही उस जैसे करोड़ों निम्न-मध्यवर्गीय लोगों की झोली खाली ही रह जाती है। जब स्वतंत्र राष्ट्र में भी लोकतंत्रीय शासन की व्यवहारिक क्रियाओं से देश के युवा नैराश्य की अवस्था में हों, उनकी शिक्षा का कोई मोल नहीं हो,तो ऐसी व्यवस्था अराजकता को जन्म देती है।
वक़्त के थपेड़ों की मार सहते-सहते चिरौरीलाल का पौरूष अब थकने को है,किन्तु बेरोजगारी साढ़ेसाती बनी सिर पर चढ़ी हुई है । वह समझ गया था कि यह ग़रीबी किसी एक व्यक्ति की व्यक्तिगत व्यवस्था का फल नहीं है, इसके लिए सामूहिक व्यवस्था दोषी है। हाँ,एक काम यह अच्छा हुआ है कि इस जीवन संघर्ष ने उसकी शुष्क संवेदनाओं के तंतुओं में स्पंदन ला दिया है, तभी इस उल्लास भरे दिन में भी इस स्त्री की अस्फुट-सी आवाज़ उस तक पहुँच पायी थी , अन्यथा समारोह समापन से लौट रहे अन्य किसी ने महिला के विलाप को नहीं सुना था ।
ओह ! कितना दर्द है इस नारी के स्वर में ! उत्सुकतावश चिरौरी दबे पाँव वापस उद्यान की ओर बढ़ जाता है। और जहाँ वह विस्मयपूर्ण नेत्रों से उस महिला को देखता ही रह जाता है...!
" हाय ! यह कैसा अनर्थ है? ये तो अपनी भारत माता हैं ! आज़ के दिन इन्हीं का तो पूजन-वंदन देश का हर नागरिक करता है। और ये यहाँ आपने शहीद पुत्रों के समक्ष विलाप रही हैं।" यह मार्मिक दृश्य देख भय से उसका हृदय काँप उठा था । इस स्थिति में माता से आँखें मिलाने का साहस नहीं जुटा पाता है। वह शहीद स्तंभ के ओट में छिपकर रुदन कर रही माँ भारती की बातें सुनने लगता है।
उसने देखा भारत माता खुदीराम बोस की प्रतिमा से कुछ कह रही थीं। हाँ ,याद हो आया..इसी अमर क्रांति दूत की शहादत से जुड़ा यह गीत उसने ऐसे राष्ट्रीय पर्वों पर कोलकाता में अपने विद्यालय में सुना था । मात्र 19 वर्ष की अवस्था में खुदीराम आजादी के दस्तावेज़ पर सुनहरे अक्षरों में अपना हस्ताक्षर बना बढ़ गये थे , उस मंजिल की ओर जिसके समक्ष यदि अमृत कलश भी बेमानी है। बंगाल का हर शख़्स इस बालक के चरणों में नतमस्तक दिखा था उसे उस दिन। माँ भारती अपने इसी बलिदानी सपूत से रुँधे कंठ से शिकायत कर रही थी-- रे खुदी ! स्मरण कर जाने से पूर्व तूने अपनी माता से क्या वादा किया था, यही न..
एक बार बिदाई दे माँ घुरे आशी।
आमी हाँसी- हाँसी पोरबो फाँसी,
देखबे भारतवासी ।
पर देख न मेरे लाल ,आज जब देश आज़ाद है, तो तू नहीं आया, तेरे बलिदानी भाई-बंधु भी नहीं आए । और मेरे इस तिरंगे की डोर जिनके हाथों में हैं, वे सफ़ेदपोश जो तेरे उत्तराधिकारी बन बैठे हैं। वे ऐसे राष्ट्रीय पर्वों पर वैसे तो कितनी अच्छी बातें करते हैं। वे कहते हैं -- नये दौर में लिख देंगे मिल के नयी कहानी, हम हैं हिन्दुस्तानी । किन्तु मंच बदलते ही गिरगिट के तरह रंग बदल लेते हैं। फिर शुरू हो जाती है जातिवाद,क्षेत्रवाद ,धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर नफ़रत की सियासत। मर जाती है इंसानियत। वे पूंजीवाद, साम्यवाद, समाजवाद का ढोल बजाकर देश की भोली जनता को छल रहे हैं। आज अवाम में ख़ासी कड़ुवाहट है। अपनी बादशाहत बचाने के लिए ये कुछ भी कर सकते हैं। सत्ता पाते ही ये राजनेता निरंकुशता का पर्याय बन जाते हैं। और अब तो माफ़िया भी माननीय बन कर मेरे तिरंगे को अपावन कर रहे हैं। जिनके शासन में मेरी बेटियों की अस्मत सुरक्षित नहीं है। दुराचारी मेरे आँचल को मैला कर रहे हैं। बोल,कैसे करूँ मैं अपने स्वाभिमान की रक्षा,जब देश की निर्बल जनता गाँधी जी के उन तीन बंदरों की भाँति अपने मुख, आँख और कानों को बंद किये हो ? क्या अहिंसा के पुजारी ऐसे ही होते हैं ?
पुत्रों, तुम सभी ने मुझे फ़िरंगियों की बेड़ियों से मुक्त करवाने के लिए खुशी-खुशी अनेक कष्ट सहे थे । अपना सब कुछ मुझ पर न्यौछावर कर दिया था। और ये दौलत के पुजारी देश को बेच रहे हैं। अब तो मुझे भी नहीं पता कि इनमें से कौन जयचंद और कौन शकुनि है। कहाँ गये तुम्हारे जैसे पुत्र , जिन्होंने अपने पवित्र रक्त से भक्तिपूर्वक अपनी इस प्यारी भारतमाता के पाँव पखारे थे, किन्तु इन सफ़ेदपोशों में से कितने मेरे लिए रक्तदान किया है ? तुम्हारे मिशन का इन्होंने जनाज़ा निकाल दिया है। चाल, चरित्र, चिंतन जैसे आदर्श वाक्य इतिहास के पन्ने में दफ़न हो चुके हैं।
भारत माता कहती ही जा रही थीं-- क्या प्राचीन भारतवर्ष के मानचित्र में तूने कभी मेरी भव्य तस्वीर को देखा है ? क्या स्वतंत्र भारत में भी मैं वैसी ही हूँ ? और तो और ये मुझे इण्डिया कहने लगे हैं। क्या मैं इनके लिए माता नहीं रही ? खुदी, मेरी व्यथा-कथा को समझ रहे हो ? विचार और कार्य की स्वतंत्रता अवश्य ही मनुष्य को जीवन की उन्नति का मार्ग दिखलाता है, परंतु स्वतंत्रता का अर्थ स्वछंदता तो नहीं होता न पुत्र ?
यह सब सुनकर चिरौरीलाल अश्रु से भरी माँ भारती की आँखों में झाँकने का साहस नहीं कर सका था। ग्लानि से उसका हृदय विकल हो उठा था। किन्तु अडानी-अंबानी बनने की चाहत रखने वालों के इस देश में अब भगत सिंह बनना कौन चाहेगा ? वह भी नहीं..? अकस्मात उसे ऐसा लगा कि मानों अपनी दुखियारी माँ की चीत्कार सुनकर इन शहीदों के मुखमंडल पर कठोरता छाने लगी हो। नाक के नथुने फड़फड़ाने लगे हों। नेत्र लाल अंगार हो गए हों।जैसे किसी सुप्त ज्वालामुखी ने मुँह खोल दिया हो। जिसमें से धुँआ निकल रहा था।
उसे ऐसा लगा मानों ये प्रतिमाएँ कह रही हों-
वक़्त गुलशन पे पड़ा तब तो लहू हमने दिया।
अब बहार आई तो कहते हो तेरा काम नहीं।।
चिरौरीलाल से इस उद्यान में और ठहरते नहीं बन रहा था। उसका दम घुटने लगा था । तभी उसकी चेतना ने आवाज़ लगायी --इससे पहले कि इनमें से लावा बहे , भाग चिरौरी.. भाग..।
-- व्याकुल पथिक
( 13-8-2020 )
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सादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार(14-08-2020) को "ऐ मातृभूमि तेरी जय हो, सदा विजय हो" (चर्चा अंक-3793) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है.
…
"मीना भारद्वाज"
जी आभार , मीना दीदी जी।
Deleteशशि जी भारत माता का ये रुदन सब नहीं सुन सकते। जो दिन-रात अपने देश और देश के लोगों को लूटने का काम कर रहें हैं उनके लिए देश माँ के समान आदरणीय नहीं है। दिमाग लगा कर स्वार्थ की पूर्ति करने वाले नेता,व्यवसायी देशभक्त कभी नहीं हो सकते। खुदीराम बोस जैसे सच्चे देशभक्त तो वो थे जिन्होंने दिल से काम लिया था नकि दिमाग से। आसमान में बैठ कर हमारे शहीद यदि ऊपर से देख पाते होंगे तो उन्हें देश के वर्तमान हालात देख कर सोचने पर विवश होना पड़ता होगा कि क्या इसी दिन के लिए उन्होंने ये बलिदान दिया था। बहुत प्रभावशाली ढंग से आपने भारत माता की व्यथा का वर्णन किया है अपनी इस रचना के माध्यम से।
ReplyDeleteजी प्रवीण जी, आपने बिल्कुल सही कहा, परंतु जो माता का रुदन सुन पा रहे हैं, वे भी विवश हैं, मूकदर्शक बने हैं।
Deleteशशि भाई,
ReplyDelete''वक़्त गुलशन पे पड़ा तब तो लहू हमने दिया।
अब बहार आई तो कहते हो तेरा काम नहीं।।'' बहुत ही कड़वी सच्चाई को व्यक्त किया है आपने!
जी ज्योति दीदी,
Deleteप्रतिक्रिया के लिए आभार।
आपने उस दृश्य को परिलक्षित किया है जो वर्तमान की सच्चाई है।
ReplyDeleteसादर आभार
यूरोपीय शक्तियों के आगमन से भारत के यथास्थितिवाद में परिवर्तन आना प्रारंभ हो गया था। आधुनिक प्रकार के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक परिवर्तन देखने को मिलने लगे थे। इसके पहले जितने भी आक्रांता आते थे, वे स्थानीय शक्तियों को पराजित करके अथवा उनके साथ मिलकर शासक बन जाते थे। समय व्यतीत होते ही वे यहाँ के समाज में घुलमिल जाते थे। छोटे-मोटे कारणों से छोटे-मोटे युद्ध होते रहते थे, किंतु समाज का बहुत बड़ा हिस्सा उन हलचलो से दूर रहता था। उनकी ज़िंदगी में परिवर्तन जैसी कोई चीज़ न थी।राज परिवारों के क़िस्से-कहानियों में भारत का इतिहास बनता और बिगड़ता रहता था। स्त्रियाँ और मज़दूर हाशिए पर थे। घनघोर ग़रीबी और अशिक्षा ने अंधविश्वास की चादर ओढ़ रखी थी।
ReplyDeleteतत्कालीन भारत की सीमाओं का कोई मतलब नहीं था। कोई भी कभी भी आ सकता था। मुट्ठी भर लोग आते थे और एक रियासत क़ायम कर लेते थे। एक राष्ट्र के रूप में भारत कभी भी नहीं था। आज जिस लोकतांत्रिक समाज में रहते हैं उस समाज का बीजारोपण यूरोपीय शक्तियों के आलोक में प्रारंभ हुआ था। पूरे भारत को बाँधने वाले क़ानूनों का निर्माण, शिक्षा व्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था, समतावादी विचारों का विस्तार यूरोपीय शक्तियों उपस्थिति में ही संभव हुआ था। लगभग 250 वर्षों के अंग्रेजों के शासनकाल में भारतवासियों की मानसिकता में बहुत परिवर्तन आया। लोग शिक्षा प्राप्त करने के लिए देश से बाहर जाने लगे। बाहर जाकर वहाँ के समाज को देखा और उनके अंदर क्रांतिकारी परिवर्तन आए। उनके अंदर आज़ादी की भावना भी आने लगी। आज़ाद भारत की तस्वीर कैसी होगी, उसे अपने आदर्शों से रंग देने लगे। त्याग, तपस्या और संघर्ष को जीवन के मूल्यों में शामिल करके क्रांतिकारी विचार समाज के सामने रखने लगे। तमाम विभूतियों ने अपने कार्यों और आंदोलनों के द्वारा इतिहास में अपने आप को अमर बना लिया। उन्हीं की बदौलत हम स्वतंत्र हो गए। साथ ही हम धीरे-धीरे हम उन महान् मूल्यों से भी स्वतंत्र हो गए जिनकी बदौलत हमें आज़ादी पाई। जातिवाद और संप्रदायवाद हमारे ख़ून में पहले से ही था। समय बीतने के साथ और तेज़ी से हमारी धमनियों में दौड़ने लगा। ईमानदार लोगों को हमने धीरे-धीरे हाशिए पर रखना शुरू किया। उनके हिम्मत और हौसले को तोड़ना शुरू किया। ऐसे में उस भारत माता को रोना ही था, जिसे हमने कभी उसके चेहरे पर सभी वर्गों और हाशिए पर पड़े लोगों के लिए मुसकान देखा था।
चिरौरी लाल सपनों में जीने वाला आदमी है। अभी भी उसे लगता है कि देश में एक ऐसा बदलाव आएगा कि उसे भी जगह मिलेगी। उसे भी स्वाभिमान से जीने की शक्ति मिलेगी। उसकी हीनता और दीनता दूर होगी। इन्हीं आशाओं के साथ जीते हुए उसने सारे प्रयत्न करके देख लिए हैं। उसे निराशा के अलावा कुछ भी न मिला। आदर्शवाद और ईमानदारी ने इस स्वार्थी समाज में उसे कहीं का नहीं छोड़ा। वह विक्षिप्त हो कर भाग रहा है। शायद भागकर ख़ुद को तनहाई में क़ैद कर लेगा। भारत माँ के भाग्य पर वह भी आँसू बहाएगा। इसी तरह से उसकी ज़िंदगी में एक और 15 अगस्त ख़ामोशी से गुजर जाएगा।
शशि भाई, आज के समाज की आपने जो वास्तविक तस्वीर अपनी लेखनी के माध्यम से हम सबके समक्ष रखी है, वाकई में दुःखी कर देती है। बहुत सुंदर लेखन। 🙏
जी अनिल भैया, आपने विस्तार के साथ गुलाम भारत में यूरोपियन नीति एवं आज़ाद भारत में उनकी नीतियों का अनुसरण कर रहें हम भारतीयों के विषय में अपनी सटीक टिप्पणी के माध्यम से प्रकाश डाला है।
Deleteअंग्रेजों से हमें बहुत कुछ सीखा भी है, किन्तु जो हमारे आदर्श थे , हमारी संस्कृति थी , हमारे संस्कार थे,जिसके लिए इन क्रांति दूतों ने अपना बलिदान दिया, वह अंग्रेजियत की छाया में गुम हो गये।
और आज हम बिल्कुल "अर्थ" के गुलाम हो कर रह गये हैं। ईमानदार व्यक्ति की स्थिति कुछ ऐसी है जैसे कौओं के समूह में कोई कोयल आ फँसी हो। ऐसे में उसका पलायन अथवा मृत्यु तय है..और यही हो रहा है। उसके पास कोई सुरक्षा कवच नहीं है। न वह स्वयं की रक्षा कर पाने में समर्थ है, ना माँ भारती की..। वह निःसहाय है।
उसका वसूल उसे जीने नहीं दे रहा है।🙏
अत्यंत हृदयस्पर्शी रचना
ReplyDeleteसाधुवाद
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
जी आभार, इस उत्साहवर्धन के लिए।🙏🙏
Deleteबहुत हृदयस्पर्शी रचना शशि भाई । माँ भारती का रुदन सुनने का समय कहाँ है इन सफेदपोश लोगों को ..।
ReplyDeleteजी बिल्कुल, कुछ ऐसी ही स्थिति है, आभार।
Deleteनिःशब्द होगई पढ़ कर ये व्यथा किसी की नही स्वयम मां भरती की हैं इसे समझने
ReplyDeleteवाला ह्रदय होना चाहिए जो ह्रदय हीन हो चुका है।
लाज़बाब वेदना है इन पंक्तियों में....
'वक्त गुलशन पर पड़ा तब तो लहू हमने दिया
अब बहार आई तो कहते हो तेरा काम नही'
सारी व्यथा इन शब्दों से प्रवाहित हो रही है।आपकी लेखनी को नमन करती हूँ।
जी इस स्नेहिल प्रतिक्रिया एवं उत्साहवर्धन के लिए आपका आभार, प्रणाम।
Deleteबेहद हृदयस्पर्शी लेखन आदरणीय
ReplyDeleteजी आभार, प्रणाम।
Deleteएक बात कहनी है, अपने देश के पहरेदारों से" नेताओं से,जनता से,फौजों की खड़ी कतारों से।
ReplyDeleteसंभल के रहना अपने घर के छुपे हुए गद्दारों से।
शशि भैया हम गोरे अंग्रेजों से तो आज़ाद हो गए,लेकिन काले अंग्रेजों की गुलामी आज भी कायम है।
आप की रचना निःशब्द है भैया ।
बिल्कुल सही कहा आशीष जी,आपने।
Deleteधन्यवाद।
माँ का रुदन कब किसी ने सुना है सब अनसुनाकर अपने स्वार्थ में लिप्त ही रहते है ,चिरोरीलाल भी तो घबड़ाकर भाग ही गया। सुंदर सृजन सादर नमन आपको
ReplyDeleteजी,सही कहा आपने चिरौरीलाल (कामन मैन) भी निःसहाय है।
Deleteबहुत सुंदर भैया
ReplyDeleteआभार भैया।
Deleteसुंदर
Deleteअति सुन्दर लेखनीय
ReplyDeleteआभार मित्र।
Delete*माता का रुदन : प्रतिक्रिया*
ReplyDelete-- -
*फहराया जाता है तिरंगा पर आचरण होता है तीन-तिकड़म वाला*
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पूंजीवाद, साम्यवाद, समाजवाद के कंधे पर *राष्ट्रवाद* नारों के रूप में वर्तमान दौर में सवार दिखता तो है लेकिन राष्ट्रवादी मूल्य पांव तले सिसक रहे हैं । आजादी का भारतीय चिन्तन बड़ा गहरा है। भारत के जननायक और महानायक के रूप में पूजे जाने वाले मर्यादापुरूषोत्तम श्रीराम रावण के नारी-अस्मिता पर आघात के चलते राजमहल से निकल पड़े थे । न जाने कितनी अप्सराओं की अस्मिता पर डाका डाल चुका था रावण । भगवान श्रीकृष्ण का जेल तोड़कर बाहर निकलने का आशय ही है कि मन की कुप्रवृत्तियों को नष्ट कर सद्विचारों को बाहर लाना । बुद्ध भी राजमहल से निकल पड़े थे।
*आजादी का ममतलब* कहीं से खुद की स्वतंत्रता से नहीं बल्कि मन में *ब्रिटिश हुकूमत जैसी निर्दयता, स्वार्थ और शोषण* से आजाद होने से ही है। मन का ब्रिटिश रूप होने लगे तो स्वयं ही मन आंदोलित होना चाहिए । उसे उखाड़ फेकने की संकल्प-शक्ति को जागृत करने में लग जाना चाहिए । मन *जनरल डायर* भी बनता है तो *अहिंसा के पुजारी के रूप महात्मा गांधी* भी ।
अफसोस है कि अब फहराया जाता है तिरंगा लेकिन आचरण होता है तीन-तिकड़म वाला।
*सलिल पांडेय, मिर्जापुर।*
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माँ का रुदन लेख बहुत ही बढ़िया है । इससे सबक लेनी चाहिए ।
राधेश्याम विमल पत्रकार मिर्ज़ापुर ।
🙏👍
ReplyDeleteशशि जी आपने मां के रुदन के माध्यम से आज देश के आम जनमानस के दर्द को
शब्दों के माध्यम से क्रांति का बिगुल बजाने का सशक्त प्रयास किया है उसके लिए बहुत बहुत आभार आपका।
-ज्ञान प्रकाश गौड़, साहित्यकार।
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भारत माता का रुदन सुनना सब के बस की बात नहीं, आज की सबसे गम्भीर समस्या बेरोजगारी है, बहुत ही सही बात लिखी है बड़े भाई ।👌👌
राजीव शुक्ला
ReplyDeleteआपका यह लेख राष्ट्र को जगाने वाला है🙏✍ आपके इस लेख के लिए आपको बारंबार मेरा प्रणाम शशि भैया🙏💐🇮🇳✍👌👌👌👌🙏
-जादूगर रतन कुमार
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"कलम के पुजारी अगर सो गए तो वतन के पुजारी वतन बेच देंगे"--- शायद बर्षो पहले कही गयी ये कविता अक्षरतः सत्य साबित हो रही है , गरीबो और देशसेवा का जज्बा लिए नेताजी कब खुद इतने अमीर हो गए कि अब उनके कानों में गरीबो की चीत्कारें सुनाई नही देती , कहने को आजाद भारत माता के अभी भी कई बच्चे भूखे पेट सोने को बिबस है क्योंकि उनके हिस्से के भोजन को बेच कर नेता जी ने अपना महल खड़ा कर लिया अब तो उनको अपनी अंतरात्मा की आवाज ही सुनाई नही देती तो भारत माता की आवाज क्या सुनाई देगी । भारत माता पहले गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी थी अब अपने ही पुत्रो के अत्याचार से रो रहे असहाय गरीबो के आँसुओ से जकड़ी है ।
-अखिलेश कुमार मिश्र 'बागी'
आज की मनोदशा पर रेखांकित करता हुआ शशि जी का यह आलेख निश्चित तौर पर पठनीय ही नहीं बल्कि विचारणीय भी है।
-संतोष देव गिरी, पत्रकार।